Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 165.

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ट्रेक-१६५ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- .. मुक्तिका पात्र..

समाधानः- भविष्यमें मुक्तिका पात्र होता है। भविष्य कितना लेना वह अपनी योग्यता पर (आधारित है)। ... पुरुषार्थ प्रगट हो। करनेवालेको तो ऐसा ही होता है कि मैं पुरुषार्थ करुँ। आधार नहीं है, स्वयंको भावना होती है।

मुमुक्षुः- ... ज्ञायकको जैसा है वैसा समझकर आत्म सन्मुख जितना अभ्यास बढे, उतना समीप आये ऐसा कुछ?

समाधानः- ज्ञायकका अभ्यास करे तो समीपता होती है। विशेष-विशेष ज्ञायकका अभ्यास करे तो समीपता होती है। परन्तु उसमें मन्दता रहे तो देर लगती है, तीव्रता हो तो जल्दी हो। लेकिन समीप होता है। ज्ञायकका अभ्यास करनेसे समीप होता है। ... मैं यह नहीं हूँ, द्रव्यदृष्टि... चैतन्य पर दृष्टि करनेका प्रयत्न करे। मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा प्रयत्न बारंबार करे तो समीप होता है। परन्तु उसमें मन्दता-मन्दता रहा करे तो दर लगे, उसमें तीव्रता हो तो जल्दी हो।

मुमुक्षुः- ज्ञायककी रुचि बढे वैसे ज्ञानमें सूक्ष्मता आती जाती है?

समाधानः- ज्ञायककी रुचि बढ तो ज्ञानकी सूक्ष्मता होती है। ज्ञायकको ग्रहण करनेकी सूक्ष्मता होती है, परन्तु उसमें दूसरा ज्ञान ज्यादा होता है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है।

मुमुक्षुः- ... वह प्रकार उसे बराबर सहज ही यथार्थ आये। रुचि बढने पर ...का प्रकार भी सहज ही यथार्थ आये।

समाधानः- किसका प्रकार? .. यथार्थ आये। ज्ञायककी रुचि यथार्थ हो तो उसका विवेक भी यथार्थ ही होता है। स्व-परका विवेक करे। यथार्थ ज्ञान, यथार्थ मार्ग ग्रहण हो, सब यथार्थ हो। जिसकी रुचि यथार्थ, उसका सब यथार्थ होता है। स्वभावसे पूर्ण है, यथार्थ ज्ञान.. यथार्थ रुचि हो उसमें ज्ञान भी यथार्थ होता है।

मुमुक्षुः- निमित्तका भी विवेक रहे?

समाधानः- हाँ, उसका भी विवेक आता है। निमित्त-ओरका विवेक, स्वभावका ग्रहण आदि सब आता है। निश्चय-व्यवहारकी संधि जैसी है वैसी आये।


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मुमुक्षुः- विवेकमें भी ऐसा कोई प्रकार होगा कि उसमें कोई बार विपरीतता भी आये और कोई बार यथार्थता हो, ऐसा होता है? ... सब बाबतमें विवेक यथार्थ ही आये कि कोई बार विवेक...

समाधानः- रुचिवालेको ना?

मुमुक्षुः- जी हाँ, रुचिवालेको।

समाधानः- रुचिवालेको ऐसा नियम नहीं होता। सम्यक धारा हो, ज्ञान सम्यकज्ञान हो उसे तो यथार्थ होता है। रुचिवालेको उसकी रुचिमें कुछ मन्दता आ जाय तो अलग हो जाय। रुचि यथार्थ रहा करे तो यथार्थ आता है। उसमें रुचिमें फेरफार हो तो फेरफार होता है।

मुमुक्षुः- जीव अभवी है या भव्य है, उसका अपनेको ख्याल आये?

समाधानः- ख्याल आये। अपनी जिज्ञासा अंतरमें...

मुमुक्षुः- ...

समाधानः- जिसे गहराईसे आत्माकी परिणति अपनी ओर जाती हो, स्वयंको आत्माकी ही रुचि लगे तो वह अभवि नहीं होता।

मुमुक्षुः- ... रुचि ज्यादा होती है इसलिये ऐसी शंका भी नहीं होती न?

