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मुमुक्षुः- ... परन्तु माताजी! निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध अत्यन्त घनिष्ट है। एक वचनकी जो असर होती है, वह पढनेसे विचार नहीं आता।
समाधानः- परन्तु फिर भी स्वयं स्वतंत्र है।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- स्वतंत्र है।
मुमुक्षुः- कितना, माताजी! ..
समाधानः- गुरुदेवने मार्ग बताया है। स्पष्ट करके गये हैं। करनेका स्वयंको है।
मुमुक्षुः- ... कल्याण करना है ऐसी गरज नहीं है।
समाधानः- अपनी उतनी तीखी गरज लगे तो हुए बिना रहे ही नहीं।
मुमुक्षुः- सबमें निज अस्तित्वका जोर लेना? माताजी!
समाधानः- सबमें निज अस्तित्वका जोर। मैं ज्ञायक, मैं चैतन्य, ज्ञायकका अस्तित्व- अपना अस्तित्व। तेरा अस्तित्व तू ग्रहण कर तो तू स्वयं जैसा है वैसा प्रगट होगा। तेरा अस्तित्व तू ग्रहण कर तो तेरा जैसा स्वभाव है, वह स्वभाव प्रगटरूपसे परिणमित हो जायगा। तेरा अस्तित्व तूने ग्रहण नहीं किया है इसलिये विभावपर्याय प्रगट होती है। तेरा अस्तित्व तू स्वयं ग्रहण कर तो उसमेंसे स्वभावपर्याय प्रगट होगी। सबमें अपना अस्तित्व ग्रहण करना है।
मुमुक्षुः- माताजी! उपयोग बाहर जाय तो क्या लेना? उपयोग तो शुभ-अशुभमें जुडता है।
समाधानः- उपयोग बाहर जाय तो जिसकी सहज दशा है उसे तो अपनी परिणति चालू रहती है। इसे तो उपयोग बाहर जाय तो अन्दर ऐसा भाव रहे कि करनेका कुछ अलग है और ये बाहर जा रहा है, एकत्वबुद्धि होती है। मैं तो भिन्न चैतन्य हूँ, ऐसी भावना रख सकता है। जिसकी सहज परिणति हो उसकी तो अलग बात है। उसे तो ज्ञायककी धारा निरंतर चालू रहती है। उपयोग बाहर जाय तो भेदज्ञान क्षण-क्षण, क्षण-क्षण उसे याद नहीं करना पडता। एकबार एकत्व हो जाय और फिर याद करना पडे कि मैं भिन्न हूँ, ऐसा उसे नहीं करना पडता। उसे तो जब भी उपयोग
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बाहर जाय, उसी क्षण, दूसरी क्षण नहीं है, उसी क्षण उसे भिन्न ज्ञायककी धारा चलती ही है। ऐसी सहज दशा होती है। परन्तु जिसे दशा नहीं है उसे तो उपयोग बाहर जाय तो भावना रखे कि करना कुछ और है अंतरमें। उपयोग बाहर जाता रहता है। स्वयं भावना रखे। जिसकी भेदज्ञानकी धारा सहज हो उसे तो क्षण-क्षणमें वर्तती ही है। कोई बार तो विकल्प छूटकर स्वानुभूतिमें जाय, पुनः उपयोग बाहर आये तो भी एकत्व तो होता ही नहीं। भेदज्ञानकी धारा क्षण-क्षणमें चलती ही है।
मुमुक्षुः- आपने उसमें ऐसा भी लिया है कि कोई बार तो सहज-सहज ढेर लग जाय और कोई बार जैसा है वैसा रहे।
समाधानः- वह तो उसकी परिणामकी धारा जैसे उठे उस प्रकारसे होता है। परिणामकी धारा है, पुरुषार्थकी गति है। चौथे गुणस्थानमें, पाँचवे गुणस्थानमें उसकी जैसी पुरुषार्थ धारा प्रगट हो...
