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मुमुक्षुः- बहिन! उनका कहना है कि हम गृहस्थाश्रममें कर सकते हैं?
समाधानः- आत्माकी रुचि तो कर सकते हैं न। अन्दर रुचि रहनी चाहिये कि आत्माका कैसे हो? वांचन, विचार ऐसा तो हो सकता है। दूसरा विशेष करना हो तो अन्दरकी लगन लगानी। जो करना हो वह हो सकता है। प्रथम मूल नींव तो सम्यग्दर्शनका है। सम्यग्दर्शन कैसे प्रगट हो, पहले तो वह करने जैसा है। इसमें बाहरसे करना है (ऐसा तो है नहीं)। अंतर दृष्टि करने जैसी है वह करने जैसा है। सम्यग्दर्शन कैसे हो? अनादिसे वह प्रगट नहीं हुआ है, दूसरा सब हो चूका है। बाहरका सब प्राप्त हो चूका है, एक सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हुआ है। उसकी तैयारी तो गृहस्थाश्रममें हो सकती है। उसका तत्त्व विचार, वांचन, शास्त्र अभ्यास, आत्मा तत्त्व भिन्न है उसकी प्रतीत, दृढता कैसे हो वह सब करना। वह सब तो गृहस्थाश्रममें हो सकता है।
मुमुक्षुः- ये तो मुंबईकी प्रवृत्तिमें..
समाधानः- प्रवृत्तिमें ऐसा हो जाय और उसमें भी मुंबईकी प्रवृत्तिमें अन्दर आत्माको पहिचानना, उस प्रवृत्तिमें कितना समय व्यतीत हो जाय उसमेंसे समय खोजना मुश्किल पडे ऐसा है। लेकिन उसमेंसे समय बचाकर कुछ विचार, कुछ वांचन, मन्दिर जाना आदि... पार्ला रहो वहाँ मन्दिर (नहीं है)। .. अनेक जातके विकल्प रहे।
मुमुक्षुः- यहाँ सुचारुरूपसे रुचि रहती है, वह मुंबईमें नहीं हो सकता।
समाधानः- प्रवृत्तिकी जाल सब दिमागमें आ जाय। ये तो गुरुदेवकी साधनाभूमि है और सब शान्ति (है)। तत्त्वविचारका माहोल है। यहाँ दूसरी बात है। विचार, वांचन, कुछ आना-जाना रखे तो हो।
मुुमुक्षुः- मति-श्रुतको मर्यादामें लानेकी बात की और दृष्टि, उस मति-श्रुत और दृष्टिमें कुछ अंतर है?
समाधानः- मति-श्रुत है वह तो ज्ञानका उपयोग है। दृष्टि है वह सम्यग्दर्शनकी पर्याय है।
मुमुक्षुः- श्रद्धाकी?
