Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 183.

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ट्रेक-१८३ (audio) (View topics)

समाधानः- .. स्वभाव-ओरकी महिमा आनी चाहिये। चैतन्यतत्त्व ही अलग है, यह जड तत्त्व भिन्न है। दोनों भिन्न हैं, उसका भेदज्ञान कर। विभावस्वभावसे भिन्न है। वह निज स्वभाव नहीं है। अपना स्वभाव वर्तमान..

भेदज्ञानका अभ्यास करे तो हो। परन्तु वह अभ्यास कब हो? कि अंतरमें उतनी लगन लगे तो हो। उसके लिये विचार, वांचन, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा (होती है)। चैतन्य कोई अपूर्व तत्त्व, अनुपम तत्त्व है। उसकी महिमा आये तो उस ओर जाय। गुरुदेवने तो कोई अपूर्व मार्ग बताया, इस पंचमकालमें। न हो तबतक उसका अभ्यास करते रहना। बारंबार चैतन्यको पहिचाननेके लिये।

... दृष्टिमें रुका है। अंतर दृष्टि करके अंतरमें परिणति प्रगट करने जैसी है। अंतरसे स्वभावको पहचाने। चैतन्य ज्ञानस्वभाव सो मैं हूँ। उसके अलावा कोई वस्तु मेरी नहीं है। कोई परभाव मैं नहीं हूँ। अपने स्वभावको पीछाने। अंतरमेंसे भेदज्ञान करे तो होता है, तो मुक्तिका मार्ग प्रगट हो।

द्रव्य पर दृष्टि करे अंतरमेंसे तो मार्ग प्रगट होता है। अनन्त काल गया तो भी ज्योंका त्यों है। द्रव्यका कहीं नाश नहीं हुआ है। चैतन्यतत्त्व तो शाश्वत है। अनन्त शरीर धारण किये, परन्तु तत्त्व तो ज्याेंका त्यों शाश्वत है। उस शाश्वत तत्त्वको अंतरसे पहचाने तो होता है।

.. उदयमें गया, .. अनन्त-अनन्त भव किये तो भी तत्त्व तो वैसाका वैसा शाश्वत है। अपूर्व तत्त्व है उसे पहचाने। बारंबार उसका अभ्यास करे तो होता है। उसकी जरूरत महेसूस हो, सारभूत वह है, सार ही वह है, ऐसी अंतरसे प्रतीति आये तो होता है। पुरुषार्थ करना अपने हाथकी बात है। कोई कर नहीं देता। अनन्त काल गया तो स्वयं अपने पुरुषार्थकी मन्दतासे और विभावकी रुचिसे रखडा है। और स्वयं स्वयंके पुरुषार्थसे पलटता है। कोई कर नहीं देता।

देव-गुरु-शास्त्र निमित्त होते हैं। भगवानका अपूर्व निमित्त हो, गुरुदेवका निमित्त हो, परन्तु उपादान तो स्वयंको ही करना पडे, कोई कर नहीं देता। पुरुषार्थ तो स्वयंको ही करना है। अंतरमें स्वयंको ही परिवर्तन करना है। बाह्य कार्यमें जरूरत लगे तो


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वहँ चाहे जैसे भी, कडी महेनत करके करता है। यहाँ इसकी जरूरत लगे तो स्वयं ही उसमें पुरुषार्थ करे तो हो सके ऐसा है। उसे कोई रोकता नहीं है। स्वयं स्वतंत्र द्रव्य है। स्वतंत्र है। तू अपनेआप पुरुषार्थ करके कर तो होता है।

मुमुक्षुः- उनकी भावनासे ही हुआ।

समाधानः- उनकी भावनासे ही सब हुआ। योग हुआ, ये सब.. स्पष्ट कर दिया है। किस मार्ग पर जाना है, वह सबको बता दिया है, कहाँ जाना है वह। करनेका स्वयंको बाकी रहता है। ऐसी आत्माके प्रति रुचि और भक्ति आये तो वह हो। देव- गुरु-शास्त्रकी और अंतरमें आत्माकी।

मुमुक्षुः- वास्तविक रूपसे जो महिमा आनी चाहिये, वह नहीं आती। सुने, पढे, विचार करे तो ऐसा ही लगे कि यही करने जैसा है। फिर भी अंतरमेंसे जो लगन लगनी चाहिये, वह नहीं हो रही है।

समाधानः- उसे स्वयंको पुरुषार्थ करना है। स्वयंको करना चाहिये। उतनी अपूर्वता, उतनी महिमा, अंतरमेंसे स्वयं नक्की करके उसकी दृढता करके स्वयंको करना है। पुरुषार्थ स्वयंको करना है।

मुमुक्षुः- आपको गुरुदेवकी बात सुनकर कौन-सी बातसे एकदम पुरुषार्थ करनेकी प्रेरणा मिली? आपको गुरुदेवकी बातमें किसी बातकी अपूर्वता लगी?

