Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 186.

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ट्रेक-१८६ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- अतीन्द्रिय आनन्द ...

समाधानः- स्वानुभूति कहाँ है? प्रतीत है न, ज्ञायककी धारा। ज्ञायककी धारा ... विकल्प छूटकर स्वानुभूति हो, वह अलग बात है। ये तो भेदज्ञानकी धारा तो हुई है। भेदज्ञानकी धाराकी आंशिक शांति अनुभवमें आती है। उसकी भूमिका है उस अनुसार। उसकी दशा अनुसार। किसीको कब हो, किसीको कब हो, वह तो दशा अनुसार (होता है)। सविकल्प दशामें तो भेदज्ञानकी धारा तो उसकी भूमिका हो उस अनुसार शान्तिकी धारा रहती है। उससे भिन्न रहता है। एकमेक नहीं होता। ज्ञायक- ज्ञानकी परिणति भिन्न रहती है।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- हाँ, उपयोग और परिणतिमें फर्क है। परिणति तो हमेशा उसकी चालू ही है। भेदज्ञानकी धारा। उपयोग बाहर जाये, उपयोग अंतरमें आये। स्वानुभिू हो तब उपयोग अंतरमें आये। उपयोग बाहर होता है तो भी परिणति तो चालू ही है। परिणति (और) उपयोगमें फर्क है। उसकी भेदज्ञानकी धारा तो चालू ही है। अमुक अंशमें जितनी दशा प्रगट हुयी, वह चालू है। उसे लब्ध अर्थात शक्तिरूपसे नहीं है, परन्तु उसे प्रगट है वैसे, परिणति प्रगट है।

मुमुक्षुः- एक समयमें दो पर्याय?

समाधानः- जितनी दशा प्रगट हुयी, शुद्ध है उतनी शुद्ध है। जितनी अशुद्ध है उतनी अशुद्ध है। चारित्रकी दशा अमुक प्रकारसे शुद्धि हुयी, स्वरूपाचरण चारित्र आंशिक प्रगट हुआ है, बाकीकी जो न्यूनता है वह न्यूनता है। सर्वांशसे कहीं चारित्रदशा पूरी नहीं हुयी है। जितनी न्यूनता है, उतनी अशुद्ध पर्याय है। जितनी शुद्धता हुयी, शुद्धात्माकी शुद्ध पर्यायरूप परिणति सहजरूपसे चालू है।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- निर्मलता तो उसे दृष्टिकी अपेक्षासे है। बाकी चारित्रकी निर्मलता तो मुनिकी ज्यादा है। चारित्रदशा, स्वानुभूति क्षण-क्षणमें, क्षण-क्षणमें, क्षण-क्षणमें स्वानुभूति होती है। मुनि तो अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें अंतरमें जाते हैं। चारित्रकी दशा मुनिकी विशेष


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है। क्षयोपशम है उसका मलतब उसे लथडपथड नहीं है। वह तो दृढतारूप है। वह तो उसे क्षय नहीं हुआ है, उतना। बाकी वर्तमान वेदनमें तो उसे ऐसा कुछ.. उसकी दृढतामें न्यूनता नहीं है। वह तो उसकी अवगाढतामें फर्क है। क्षायिकका अवगाढ और यह क्षयोपशम है। चारित्रदशामें मुनि विशेष है।

क्षयोपशम अर्थात उसकी प्रतीतमें कुछ उसे प्रगटरूपसे हलचल नहीं है, ऐसी अस्थिरता नहीं है। वह तो दृढरूप है। ज्ञायककी धारा जोरदार है और छठवे-सातवें गुणस्थानमें झुलते हैं। चारित्रकी अपेक्षासे मुनि विशेष है।