समाधानः- हाँ, वह श्रद्धाकी पर्याय है। मति-श्रुतका उपयोग जो बाहर जाता
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है, उसे अंतरमें लाना वह निर्विकल्प स्वानुभूतिकी बात है। बाहर जो मति और श्रुतका उपयोग जाता है, उसे समेटकर अंतरमें ला। इसलिये जो उपयोग बाहर जाता था, उसे अंतरमें स्थिर कर। दृष्टि तो चैतन्य पर स्थापित कर दे कि मैं चैतन्य अनादिअनन्त शाश्वत द्रव्य हूँ। उसकी दृष्टि चैतन्य पर स्थापित करके, फिर उपयोग जो बाहर जाता है, उस उपयोगको समेटकर अपनी ओर ले आ। इसलिये विकल्प छूट जाय। विकल्पकी जाल छूटकर उपयोग तेरेमें स्थापित कर दे। वह निर्विकल्प स्वानुभूतिके समयकी बात है। उपयोग बाहर जा रहा है उसे अंतरमें लाये।
मुमुक्षुः- यानी जो महेनत करते हैं उन सबको लागू पडता है।
समाधानः- सबको लागू पडता है। सम्यग्दर्शनके सन्मुख, अन्दर सन्मुखताकी बात है। अंतरमें निर्विकल्प स्वानुभूति हो उस वक्त मति-श्रुतका उपयोग अपनेमें आ जाता है। इसलिये उसका उपाय बताया है कि जो पर प्रसिद्धिका कारण मति-श्रुत है, उसे अपने सन्मुख कर। आत्म प्रसिद्धि यानी अपनेमें स्थिर कर। इसलिये विकल्प छूटकर स्वानुभूति प्रगट होगी, ऐसा कहते हैं।
पहले उसकी प्रतीति यथार्थ करके, मति-श्रुतका उपयोग भी तेरे सन्मुख कर दे। उसका उपाय बताया है। सम्यग्दर्शन, स्वानुभूति होने पूर्वका वह उपाय बताया है। उपाय बताया है। निर्णय करके मैं ज्ञायक हूँ, ऐसी दृढ प्रतीति, निर्णय करके मति-श्रुतका उपयोग भी तेरे सन्मुख कर। बाहर, मति-श्रुतका पर प्रसिद्धिका जो कारण, दूसरी ओर जो उपयोग जाता है, उसे तेरे सन्मुख (कर)। तू तेरेमें स्थापित कर दे, ऐसा कहते हैं।
मुमुक्षुः- बहिन! उसकी अति तीव्र रुचि हो तभी अन्दर दृष्टि हो न। वह रुचि कैसी होती है?
समाधानः- परपदार्थ और विभावकी ओर उसे एकदम विरक्ति आकर अपने स्वभावको ग्रहण कर लेता है। वह तो उसकी तीव्र रुचि हो तो ही हो न, बिना रुचि कहाँसे हो?
मुमुक्षुः- वह रुचिकी जात कैसी है?
समाधानः- वह जात ही अलग होती है। भेदज्ञान करके जो रुचि प्रगट हो, यथार्थ रुचि, उसे रुचि कहो, प्रतीति कहो, यथार्थ दृष्टि कहो, वह सब सम्यग्दर्शनकी पर्याय है। सम्यग्दर्शन होने पूर्वकी यथार्थ रुचि है। भेदज्ञान करनेकी यथार्थ रुचि। विभावसे छूटकर स्वभावको ग्रहण करता है। वह यथार्थ रुच है।
आत्माका करना है, आत्माका करना है, वह अमुक प्रकारकी रुचि है। परन्तु जो स्वभावको ग्रहण करता है वह तो यथार्थ रुचि है। .. पहचान लेता है। यह मैं
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चैतन्य हूँ और यह मैं नहीं हूँ, ऐसे यथार्थ भेदज्ञान करता है।
मुमुक्षुः- फिर तो उसे अपनेआप उसे अन्दर मार्ग मिल जाता है?