कोई बार चैतन्य भगवानकी कृपासे द्वार खुल जाते हैं। मुमुक्षुः- आपकी कृपा है, माताजी! श्रीमदजीने कहा है कि, ज्ञानीके एक-एक शब्दमें अनन्त आगम रहे हैं। आपका जितना है उतना हम पकड नहीं सकते हैं। वाणीमें तो बहुत आया है, बहुत आया है। सब तालेकी एक ही चाबी है। आप कहते तो तब मधुर-मधुर लगता है और जब पढते हैं तब उतना अन्दरसे... माताजी! इसलिये ऐसा होता है।
मुमुक्षुः- तो उपशम सम्यग्दर्शन जो होता है, वह पुरुषार्थकी कमजोरी यदि छूट जाय तो उसका संसार भी अर्ध पुदगलपरावर्तन ही ज्यादासे ज्यादा रहता है या फिर अनन्त संसारका बन्ध है?
समाधानः- अर्ध पुदगल ही रहता है।
मुमुक्षुः- छूटनेके बाद? छूट जाय तब भी?
समाधानः- हाँ, तो भी अर्ध पुदगल (ही रहता है)। शास्त्रमें अर्ध पुदगल ही आता है।
मुमुक्षुः- ज्यादा तो नहीं होता?
समाधानः- नहीं, ज्यादा नहीं होता, अर्ध पुदगल ही रहता है। शास्त्रमेंं ऐसा आता है। उपशम होवे, क्षयोपशम होवे, जो भी हो..
मुमुक्षुः- अगर पुरुषार्थकी कमजोरीसे छूट भी जाय तो भी उससे ज्यादा समय नहीं होता?
समाधानः- उससे ज्यादा नहीं होता। अर्ध पुदगल ही रहता है। जब स्वरूपकी ओर वह परिणति गयी, बादमें उसे संसारका अंत आ जाता है। छूट जाता है तो
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अर्ध पुदगलसे ज्यादा नहीं रहता है। ऐसी वस्तुकी स्थिति नियम ही ऐसा है कि जब स्वभाव प्राप्त किया तो स्वभाव प्राप्त करनेके बाद वह संसारमें टिक नहीं सकता। जब स्वभावकी ओर परिणति गयी तो अर्ध पुदगलसे ज्यादा वह रह नहीं सकता।
मुमुक्षुः- जो उपयोग परलक्ष्यको छोडकर सीधा आत्माकी अनुभूति, आनन्द, शान्ति सहित परिणमन करे तो उसीका नाम आत्माका ज्ञान है क्या?
समाधानः- हाँ, आत्माका ज्ञान है। आत्माकी अनुभूति करता है वह आत्मज्ञान है। वही आत्मज्ञान है। उपयोग परसे छूटे और स्वभावकी अनुभूति करे वह आत्माका ज्ञान है। आत्माका ज्ञान कहो, आत्माकी अनुभूति कहो, सब एक ही है। उसको आत्मज्ञान कहते हैं। आत्मज्ञानके बाद उसकी धारा चालू रहती है। अनुभूतिकी स्थिति तो अंतर्मुहूर्तकी है, निर्विकल्प दशाकी। बादमें सविकल्प दशामें आता है तो ज्ञायककी धारा तो चालू रहती है।
मुमुक्षुः- शुद्ध परिणति?
समाधानः- हाँ, शुद्ध परिणति। तो उसको ज्ञान कहनेमें आता है। निर्विकल्प दशामें हो या सविकल्पमें हो, तो भी उसे आत्मज्ञान कहनेमें आता है। जब स्वानुभूति होवे बादमें जो सविकल्प दशा रहती है तो स्वानुभूतिको भी आत्मज्ञान कहते हैं और सविकल्प दशामें भी आत्मज्ञान कहनेमें आता है। क्योंकि वह ज्ञायककी धारा, भेदज्ञानकी धारा हमेंशा चलती है इसलिये।
मुमुक्षुः- तो इन्द्रियका अवलम्बन भी आता है उसमें?
समाधानः- नहीं, अतीन्द्रिय आनन्द जब हुआ तब तो आलम्बन छूट जाता है। मनका विकल्प भी नहीं रहता है। निर्विकल्प दशा हो जाती है। फिर उपयोग बाहर आये तो आलम्बन भले हो अतीन्द्रिय ज्ञान, जो ज्ञायककी धारा अंतरसे भिन्न पडकर जो परिणति हुयी तो आंशिक इन्द्रियका आलम्बन छूटकर भिन्न परिणमन ही रहता है। विकल्प होेवे तो भी उसका भिन्न परिणमन रहता है।
मुमुक्षुः- वह परको जानेगा तब भी?