मुमुक्षुः- दृष्टिकी अपेक्षासे तो क्षायिक समकित हुअ।

समाधानः- उसे क्षायिककी अपेक्षासे कहनेमें आये, परन्तु वर्तमान तो उसकी चारित्रदशाकी निर्मलता है न। ज्ञान, दर्शन, चारित्रकी विशेषता है यानी मुनि विशेष कहलाये। दृष्टिकी अपेक्षासे अलग बात है। दृष्टि यानी उन्हें दृष्टि विपरीत तो नहीं है। मुनि सम्यग्दृष्टि है और चारित्रकी निर्मलता है। मुनिकी दृष्टिकी अपेक्षासे अलग बात है। दृष्टिकी अवगाढतामें फर्क है। मुनि आगे बढे, चारित्रदशा बढ जाय तो उसे दृष्टि भी जोरदार हो जाती है। चारित्रदशामें मुनि विशेष हैं। दृष्टिकी अपेक्षासे उन्हें... दृष्टिका फर्क है।

मुमुक्षुः- चारित्रमें इतने आगे बढे और दृष्टिमें क्षायिक न कर सके उसका क्या कारण?

समाधानः- वह तो परिणाम पर है। परिणामकी गति अनेक जातकी होती है। अकारण पारिणामिक द्रव्य, अनेक जातके परिणामकी गति है। चारित्रकी अपेक्षासे मुनि विशेष है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र तीनों आराध्य हैं, इसलिये मुनि विशेष हैं। चारित्रकी दशा विशेष प्रगट हुयी है। परिणामकी गति अनेक जातकी होती है, पुरुषार्थकी गति।

क्षायिक सम्यग्दृष्टि गृहस्थाश्रममें हो, राजकाजमें हो और मुनिको क्षयोपशम हो तो भी मुनि हैं। मुनिका सब आदर करते हैं। पुरुषार्थकी वहाँ ...

मुमुक्षुः- दृष्टि .. करनेका पुरुषार्थ न करे?

समाधानः- करे, वे तो सर्व प्रकारका पुरुषार्थ करते हैं। क्षयोपशमका अर्थ उसमें ऐसी कोई मलिनता नहीं होती। उनका क्षयोपशम भी दृढ होता है। चारित्रकी गति विशेष बढ गयी है। सहजरूपसे वे तो सब करते ही हैं। दृष्टि उसकी निर्मल हो ही जायगी। वर्तमान उनकी चारित्रकी भूमिका विशेष है। अनेक प्रकार होते हैं। .. धारा हो तो उसे क्षायिक हो ही जायगा। क्षण-क्षणमें बाहर आये और अंतरमें जाय। ...

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- नहीं करता है क्या, उसमें उसे पुरुषार्थ तो होता ही है। कहा न, परिणामकी गति ही ऐसी है। वह उसे कोई ... एक दृष्टिका बल और चारित्र, साधनाके


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पुरुषार्थमें सब पुरुषार्थ होता है। सर्व गुणांश सो सम्यग्दर्शन। सम्यग्दर्शन प्रगट हुआ तो सर्व गुणोंके अंश शुद्ध होते हैं। एक दृष्टिका बल है और चारित्रकी दशा है। सर्व प्रकारका पुरुषार्थ होता है। पारिणामिक द्रव्य है। पुरुषार्थकी गति अनेक प्रकारकी होती है।

मुमुक्षुः- ... तो उसमें नया पुरुषार्थ करना होता है?

समाधानः- उसमें पुरुषार्थका निमित्त होता है। जो होना होता है वह होता है, ऐसा एकान्त नहीं है। उसमें स्वभाव, काल, पुरुषार्थ सब साथमें होता है। उसमें पुरुषार्थका निमित्त होता है। पर्याय प्रगट होती है, परन्तु उसमें पुरुषार्थ साथमें होता है। पुरुषार्थ बिना कोई पर्याय प्रगट नहीं होती। स्वभाव, काल, पुरुषार्थ आदि सब होता है।

मुमुक्षुः- भावना और वैसी धारणामें क्या अंतर है?