समाधानः- मार्ग स्वयं ही खोज लेता है। जो गुरु द्वारा मार्ग मिला है, वह मार्ग अनुसार अंतरमेंसे स्वभावको ग्रहण करता है, भेदज्ञान करता है कि ये शुभाशुभभाव भी मेरा स्वभाव नहीं है। शुभ बीचमें आता है, परन्तु चैतन्यका मूल स्वरूप नहीं है। इसलिये अपना यथार्थ स्वभाव, जो गुरुदेवने कहा, देव-गुरु-शास्त्र जो कहते हैं, उस अनुसार स्वयं ग्रहण करके अपना मार्ग स्वयं ही अन्दरसे खोज लेता है। यह स्वभाव है, यह विभाव है उसका लक्षण पहिचान लेता है।
अनुपम मार्ग है, अनादिका अनजाना है। अनादि कालसे बाह्य क्रियामें धर्म मानता है, शुभभाव थोडा किया तो धर्म मान लिया। लेकिन वह तो पुण्यबन्धका कारण है। मुक्तिका मार्ग तो अंतरमें रहा है।
मुमुक्षुः- गुरुके पास उपदेश सुने और सम्यग्दर्शन ओर तुरन्त चारित्र जिन जीवोंको होता होगा, उन जीवोंको पहले तो रुचि नहीं थी, एक शब्द सुनने पहले रुचि भी नहीं थी। फिर एकदम ऐसी रुचि भी हो गयी, वह तो कितना उसे बल आता होगा।
समाधानः- स्वभाव-ओरका बल। रुचि अर्थात यथार्थ प्रतीति। प्रथम तो जो गुरु कहते हैं उसे सुनता है। गुरुने क्या कहा उसका आशय ग्रहण करता है। गहराईसे आशय ग्रहण करता है। उस जीवको आत्माका करना है, ऐसी रुचि होती है, परन्तु जो यथार्थ रुचि अन्दर स्वभाव ग्रहण हो, ऐसी रुचि तो अन्दर पहचान हो तब उसे होती है। परन्तु वह अंतर्मुहूर्तमें सब कर लेता है।
शिवभूति मुनिने अंतर्मुहूर्तमें कर लिया। गुरुने कहा, मातुष और मारूष भूल गये। कोई राग करना नहीं, द्वेष करना नहीं। वह तेरा स्वभाव नहीं है। ऐसा गुरुका आशय था। वह शब्द भूल गये। गुरुने क्या कहा, वह भूल गये। वह औरत दाल और छिलका भिन्न-भिन्न करती थी। मेरे गुरुने यह किया कहा है, भिन्नता करनी। ये दाल और छिलका भिन्न-भिन्न है। वैसे यह स्वभाव भिन्न है और विभाव भिन्न है। ऐसे उसने आशय ग्रहण कर लिया और अंतरमें भेदज्ञान हो गया। पुरुषार्थसे भेदज्ञान कर लिया। भेदज्ञानकी उग्रता करते-करते अंतरमें लीनता बढी, यथार्थ मुनिदशा हो गयी, सम्यग्दर्शन हो गया। यथार्थ मुनिदशा हो गयी। अंतर्मुहूर्तमें पहुँच गये।
मुमुक्षुः- वह तो इतना जल्दी हो गया..
समाधानः- अपना स्वभाव है न। यदि अन्दर पुरुषार्थसे पहुँचे तो देर नहीं लगती। और जो अनादिका अभ्यास है उसीमें तनीजता है तो कितना काल निकाल देता है। और यदि स्वभाव ग्रहण करे तो अंतर्मुहूर्तमें (हो जाता है)।
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... उसका रस अंतरमेंसे ऊतर जाय और स्वभावकी महिमा प्रगट हो। स्वभाव कैसे पहचानमें आये? उस जातका यथार्थ ज्ञान, यथार्थ समझन, यथार्थ विरक्ति, यथार्थ चारित्र अंतरमेंसे यथार्थ कैसे प्रगट हो? ये तो अभी भावनारूपसे ... ग्रहण किया उसमें यथार्थता कैसे प्रगट हो? यथार्थ त्यागस्वरूप आत्मा, यथार्थ ज्ञान, यथार्थ दर्शन, यथार्थ चारित्र कैसे प्रगट हो? जो गुरुदेवने बताया वह मार्ग ग्रहण करने जैसा है। उसकी वृद्धि कैसे हो?
