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समाधानः- ... परन्तु वह तो वहीका वही है, अन्य नहीं है। जो स्वयंकी स्वप्रकाशनकी दशामें और परप्रकाशनकी दशामें, दोनोंमें एक ही है, अन्य कोई ज्ञायक नहीं है। ज्ञायक जो है वही है। जो ज्ञायक स्वानुभूतिमें ज्ञात हुआ वह ज्ञायक, और जो ज्ञायक, बाहर उपयोग जाय तो भी ज्ञायक, वह दोनों ज्ञायक तो एक ही है। अन्य ज्ञायक नहीं है, ज्ञायक तो वहीका वही है। कोई भी दशामें ज्ञायक वहीका वही है। कोई भी दशा, प्रमत्त-अप्रमत्तकी दशा हो, चौथे गुणस्थानकी दशा हो, पाँचवे गुणस्थानकी दशा हो, कोई भी हो, तो ज्ञायक पर जो दृष्टि है, ज्ञायककी जो धारा है, ज्ञायक शाश्वत जो अनादिका है, वह ज्ञायक तो वहीका वही है, अन्य ज्ञायक नहीं है। ज्ञायक वहीका वही है। स्व-पर प्रकाशनकी दशामें ज्ञायक (वही है)। अपनी ओर स्वानुभूतिके कालमें अथवा बाहर उपयोग हो तब भी ज्ञायक तो वही है, ज्ञायक कोई अन्य नहीं है। ज्ञायक अन्य नहीं है। ज्ञायक वहीका वही है।
मुमुक्षुः- वह ज्ञायक यानी ध्रुव ज्ञायक लेना या पर्यायमें जो ज्ञायकता प्रगट हुई वह लेना?
समाधानः- जो प्रगट हुआ वह ज्ञायक और अनादिका ज्ञायक, दोनों अपेक्षा उसमें है। उसे अनादिका ज्ञायक है, परन्तु उसका वेदन उसको कहाँ है? इसे वेदनपूर्वकका ज्ञायक है। अनादिका तो है ही, परन्तु यह प्रगट हुआ ज्ञायक है। अपने स्वरूपमेंसे कहीं बाहर नहीं आता है, ज्ञायक वह ज्ञायक ही है। दीपक स्वयं अपनी... दीपकको प्रकाशित करे या परको प्रकाशित करे, दीपक दीपक ही है। (वैस) ज्ञायक ज्ञायक ही है। ज्ञायक सो ज्ञायक ही है।
... पर दृष्टि नहीं है, परन्तु ज्ञायक पर दृष्टि है। ज्ञायक तो ज्ञायक ही है, बस! हमें ज्ञायक प्राप्त हो। ज्ञायककी परिपूर्णता प्राप्त हो। पर्याय पर लक्ष्य नहीं है। "जो ज्ञात वो तो वोही है।' ज्ञायक सदाके लिये ज्ञायक वह ज्ञायक ही है।
मुमुक्षुः- आत्माके और पर्यायके प्रदेश भिन्न मानता है। रागके जो प्रदेश है, यदि रागके प्रदेशको भिन्न नहीं माने तो राग चला जाय तो आत्मा भी चला जाय। उसके प्रदेश चले जाय तो आत्माका भी चले जाय। तो भावभेदसे आत्माके प्रदेश भिन्न
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है या वास्तवमें आत्मा द्रव्य और पर्यायके प्रदेश भिन्न-भिन्न हैं?