समाधानः- धारणामें तो धोख रखा है। भावना तो अंतरमें स्वयं भावपूर्वक करता है। भावना भावनामें भी फर्क होता है। भावना करता रहे कि मैं त्रिकाल शुद्ध हूँ, उसमें अंतरमें गहराईमेंसे जो भावना हुयी हो वह अलग होती है। मैं त्रिकाल शुद्ध हूँ, शुद्ध हूँ, ऐसी भावना.. गहरी अंतर्गत भावना अलग होती है। धारणामें तो रट्टा लगाता रहे वह धारणा है।

मुमुक्षुः- बारंबार उसी प्रकारके विचार, विकल्प चले वह भावना नहीं है?

समाधानः- विचार चले ऐसे नहीं, परन्तु उसे अंतरमेंसे गहराईसे होना चाहिये, वह भावना (है)। मात्र रटता रहे कि मैं त्रिकाल शुद्ध, शुद्ध ऐसे विकल्प करता रहे ऐसा नहीं। भावनामें भी विचार तो आते हैं। परन्तु अंतरमें हृदयका भेद होकर आना चाहिये। भावनाका मतलब वह है। गहराईमेंसे (होना चाहिये कि), मुझे यह विभाव नहीं चाहिये, मैं तो आत्मा हूँ, त्रिकाल शुद्ध आत्मा स्वयंसिद्ध ज्ञायक हूँ, ऐसे अंतरसे गहराईमेंसे हृदयका भेद होकर आना चाहिये। अंतरमेंसे गहराईमेंसे (होना चाहिये)।

मुमुक्षुः- ... तब ऐसा होता है कि विकल्प ... अन्दरसे कुछ-कुछ होता है, ऐसा भी दिखता है।

समाधानः- .. उसीमें आनन्द है, सब उसमें है। उसमें दृष्टिको स्थापित करके वही करने जैसा है। जितना यह ज्ञान है, उतना ही परमार्थ कल्याण है, ऐसा समयसारमें आता है। जितना यह ज्ञान है उतना ही परमार्थ कल्याण, उतना ही सत्य है, वही करने जैसा है। उसमें तू प्रीति कर, उसमें तो अनुभव कर, उसमें तू प्रीतिवंत बन, उसमेंसे उत्तम सुख प्रगट होगा। सब उसीमें है। वही करनेका है।

मुमुक्षुः- आपके आशीर्वादसे, आपकी कृपासे आगे..

समाधानः- अपूर्व आत्मा है। देव-गुरु-शास्त्र... गुरुदेवने वह सब प्रगट किया, भगवानने पूर्ण प्रगट किया, गुरुने साधना (करते हैं), शास्त्र सब बताते हैं। और वाणीमें


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शास्त्रको कौन पहचानता था? गुरुने सब बताया है।

मुमुक्षुः- कुछ नहीं, हम तो कहाँ पडे थे।

समाधानः- उस मार्ग पर अब तो स्वयंको पुरुषार्थ करना बाकी रहता है। सत्य तो वह है। मूल मार्ग एक ही है। भेदज्ञान करके चैतन्यद्रव्य पर दृष्टि स्थापित करना। जो अनन्त गुण हैं उसे लक्ष्यमें रखकर, उसमें पर्याय होती है वह लक्ष्यमें, ज्ञानमें लेकर दृष्टि एक अभेद चैतन्य पर स्थापित करने जैसी है। मैं यह चैतन्य हूँ, चैतन्य हूँ। सब विकल्पके भेद, विकल्परूप मैं नहीं हूँ। मैं उससे भिन्न हूँ। विकल्प आये लेकिन मैं उसका जाननेवाला हूँ। ज्ञान सब करना परन्तु दृष्टि एक चैतन्य पर स्थापित करनी है।

मुमुक्षुः- आपकी कृपा है, परन्तु मेरी कचास है।

समाधानः- .. साथमें रखकर आत्माका भेदज्ञान करना। "भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन।' जो सिद्ध हुएँ भेदविज्ञानसे ही हुए हैं और वही करनेका है। एक द्रव्य पर दृष्टि, एक ज्ञायक... ६ठ्ठी गाथा, "नहिं अप्रमत्त प्रमत्त नहिं, जो एक ज्ञायकभाव है'। एक ज्ञायकभावको पहचानना। पर्यायके भेदमें भी एक ज्ञायकको पहचानना।