समाधानः- गुरुदेव कहते थे न कि कुछ अलग ही करना है अंतरमें। प्रथमसे ही आत्माका कुछ करना है, ऐसा अंतरमें था ही। और गुरुदेवने मार्ग बताया कि अंतरमें मार्ग है।

मुमुक्षुः- आपको बचपनसे ऐसा होता था कि मुझे आत्माका करना है?

समाधानः- बचपनसे ही होता है। कुछ मालूम नहीं था, परन्तु कुछ करना है (ऐसा होता था)। त्याग कर देना, सब छोड देना ऐसा होता था। मार्ग क्या है, वह मालूम नहीं था। मार्ग तो गुरुदेवने बताया। गुरुदेव पहलेसे कहते थे, अंतरमें आत्मा है। मनसे अतीत, वचनसे अतीत, कायासे, सर्वसे अतीत अन्दर आत्मा विराजता है। अंतरमें आत्मा कोई अलग है, ऐसा पहलेसे उनके व्याख्यानमें थोडा-थोडा आता था। पहलेसे।

इस मनुष्य जीवनमें कुछ कर लेना है। बरसों निकल गये ऐसा होता था। १८ साल पूरे हो गये, २० वर्ष चले गये, आहा..! इतने साल बीतनमें कहाँ देर लगेगी? जल्दी कर लेना है, ऐसा होता था। उतने साल हो गये वह तो बहुत लगता था कि इतने साल बीत गये, इतने साल बीत गये। .. स्वयंको करना है।


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मुमुक्षुः- अभी वर्तमानमें तो हमारी कचास बहुत है।

समाधानः- अंतरमेंसे ऐसी भावना हो कि मुझे तैयारी ही होना है और मुझे आत्माका (हित) करना ही है। वह भले पुरुषार्थ न कर सके परन्तु स्वयं भावनाकी तैयारी, रुचिकी तैयारी तो स्वयंकी होनी ही चाहिये। मुझे यह करना ही है, ऐसी जिज्ञासा, ऐसी रुचि, ऐसी दृढता, स्वयंको अंतरसे ऐसा होना चाहिये। भले पुरुषार्थ वह कर न सके, उतना अंतरसे विचार या उतना चिंतवन या स्वयं अंतरमें स्वभावको पहचाननेका उतना कर न सके, लेकिन उसकी भावना तो तीव्र होनी चाहिये।

भावना होनी चाहिये कि मुझे यह करना ही है। ये देव-गुरु-शास्त्र बता रहे हैं कि आत्मा कोई अपूर्व है और वह अपूर्वता मुझे प्रगट करनी है। वह अपूर्व क्या है, उसकी भावना, जिज्ञासा, आत्मदेवके दर्शन कैसे हो, उसकी भावना और जिज्ञासा, ऐसी जिज्ञासा तो स्वयंको होनी चाहिये। दूसरी तैयारी भले वह पुरुषार्थ न कर सके, आगे न बढ सके परन्तु उसकी भावना, लगन तो स्वयंको होनी चाहिये। तो वह पहुँच सकता है। दूसरी सब लगन, उसकी रुचि कम होकर आत्मा-ओरकी रुचि गहराईसे यदि हो तो वह पहुँच सकात है।

आता है न कि "तत्प्रति प्रीतिचित्तेन येन वार्तापि हि श्रुता'। प्रीतिसे यदि इस तत्त्वकी बात भी सुनी है तो वह भावि निर्वाण भाजनम-भविष्यमें निर्वाणका भाजन होता है। ऐसी तत्त्वकी बात अंतरसे रुचिपूर्वक कोई अपूर्व भावसे सुनी हो तो वह भावि निर्वाण भाजनम। इसलिये उसे अंतरमेंसे रुचि प्रगट होनी चाहिये। फिर वर्तमान पुरुषार्थ (करके) उतना आगे चल नहीं सकता हो, भेदज्ञान करके ज्ञाताधारा प्रगट करनी, स्वानुभूति करनी उसका पुरुषार्थ चलता न हो, परन्तु भावना तो.. अपूर्वता उसे अंतरमेंसे लगनी चाहिये कि ये कुछ अपूर्व है। ये बाहरका सब कुछ अपूर्व नहीं है। ये अंतरमें आत्मा है वही अपूर्व और आत्माका स्वभाव और आत्मा अनुपम है। जो देव-गुरु- शास्त्र बता रहे हैं, वही करने जैसा है और वे कुछ अलग ही बताते हैं और वही आदरणयी है, ऐसा अंतरमेंसे स्वयंको रुचि और प्रीति तो होनी चाहिये। तो भावि निर्वाण भाजनं। भविष्यमें निर्वाणका भाजन हो।