समाधानः- भावभेदसे भिन्न है।
मुमुक्षुः- गुरुदेव तो ऐसा कहते थे, ऐसा बहुत लोग कहते हैं।
समाधानः- पर्याय स्वयं स्वतंत्र है और द्रव्य स्वतंत्र है। दोनोंकी स्वतंत्रता दर्शाने हेतु उसके प्रदेश (भिन्न कहनेमें आते हैं)। पर्यायका और द्रव्यका स्वरूप भिन्न है। इसलिये उसके प्रदेश भिन्न है। परन्तु यदि चैतन्यकी विभावपर्याय जड ही करता हो तो उसे छोडना रहता नहीं, उसे कुछ पुरुषार्थ करना नहीं रहता है। विभावपर्याय होती है अपने पुरुषार्थकी मन्दतासे और वह निज स्वभाव नहीं है। स्वभाव नहीं है, जिसका स्वभाव भिन्न उसका क्षेत्र भिन्न, वह वस्तु भिन्न आदि सब उसके भाव अपेक्षासे भिन्न कहनेमें आता है।
परन्तु जैसे दो द्रव्य स्वतंत्र हैं, एक चैतन्यद्रव्य, दूसरा जडद्रव्य, वह दोनों स्वतंत्र हैं, वैसे ही द्रव्य और पर्याय वैसे ही स्वतंत्र हो तो पर्याय स्वयं ही द्रव्य हो जाय। तो वह दो द्रव्य भिन्न हो जाय। परन्तु दो द्रव्य भिन्न हैं, उसी अपेक्षासे द्रव्य और पर्याय उसी अपेक्षासे भिन्न हैं, ऐसा नहीं है।
द्रव्य स्वयं शाश्वत त्रिकाल है और अनन्त गुणसे भरा द्रव्य है और पर्याय क्षणिक है एवं एक अंश है। और द्रव्य सत, गुण सत, पर्याय (सत)। पर्याय भी एक सत है। उसे सत बतानेके लिये और वह भी एक सत स्वरूप है, वह दर्शाने हेतु उसके प्रदेश भिन्न कहनेमें आते हैैं। परन्तु वास्तवमें जैसा आत्माका क्षेत्र भिन्न है और जैसा क्षेत्र पुदगलका भिन्न है, वैसा ही उसका क्षेत्र भिन्न हो तो दो द्रव्य हो जाय। पर्याय है वह द्रव्यके आश्रयसे होती है। पर्याय अकेली स्वतंत्र ऊपर-ऊपर नहीं होती है। इसलिये पर्यायको द्रव्यका आश्रय होता है। उस अपेक्षासे दो द्रव्य भिन्न हैं, वैसी ही पर्याय स्वतंत्र नहीं है। परन्तु अमुक अपेक्षासे उसकी पर्याय सत है ऐसा बतानेके लिये, उसका भाव भिन्न है, इसलिये क्षेत्र भिन्न, इसलिये वस्तु भिन्न है, ऐसा कहनेमें आता है।
मुमुक्षुः- ज्ञान भिन्न, राग भिन्न। रागका प्रदेश निर्मल पर्यायके न माने, लेकिन रागका प्रदेश भिन्न माननेमें कोई दिक्कत आती है?
समाधानः- रागका प्रदेश भले ही भिन्न माने। उसमें कोई दिक्कत नहीं आती। परन्तु वह अपने पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है। ज्ञानकी निर्मल पर्याय है उसका तो वेदन होता है और निज स्वभावरूप परिणति है। और ये तो विभावरूप परिणति है। इसलिये उसके प्रदेशभेद माननेमें दिक्कत नहीं आती, परन्तु वह अपने पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है, उसका लक्ष्य होना चाहिये। वह बिलकूल जडके ही हैं, तो स्वयंको पुरुषार्थ करना नहीं रहता है।
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मुमुक्षुः- भावभेद मानो तो ही उसका फैंसला होगा।