एक ही मार्ग बताया है। सबमें एक ज्ञायकको पहचानना। चैतन्य, इस शरीरसे भिन्न अन्दर विकल्प है वह आत्माका स्वभाव नहीं है। उससे भिन्न आत्माको पहचानना। आत्मा अन्दर एक चैतन्यतत्त्व है। यह शरीर तो एक जडतत्त्व है। अन्दर आत्मा चैतन्य है। अंतर दृष्टि, गहरी दृष्टि करके उसे कैसे पहचानना? वही करनेका है। उसकी महिमा, उसकी लगन, जीवनमें वही करने जैसा है। बाकी बाहरका तो सब अनन्त कालमें बहुत बार किया है। यह जन्म-मरण करते हुए मनुष्यभव बडी मुश्किलसे मिलकता है। उसमें अंतरमेंसे स्वभाव प्रगट हो, ऐसा मार्ग गुरुदेवने बताया। करने जैसा वह है। उसकी कैसे पहचान हो? उसके लिये गुरुदेव क्या कहते हैं? गुरुदेवने क्या मार्ग बताया है? उसके लिये देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा क्यों है? आत्माको पहचाननेके लिये। एक ज्ञायक आत्मा कैसे पहचाना जाय?

वह कोई अपूर्व और अनुपम वस्तु है। अनन्त कालमें जीवको सब प्राप्त हो चूका है। परन्तु एक चैतन्यतत्त्व, एक स्वानुभूति-आत्माकी स्वानुभूति प्रगट नहीं की। वह कैसे प्रगट हो? उसके लिये उस प्रकारके विचार, वांचन, महिमा वह करने जैसा है। उसका भेदज्ञान करके अंतर दृष्टि करके देखे तो अंतर आत्मा चैतन्य अनन्त गुणसे भरा अनुपम तत्त्व है। इस जगतकी कोई वस्तु अनुपम नहीं है, एक आत्मा ही अनुपम है। देवलोकके देव भी अनुपम नहीं है। वह एक भव है। वह तो पुदगल है। वह पुदगल कर्मका फल है। आत्मा ऐसा अनुपम है, उसे पहचाने तो भवका अभाव हो।

जैसे सिद्ध भगवान हैं, वैसा आत्मा है। सिद्ध भगवान जैसा अंतरमें अंश (प्रगट


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होता है)। अंतरमें यदि स्वानुभूति हो तो ऐसा सुख उसे प्राप्त होता है। विकल्प टूटकर और निर्विकल्प तत्त्व आत्मा कोई अपूर्व है, उसकी स्वानुभूति प्रगट हो, ऐसा वह आत्मा है। लेकिन उसकी शुरूआत उसका भेदज्ञान करे, मैं ज्ञाता हूँ, मैं चैतन्य हूँ। ऐसे उसका स्वभाव पहचाने, उसकी रुचि करे, महिमा करे तो हो सके ऐसा है। उसका वांचन, विचार सब करने जैसा है। तो वह प्राप्त हो।

मुमुक्षुः- सूझ पडे तो जल्दी प्राप्त हो। वह चाबी क्या है?

समाधानः- अन्दर स्वभाव, मैं कौन स्वभाव और ये विभाव क्या है? उसकी उसे बराबर पहचान होनी चाहिये कि ये जो जाननेवाला है, वही मैं हूँ, मैं यह नहीं हूँ। जितने विभाव आये, जितने ऊँचे भाव आये वह भी विकल्प है। उस विकल्पसे भी मैं भिन्न ज्ञायक हूँ। सब भाव बीचमें आते हैं, कहीं वीतराग नहीं हो गया है, आये परन्तु मेरा स्वभाव उससे भिन्न है। ऐसे स्वभावको बराबर पहचाने, वह उसकी चाबी है। बराबर उसकी सूक्ष्म दृष्टि करके प्रज्ञाछैनी, अन्दर सूक्ष्म प्रज्ञाछैनी द्वारा उसे भिन्न करे, वह उसकी चाबी है। प्रज्ञाछैनी अन्दरसे प्रगट करनी है। प्रज्ञाछैनी भिन्न पडता है।

मुमुक्षुः- ज्ञानसे ज्ञान भिन्न पडता है?