समाधानः- नहीं। रुचि अपनी ओर जिसे आत्माकी हो, वह अभवि नहीं होता।

मुमुक्षुः- पुरुषार्थ ज्यादा हो तो ऐसा नहीं होता।

समाधानः- जिसे आत्माकी ओर रुचि हो वह अभवि नहीं होता। गुरुदेवने इतना समझाया कि शुभाशुभ भाव भी उसका स्वभाव नहीं है। वह जिसे अंतरसे बैठे और आत्माकी रुचि जिसे लगे वह अभवि नहीं होता।

मुमुक्षुः- बहुत बार .. बैठा होता है, परन्तु कहते हैं न? अनन्त बार जाकर आया, परन्तु रुचि नहीं थी...

समाधानः- लेकिन उसने अंतरसे भगवानको नहीं पहिचाने हैं। इसलिये वापस आता है। भगवानको बाहरसे पहिचाना। भगवान समवसरणमें बैठे हैं, भगवानको अष्ट प्रातिहार्य हैं, भगवान सिंहासनमें बैठे हैं, भगवानको छत्र और चँवर (होते हैं)। भगवानका शरीर शान्त है, ऐसा सब देखा। लेकिन अंतरमें भगवान क्या कहते हैं, वह नहीं पहिचाना। इसलिये वापस आया। भगवानका स्वरूप नहीं पहिचाना है। उनके आत्माका क्या स्वरूप है, उसे नहीं पहिचाना है, इसलिये वापस आता हैै।

मुमुक्षुः- अन्दरसे आत्मा जागृत हुआ हो और रुचि हो तो..?

समाधानः- नहीं, वह अभवि नहीं होता। अभवि जगतमें बहुत कम हैं। अनन्त भवि और एक अभवि। अनन्त भवि और एक अभवि। ऐसे अभवि अनन्त हैं, फिर


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भी भविसे अभवि कम हैं। जैसे मुँगका दाना होता है, वह मुँग सीझते हैं, उसमें कुछ मुँगमें नमी नहीं होती, वैसे अभवि कम होते हैं। परन्तु जिसे आत्माकी रुचि लगे वह अभवि नहीं होते।

मुमुक्षुः- अस्तित्वका स्वीकार ...?

समाधानः- आत्माके अस्तित्वका स्वीकार... शुभाशुभ भाव परसे जिसकी रुचि उठ जाय, जिसे अंतरमें विभावभावकी रुचि नहीं होती। आत्मा-ओरकी रुचि होती है। आत्माकी अपूर्वता लगे, आत्मा ही सर्वस्व है ऐसा लगे तो वह अभवि नहीं होता।

गुरुदेवने कहा उसकी अपूर्वता अंतरमें लगे और आत्मा कोई अलग गुरुदेवने बताया, वह आत्मा अलग है और उस ओरका पुरुषार्थ, उस ओरकी रुचि, कोई शुभाशुभ भावमें जिसे रुचि नहीं लगती, वह अभवि नहीं होता।

मुमुक्षुः- दिनमें स्वाध्याय कितने घण्टे करना चाहिये?

समाधानः- अपनी रुचि अनुसार, स्वयंको समय मिले उस अनुसार। जितना समय मिले उतना। नहीं तो अंतरमें स्वयंमें विचार करना। कुछ समय स्वाध्यायका मिले तो अच्छी बात है।

मुमुक्षुः- दिनमें चार-पाँच घण्टे अपने लिये निकाल ले तो?

समाधानः- तो ज्यादा अच्छी बात है। चार-पाँच घण्टे अपने लिये निकाल ले, स्वाध्यायके लिये तो अच्छी बात है। करनेका तो वही है न जीवनमें। संसारमें तो सब चलता रहता है। विचार, वांचन सब। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, अंतर आत्माकी महिमा, रुचि...

मुमुक्षुः- जीव कहीं भी बैठा हो, लेकिन अपने आत्माकी ओर ... मोड देना।

समाधानः- हाँ। आत्मा-ओरकी रुचि हो तो वह अभवि नहीं होता।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- रुचि और जोश हो तो वह स्वयं कर सकता है।

मुमुक्षुः- यहींका झुकाव और यहींका..