समाधानः- हाँ, उसी समय न्यारा परिणमन रहता है। उपयोग बाहर जावे, वह परको जानता है तो भी स्व छूटता नहीं। स्वकी परिणति नहीं छूटती। स्वको जानता है और परको भी जानता है। स्वकी परिणति छूटती नहीं है। ज्ञायककी धारा रहती है। जिस क्षण, जिस क्षण आत्माको जानता है ज्ञायककी धारा, जब उपयोग बाहर जाता है तो उसी क्षण आत्माकी परिणति उसी क्षण रहती है। फिर याद नहीं करना पडता है। आत्माके अस्तित्वरूप ज्ञायककी धारा आंशिक वेदन, आंशिक शान्तिकी धारा (उसी क्षण चालू है)। निर्विकल्प दशाका आनन्द दूसरा है, फिर भी सविकल्पमें भी
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शान्तिकी धारा और ज्ञानकी ज्ञाताधारा रहती है। उपयोग परमें जाता है तो भी वह छूटता नहीं।
मुमुक्षुः- आनन्दका वेदन तो नहीं रहता।
समाधानः- आनन्दका वेदन नहीं रहता। शान्ति होती है। आनन्द जो अपूर्व आनन्द होता है वह निर्विकल्प दशामें होता है। सविकल्प दशामें शान्ति रहती है। शान्ति- समाधि और ज्ञाताकी धारा रहती है।
मुमुक्षुः- निराकूलता रहती है?
समाधानः- हाँ, निराकूलता रहती है और शान्ति, आंशिक शान्तिका परिणमन (होता है)। आंशिक स्वरूपाचरण चारित्र प्रगट हुआ न, इसलिये शान्तिकी धारा रहती है।
मुमुक्षुः- द्रव्यका ही अशुद्ध-अशुद्ध परिणमन पर्यायकी अपेक्षासे होता है। तो उसी समय द्रव्य-गुणकी अपेक्षासे नित्य शुद्ध एकरूप ही रहता है?
समाधानः- अशुद्ध परिणाम तो.. पर्यायकी अपेक्षासे अशुद्धता रहती है न। और शुद्धता.. क्या कहा? वह तो नित्य है, एकरूप है। पर्यायकी अपेक्षासे अनित्य है।
मुमुक्षुः- तो उसीको अपरिणामी द्रव्य कहते हैं?
समाधानः- अपरिणामी द्रव्य? द्रव्यकी अपेक्षासे अपरिणामी कहनेमें आता है, वह तो एकरूप रहता है उसको अपरिणामी कहते हैं। उसमें फेरफार नहीं होता, इसलिये अपरिणामी। द्रव्य और गुण एक समान रहते हैं इसलिये अपरिणामी।
मुमुक्षुः- तो ये ध्रुव शुद्ध द्रव्यदृष्टिका विषय बनता है या दूसरा प्रमाणवाला द्रव्य?
समाधानः- नहीं, वह ध्रुव द्रव्यदृष्टिका विषय बनता है। अनादिअनन्त है वह द्रव्यदृष्टिका विषय बनता है। अनादिअनन्त पारिणामिकभाव है न। वह द्रव्य और गुण ध्रुव... परमपारिणामिकभाव उसमें आ जाता है।
मुमुक्षुः- सहज स्वभाव?
समाधानः- हाँ। एकरूप रहता है। परमपारिणामिकभाव जो अनादिअनन्त है, वह द्रव्यदृष्टिका विषय है।
मुमुक्षुः- तो ये जो सामान्यचेतना भी कहते हैं?
समाधानः- हाँ, सामान्यचेतना कहते हैं।
मुमुक्षुः- सामान्यचेतना अनादिअनन्त रहती है।
समाधानः- हाँ, सामान्यचेतना रहती है। अनादिअनन्त सामान्य स्वरूप, एक स्वरूप रहती है, विशेष वह पर्यायमें फेरफार होता है।
मुमुक्षुः- ये जो चेतना अशुद्ध होती है, वह तो पर्यायवाली होती है।
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समाधानः- वह पर्यायवाली होती है।
मुमुक्षुः- सामान्यचेतना?
