Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 182.

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ट्रेक-१८२ (audio) (View topics)

समाधानः- .. चेतन स्वभाव, मेरा स्वभाव ऐसी क्षण-क्षण उसकी लगन लगे, क्षण-क्षण उसका भेदज्ञान, उसकी भावना चालू रखनी। सहज तो बादमें होती है। मैं यह चैतन्य हूँ, यह मैं (नहीं हूँ)। स्वतःसिद्ध चैतन्य एक द्रव्य है। उस द्रव्यमें आनन्द, ज्ञान आदि सब उसमें भरा है। बारबार उसकी पहिचान करनी चाहिये। पहले यथार्थ ज्ञान करे, उसकी यथार्थ श्रद्धा करे फिर उसकी परिणति भिन्न पडे। यथार्थ प्रतीत पहले अन्दरसे होनी चाहिये।

मुमुक्षुः- उसकी यथार्थ प्रतीति कैसे करनी कि यह वस्तु यही है?

समाधानः- अंतरमें विचार करके। गुरुदेवने जो मार्ग बताया है, गुरुदेवने जो कहा कि आत्मा भिन्न है, उसका विचार करके, अन्दर तत्त्वका विचार करके यह चैतन्य है वही मैं हूँ, यह मैं नहीं हूँ। ये चैतन्य स्वभाव, ये ज्ञायक जो अंतरमें अपना अस्तित्व है वही मैं हूँ, परद्रव्य मैं नहीं हूँ। ऐसी उस पर दृष्टि स्थापित करके, उसकी प्रतीति दृढ करके फिर उसका भेदज्ञान करे तो उस भेदज्ञान करनेमें उसे बल आता है, दृढता होती है। नहीं तो प्रतीतिके बिना दृढता आती नहीं। इसलिये यथार्थ प्रतीति करनी कि यह चैतन्य है वही मैं हूँ। ये सब पर है। उसका विचार करके, तत्त्वका विचार करके उसका स्वभाव पहिचाने और यथार्थ प्रतीति करनी।

मुमुक्षुः- बहिन! सम्यग्दृष्टि आत्माकी स्थिति उस वक्त कैसी होती है?

समाधानः- उसकी स्थिति कोई अलग ही होती है। उसकी दृष्टि पूरी बदल गयी, उसकी दिशा बदल गयी। उसे अन्दर भेदज्ञानकी धारा सहज होती है। उसे याद नहीं करना पडता। जिस क्षण विभाव होता है, उसी क्षण उसे उसका स्वभाव भिन्न भासित होता है। उसकी धारा ही अलग चलती है। उसकी ज्ञायककी परिणति अलग ही चलती है। और उपयोग अंतरमें जाय तो उसे स्वानुभूति होती है। आत्माकी अनुभूति जो जगतसे भिन्न है। जगतमें उसका कोई नमूना या कुछ नहीं है। आत्मा कोई अलग ही है, उसकी स्वानुभूति उसे होती है। जैसे सिद्ध भगवान हैं, ऐसी उसे आंशिक स्वानुभूति होती है। उसकी दशा पूरी अलग होती है। और बाहर उपयोग हो तो भेदज्ञानकी धारा तो उसे सहज वर्तती है। उसे खाते-पीते, निद्रामें, स्वप्नमें हर वक्त प्रतिक्षण भेदज्ञानकी


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धारा सहज वर्तती है। उसकी दशा पूरी अलग होती है। उसके जीवनकी दिशा पलट गयी। अंतरमेंसे दिशा ही पलट गयी होती है।

मुमुक्षुः- उस वक्त उसे कहाँ सुहाता है?