.. तत्त्वविचार, मूल रहस्य क्या? आचार्य, गुरुदेव क्या मार्ग बताते हैं, उसका विचार करना, उसका वांचन करना, आत्माकी महिमा करना और देव-गुरु-शास्त्रने जो प्रगट किया है, शास्त्र जो बताते हैं, उन सबका विचार करना। मार्ग तो.. पहले तो मार्गका यथार्थ ज्ञान करना कि मार्ग कैसा है, ऐसे। ज्ञान करनेके बाद उसका भेदज्ञान करना, उसकी प्रतीत करना, लीनता करनी। भीतरमें जो जाननेवाला जो है वह आत्मा है। ये शरीर कुछ जानता नहीं। विकल्प आता है, वह भी कुछ जानते नहीं, जाननेवाला भीतरमें अलग है-भिन्न है, उसको पहचानना। भेदज्ञान करना। मैं स्फटिक जैसा निर्मल अनादिअनन्त आत्मा हूँ।
मुमुक्षुः- भेदज्ञान करनेके लिये, मतलब युग ऐसा है कि हर चीज बढ गयी है, हर जगह पर अशान्ति है। तो क्या मन्दिरमें ही हो सकता है? मन्दिरमें बैठकर ही कर सकते हैं?
समाधानः- नहीं, मन्दिरमें हो सकता है ऐसा नहीं है। उसका सच्चा ज्ञान करनेसे होता है। मन्दिर तो शुभभाव करनेका, देव-गुरु-शास्त्र.. जब आत्माकी पहचान नहीं होती है, तो देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आती है, मन्दिरमें जाता है, तो मन्दिरसे नहीं होता है। उसका सच्चा ज्ञान करनेसे होता है। उसका विचार करना, तत्त्व विचार करना, मूल वस्तु क्या है? उसका विचार करनेसे, उसकी लगन लगाये, उसकी महिमा करे, जिज्ञासा करे। विभावमें कुछ नहीं है, मेरे आत्मस्वभावमें सबकुछ है। ऐसी प्रतीत करनेसे, ऐसा विचार करनेसे होता है।
मुमुक्षुः- हमारा ध्यान तो पल-पलमें टूटता है। जैसे अभी बिजली गूल हो जाय, पंखा बन्द हो जाय तो हमारा..
समाधानः- लगन होनेसे होता है। बाहर लक्ष्य जानेसे नहीं होता है। लगन लगानी चाहिये। जैसे विभावकी लगन है, वैसे आत्माकी लगन लगानी चाहिये। परमें उपयोग जाता है, वैसे स्वमें उपयोग लगाना चाहिये। तो हो सकता है। भेदज्ञान करनेसे होता है।
मुमुक्षुः- निश्चयमें कैसे कूदना? व्यवहारको पकडने जाय तो व्यवहार ही पकडमें रहता है। निश्चयकी आराधना करने जाते हैं तो शुष्कता हो जाती है।
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समाधानः- ध्येय निश्चयका रखना। व्यवहारमेंसे निश्चयमें जाना नहीं होता। निश्चयकी दृष्टि, निश्चयकी ओर परिणति करे तो निश्चयमें जाय। जो व्यवहारमें सर्वस्व मानते हैं कि व्यवहारसे ही धर्म होता है, उसे तो कोई अवकाश नहीं है। परन्तु व्यवहारके साथ ध्येय निश्चयका होना चाहिये कि आत्मा स्वयं अनादिअनन्त तत्त्व है। ये विभाव स्वभाव मेरा नहीं है। मैं चैतन्यतत्त्व हूँ। ऐसा अन्दर ध्येय, अन्दर ऐसी दृष्टि, ऐसी प्रतीत ऐसा ध्येय होना चाहिये। ऐसा ध्येय रखकर उसमें पलटे। ऐसा ध्येय हो, ऐसी भावना हो, ऐसी उसे खटक रहती हो तो उसमें उसे पलटनेका अवकाश, पुरुषार्थ शुरू हो तो होता है। व्यवहारसे निश्चय होता नहीं, परन्तु उसका ध्येय रखे, उस ओर दृष्टि रखे, उसकी भावना रखे तो उसे पलटनेका अवकाश है। व्यवहार तो व्यवहार ही है, परन्तु उसके साथ उसे ध्येय होना चाहिये कि इसमें सबकुछ नहीं है। सर्वस्वभूत तो आत्मामेंसे शुद्ध पर्याय प्रगट होती है। ये तो शुभ तो शुभ ही है। परन्तु उसका ध्येय वह होना चाहिये। वह नहीं होता है तबतक शुभमें खडा रहता है। उस जातका ज्ञान, दर्शन... भावना करता रहे। यथार्थ ज्ञान, दर्शन तो चैतन्यको ग्रहण करनेसे होता है। आत्मामेेंसे ही दर्शन प्रगट होता है और आत्मामें ज्ञान और आत्मामें चारित्र प्रगट होता है।
मुमुक्षुः- चैतन्यको ग्रहण करनेमें वांचन, मनन या सत्पुरुषका मिलन, इसमें खास ज्यादा उपयोगी कौन होता है?