समाधानः- सामान्यचेतना एकसरीखी होती है। विशेषचेतनामें तो उपयोग आ जाता है न। सामान्यचेतना एकसरीखी रहती है।
मुमुक्षुः- तो ये पर्याय जो होती है तो वह द्रव्यसे होती है कि प्रत्येक गुणोंसे भी अलग-अलग होती है?
समाधानः- क्या?
मुमुक्षुः- जो पर्याय होती है न? वह द्रव्यके आधारसे होती है कि प्रत्येक गुणके आधारसे?
समाधानः- मूल तो द्रव्यका ही आधार है। और जिस गुणकी जो पर्याय होती है उसको गुणका भी आधार है। मूल आधार तो द्रव्य है। गुणका आधार भी द्रव्य है। अनन्त गुणोंका आधार द्रव्य है। मूल तो द्रव्य आधार है। परन्तु कोई अपेक्षासे द्रव्यका आधार भी है, गुणका आधार भी है। गुण भी अनादिअनन्त है, द्रव्य भी अनादिअनन्त है। कोई अपेक्षासे जिस गुणकी जो पर्याय है, ज्ञानकी पर्याय ज्ञानमेंसे, दर्शनकी दर्शनमेंसे, चारित्रकी चारत्रमेंसे इसलिये गुणका आधार है। परन्तु मूल आधार तो द्रव्य है। भेदकी अपेक्षासे गुणका आधार है। अभेद मूल एक वस्तु अनादिअनन्त एक द्रव्यका आधार है। वह तो भेदका विकल्प है। वह मूल वस्तु नहीं है। मूल वस्तु तो द्रव्य है, द्रव्यका आधार है।
मुमुक्षुः- ये जो कहा गया कि पर्याय पर्यायसे ही होती है। तो वह षटकारकसे होती है, तो वह उसकी स्वतंत्र दृष्टिसे कहा गया है?
समाधानः- पर्याय पर्यायसे, पर्याय स्वतंत्र है इसलिये।
मुमुक्षुः- इसलिये कहा गया?
समाधानः- हाँ, उस अपेक्षासे ऐसा भी कहनेमें आता है। वह अपेक्षा दूसरी है। पर्यायके कारक पर्यायमें हैं, द्रव्यके कारक पर्यायमें.. वह स्वतंत्र अपेक्षासे कहनेमें आता है। परन्तु जितना द्रव्य स्वतंत्र है, एक द्रव्यसे दूसरा द्रव्य स्वतंत्र परिणामी रहता है, उतनी स्वतंत्रता पर्यायकी (नहीैं है)। पर्याय स्वतंत्र है, तो भी पर्यायको द्रव्यका आधार होता है। पर्यायको द्रव्यका आधार होता है। परन्तु द्रव्यको किसीका आधार नहीं होता। द्रव्यकी स्वतंत्रता दूसरे प्रकारकी है। द्रव्य तो निरपेक्ष है। उसके जो षटकारक कहनेमें आये वह दूसरी अपेक्षा है, पर्यायकी अपेक्षा दूसरी है। परन्तु पर्याय स्वतंत्र है वह बात बतानेके लिये पर्याय स्वतंत्र है। पर्यायके षटकारक पर्यायमें है, वह बात कहनेमें आती है।
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पर्याय स्वतंत्र है इसलिये उसे कोई बना नहीं देता। पर्याय स्वतंत्र प्रगट होती है। पर्यायकी स्वतंत्रता बतानेके लिये उसके षटकारक भी स्वतंत्र (कहनेमें आते हैं)। वह भी एक अपेक्षा है। पर्यायकी स्वतंत्रता है वह जाननेके लिये एक अपेक्षासे कहनेमें आता है।
मुमुक्षुः- प्रवचनसारमें आया न कि द्रव्य, गुण और पर्याय तीनों सत हैं। तो ये..