समाधानः- भावना रहे कि देव-गुरु-शास्त्रका सान्निध्य मिले, ऐसी भावना रहे। परन्तु न मिले तो क्षेत्रसे दूर हो तो वह अंतरमें अपना पुरुषार्थ करनेमें कोई रोक नहीं सकता, कोई बाह्य क्षेत्र। बाह्य संयोग अच्छे हो, सत्संग आदि हो तो ज्यादा अच्छा है। लेकिन वह नहीं हो तो स्वयं अपना कर सकता है। पुरुषार्थ, अपना पुरुषार्थ तीव्र चाहिये।

मुमुक्षुः- गुण, पर्याय स्वतंत्र है, ऐसा बोलते हैं। गुणोंका समूह द्रव्य है। तो वह कैसे स्वतंत्र हैं?


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समाधानः- द्रव्य, गुण, पर्याय स्वतंत्र हैं। लेकिन दो द्रव्य स्वतंत्र है, दोनों द्रव्य स्वतंत्र है वैसे गुण और पर्याय वैसे स्वतंत्र नहीं है। स्वतंत्र तो लक्षण, प्रयोजन, संख्या आदिसे स्वतंत्र है। गुण एक-एक सबका.. ज्ञान, दर्शन, चारित्र, आनन्द ऐसे गुण स्वतंत्र हैं। जो गुण परिणमते हैं उसकी पर्याय स्वतंत्र है। वह सब स्वतंत्र है। तो भी गुण और पर्यायको द्रव्यका आश्रय है। द्रव्यके आश्रयसे है। स्वतंत्र, अपने स्वभावसे स्वतंत्र है। तो भी गुणका समूह तो द्रव्य है। ऐसा कहनेमें आता है। दोनों अपेक्षाएँ भिन्न- भिन्न हैं। अपेक्षासे बात है।

मुमुक्षुः- उसको ध्यानमें रखना पडेगा।

समाधानः- हाँ, ध्यानमें रखना। स्वतंत्र (कहनेसे) ऐसे स्वतंत्र नहीं है कि गुण द्रव्य हो जाय, ऐसा स्वतंत्र नहीं है। ऐसा स्वतंत्र होवे तो जितने गुण हैं, उतने द्रव्य हो जाय। ऐसे स्वतंत्र नहीं हैं। गुण द्रव्यमें रहते हैं। पर्याय द्रव्यके आश्रयसे होती है। अपेक्षा लक्ष्यमें रखनी चाहिये।

मुमुक्षुः- द्रव्यकी पर्याय नहीं होती, ऐसा समझमें तो होना चाहिये। गुणकी पर्याय होती है, द्रव्यकी नहीं होती।

समाधानः- नहीं, ऐसा नहीं है। द्रव्यकी भी पर्याय होती है, गुणकी पर्याय होती है। गुणपर्याय, अर्थपर्याय, व्यंजनपर्याय ऐसा कहनेमें आता है। अखण्डरूपसे द्रव्यपर्याय कहनेमें आता है। एक-एक गुणकी भिन्न-भिन्न पर्याय अर्थपर्याय कहनेमें आती है। गुणकी पर्याय।

मुमुक्षुः- सुनते भी है, करते भी है, लेकिन फिर भी अंतरमें लक्ष्य नहीं होता है। ऐसी कचास है।

समाधानः- लक्ष्य करनेमें अपना पुरुषार्थ करना चाहिये। पुरुषार्थसे होता है। भावना ऐसी होवे कि अंतर लक्ष्य हो। अंतर दृष्टिसे सब प्रगट होता है। आत्मा मैं कौन हूँ? े मेरा क्या स्वभाव है? ये सब भिन्न हैं। शरीर अपना नहीं है, शरीर परद्रव्य है। विभाव भी अपना स्वभाव नहीं है। ऐसे चैतन्यद्रव्य ज्ञायक स्वभाव अनन्त गुणसे भरपूर ऐसा द्रव्य मैं हूँ, उस पर दृष्टि करनी चाहिये। उसका प्रयत्न करना चाहिये। अंतर्मुख दृष्टि करनेसे प्रगट होता है। बाहर बहिरदृष्टिसे नहीं होता, वह तो अंतरदृष्टिसे होता है। तो अंतरदृष्टि करनेसे जो द्रव्यमें है, गुण आनन्द सब प्रगट होता है।