समाधानः- सब साथमें होना चाहिये। वांचन, मनन समझ पूर्वक होना चाहिये। आत्मा कैसे ग्रहण हो, वह ध्येय होना चाहिये। उसमें सत्पुरुषका ग्रहण, सत्पुरुषका समागम, वाणी सब साथमें होना चाहिये। सत्पुरुषका आश्रय... गुरुदेवने क्या कहा है? क्या मार्ग बताया है? उस प्रकारसे अपनी विचारकी शैली (होनी चाहिये)। स्वयं विचार करे, आत्माका स्वभाव ग्रहण करना, उसमें गुरुदेवने क्या कहा है? उसके साथ मेल करके स्वयं आगे बढे। समझता है, ज्ञानसे समझमें आता है, परन्तु उसमें गुरुदेवने क्या मार्ग बताया है, उसका साथमें रखकर विचार करे।
मुमुक्षुः- इस बातकी पुष्टि होनेके लिये ज्यादा एकान्त चाहिये?
समाधानः- एकान्तकी भावना आये तो उसमें कोई... भावना आये तो एकान्त ज्यादा होना ही चाहिये, ऐसा नहीं, परन्तु एकान्त हो तो उसे उस जातका विचार करनेका, वांचन करनेका साधन बनता है। परन्तु एकान्त होना ही चाहिये, ऐसा नहीं। योग्यता अनुसार होता है। किसीको वांचन रुचता है, किसीको एकान्तमें रुचता है, उसकी परिणति अनुसार (होता है)। एकान्त हो तो विचार करनेका, मनन करनेका, उस प्रकारसे ज्यादा समय मिलता है।
... दर्शन, ज्ञान, चारित्र.. मुनिओंको चारित्रकी भावना होती है तो एकान्तमें चले
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जाते हैं। एकान्तसे होता नहीं है, परन्तु ऐसी भावना आये बिना नहीं रहती। वैसे जिसे आत्माका करना हो उसे ऐसी भावना आये बिना नहीं रहती। उससे बनता नहीं है, वह करवा देता है ऐसा नहीं है। परन्तु ऐसी भावना उसे आती है।
मुमुक्षुः- क्रममें आ पडे उदयिका भावको आगे-पीछे नहीं कर सकते हैं। उस वक्त इस ओरका मनन, विचार .. उस वक्त क्या करना?