समाधानः- हाँ, तीनों सत हैं। इसलिये तीनों स्वतंत्र हैं।
मुमुक्षुः- तीनों स्वतंत्र।
समाधानः- तीनों स्वतंत्र हैं। लेकिन उसकी अपेक्षा जाननी चाहिये।
मुमुक्षुः- यानी है द्रव्यके आधारसे।
समाधानः- हाँ, द्रव्यके आधारसे है। द्रव्यका आधार समझना चाहिये। नहीं तो पर्याय निराधार नहीं होती।
मुमुक्षुः- स्वयं ही आत्माको जाननेका कार्य करे और आत्माके सन्मुख होकर करे और परसे विमुख होकर। तो शान्ति, आनन्द जो प्रगट हुआ उसे ही वेदन कहते हैं?
समाधानः- उपयोग स्वका... क्या कहा? पर-ओरसे उपयोग हटकर स्वसन्मुख होवे, परकी सन्मुखता तोड दे और स्वसन्मुख उपयोग होवे, उपयोग आत्मामें लीन हो जाय और विकल्प टूट जाय, उपयोग स्वरूपमें आये, विकल्प टूट जाय, विकल्पकी आकूलता टूट जाय, उसका भेदज्ञान हो जाय, आत्मा आत्माकी ओर सन्मुख हो जाय, आत्मामेें उपयोग लीन हो जाय तो आत्मामें उसका जो स्वभाव है-आनन्द आदि अनन्त गुण है वह प्रगट होते हैं। उसको आत्माकी स्वानुभूति और वेदन कहनेमें आता है। उपयोग परसे छूट जाय।
मुमुक्षुः- तो उसमें बार-बार स्थिरता क्यों नहीं होती?
समाधानः- क्या बार-बार?
मुमुक्षुः- स्थिरता क्यों नहीं होती?
समाधानः- स्थिरता तो उसकी जो दशा जितनी होवे वैसे होवे। क्योंकि उपयोग तो बाहर चले। अंतर्मुहूर्तकी उसकी स्थिति है। अंतर्मुहूर्तिकी स्थिति है उपयोगकी। अंतर्मुहूर्त स्वानुभूतिमें स्थिर होकर उपयोग बाहर जाता है। स्थिरता तो चारित्रदशाकी कमी है इसलिये स्थिरता नहीं होती है। स्वरूपकी परिणति ज्ञायककी धारा रहती है। ज्ञायककी भेदज्ञानकी धारा रहती है। अमुक अंशमें स्थिरता होती है। स्थिरता नहीं होता है, ऐसा नहीं। उसमें एकमेक नहीं हो जाता है। एकत्वबुद्धि नहीं होती। ज्ञायककी ज्ञाताधार और कर्मकी
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धारा-उदयधारा दोनों भिन्न रहती है। उतनी स्थिरता उसको निरंतर रहती है। और विकल्प टूटकर निर्विकल्पकी स्थिरता वह कोई-कोई बार होती है। निर्विकल्प स्थिरता तो जैसी दशा होवे वैसी होती है।
मुमुक्षुः- तो अगर ये दशा न हो तो क्या सम्यग्दर्शन छूट जाता है?
समाधानः- जिसको भेदज्ञानकी धारा रहती है उसको निर्विकल्प दशा अमुक समयमें आती ही रहती है। उसकी पुरुषार्थकी दशा ऐसी है।
मुमुक्षुः- .. पुरुषार्थ होना चाहिये?
समाधानः- स्थिरताके लिये तो बारंबार ज्ञायककी धाराकी उग्रता करे, ज्ञाताधाराकी उग्रता करे तो स्थिरता होवे। ज्ञायकधाराकी उग्रता। फिर विशेष स्थिरता हो तो उसकी भूमिका भी पलट जाती है। चौथे गुणस्थानमें जो स्थिरता होती है, उससे पंचम गुणस्थानमें विशेष स्थिरता होती है। उससे विशेष छठवे-सातवेंमें होती है। छठवे-सातवें गुणस्थानमें उससे विशेष अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्त आत्मामें उपयोग स्थिर हो जाता है। अंतर्मुहूर्त बाहर जाय, अंतर्मुहूर्त अंतरमें जाय। अंतर्मुहूर्तमें बाहर आवे। तो अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमेें उपयोग इतना स्थिर हो जाता है, छठवें-सातवें गुणस्थानें। उसका क्या पुरुषार्थ क्या, ज्ञाताधाराकी उग्रता (करे)। वह तो भूमिका पलट जाती है, विशेष स्थिरता होवे तो। चौथे गुणस्थानमें अमुक प्रकारकी स्थिरता होती है।
मुमुक्षुः- उसके लिये ज्यादा मननकी जरूरत रहती है?