समाधानः- हाँ, तो ही फैंसला होता है। वह है, वह उसकी पर्याय सत है ऐसा बतानेके लिये है। परन्तु उसके ज्ञानमें ऐसा है कि ये भिन्न है-भिन्न है, भावभेद तो वैसे ही रहता है कि यह भिन्न है, यह भिन्न है। भेदज्ञान करनेवालेको ऐसा ही होता है कि ये राग भिन्न है और ज्ञान भिन्न है। राग भिन्न और ज्ञान भिन्न है। यह मैं ज्ञान हूँ और यह राग है। भावभेदसे भेद होनेके कारण वह भिन्न ही है। परन्तु अस्थिरता है वह उसके ज्ञानमें रहता है, वह मेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है। वह चैतन्यकी पर्यायमें होता है। परन्तु मेरा स्वभाव नहीं है।
मुमुक्षुः- बराबर बैठता है। प्रदेश दोनोंके भिन्न माननेमें तो आये तो दो द्रव्य हो जाय।
समाधानः- दो द्रव्य ही भिन्न हो जाते हैं।
मुमुक्षुः- व्यवस्था टूट जाय।
समाधानः- सब व्यवस्था टूट जाय। उसका वेदन चैतन्यको हो ही नहीं तो विभावका वेदन... स्वभावपर्यायकी तो एक अलग बात है कि वह स्वभावकी पर्याय है। परन्तु ये विभाव है, उसका भले क्षेत्रभेद हो, क्योंकि वह निमित्त-ओरसे होता है। परन्तु पुरुषार्थकी मन्दतासे अपनी परिणति होती है, उतना उसे लक्ष्यमें रखना चाहिये। नहीं तो पुरुषार्थ करना ही नहीं रहता है।
मुमुक्षुः- अभी मेरी एक जगह बात हुयी, सत्संगमें चर्चा हुयी तो उसमें ऐसी बात आयी, उस भाईने ऐसे बात कही कि, आज तक जो कुछ किया है, उस पर रेखा नहीं खीँची जाय, चौकडी मारनेमें नहीं आये तो निश्चय प्रगट नहीं होता। अर्थात मन्द कषाय करते.. करते.. करते... धर्म प्रगट हो जायगा, या धारणा ज्ञान मजबूत करते-करते निश्चय प्रगट हो जायगा, ऐसा तीन कालमें बने नहीं। तो आपने एक बार कहा था कि, धारणा ज्ञान भी मजबूत हो तो दूसरे भवमें संस्कारूपमें काम आयेगा। तो वह आश्वासनरूप है या हकीकतरूप है?
समाधानः- नहीं, नहीं। धारणाज्ञान यानी वह धोखनेरूप ज्ञान समझना कि यह अजीव है, अजीव है, ऐसे। धारणाज्ञान यानी वैसा ज्ञान। धारणाज्ञान या कषाय मन्द करेंगे तो धर्म होगा, मन्दता उसका साधन है, ऐसी मान्यतासे उसे नुकसान है। वह उसे साधन नहीं होता। धारणाज्ञान उसे वास्तविक साधन नहीं होता। उसका वास्तविक साधन धारणाज्ञान नहीं, परन्तु अंतरमें स्वयं दृष्टि करे, अपना ज्ञान स्वयंका साधन होता है, परन्तु बीचमें वह आता है।
धारणाज्ञान यानी रटा हुआ ज्ञान ऐसा नहीं। परन्तु मैं यह चैतन्य हूँ, यह स्वभाव
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भिन्न है, यह विभाव भिन्न है। ज्ञानने स्वयंने बुद्धिसे जो नक्की किया है, वह नक्की किया है उसका अभ्यास करता है। धारणाज्ञान, बहुत लोग शास्त्र धोख लेते हैं, ऐसा धारणाज्ञान काम नहीं आता। बीचमें उसे जानपना है उतना उसे कुछ निमित्त बने, बाकी (कोई कार्यकारी नहीं है)।
परन्तु यह जो स्वयं अभ्यासपूर्वक करता है, वह उसे वास्तविक साधन तो नहीं है। वास्तविक साधन तो उसका जो स्वभाव है वही उसे साधन होता है। परन्तु वह बीचमें आता है। उसे व्यवहारसे साधन कहनेमें आता है। व्यवहार साधन। व्यवहार साधन न कहे तो फिर... पहलेसे तो वह अंतरमें जा नहीं सकता है, इसलिये मुमुक्षुको क्या करना रहता है? यथार्थ रुचि और मैं चैतन्य हूँ, ऐसी भावना करे वह तो बीचमें आये बिना नहीं रहता।
मुमुक्षुः- आये बिना रहता नहीं, वह बात तो बराबर है लेकिन उसे साधन मानने जाय तो ...