समाधानः- क्रममें आ पडे उसे आगे-पीछे (नहीं होता)। उसमें पुरुषार्थ करना अपने हाथकी बात है। आगे-पीछे नहीं कर सकता। जिसकी भावना हो वह पुरुषार्थ करके पलट सकता है। यदि पलट न सकता हो तो अनादि कालसे कोई पुरुषार्थ करके, भेदज्ञान करके सम्यग्दर्शन प्राप्त ही न हो। वह सब पर्याय हैं। पर्यायको पलटनेका स्वभाव है। विभावपर्यायमेंसे स्वभाव-ओर भावना करके स्वभावको ग्रहण करना, वह पलटा, जो पर्याय इस ओर है उस पर्यायको (पलटकर) स्व-ओर दृष्टि करनी वह अपने हाथकी बात है।
वह क्रमबद्ध पुरुषार्थके साथ जुडा है। अकेला क्रमबद्ध होता ही नहीं, पुरुषार्थके साथ जुडा हुआ क्रमबद्ध है। उस क्रमबद्धके अन्दर स्वभाव, पुरुषार्थ आदि उसके साथ जुडा हुआ है। जिसकी पुरुषार्थकी गति.. विभाव सर्वस्व लगे, विभावमेंसे छूटना जिसे रुचता नहीं है, उसका क्रमबद्ध ऐसा है। जिसे विभाव रुचता नहीं है और स्वभाव ही रुचता है, उसका क्रमबद्ध उस प्रकारका होता है, उसके पुरुषार्थकी गति उस ओर होती है। पुरुषार्थके साथ जुडा हुआ क्रमबद्ध होता है।
मुमुुक्षुः- ... निषेध समकितीको वर्तता है और उनको ही खूब अर्पणता होती है। ऐसा कहते थे, जिसे निषेध वर्ते ही उसे सच्ची अर्पणता है। यह बात बहुत विचित्र है।
समाधानः- स्वभावमें वह नहीं है। स्वभावमें उसे शुभभावका आदर (नहीं है)। वस्तु स्थिति वह नहीं है, उसकी दृष्टिमें आदर नहीं है। एक चैतन्यतत्त्वको ग्रहण किया, परन्तु बीचमें आये बिना नहीं रहता। इसलिये जो शुभभावना आये,.. उसे चैतन्यकी इतनी महिमा है कि ये चैतन्य ही सर्वस्व अंगीकार करने जैसा है। दूसरा कुछ इस जगतमें सारभूत नहीं है। ये विभाव है वह आत्माका स्वभाव नहीं है, दुःखरूप-आकुलतारूप है। तो ऐसे स्वभावको जिसने प्राप्त किया, संपूर्णरूपसे जो पुरुषार्थ करके स्वरूपमें लीन हो गये और केवलज्ञान प्राप्त किया और जो स्वरूपमें बार-बार लीन होते होंगे ऐसे मुनिवर क्षण-क्षणमें उन सबका उसे इतना आदर होता है। क्योंकि उसे स्वयंको स्वभावका उतना आदर है कि ये विभाव है वह हेयरूप ही है, मेरा स्वभाव ही आदरणीय है। इसलिये स्वभाव आदरणीय..
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अंतर्गत परिणतिमेंसे यथार्थ दृष्टि और यथार्थ प्रतीति ऐसी हुयी है कि जिसने वह प्रगट किया, उस पर उसे उतनी ही महिमा आती है। शुभभाव आदरणीय नहीं मानता है, तो भी शुभभावमें जब वह खडा है, तब उसे हेयबुद्धि (वर्तती है) कि ये मेरा स्वभाव भिन्न और ये विकल्प भिन्न है। तो भी उस शुभभावमें जो निमित्त हैं ऐसे देव-गुरु-शास्त्र पर उसे महिमा भी उतनी ही आती है। क्योंकि उसे स्वभावकी उतनी महिमा है और विभाव तुच्छ लगा है। इसलिये उसने जो प्रगट किया है और जो उसकी साधना करते हैं, उस पर उसे महिमा भी उतनी ही आती है। उसकी महिमाका कारण है कि स्वयंको स्वभावकी महिमा है। इसलिये जिन्होंने स्वभाव प्राप्त किया उस पर उसे महिमा, यथार्थ महिमा आती है।
अंतर दृष्टिमें (ऐसा है कि) शुभभाव मेरा स्वभाव नहीं है, ऐसा मानता है। उसी क्षण भेदज्ञानकी धारा वर्तती है। तो भी उसे शुभभावमें पुण्य आदरणीय नहीं है। शुभभावका रस उसे बहुत पडता है और स्थिति कम पडती है।
मुमुक्षुः- आपने ही बात कही थी कि जिसे अपनी महिमा आयी है, उसे ही सच्चे निमित्तका पूरी महिमा आती है।
समाधानः- यथार्थ अपनी महिमा आये उसे देव-गुरु-शास्त्रकी यथार्थ महिमा आती है।