समाधानः- स्थिरताके लिये मननकी जरूरत रहती है ऐसा नहीं। मनन तो श्रुतका चिंतवन रहता है। स्थिरताके लिये तो आत्मामें विशेष लीनता करना। उसकी विरक्ति बढकरके, विभाव परिणामसे विरक्ति होकर ज्ञाताधारामें तल्लीनता-लीनता होवे तो स्थिरता होवे, वही उसका पुरुषार्थ है। मनन तो बीचमें स्थिर न हो सके तो श्रुतका चिंतवन रहता है। वह ज्ञानकी परिणति है, पहलेवाली स्थिरता-लीनताकी परिणति है।
... के लिये मनन करे, विशेष ज्ञानकी निर्मलता करनेके लिये। शिवभूति और कुछ नहीं जानते थे। भेदज्ञानकी धारा उग्रता हो गयी तो उसमें लीनता बढ गयी। लीनता बढ गयी तो वीतराग हो गये, केवलज्ञान हो गया। ऐसा होता है।
मुमुक्षुः- लीनताकी जरूरत है।
समाधानः- हाँ, लीतनाकी जरूरत है। जब लीनता नहीं होवे तब श्रुतका चिंतवन रहता है।
मुमुक्षुः- विचारधारा?
समाधानः- हाँ, विचारधारा रहती है।
समाधानः- .. अन्दर यथार्थ उलझन हो तो अन्दरसे मार्ग हुए बिना नहीं रहता।
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सही उलझन हो तो अन्दरका मार्ग स्वयं ही कर लेता है। बाहर जैसे कोई उलझन हो तो उसका रास्ता जैसा निकालता है, ऐसे अंतरमें यदि सच्ची उलझन हो तो अंतर्भेद होकर अन्दर उलझन हो तो स्वयंका आधार स्वयं ही ले लेता है। अन्दर स्वयंके ज्ञायकक आश्रय स्वयं ही ले लेता है। ऐसा कहते थे।
अन्दरकी सच्ची उलझन हो तो अन्दरसे स्वयं ही आधार लिये बिना रहे नहीं और वह नहीं हो तबतक, भावना गहरी न हो तो भावना भले ऊपरसे हो तो भी सच्चा तो गहराईसे भावना करनी वही करना है। अन्दरसे प्रगट करना है। परन्तु वह प्रगट न हो तो आचार्यदेव समयसारमें कहते हैं कि हम ऊपर-ऊपर जानेको कहते हैैं, शुद्ध भूमिकामें अर्थात तू तीसरी भूमिकामें जा। इसलिये ऐसा नहीं कहते हैं कि तू नीचे ऊतर। नीचे-नीचे गिरनेको कहाँ कहते हैं, तू नीचे क्यों गिर रहा है? नीचे-नीचे क्यों गिर रहा है, ऐसा आचार्यदेव कहते हैं। हम तो तीसरी भूमिकामें जानेको कहते हैं। अर्थात जो प्रतिक्रमण, अप्रतिक्रमण.. उसे हमने अमृतकुंभ जो तीसरी भूमिका कही, और शुभकी भूमिकाको हम विषकुंभ कही तो शुभकी भूमिका छोडकर अशुभमें जा ऐसा हम नहीं कहते हैं। तीसरी भूमिकामें जा। दोनों कोटिका (उल्लंघन करके) तीसरी कोटिमें जा। ऐसा जानेका कहते हैं। और वह न हो तबतक तू वहाँ खडा रह। परन्तु तेरी दृष्टि तो तू तेरे शुद्धात्मा पर रखना। मेरा चैतन्यदेव कैसे प्रगट हो? ऐसे।
इसलिये ऐसा कहा कि मन्दिरके द्वार बन्द हो तो मन्दिरके पास तू टहेल लगाना, टहेल लगाना मत छोडना। तेरेसे आगे न बढा जाय तो तेरी भावना गहराईसे न हो तो अमुक प्रकारसे तेरी भावना मन्द-मन्द पुरुषार्थकी हो तो मन्दिर आगे टहेल लगाता रह। द्वार नहीं खूल रहे हैं, अब छोड दूँ, ऐसे छोडना मत।