समाधानः- ज्ञानसे ज्ञान भिन्न पडे। यथार्थ ज्ञान। ज्ञायक आत्मा उसे भिन्न पडता है। ज्ञानसे ज्ञान भिन्न पडता है। उसमें उसकी प्रतीत, ज्ञान और आचरण सब उसमें समा जाते हैं। एक दृष्टि यथार्थ आत्मा पर उसे पहचानकर स्थापित करना। उसमें ज्ञानसे ज्ञान भिन्न पडा। उसमें उसका आंशिक आचरण आ गया। फिर चारित्रदशा तो...

मुमुक्षुः- ज्ञानमें आता है, लेकिन विश्वास नहीं आता है। विश्वास..

समाधानः- ज्ञानमें आये लेकिन प्रतीति ऐसी यथार्थ होनी चाहिये कि यह ज्ञायक है वही मैं हूँ, बस, मैं अन्य कुछ नहीं। ऐसी दृढ श्रद्धा, ऐसी दृष्टि स्वयं पर सथापित करके, फिर कोई भी भाव आये तो भी मैं तो चैतन्य ही हूँ, ऐसा अंतरमेंसे होना चाहिये। एक धोखनेरूप हो वह अलग बात है, परन्तु अंतरमेंसे (होना चाहिये)। रटे वह तो एक भावना है। अंतरमेंसे हो, ऐसा दृढ विश्वास आना चाहिये। प्रतीत, यथार्थ प्रतीत हो तो उसका यथार्थ पुरुषार्थ हुए बिना नहीं रहता।

मुमुक्षुः- यथार्थ पहचान हो तो यथार्थ पुरुषार्थ चले?

समाधानः- हाँ, यथार्थ पुरुषार्थ हो, यथार्थ पहचान हो तो।

मुमुक्षुः- माताजी! आज..

समाधानः- यथार्थ उलझन हो तो उसे मार्ग प्राप्त हुए बिना रहे ही नहीं। वह तो वस्तुका स्वरूप है। जो उलझनमें आया है, वह उसे टिक नहीं सकता। मुझे कहाँ जाना है? मुझे अंतरमें जाना है, उसकी उलझन है। ये विकल्पकी जालमें उलझा


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हुआ, जिसे शान्ति नहीं है, अशान्ति है वह क्षणभर भी टिक नहीं पाता। ऐसी जिसे अन्दरसे उलझन हो कि ये विकल्प अब चाहिये ही नहीं, विकल्पकी जालमें उलझा हुआ, विभावकी आकुलतामें उलझ गया है, अन्दरसे यथार्थरूपसे उलझा हो, व्यग्रता हो तो उसमें टिक नहीं पाये। तो अपनी ओर उसकी परिणति मुडे बिना रहे ही नहीं। ज्ञायकको पहचाने बिना रहे ही नहीं। ज्ञायकको ग्रहण किये बिना रहे ही नहीं, ज्ञायकका शरण लिये बिना रहे ही नहीं, यदि यथार्थ उलझा हो तो।

यथार्थरूपसे उलझा हुआ मनुष्य किसीका भी आधार लेना जाता है। वैसे ये अन्दरसे उलझनमें आया हुआ निज स्वरूपका आधार लिये बिना रहता ही नहीं। वह निज स्वभावको ग्रहण कर ही लेता है। इसलिये यदि यथार्थ उलझनमें आये और यथार्थ जिज्ञासा जागृत हो तो स्वभावका आधार वह अंतरमेंसे लिये बिना रहता ही नहीं। स्वभावको पहचान लेता है।