समाधानः- उसे आत्माकी ओर ही सुहाता है, कहीं और नहीं सुहाता। उसकी परिणति आत्माकी ओर ही दौडती है। आत्माकी ओर ही उसकी परिणति जाती है। परिणति बाहर अल्परूपसे जाती है, परन्तु उसे पुरुषार्थके बलसे स्वरूप-ओर ही उसकी परिणति दौडती है। उसे स्वरूपमें ही रुचता है, कहीं और उसे रुचता नहीं। उसकी सब धारा स्वरूप-ओर ही जाती है।

अल्प अस्थिरता है तो उसका पुरुषार्थ सहजपने अपनी ओर बहता है, ज्ञायककी ओर ही मुडता है। आंशिक शान्ति-समाधि और ज्ञायकताकी धारा उसकी चालू ही रहती है। फिर जैसे उसकी उग्रता होती जाय, वैसे उसे स्वानुभूति बढती जाती है। और बादमें उसकी भूमिका बदलती है। छठवां-सातवां गुणस्थान मुनिदशा आये तो क्षण- क्षणमें स्वरूपमें लीनता होती है।

मुमुक्षुः- स्वकी ओर आनेके लिये पुरुषार्थ कैसे करना?

समाधानः- अपनी ओर मैं चैतन्य हूँ और उसका रस बाहरका कम हो जाता है। स्वरूपकी रुचि और स्वरूप-ओरका रस बढ जाय तो बाहरकी परिणति कम हो जाय। उसका भेदज्ञान करे कि ये जो बाहर जाता है, वह विभाव है, मेरा स्वभाव ही नहीं है। वह मुझे सुखरूप नहीं है, वह आकुलतारूप है। सुख और शान्ति हो तो चैतन्यमें ही है। इसलिये चैतन्य-ओरकी ऐसी दृढ प्रतीति हो, उस ओर दृष्टि जाय, उसकी दिशा अमुक प्रकारसे भावनारूप भी बदले तो उसकी बाहर जो परिणति जाती है वह कम हो जाय। ये सब आकुलतारूप है, शान्ति और सुखरूप हो तो मेरा आत्मा ही है। ऐसी उसे यदि प्रतीति, रुचि हो तो अपनी ओर मुडे।

अनादिअनन्त निर्मल स्वभाव हूँ। ये सब जो विभाव दिखता है वह सब पर्याय है। अन्दर मूल स्वभावमें नहीं है। स्फटिकमें जो रंग-बेरंग दिखते हैं, गुलाबी, काला, हरा, वह उसके मूलमें नहीं है। वैसे ये जो विभावके रंग दिखाई देते हैं, वह मेरा स्वभाव नहीं है। मैं तो निर्मल स्वभाव आत्मा हूँ। ऐसा अंतरमें ज्ञान, ऐसी प्रतीति, ऐसी दृष्टि हो तो अपनी ओर परिणति मुडे। उतनी दृढता हो तो।

मुमुक्षुः- बारंबार अन्दर यह विचार करते रहना?

समाधानः- बारंबार करना। और विचारमें दृढता न रहे तो उस प्रकारका वांचन करना, उस प्रकारका विचार करना। एक ही जगह विचार न रहे तो उसे दृढ रखनेके लिये उस प्रकारका वांचन गुरुदेवने कहा है, शास्त्रका अभ्यास करना, अंतरमें विचार


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करना। परन्तु एक चैतन्य कैसे पहचानमें आये और उसका भेदज्ञान कैसे हो, ध्येय वह एक ही होना चाहिये। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा (होनी चाहिये)। आत्मा एक महिमावंत कोई अलग वस्तु है। ऐसी महिमापूर्वक सब विचार वांचन करे।

मुमुक्षुः- वृत्ति परमें जाती है है।

समाधानः- अनादिका अभ्यास है और उस प्रकारका अभ्यास दृढ हो गया है। स्वभाव अपना है, सहज है। सरल है, लेकिन अभ्यास दूसरा-विभावका हो गया है। इसलिये उस ओर बाहरमें अनादिसे दौड जाता है। उस संस्कारको अनादिसे दृढ कर लिया है। इसलिये अपनी ओरके संस्कारको दृढ करे, बारंबार उसे दृढ करे तो विभाव ओरके संस्कार कम हो जाय।