मुमुक्षुः- वह अनुभवमें आयेगा।

समाधानः- वह अनुभवमें आयेगा। अंतरमें जानेसे अनुभवमें आता है।

मुमुक्षुः- बाहरकी बात करनेसे, बाहरके विचार करनेसे तो होता नहीं।

समाधानः- नहीं होता है।


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मुमुक्षुः- संस्कार कुछ ऐसे हैं कि बाहरका एकदम नहीं छूटता है। अनादि कालका संस्कार है।

समाधानः- अनादि कालका संस्कार है। उस प्रवाहमें चला जाता है।

मुमुक्षुः- .. बना देता है तो फिर उधरमें...

समाधानः- तो भी बारंबार-बारंबार विचार, तत्त्व चिन्तवन ऐसा करना चाहिये। बारंबार, मेरी अंतरमें दृष्टि कैसे आवे? कैसे आवे? ऐसी भावना, लगन रखनी चाहिये और बारंबार-बारंबार पुरुषार्थ करना चाहिये। नहीं होता है तो बार-बार पुरुषार्थ करना चाहिये।

मुमुक्षुः- किस बातका पुरुषार्थ करें, माता?

समाधानः- मैं चैतन्य ज्ञायक हूँ, मैं चैतन्यद्रव्य हूँ। ये सब मैं नहीं हूँ। ऐसे अंतरकी दृष्टि करना चाहिये। चैतन्यद्रव्य हूँ, वह विचारसे ठीक, परन्तु उसका स्वभाव ग्रहण करके उसे ग्रहण करना चाहिये। बारंबार प्रयत्न करना चाहिये। स्थूल उपयोग बाहर जाता है तो उपयोगको सूक्ष्म करके, मैं चैतन्य हूँ, ऐसे ग्रहण करना चाहिये। चैतन्य जो जाननेवाला ज्ञायक है वह मैं हूँ। ऐसा बारंबार पुरुषार्थ करना चाहिये।

मुमुक्षुः- एक तो ज्ञानका पुरुषार्थ और रुचिका पुरुषार्थ। ज्ञानका पुरुषार्थ स्वकी ओर उपयोग लगाना। उसमें मुख्यता किसकी है?

समाधानः- स्व-ओर ज्ञायकको ग्रहण करना। रुचि ज्ञायककी.. ज्ञायक.. ज्ञायक मैं हूँ, वह ज्ञानका पुरुषार्थ हुआ। ज्ञायकको ग्रहण करना। उसमें रुचि बिना ग्रहण होता नहीं। स्वभावको पहिचाने बिना भी ग्रहण होता नहीं। इसलिये उसमें ज्ञान साथमेंं आ गया। ये ज्ञानलक्षण सो मैं हूँ। ये विभावलक्षण मैं नहीं हूँ। ये ज्ञायकका लक्षण जो है वह मैं हूँ। ऐसी सूक्ष्म प्रज्ञाछैनी तैयार करनी वह ज्ञान है। ज्ञायककी ओर ज्ञान मुडता है, रुचि मुडती है, उसकी परिणति उस ओर मोडनी।

मुमुक्षुः- उसमें मुख्य-गौण कुछ नहीं है? रुचिका पुरुषार्थ या ज्ञानका पुरुषार्थ।

समाधानः- जिसकी रुचि तीव्र हो उसे ज्ञान साथमें आ जाता है, उसके साथ उसकी एकाग्रता भी आ जाती है। उसकी रुचि जोरदार हो तो साथमें आ जाता है। रुचि मन्द-मन्द काम करती हो तो उपयोग बाहर चलता रहता है।

मुमुक्षुः- उपयोग भी विकल्प ही है?