समाधानः- नहीं, वास्तविक साधन है ऐसा नहीं। मूल साधन तो द्रव्य स्वभावमेंसे पुरुषार्थ उठकर, अंतरमेंसे जो उठे वह वास्तविक साधन होता है। परन्तु वह बीचमें आता है, व्यवहार साधन कहनेमें आता है।
जैसे अनादि कालसे गुरुका उपदेश और जिनेन्द्रका उपदेश उसे निमित्तरूपसे देशनालब्धि होती है, तो वह भी उसे एक साधन निमित्तरूपसे कहनेमें आता है। उपादान होता है अपनेसे, परन्तु अनादि कालसे ऐसा सम्बन्ध है कि बीचमें गुरुका उपदेश और जिनेन्द्रका उपदेश, अनादि कालका अनभ्यासी (जीव है), जिसे कुछ प्रगट नहीं हुआ, उसे एक बार ऐसी देशना मिलती है, अन्दरसे देशना लब्धि ग्रहण होती है स्वयंसे, उपादान स्वयंका है परन्तु उसमें निमित्त जिनेन्द्र देव और गुरुका बनता है, ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। वैसे जो स्वयं रुचि करता है, मात्र धारणाज्ञान (करता है), उसे रुचि ही नहीं है, ऐसा धारणाज्ञान धोख लिया है, वह नहीं। परन्तु वह बुद्धिसे नक्की करता है कि मैं यह ज्ञान हूँ, दर्शन हूँ, चारित्र हूँ ऐसे जो भेदके विकल्प आते हैं, वह विकल्प तो बीचमें आये बिना नहीं रहते। परन्तु वह विकल्प उसे वास्तविक साधन होता है या भेद उसे वास्तविकरूपसे साधन होता है, ऐसा नहीं है।
साधन तो अपनी परिणति जो अंतरमेंसे उछलती है वही उसका साधन है। परन्तु वह बीचमें आता है। वह बीचमें आये बिना नहीं रहता। जैसे निमित्त-उपादानका सम्बन्ध गुरु एवं स्वयंकी देशनालब्धिका है, वैसे ही यह ज्ञान हूँ, दर्शन हूँ, चारित्र हूँ, साधनामें ऐसे भेदविकल्प आये बिना नहीं रहते।
जो स्वानुभूति करे उसे जो द्रव्य पर दृष्टि है, उसे भी ऐसे भेद विकल्प बीचमें
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तो होते हैं। परन्तु उस पर वह रुकता नहीं। उसकी दृष्टि द्रव्य पर है। वैसे रुचिवाला है, उसको विकल्प सब आते हैं, परन्तु वह उसमें रुकता नहीं। वास्तविक साधन तो मैं द्रव्य पर दृष्टि करके जो अंतरमेंसे मेरी परिणति प्रगट हो, वही मेरा वास्तविक साधन है। परन्तु बीचमें उसे रुचिके साथ ये सब-मैं चैतन्य हूँ, मैं ज्ञान हूँ ऐसा अभ्यास आये बिना रहता नहीं। वह बीचमें अमुक प्रकारसे आता है।
जैसे गुरुका उपदेश बीचमें होता ही है, वैसे ये अमुक जातके विकल्प शुभ हैं, वह बीचमें आते हैं। मैं ज्ञान हूँ, दर्शन हूँ, चारित्र हूँ, वह सब भेदविकल्प है। लेकिन उसकी दृष्टि, मैं तो अनन्त गुणका पिण्ड चैतन्य जो अस्तित्व (है), जो चैतन्य हूँ सो हूँ अस्तिरूप, उसमें विकल्प साधन नहीं होता। उसे विकल्प तोडनेमें विकल्प साधन नहीं होता। निर्विकल्पका साधन विकल्प नहीं होता। निर्विकल्प दशाका साधन स्वयं अपनी परिणति निर्विकल्परूप परिणमे, वह