कितने ही जीवोंको अंतरमें रुचि प्रगट हुयी। किसीको दिशा मालूम नहीं थी। गुरुदेवने दिशा बतायी है। सब कहाँ-के-कहाँ बाहर क्रियामें पडे थे। थोडा बाहरका कर ले, थोडा उपवास कर ले, थोडा प्रतिक्रमण, सामायिक कर ले तो धर्म हो गया, ऐसेमें पडे थे। गुरुदेवने कितनी गहरी दृष्टि बतायी।

ये विभावस्वभाव, शुभभाव भी पुण्यबन्धका कारण है। अन्दर तू अखण्ड द्रव्य पर दृष्टि कर। गुरुदेवने तो कितनी सूक्ष्म गहरी बात बता दी है। बीचमें शुभभाव आये, परन्तु तेरा स्वभाव तो उससे निराला है। गुणका ज्ञानका कर, परन्तु दृष्टि तो एक अखण्ड पर स्थापित कर। गुरुदेवने सबकी दृष्टिकी दिशा पूरी बदल दी। करना तो स्वयंको है।

समाधानः- देव-गुरु-शास्त्रका मुझे आदर है और सबको साथमें रखता हूँ। उनके दर्शन, उनकी वाणी आदि सब मेरे साथ हो। मैं जा रहा हूँ मेरे पुरुषार्थसे। जिनेन्द्र देवकी महिमा, भगवानकी, गुरुकी, शास्त्रकी। भगवानकी महिमा, जिनेन्द्र देवकी महिमा तो करने जैसी है।

मुमुक्षुः- गुरुदेव और आपके प्रतापसे। ऐसी माँ कहीं और नहीं होती।

समाधानः- चैतन्यका अभ्यास बढ जाय, उसकी महिमा बढ जाय तो बाहरका रस कम हो जाय।

मुमुक्षुः- ... करनेके लिये मार्गदर्शन तो चाहिये। अपनेआप तो होता नहीं।

समाधानः- उसके लिये सत्संग हो, गुरु हो, उनका अपूर्व उपदेश हो। परदेशमें हो वहाँ समझनेका कम होता है। न हो वहाँ तो अपनेआप ही समझना पडता है। बाकी सत्संग, सच्चे गुरु, उनका अपूर्व उपदेश, वह सब उसके साधन हैं।

मुमुक्षुः- लंडनमें..

समाधानः- मार्ग जहाँ प्राप्त हो वहाँ...

मुमुक्षुः- कुटुम्ब प्रतिकी सब फर्ज हो तो भी चैतन्य स्वभावमें स्वयं आ सकता है?


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समाधानः- पर जीवोंने कहाँ स्वयंको प्रतिबन्धमें रखा है? अपने रागके कारण रुकता है। कर सकता है। अंतरमें अपने परिणामको कोई रोक नहीं सकता। अंतरमेंसे आत्मा अपूर्व है, उसका रस तोड दे, सब करके स्वभावको पहिचाननेका प्रयत्न करे, विचार करे, वांचन करे उसमें रोक नहीं सकता, कोई रोकता नहीं। बाहरका कुटुम्ब कोई रोकता नहीं।

ये तो अभी समझनेकी बात है, (आगे तो) भेदज्ञान करनेकी बात है। उसकी लगन लगानेकी बात है। मुनि बननेकी बात अभी आगे है, अभी तो स्वानुभूति करके भवका अभाव हो वह बात है, वह तो हो सकता है। कुटुम्बमें पडा हो तो भी हो सकता है। अंतरका रस तोडना अपने हाथकी बात है। बाह्य संयोग उसे रोकते नहीं।

... एकत्वबुद्धि करके बाह्य कायामें अपना कर्तव्य मान-मानकर स्वयं रचापचा रहे तो स्वयं रुकता है, कोई रोकता नहीं। स्वयं रस कम करके विरक्ति करके अंतरमें स्वयंका कर सकता है। राजाओं भी गृहस्थाश्रममें रहकर अन्दरसे भिन्न रहकर आत्माका कर सकते थे, आत्माकी स्वानुभूति कर सकते थे। सहज ही छूट जाते थे। बाहरके कार्य उसे रोकते नहीं थे, अंतरसे निर्लेप रहते थे।

... सामग्री कितनी हो तो भी अंतरसे तो भिन्न ही रहते थे। मेरा आत्मा वही मुझे सर्वस्व है। ... अंतरसे वांचन करना, विचार करना, ये सब तो...