मुमुक्षुः- भावना-भावनामें बहुत अंतर होता है। एक भावना ऐसी है कि जो अंतरभेद कर देती है। आपने यह अंतिम बात कही थी।

समाधानः- भावना ऐसी हो को अंतरमें भेदज्ञान होकर ही छूटकारा हो। ऐसी भावना उग्र होती है। दूसरी तो मन्द-मन्द भावना, ऊपर-ऊपरसे भावना, मन्द-मन्द पुरुषार्थ रहा करे, वह भावना नहीं। परन्तु अंतरभेद करे अर्थात अंतरसे भेदज्ञान कर दे, ऐसी भावना तो कोई अलग होती है कि अन्दरसे चैतन्य चैतन्यके मार्ग पर उसे परिणति प्रगट हो और विभाव परिणतिको भिन्न करता है।

विभाव परिणति भले हो, चैतन्यकी अल्पता, न्यूनताके कारण होती है। परन्तु वह भेदज्ञान करता है कि मैं तो चैतन्य हूँ। यह मेरा स्वभाव नहीं है। इसलिये चैतन्यकी ओर परिणति दौड जाती है और अपने स्वभावको ग्रहण कर लेती है। वह अंतरभेद कर देती है।

मुमुक्षुः- और आपके वचनामृतमें ऐसा भी आता है कि ऊपर-ऊपरसे कर, परन्तु चाहे जैसै उस मार्ग पर जा।

समाधानः- हाँ, उस मार्ग पर जा। अंतरमें तेरा लक्ष्य, भावना ऐसी रख कि गहराईमें जाने जैसा है। करना गहराईमें है, अभी बहुत न्यूनता है, ऐसा तू नक्की कर कि मुझमें न्यूनता है। परन्तु लक्ष्य गहराईसे (करना है)। परन्तु ऊपरसे हो तो उसको छोड नहीं देना। और अशुभमें आनेको नहीं कहते हैं। परन्तु तुझे तीसरी भूमिकामें आनेको कहते हैं। हम ऊपर-ऊपर जानेको कहते हैं, वहाँ तू नीचे क्यों गिर रहा हैै? ऐसा आचार्यदेव कहते हैं।

हमारे कहनेका आशय यह है कि तू तीसरी शुद्ध स्वभावकी भूमिका प्रगट कर।


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शुभ तो बीचमें आता है, परन्तु शुभ तेरा स्वभाव नहीं है। वह शुभ एवं अशुभ समान कोटिके हैं, ऐसा तू समझ। और आत्मा तीसरी भूमिका अमृतकुम्भ है उसे ग्रहण कर। इसलिये ऊपर जानेको कहते हैं। अतः ऊपर-ऊपरसे तेरी भावना हो तो उसे छोडनेको नहीं कहते हैं, परन्तु गहरी भावना प्रगट कर। शुद्ध स्वभावमें जा सके ऐसी भावना प्रगट कर।

इसलिये उसे छोडकर फिर अशुभमें जाना, ऊपर-ऊपरकी भावना आये तो वह भावना कोई कामकी नहीं है, ऐसा कहकर छोडनेको नहीं कहते हैं, परन्तु तू ऊँची (भावना) प्रगट कर, ऊँची परिणतिको प्रगट कर। ऐसा कहनेका आशय है। भगवानके मन्दिरमें दर्शन करता हुआ, भगवानके मन्दिर पर टहेल लगाता हुआ, टहेल लगाते हुए यदि भगवानके द्वारा न खूले तो थककर वापस मत आना, भगवानके द्वार खूल जायेंगे। तू टहेल लगाना छोडना मत।

चैतन्य-मन्दिरमें तू टहेल लगा, मैं चैतन्य हूँ, ऐसा ऊपर-ऊपरसे तुझे समझमें आये तो उसे छोडना मत। वह छोडना मत, यदि तुझे पहचान न हो तो। पहचान नहीं हो तबतक वहाँ टहेल लगाते ही रहना। उसमें लक्ष्य रखना कि मुझे अभी बहुत आगे जाना है। तो तेरा परुषार्थ उठने पर चैतन्य-मन्दिर खुलनेका तुझे अवकाश है। तू दूर जायगा तो ऊलटा दूर चला जायगा।