समाधानः- उपयोगके साथ विकल्प रहता है। उपयोग वह विकल्प है ऐसा नहीं, उपयोगके साथ-साथ विकल्प आते हैं, इसलिये वह विकल्पात्मक उपयोग कहनेमें आता है। उपयोग तो निर्विकल्प भी होता है। विकल्प छूटकर जो उपयोग स्वभाव जाय, ज्ञायक स्वभावको ग्रहण करके उसमें लीनता करे, भेदज्ञान करे और उपयोग स्वमें स्थिर हो


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जाय तो निर्विकल्प उपयोग हो जाय। स्वानुभूति हो जाय, विकल्प छूट जाय तो। लेकिन विकल्प टूटनेसे स्वभावको ग्रहण करके एकदम जोरदार ज्ञायककी ज्ञाताधारा उग्र हो तो विकल्प छूट जाय।

मुमुक्षुः- जैसा-जैसा निमित्त मिलता है, वैसा-वैसा उपयोग अन्दर ... उस प्रकारका परिणमन हो तो..

समाधानः- जैसा-जैसा निमित्त मिले ऐसा नहीं, स्वयं स्वभावको ग्रहण करे तो स्वभावकी ओर ढलता है। निमित्त मिले बाहरसे... बाहरसे निमित्त मिले... यथार्थ कोई सत्संग मिले, गुरु मिले तो अपना स्वभाव ग्रहण करे। प्रयत्न स्वयंको करना पडता है।

मुमुक्षुः- कार्य हम करे, निमित्तका आरोप आता है।

समाधानः- कार्य हो। गुरुदेवने उपकार किया, गुरुदेवने सब समझाया। बहुत जीवोंको गुरुदेवने तैयार किये, ऐसा कहनेमें आये। गुरुदेवका ही उपकार है। सबकी रुचि बाहर क्रियाको मानते थे। गुरुदेवने आत्माकी ओर दृष्टि करवायी। सब गुरुदेवने किया है। परन्तु रुचि अपनी।

मुमुक्षुः- पुरुषार्थ तो अपने करना है।

समाधानः- पुरुषार्थ अपनेको करना पडता है।

मुमुक्षुः- गुरुदेवने तो पंचम कालको चतुर्थ काल बना दिया।

समाधानः- हाँ, चतुर्थ काल बना दिया।

मुमुक्षुः- अभी तो अपनेको करनेका है। लाया, खाना रखा, हमको मुँहमें भी दिया, लेकिन खानेका तो हमको करना है।

समाधानः- हाँ, खानेका प्रयत्न तो करना पडता है। तैयार करके सब दे दिया। स्पष्ट कर-करके बता दिया। कहीं कमी, भूल न रहे ऐसा स्पष्ट करके सूक्ष्म (रूपसे समझाया है)। द्रव्य-गुण-पर्याय, सबको स्पष्ट करके बता दिया है। सब जीव कहाँ क्रियामें पडे थे। सबको ... यथार्थ ज्ञान करके, यथार्थ स्वरूप बता दिया। आत्माका स्वरूप बता दिया।

मुमुक्षुः- गुरुदेवका तो विरह हो गया, अभी आपका ही.. आपको देखकर वह विरह भूल जाते हैं। अभी तो आपका ही सहारा है।

समाधानः- गुरुदेवने तो बहुत दिया सबको। अपूर्व मार्ग। गुरुदेवके सब दास हैं।

मुमुक्षुः- गुरुदेवके दास हैं, लेकिन... अभी तो जन्मदाता तो आप हैं। बच्चा रोकरके आता है तो माँके पास एकदम चीपक जाता है। उसको डाँटते भी है तो भी माताके पास जाता है। उसी तरहसे भवसे त्रस्त होकर, दुःखी होकरके ...आता है। एक इधरमें शान्ति मिलती है। बस, और तो कोई... ऐसा है नहीं। महाराज साहबका


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साधना स्थान है, एक-एक कण-कणमेंसे होता है।

समाधानः- साधनाकी स्फुरणा होती है।

मुमुक्षुः- कोई समेदशीखरसे...

समाधानः- गुरुदेवने साधना की।

मुमुक्षुः- साधना की और आप लोगने उतना उसका लाभ लिया कि अभी भी बढता है, अभी भी बढता है।

समाधानः- सहज पुरुषार्थ उठे, और उसमें पुरुषार्थसे करना पडता है। साधर्मीका संग आदि सब गुरुदेवका प्रताप है। साधर्मी सब यहाँ बसे हैं। भगवान आत्मा है। भगवान है, देख! तेरा भगवान!

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!