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- वह कोई कर्मका उदय नहीं है। स्वयं करे तो होता है। संसारमें स्वयं ही रचापचा है और तोडे तो स्वयं ही छोड सकता है। अंतरमें एकत्वबुद्धि करके, रस करके यह मुझे करना चाहिये, यह मुझे होना चाहिये और ये इतना कर लेना चाहिये, इतना यह चाहिये, इतना बाहरका चाहिये, स्वयं ही उसमें रुका है। कोई रोकता नहीं। उसे उदय नहीं रोकता है। स्वयं पुरुषार्थ करके बदल सकता है। (उदय) उसे रोकता नहीं। उदय रोकता हो तो कोई पुरुषार्थ कर ही न सके। गृहस्थाश्रममें रहकर सम्यग्दर्शन प्राप्त करे, स्वानुभूति करे, भिन्न रहते थे, तो कोई कर ही न सके। उदयका कारण नहीं है। स्वयंका कारण है। अपनी भूलसे रखडा है और स्वयं छूट सकता है।

अनन्त कालमें सब मिला है। एक सम्यग्दर्शन जीवने प्राप्त नहीं किया है। वह अपूर्व है। अनादि कालमें भगवान नहीं मिले हैं। भगवान मिले तो स्वयंने पहिचाना नहीं है। वह दोनों अपूर्व हैं, दूसरा कुछ जगतमें अपूर्व नहीं है।

मुमुक्षुः- .. अपने कर्मका उदय आये..

समाधानः- उदयसे समझमें नहीं आता, परन्तु स्वयं पुरुषार्थ करे। उसका बारंबार


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अभ्यास करे। जबतक समझमें न आये, जबतक प्रगट न हो, तबतक उसका अभ्यास करता ही रहे। मार्ग तो एक ही है-चैतन्यको पहिचानना, भेदज्ञान करना, उसकी-निर्विकल्प तत्त्वकी स्वानुभूति जबतक न हो, तबतक उसका अभ्यास करता ही रहे, उसमें थके नहीं। उसका विचार करे, उसका वांचन करे, बारंबार-बारंबार करता ही रहे, जबतक न हो तबतक।

मुमुक्षुः- इतने सारे पंथ और भिन्न-भिन्न संप्रदाय हैं, उसमें ऐसा है क्या कि अमुक ही लेना चाहिये? अमुकका ही वांचन करना चाहिये और दूसरेका नहीं करना चाहिये, ऐसा है उसमें?

समाधानः- सब संप्रदाय है, परन्तु मार्ग तो एक ही है। स्वानुभूतिका पंथ आत्माका जो प्रगट करनेका, आत्माका जो स्वभाव है, आत्माका सुख है उसे प्रगट करनेका पंथ तो एक ही है। ज्यादा पंथ हो, मतभेद होते हैं, उसमें सत्य क्या है वह स्वयंको नक्की करना पडता है। जिसे आत्माका करना है, जिसे जिज्ञासा जागी है, जिसे आत्माका सुख प्राप्त करना है, स्वयं ही नक्की करे कि किस मार्गसे आत्माका स्वरूप प्राप्त होता है? वह स्वयं ही नक्की करे। कौन-से गुरु और कौन-सा पंथ सत्य है, स्वयं ही नक्की करके उस मार्ग पर जाय। उसके लिये ज्यादा पंथ...