ऐसे चैतन्यदेव अन्दरसे प्रगट हो तो अन्दर तू टहेल लगाना छोडना मत कि मैं ज्ञायक हूँ। अंतर गहराईमेंसे तुझे ज्ञायककी पहिचान न हो तो भी तुझे भावना अमुक प्रकारसे मन्द-मन्द होती हो तो भी तू टहेल लगाना छोडना मत। चैतन्य भगवानके द्वार पर टहेल मारता रह, उसे छोडकर अशुभमें जानेको आचार्यदेव नहीं कहते हैं। तीसरी भूमिकामें जानेको कहते हैं। वह न जाना हो तो तू चैतन्यभगवानके द्वार पर टहेल लगाता हुआ खडा रहना, उसे छोडना मत। थकना नहीं, ऐसा कहा। टहेल लगाता रह।
मन्दिरके द्वारा टहेल लगाता रह भगवानके आगे, तेरी खरी भावना होगी तो मन्दिरके द्वार (खूल जायेंगे)। इस चैतन्यके द्वार पर तू टहेल लगा तो कभी तो प्रगट होनेका तेरा पुरुषार्थ अन्दर जानेका अवकाश है। परन्तु यदि वहाँसे थककर कहीं और जगह गया-नीचे गया तो फिर कोई अवकाश नहीं है।
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मुमुक्षुः- स्वयंको ऐसा लगे कि कुछ होता नहीं है तो भी छोडना नहीं।
समाधानः- नहीं हो रहा है तो भले वहींका वहीं खडा रह। लेकिन उसे छोडना मत। उसीमें लगे रहना कि प्रगट तो यह चैतन्यदेवको ही करना है। ज्ञायक पहचाना नहीं जाता, लेकिन छोडना मत। उसका मनन, उसका चिंतवन, वह विचार, वही वांचन, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, चैतन्य कैसे पहचानमें आये उस ध्येयपूर्वक। चैतन्यकी महिमापूर्वक चैतन्यका स्वभाव कैसे पहचानमें आये, उस ध्येयपूर्वक देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, श्रुतका चिंतवन वह सब (करना)। गहराईसे न आता हो तो भी छोडना मत। छोडेगा तो उलझनमें अशुभमें मत जाना, ऐसा कहना था। रुचिको तू मन्द करके दूर मत जाना। परन्तु वहीं टहेल लगाना, ऐसा कहा था। स्वयंकी बात आये न इसलिये अच्छी लगे।
अपनी रुचि अंतरमें एकदम ऊतर गयी। स्वभावकी ओर रुचि एकदम उग्र हो गयी, पुरुषार्थ उग्र हो गया और बाहर कहीं रुचि टिक सके नहीं, बाहर कहीं टिक न सके, अंतरकी रुचि उग्र हो गयी, उसके पीछे पुरुषार्थ और आत्माका स्वभाव ग्रहण कर लिया एकदम। स्वभाव ग्रहण कर लिया और भेदज्ञान किया।
ये छिलका अलग और दाल अलग, वैसे मैं ज्ञायक भिन्न और ये विभाव भिन्न। करनेका एक-मूल प्रयोजनभूत आत्माको ग्रहण करना। विभाव भिन्न। उसके लिये, वह कर नहीं सकता है, अनादिका विभावका अभ्यास है इसलिये। इसलिये बारबारुउसका चिंतवन, मनन करते रहना। उसमें थकना नहीं, ऐसा कहना था।
मुमुक्षुः- मन्दता हो जाय तो भी पुनः... समाधानः- फिरसे उसे बार-बार दृढ करना, मन्दता हो जाय तो भी। चैतन्यदेवके द्वार पर तू टहेल लगाते रहना, छोडना मत।