निमित्त प्रबल हो, परन्तु स्वयंकी रुचि उतनी जागृत (हो), स्वयंकी उतनी रुचि होनी चाहिये कि मुझे यह चाहिये। दूसरा कुछ नहीं चाहिये। मुझे यह एक आत्मा ही चाहिये। दूसरा विभावका रस टूट गया हो। वह छोड नहीं सकता है, परन्तु अन्दरसे रुचि आत्माकी लगनी चाहिये। आचार्यदेव कहते हैं कि प्रीतिसे उसकी वार्ता भी, उसका श्रवण भी प्रीतिपूर्वक अपूर्व भावसे किया है तो वह भविष्यमें निर्वाणका भाजन है। तत्त्वकी उतनी रसिकता अंतरसे होनी चाहिये।


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समाधानः- .. कोई आनन्द आये। जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्र जो बता रहे हैं, वह साधना, वह साधकभाव, साध्य स्वरूप आत्मा, अनादिअनन्त तत्त्व चैतन्य तत्त्व वह सब बातें, साध्य-साधककी बात, उन सब बातोंमें कुछ अपूर्वता लगे और शास्त्रमें जो आता है उस बातमें उसे कुछ चमत्कार जैसा लगे कि ये कुछ अलग है, ऐसी अपूर्वता लगनी तो वह भावि निर्वाणका भाजन है, ऐसा शास्त्रमें आता है।

जिसे जिसकी प्रीति लगे, रुचि लगे उस ओर उसका पुरुषार्थ मुडे बिना रहता नहीं। फिर उसे काल लगे वह अलग बात है। परन्तु अंतरमें उसकी रुचि उर ओर जाती है तो अवश्य उस ओर मुडे रहेगा नहीं। (विभावभाव आये) परन्तु वह आदरणीय नहीं है। जो देव-गुरु-शास्त्र कहते हैं कि शुभभाव भी तेरा स्वरूप नहीं है। उससे भी तू भिन्न, तू निर्विकल्प तत्त्व है। यह शुभभाव भी अनन्त बार बहुत बार किया। परन्तु उससे कोई मुक्ति नहीं है। तू उसका भेदज्ञान कर। उससे भी तू भिन्न है। ऐसी बातमें जिसे रुचि लगे, अपूर्वता लगे तो वह तत्त्वकी प्रीति है।

आत्मा कोई अंतरमें (अपूर्व है)। बाह्य प्रवृत्ति हो उससे आत्मा, शुभभावसे भी उसका स्वरूप भिन्न है। उस बातकी उसे रुचि लगे। भले शुभभावना उसे आये, देव- गुरु-शास्त्रकी महिमा आये, शुभभावमें है इसलिये, वह अशुभमें नहीं जाता। शुभभाव आये लेकिन उसे आदरणीय एक निर्विकल्प तत्त्व ही लगे। शुभभावकी रुचि नहीं होती। वह अनन्त बार बहुत बार किया, द्रव्यलिंगी मुनि हुआ, सब हुआ लेकिन उसे शुभभावमे ं रुचि अंतरमें रह जाती है। महाव्रतादि शुभभावकी अंतरमें रुचि रहती है कि यह ठीक है, यह प्रवृत्ति ठीक है, ये शुभभाव ठीक है। ऐसी अन्दर मीठास रह जाती है।

जो गुरु कहते हैं, जो देव कहते हैं और तत्त्वका स्वरूप ही ऐसा है। ऐसे स्वयं बुद्धिसे विचार करके नक्की करे कि ये सब जो भाव हैं, उस भावसे भी मैं भिन्न हूँ। जैसे सिद्ध भगवान निर्विकल्प तत्त्व हैं, उन्हें किसी भी प्रकारके विकल्पकी आकुलता नहीं है। एकदम निर्विकल्प तत्त्व। आत्मामें आनन्द, आत्मामें ज्ञान। बस। एक निवृत्त परिणामरूप जो है और स्वरूपमें परिणति है। और परसे निवृत्ति है। ऐसे जो सिद्ध भगवान हैं, वैसा ही आत्माका स्वरूप है। और वही आदरणीय है, दूसरा कुछ आदरणीय नहीं है। मेरा स्वरूप नहीं है। ऐसी उसे रुचि और प्रीति अंतरमें होनी चाहिये।