कोई कहाँ रुक गया होता है, कोई कहाँ रुक गया होता है। कोई पढनेमें, कोई रटनेमें, कोई त्याग करनेमें, कोई कहाँ-कोई कहाँ। परन्तु अंतरकी दृष्टि क्या? अंतरमें सत्य मार्ग क्या है, वह मार्ग तो एक ही होता है। स्वयंको ही उस ओर मुडना है, कोई कर नहीं देता। स्वतंत्र है, रखडनेमें स्वयं स्वतंत्र और प्रगट करनेमें भी स्वयं स्वतंत्र है। स्वयं ही नक्की कर ले। जिसे जिज्ञासा जागे वह सत्य ग्रहण अमुक प्रकारसे कर ही लेता है कि यह मार्ग सच्चा है। उसे प्रगट भले बादमें हो, परन्तु पहले नक्की करे कि सत्य तो यही है। ये गुरु कहते हैं और ये गुरु जो मार्ग बताते हैं, वह सच्चा है। ऐसा स्वयं नक्की कर सकता है।

मुमुक्षुः- स्वाध्याय करनेके बाद अथवा अमुक उसका भाव करनेके बाद उसका कोई नाप आता है कि कहाँ तक उसका ज्ञान हुआ है?

समाधानः- जबतक स्वयं यथार्थ समझता नहीं है, (तबतक) स्वाध्या करता है, उसका कोई नाप नहीं होता। अंतरमें प्रयोजनभूत ज्ञान होना चाहिये। आत्मा कौन है? उसका स्वभाव क्या है? उसमें गुण क्या है? उसकी पर्याय क्या? उसका विभाव क्या? ये पुदगल क्या? चैतन्य क्या? वह सब समझनेके लिये शास्त्रका अभ्यास होता है। अंतरसे यथार्थ समझन हो, समझनेके लिये है। उसका नाप नहीं होता कि इतना पढना चाहिये और इतना धोखना चाहिये। प्रयोजनभूत तत्त्वकी पहिचान होनी चाहिये।


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... आगे नहीं जाय तबतक शास्त्र अभ्यास, उसका चिंतवन, मनन होता ही है। इतना पढना ही चाहिये या इतना धोखना चाहिये, ऐसा कोई सिद्धान्त नहीं है। अंतरसे समझना चाहिये। थोडा (प्रयोजनभूत) समझे तो भी अंतरसे प्रगट हो। उसे थोडा आता हो। शिवभूति मुनि थे, उन्हें कुछ याद नहीं रहता था। आत्मा भिन्न और यह विभाव भिन्न (है)। इतनी समझ हुयी तो अंतरमें ऊतर गये।

मुमुक्षुः- सबमेंसे एक आत्माको भिन्न कर लेना..

समाधानः- मा-रुष और मा-तुष कहा तो उतना भी याद नहीं रहा। गुरुदेवने क्या कहा, राग करना नहीं, द्वेष करना नहीं, वह याद नहीं रहा। बाई दाल धो रही थी। मेरे गुरुने कहा, ये दाल भिन्न, छिलका भिन्न। आत्मा भिन्न और विभावभाव भिन्न। ऐसा भाव ग्रहण कर लिया। अन्दरसे भेदज्ञान किया, आत्मा भिन्न और यह भिन्न है। ऐसा करके अंतरमेेंसे (ग्रहण कर लिया)। मूल प्रयोजनभूत ग्रहण करना है।

मुमुक्षुः- ऐसा कुछ है कि मनुष्यको बचपनमें अथवा छोटी उम्रमें कम ख्याल आये और बडी उम्र हो तब उसे ज्यादा भाव हो?

समाधानः- ऐसा कोई नियम नहीं होता है। ऊलटा छोटी उम्रमें बहुतोंको ज्यादा होता है। किसीको बडी उम्रमें होता है, उसे उम्रके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। उम्रके साथ कुछ सम्बन्ध नहीं है। आत्मा स्वतंत्र है।

जबतक न हो तबतक अभ्यास करते ही रहना। जिसे जो लगन लगी वह छूटती नहीं। लौकिकमें कोई रस हो तो उसके पीछे लगकर वह काम करता ही रहता है, न हो तो भी। कुछ भी हो, बाहरकी कोई कला सीखनी हो, कुछ सीखना हो तो वह करता ही रहता है, जबतक न आये तबतक। वैसे इसके पीछे पडकर उसका अभ्यास करता ही रहे। उतना विश्वास और उतनी प्रतीति होनी चाहिये कि इसी मार्गसे आत्मा प्रगट होनेवाला है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!