साधन है। परन्तु यह बीचमें आये बिना नहीं रहता। परन्तु उसे ज्ञानमें ऐसा होना चाहिये कि यह व्यवहार है, यह वास्तविक नहीं है। उसके ज्ञानमें ऐसा होना चाहिये। उसे सर्वस्वता नहीं मान लेनी कि ऐसा करते-करते होगा। परन्तु उसकी दृष्टि अस्तित्व ग्रहण करने पर होनी चाहिये कि मैं मेरा अस्तित्व कैसे ग्रहण करुं? दृष्टि उस ओर होनी चाहिये। परन्तु स्वभावकी खोज करनी कि यह ज्ञान है, दर्शन है, ऐसे खोज करनेके विचार उसे आये बिना नहीं रहते।
मुमुक्षुः- आये बिना नहीं रहता यह बराबर है, लेकिन उसकी रुचि हो जाय तो निश्चय प्रगट नहीं होता न? क्योंकि व्यवहार है वह असत्यार्थ है, अभूतार्थ है।
समाधानः- उसकी रुचि यानी उसीमें अटक जाना ऐसा तो होना ही नहीं चाहिये। दृष्टि तो आगे बढनेकी होनी चाहिये। उसमें अटक जाना ऐसा नहीं होना चाहिये। परन्तु वह तो बीचमें आता है। आचार्यदेव कहते हैं, हम आपको तीसरी भूमिकामें जो अमृतकुंभ भूमिकामें जानेको कहते हैं, वहाँ नीचे-नीचे मत गिरो। जो शुद्ध भूमिकामें जानेको कहते हैं, उसमें शुभ छोडकर अशुभमें जानेको नहीं कहते हैं। परन्तु शुद्धकी भूमिकामें जानेको कहते हैैं। उसमें बीचमें यह शुभ तो आता है, परन्तु वह सर्वस्व है ऐसा नहीं मानना। शुद्ध भूमिका-अमृतकुंभ भूमिका कैसे प्रगट हो, दृष्टि वहाँ होनी चाहिये। रुचि तो वहाँ होनी चाहिये। परन्तु रुचि वहाँ है। बीचमें ये सब जो व्यवहार है वह आये बिना नहीं रहता।
मुमुक्षुः- एक अंतिम प्रश्न पूछता हूँ कि निर्विकल्प और सविकल्प। तो ज्ञानीको निर्विकल्पपना कितने समयमें आता है? क्षयोपशमवालेको आना जरूरी है। क्षायिक समकितीको लडाईके मैदानमें जाय और साठ हजार वर्ष तक वापस न आये तो उसमें
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बीचमें निर्विकल्प दशा आती है? अथवा कितना समय नहीं आये तो वह टिक सके?
समाधानः- उसकी अमुक जातकी दशा होती है उस अनुसार आती है। किसीको जल्दी आये, किसीको लंबे समय बाद आये। उसका निश्चित नहीं होता। किसीकी परिणति एकदम स्व-ओर मुडी हुई हो तो जल्दी आती है, किसीकी परिणति अमुक कायामें रुका रहे तो उसे अमुक कालके बाद आती है।
मुमुक्षुः- उसकी कोई हद है? कोई लिमिट है कि दो-चार-छः महिनेमें जैसे कषाय पलटा नहीं खाये.. छः महिनेमें निर्विकल्पता नहीं आये तो ज्ञानसे च्युत हो जाय?
समाधानः- अमुक समयमें आना तो चाहिये ही, ऐसा नियम तो है।
मुमुक्षुः- ऐसा पूछना चाहते हैं कि, पाँच-दस साल तक न आये, ऐसा हो सकता है?
समाधानः- नहीं, ऐसा नहीं होता। पाँच-दस साल तक नहीं आये ऐसा नहीं होता।
मुमुक्षुः- क्षायिक समकिती जो लडाईके मैदानमें जाते होंगे तो उन्हें निर्विकल्पता लडाईके मैदानमें आये?