कहीं-कहीं रुक गया है। बाह्य क्रियामें, कुछ शुभभावनामेंं, ऊँचे-ऊँचे शुभ विकल्प आये कि मैं ज्ञान हूँ, दर्शन हूँ, चारित्र हूँ, ऐसे गुणभेद पडे, वह विकल्प आये, वह विकल्प बीचमें आते तो हैं, परन्तु मेरा स्वरूप नहीं है, मूल स्वरूप नहीं है। मैं तो अभेद तत्त्व (हूँ)। ज्ञान, दर्शन, चारित्र गुणभेदका विकल्प बीचमें आता है। सब गुण हैं आत्मामें, परन्तु आत्मा तो अखण्ड है, ऐसी उसे रुचि लगे। भले गहराईसे कम


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समझमें आये, परन्तु उसे अंतरसे रुचि, प्रीति उस बातकी आये। .. होनी चाहिये, तो वह भावि निर्वाण भाजन है। भले समझे कम, लेकिन उस बातकी रुचि और प्रीति लगनी चाहिये। ऐसे निर्विकल्प तत्त्वकी कि जिसमें किसी भी प्रकारकी क्रियाकी प्रवृत्ति नहीं है, जिसमें कोई विकल्पकी जाल नहीं है। ऊच्चसे ऊच्च शुभभाव भी आत्माका स्वरूप नहीं है। ऐसी बातकी अंतरसे प्रीति लगनी चाहिये। प्रीति अपनी होती है। फिर कर न सके, उसका भेदज्ञान न कर सके, पुरुषार्थ न चले, भावना हो परन्तु पुरुषार्थ चले नहीं, परन्तु उसकी रुचि और प्रीति कोई अपूर्व हो तो वह भावि निर्वाण भाजन है। उसके उपादानमें उतना तो होना चाहिये, अपनी रुचि उस ओरकी होनी चाहिये।

लौकिकका सब गौण होकर आत्मा-ओरकी रुचि उसे मुख्य होनी चाहिये। आत्माकी बात हो, जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्र उसे मुख्य होने चाहिये। .. परिणाम स्वरूप आत्मा.. सब छूट जाय तो भी आत्मामें-से कुछ प्रगट होता है, आत्मा लबालब भरा है। वह कहीं शून्य नहीं है। उसमें तो अनन्त गुण और अनन्त पर्यायसे भरा हुआ आत्मा- शुद्धात्मा उसमेंसे प्रगट होता है। उस बातका विश्वास, वैसी रुचि अंतरमेंसे उसे आये।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- हाँ, वह आया है। स्वरूपकी परिणति और विभावकी निवृत्ति हो जाय। एक आत्मा पर दृष्टि करे तो हर जगह पहुँच जाता है। फिर कहीं भिन्न-भिन्न रूपसे पहुँचना नहीं पडेगा। भिन्न-भिन्न विचार, ज्ञान, दर्शन, चारित्र भिन्न-भिन्न साधना नहीं करनी पडेगी, एक दृष्टि आत्मा पर रख तो सर्व गुण, सर्व गुणांश सो सम्यग्दर्शन (होता है)। एक आत्मा पर दृष्टि करेगा तो तू हर जगह पहुँच जायगा। तेरे सर्व गुण और पर्याय प्रगट हो जायेंगे। परन्तु उस ओर दृष्टि स्थापित कर। निर्वृत्तस्वरूप आत्मा है, वह निर्विकल्प तत्त्व है।

मुमुक्षुः- ..एक आत्माको देखेगा तो..

समाधानः- हाँ, सब देख लेगा। एक आत्मा पर दृष्टि कर। मार्ग एक ही है। ज्ञानकी निर्मलताके सब आये, परन्तु एक मुख्य आत्माको ग्रहण किया तो उसमें सब आ जाता है। जो अन्दर पडा है, वह सब अन्दरसे अनन्त गुण और पर्यायें उछलेगी। हर जगह मैं चैतन्य, मैं चैतन्य। बाकी सब मुझसे भिन्न है, मैं एक चैतन्य हूँ। शरीर सो मैं नहीं, ये विभाव सो मैं नहीं, मैं एक चैतन्य हूँ। एक चैतन्य भगवान हूँ। जैसे महिमावंत भगवान हैं, वैसे मैं भी एक महिमावंत (तत्त्व हूँ)। गुरुदेव उसे आत्मभगवान कहते थे।