भगवानके मन्दिरसे तू दूर जायगा तो ऊलटा दूर चला जायगा। इसलिये दृष्टि बराबर रखना कि अभी मुझे अन्दर जानेका है। ऊपर-ऊपरकी भावनासे प्रगट नहीं होता, परन्तु अन्दरकी भावना प्रगट करनेके लिये तू समझना कि यह ऊपरका है। अभी अन्दरका करनेका मुझे बाकी है। ऐसे ज्ञान यथार्थ करना, तो आगे बढ सकेगा। ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ऐसा ऊपर-ऊपरसे हो तो भी अंतरमें जाना है, वह भावना मत छोडना। उसे छोडनेको नहीं कहते हैं।

अन्दरकी भावना ऐसी आये कि भेदज्ञान हो जाय, अंतरभेद कर दे, चैतन्य-मन्दिरके द्वारा खोलकर चैतन्य भगवान प्रगट हो, वह भावना अलग होती है। परन्तू तू भावना दृढ करना तो कभी तेरा पुरुषार्थ उग्र होगा तो अन्दर जा सकेगा। इसलिये वह द्वार छोडकर अशुभमें जानेको नहीं कहते हैं। शुभमें खडाहै, लेकिन दृष्टि शुद्ध पर रखना।

मुमुक्षुः- माताजी! कहा था न कि,

समाधानः- वह तो अपनी मन्दता देखकर पहचान सके, ये मन्द-मन्द चलता है, उग्रता नहीं हो रही है इसलिये उग्रताकी क्षति है। मन्द-मन्द, मन्द-मन्द चले। धीरी गतिसे चलनेवालेको देर लगती है। जिसे उग्रता हो, वह त्वारासे पहुँच जाता है। धीरी गतिसे चलनेवाला वहाँ खडे रहकर चले तो कैसे पहुँचे? उसे ख्याल आये कि मैं नहीं


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पहुँच पाता हूँ, इसलिये मेरी गति धीरी है। मैं जहाँ खडा हूँ, वहीं खडा हूँ, आगे नहीं बढ रहा हूँ। भावनगर जाना हो तो धीरी गतिसे चले। और चले भी नहीं और खडा रहे तो पहुँचनेमें देर लगे। त्वरित गतिसे चलनेवाला एकदम पहुँच जाता है। नहीं पहुँचता है वह, ये सूचित करता है कि धीरी गति है। ऊपर-ऊपरसे है। अन्दरसे प्रगट हो तो पहुँच जाय।

मुमुक्षुः- अपना जोर तो ...

समाधानः- स्वयंको ही करना है, पुरुषार्थ तो स्वयंको ही करना है, कोई करवाता नहीं। रखडनेवाला भी स्वयं और मोक्ष करनेवाला स्वयं स्वतंत्र है।

चत्तारी मंगलं, अरिहंता मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपणत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारी लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपणत्तो धम्मो लोगुत्तमा।

चत्तारी शरणं पवज्जामि, अरिहंता शरणं पवज्जामि, सिद्धा शरणं पवज्जामि, केवली पणत्तो धम्मो शरणं पवज्जामि।

चार शरण, चार मंगल, चार उत्तम करे जे, भवसागरथी तरे ते सकळ कर्मनो आणे अंत। मोक्ष तणा सुख ले अनंत, भाव धरीने जे गुण गाये, ते जीव तरीने मुक्तिए जाय। संसारमांही शरण चार, अवर शरण नहीं कोई। जे नर-नारी आदरे तेने अक्षय अविचल पद होय। अंगूठे अमृत वरसे लब्धि तणा भण्डार। गुरु गौतमने समरीए तो सदाय मनवांछित फल दाता।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!