समाधानः- उसे पाँच-दस साल निकल जाय, पाँच साल (निकल जाय) ऐसा नहीं बनता। लडाईके मैदानमें परिणति पलट जाय तो आये भी। न आये ऐसा नहीं बनता। एक श्रावकका आता है न? लडाईमें बैठे-बैठे विचार पलट गये तो मुनिपना ले लूँ, ऐसा विचार आया। लोंच करता है उस वक्त। ऐसा हो जाता है। लडाईके मैदानमें भी अंतर्मुहूर्तमें भाव पलट सकता है।
मुमुक्षुः- और लडाई कहाँ चौबीस घण्टे चलती है।
समाधानः- चौबीस घण्टे लडाई थोडे ही चलती है। दो राजके कुँवर घोडे पर बैठे थे और उन्हें विचार आ गया कि ये क्या लडाईके कार्य? मुनिपनाकी भावना होती है, अंतरमेंसे एकदम परिवर्तन हो जाता है। आये ही नहीं ऐसा नहीं होता।
वैसे स्वानुभूति न आये ऐसा नहीं होता। शास्त्रमें उसका नियमित काल आता नहीं, परन्तु पाँच साल जितने वर्ष नहीं निकल जाते। उसे अमुक महिनोंमें, अमुक समयमें ही आती है, उतना लम्बा काल नहीं लगता। कितनोंको तो बहुत जल्दी आती है। गृहस्थाश्रममें रहनेवाले हो तो भी उसे इतना लम्बा काल नहीं चला जाता।
मुमुक्षुः- मेरी चर्चा यह है कि क्षयोपशम समकितीमें तारतम्यताके भेद पडते हैं, इसलिये उसमें तो आना जरूरी है। परन्तु क्षायिक समकितीको देर भी लगे, उसमें कोई नियम नहीं है।
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समाधानः- नहीं, नहीं। क्षायिकवालेको देरसे नहीं आती, क्षायिकवालेको जल्दी आती है। क्षयोपशमवालेको जल्दी आये और क्षायिकवालेको देर लगे, ऐसा नहीं बनता।
मुमुक्षुः- ऐसे कोई परिग्रहमें पड गया हो तो देर भी लगे।
समाधानः- नहीं, नहीं। क्षायिकवालेको देर नहीं लगती। भले बाहरसे चाहे जितना परिग्रह हो। क्षायिकवालेकी परिणति तो ज्यादा दृढ है। उसे देर नहीं लगती।
मुमुक्षुः- सुरतमें कुछ चर्चा हुयी थी।
समाधानः- क्षायिकवालेको देर नहीं लगती।
मुमुक्षुः- सुरतमें नहीं, पालनपुरमें जो नगीनभाई है उन्होंने मुझे ऐसे समझाया।
समाधानः- नहीं, नहीं। क्षयोपशमवालेको जल्दी आये और क्षायिकवालेके देर लगे ऐसा नहीं होता।
मुमुक्षुः- नहीं, क्षायिकवालेको जल्दी हो, परन्तु कोई क्षायिकवाला लडाईके मैदानमें गया हो तो देर भी लगे, ऐसा हो सकता है।
समाधानः- नहीं, नहीं। क्षायिकवालेको देरसे नहीं होती।
मुमुक्षुः- समकित होनेका मूल कारण अपना उपादान और व्यवहारसे ज्ञानीके प्रति अर्पणबुद्धि नहीं आयी है, ऐसा हो सकता है? दूसरे सब व्यवहारका छेद करे तो?