मुमुक्षुः- .. तो भी अमुक विचार करते हैं तब ऐसा लगता है कि इसमेंसे कब और कैसे पहुँचेंगे? इतना लम्बा-लम्बा लगता है, एकदम दुष्कर लगता है।


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समाधानः- अनादिका अभ्यास बाहरका हो रहा है। अंतर दृष्टि .. पडी है। रुचि और भावना करे तो हो। अंतरमें दृष्टि जाय। दृष्टि अनादिसे बाहर है। ये सब बाहरका दिखता है, अंतरमें दिखता नहीं। ये विभाव दिखे, यह दिखे, बाहरका दिखे। लेकिन अंतर स्वकी ओर देखता नहीं। अंतर सूक्ष्म उपयोग करे कि अन्दर जो जाननेवाला है वह मैं हूँ। यह सब कौन जानता है? जाननेवाला मैं हूँ। जाननहार पर दृष्टि कर।

जिसे जाना वह नहीं, परन्तु जाननेवाला मैं स्वयं जाननेवाला हूँ। वह जानना कहीं बाहरसे नहीं आता, अंतर स्वयं जाननेवाला एक ज्ञायकतत्त्व है। उस ज्ञायकतत्त्वको तू देख। उस ज्ञायकमें सूक्ष्म दृष्टि करके देख, वह ज्ञायकता उसमें सबमें ज्ञायकता ही भरी है। बाहरका अनादिका अभ्यास है न, इसलिये वह सब ऐसे ही अनादिके प्रवाह अनुसार चलता रहता है।

भूतकालका जो बीत गया, वह सब याद (आता है)। लेकिन वह याद करनेवाला कौन है? अन्दर एक जाननेवाला तत्त्व है। वह जाननेवाला है वह अनादिअनन्त शाश्वत है। वह जाननेवालेका एक गुण ऐसा मुख्य है कि जाननेवाला ज्ञात हो रहा है, लेकिन उसमें आनन्दादि अनन्त गुण हैं, वह बाहर उपयोग है इसलिये उसे अनुभवमें (नहीं आ रहा है)। उपयोग बाहर रुक गया है। अंतरमें देखे तो वह जाननेवाला ही है। उस जाननेवालेको पहचान ले। उस जाननेवालेकी ओर उपयोग कर, दृष्टि दे। तो यह सब भिन्न ही है।

मुमुक्षुः- नूतन वर्षके दिन प्रातः कालमें आप स्वप्नमें आये थे और आपने ऐसा कहा कि, ज्ञानदृष्टिसे सब देखो। इतना आनन्द हो गया, नूतन वर्षके दिन, माताजी!

समाधानः- ज्ञायकदृष्टिसे देखना, ज्ञायकको देख। बस, जाननेवाला ज्ञाता बन जा। ये सब बाहरका... तू जाननेवाला अन्दर है, उस जाननेवालेको देख ले। ज्ञानदृष्टि कर, ज्ञानमें दृष्टि कर, ज्ञायकको देख ले। हर जगह ज्ञायक ही है। उस ज्ञायकमें सब भरा है। ज्ञायक पूरा अनन्त गुणोंसे भरपूर है। उसमें शुद्धात्माकी अनन्त शुद्ध पर्याय (पडी हैं)। परन्तु वह अंतरमें दृष्टि करे तो वह पर्यायें प्रगट हो। परन्तु पहले तो उसे लक्षणसे पहिचान ले कि ये जाननेवाला सो मैं। उस जाननेवाले पर विश्वास कर कि ये जाननेवाला है वही मैं हूँ। ये दूसरा सब कुछ मैं नहीं हूँ। ये जाननेवाला ही मैं हूँ। वह द्रव्य, वह गुण और उसमें जो परिणति हो वह पर्याय, बस! वह जाननेवाला है वही मैं हूँ। उसका विश्वास कर, उसकी प्रतीत कर तो उसमें सब आ जायगा। जाननेवालेको देख। जाननेवालेको देखा नहीं है। बाहरका ज्यादा जाननेकी आवश्यकता नहीं है, एक ज्ञायकको देख। ... अपना है। स्वयं ज्ञायक ही है, उस ज्ञायकको पहचानना है। मूल मन्त्र यही है। फिर उसे अलग-अलग प्रकारसे विचारना है। मूल तो उसका स्वभाव


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ग्रहण कर लेना है। .. उसमें स्वानुभूति समायी है। उसमें ही सब समाया है। एक ज्ञायकको तू देख, उसके स्वभाव पर दृष्टि कर। उसमें भेदज्ञान आ जाता है। अपना अस्तित्व ग्रहण करे इसलिये अन्यसे भिन्न पड गया।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!