समाधानः- मूल कारण अन्दर आत्मस्वभावकी ओर रुचिका पलटा करे। तो जिसे आत्माकी रुचि होती है उसे, जिन्होंने प्रगट किया ऐसे गुरु पर, देव-गुरु-शास्त्र पर उसे अर्पणता आये बिना नहीं रहती। उसे उनकी महिमा आये बिना नहीं रहती। जो अंतरमें जाय, उसे सच्चे देव-गुरु पर महिमा आती ही है। ऐसा निमित्त-नैमित्तिक (सम्बन्ध है)। देशनालब्धिका जैसा सम्बन्ध है, वैसे अंतरमें जो रुचिवाला है उसे सच्चे देव- गुरु-शास्त्र हृदयमें आये बिना नहीं रहते। फिर बाह्य कार्य क्या भजे, उसे कितना सान्निध्य मिल वह एक अलग बात है, परन्तु उसके हृदयमें आ जाते हैं। ... रुचि भले अपनी ओर जाती है, परन्तु उसके जो साधन हैं, जिन्होंने वह प्रगट किया है, उसकी महिमा उसके हृदयमें आये बिना नहीं रहती।
मुमुक्षुः- मुख्यमें मुख्य साधन ज्ञानीके प्रति अर्पणबुद्धि आनी, उसमें सब समा जाता है?
समाधानः- मुख्यमें मुख्य साधन ज्ञानी पर अर्पणातबुद्धि परन्तु... अर्पणबुद्धि निज चैतन्यकी महिमापूर्वक होनी चाहिये। मुझे चैतन्य प्रगट हो, ऐसी उसकी बुद्धि होनी चाहिये। ऐसा होना चाहिये। अकेली अर्पणतामें सर्वस्व मान ले और इसमेंसे ही मुझे सब होगा, ऐसी दृष्टि नहीं होनी चाहिये। आत्मा-ओरकी रुचि, सर्व विभावसे मुझे न्यारापन हो,
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आत्माकी रुचि तो होनी चाहिये। उसके साथ अर्पणता होनी चाहिये। मुख्य साधन अर्पणता, तत्त्व विचार वह सब साधन हैं। अंतरकी विरक्ति, अन्दर विभावसे, बाह्य संयोगसे विरक्ति, विभाव-ओरसे विरक्ति। ये विभाव नहीं चाहिये। विभावकी विरक्ति चाहिये। तत्त्वका विचार चाहिये, स्वभाव कैसे ग्रहण हो? और स्वभाव जिसने ग्रहण किया ऐसे देव-गुरु-शास्त्रकी ओरसे मुझे मार्ग मिले। अतः देव-गुरु-शास्त्रकी अर्पणता आये। सब साथमें होता है।
मुमुक्षुः- ज्ञानीकी ओर अर्पणता किये बिना ज्ञान होता नहीं, ऐसा श्रीमदमें आता है न?
समाधानः- ज्ञानीकी ओर अर्पणता किये बिना...?
मुमुक्षुः- ज्ञान होता नहीं।
समाधानः- वह सत्य है। परन्तु वह ऐसा माने कि बाहरका मुझे क्या काम है? मैं अपनेआप समझ लूँगा। यदि ऐसी दृष्टि हो तो उसे ज्ञान परिणमता नहीं। ज्ञानी क्या कहते हैं? ज्ञानिओंने क्या मार्ग बताया है? उसका आशय समझनेके लिये उतनी महिमा होनी चाहिये। मैं मेरेसे समझूँ और निमित्तका क्या काम है? ऐसी दृष्टि उसकी हो तो वह जूठा है, तो स्वच्छन्दबुद्धि है। मुझसे समझना है। ज्ञानी क्या कहते हैं? जिन्होंने मार्ग प्राप्त किया वे क्या कहते हैं? ऐसी बुद्धि होनी चाहिये। स्वयं अपनेसे समझता नहीं है तो जिन्होंने मार्ग समझा है, उन पर उसे अर्पणता आये बिना नहीं रहती।
मुमुक्षुः- आपकी वाणी सुनते हैं तो इतनी मुधर लगती है कि सुनते ही रहें। कितनी बार तो विरह लगता है, आहा..! ऐसी बात कहाँ सुनने मिलती है।
मुमुक्षुः- आज तो माताजीने बहुत धोध बहाया। समाधानः- ... निर्विकल्प दशा अमुक हो, और क्षायिकवालेको वैसे हो, ऐसा नियम नहीं होता।