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समाधानः- विचार और वांचन वहीका वही करे। बाकी जीवका अनादिसे पुरुषार्थ मन्द है इसलिये जो बाहरका निमित्त हो वैसी असर हो जाय। यहाँ माहोल अलग है इसलिये उसकी असर होती है, वहाँका माहोल अलग है, इसलिये उसकी असर होती है। अपनी तैयारी हो उस अनुसार रहे। वैसे संंयोगमें पुरुषार्थ रखना पडे, तो हो। इसीलिये शास्त्रमें आता है न कि तू सत्संग कर। गुरुका उपदेश सुन, अच्छे सत्संगमें रह तो तुझे आत्माको समझना आसान होगा। ऐसा सब आता है। क्योंकि ऐसी तैयारी नहीं होती। इसलिये तू ऐसे निमित्तोंमें रह। (गुरुदेव) मिले और यह सब योग मिलना कितना दुर्लभ होता है।
मुमुक्षुः- पूरे मण्डलकी रोनक बदल गयी।
समाधानः- भगवान पधारे वह दिन भी कुछ अलग था। और आज कितने वर्ष बीत गये तो भी ऐसी ही भावना (रहती है)। सब याद आये इसलिये ऐसी भावना जागृत हो। वह तो कुछ अलग ही था। मानों साक्षात भगवान पधारे हों। यहाँ भगवान साक्षात पधारे, महाभाग्यसे। नानालालभाई और सबको ऐसे भाव थे, भगवान विराजमान (करना), मन्दिर बने। गुरुदेवने ऐसा मार्ग प्रकाशित किया कि चैतन्यका धर्म आत्मा.. भेदज्ञान करके आत्मा-ज्ञायक आत्माको पहचान।
जिनेन्द्र भगवान, मन्दिर, गुरुदेवके करकमलसे कितना प्रभावना योग, कितने मन्दिर, कितने प्रतिमा स्थापित हुए। उन्होंने मार्ग प्रगट किया कि जगतके अन्दर मन्दिर शाश्वत और भगवानकी स्थापना भी होती है। गुरुदेवने मार्ग (प्रकाशित किया)। स्थानकवासीमें तो कोई समझता नहीं था कि भगवानके प्रतिमाजी होते हैं, मन्दिर होते हैं। वीतरागभावका पोषण होनेका कारण बनता है। साक्षात भगवानको देखनेसे, भगवानकी प्रतिमाजी देखने पर साक्षात भगवान याद आये और अपना आत्मा भी जैसे भगवान हैं, वैसा अपना आत्मा है।
अपना एक ध्येय, लक्ष्य, भावना होनेका कारण बनता है। जो भगवानको पहचानता है वह स्वयंको पहचानता है, ऐसा सम्बन्ध है। स्वयंको पहचाने वह भगवानको पहचानता है। स्वरूप बताया, मार्ग प्रगट किया।
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मुमुक्षुः- महाविदेह क्षेत्रसे सीमंधर भगवानको आप ही लाये हो।
समाधानः- ऐसा सब योग (बन गया)। गुरुदेवका और सब योग (बन गया)। पंचमकालके सभी जीवोंको लाभ मलिनेवाला होगा। ऐसे गुरुदेव पधारे इसलिये ऐसा मार्ग प्रगट किया।
मुमुक्षुः- आप सत्पुरुष यहाँ कहाँ? आपके प्रतापसे ही भगवान पधारे, नहीं तो कौन जानता कि ये सीमंधर भगवान.... गुरुदेवके करकमलोंसे प्रतिष्ठा हुयी, सब आपका और गुरुदेवका ही प्रताप है।
समाधानः- जगतमें भगवान सर्वोत्कृष्ट हैं। गुरुदेवने बताया, गुरुदेवने भगवानकी पहचान करवायी। चैतन्यका स्वरूप भी गुरुदेवने बताया। आत्मा स्फटिक जैसा है, निर्मल है। अन्दर जो लाल-पीला प्रतिबिंब उठता है वह उसका स्वभाव नहीं है। वैसे आत्मामें जो विभावका प्रतिबिंब उठता है, वह अपना स्वभाव नहीं है। उससे भिन्न आत्माको जान। ऐसा चैतन्यदेव विराजता है, उसे पहचान। वह दिव्यमूर्ति है। बाहरमें भगवान दिव्यमूर्ति है, देव है, जिनेन्द्र भगवान जगतमें सर्वोत्कृष्ट हैं। सर्वोत्कृष्टआत्माको पहचान। ऐसा गुरुदेवने बताया। गुरुदेवका परम उपकार है।
.. जिनेन्द्र भगवान, गुरु, शास्त्र सब मंगल हैं। अन्दर आत्मा मंगलस्वरूप है। उसकी मंगल पर्यायें कैसे प्रगट हों? वह भावना करने जैसी है। उसकी मंगलिकता (है)। जैसे भगवान मंगल हैं, वैसे आत्मा मंगल है। उसकी पर्यायें कैसे प्रगट हो, वह करने जैसा है।
चत्तारी मंगलं, अरिहंता मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपणत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारी लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपणत्तो धम्मो लोगुत्तमा।
चत्तारी शरणं पवज्जामि, अरिहंता शरणं पवज्जामि, सिद्धा शरणं पवज्जामि, केवली पणत्तो धम्मो शरणं पवज्जामि।
चार शरण, चार मंगल, चार उत्तम करे जे, भवसागरथी तरे ते सकळ कर्मनो आणे अंत। मोक्ष तणा सुख ले अनंत, भाव धरीने जे गुण गाये, ते जीव तरीने मुक्तिए जाय। संसारमांही शरण चार, अवर शरण नहीं कोई। जे नर-नारी आदरे तेने अक्षय अविचल पद होय। अंगूठे अमृत वरसे लब्धि तणा भण्डार। गुरु गौतमने समरीए तो सदाय मनवांछित फल दाता।
समाधानः- कैसा क्या? मार्ग तो एक ही होता है। करना स्वयंको है। मार्ग एक ही है। किसीके लिये दूसरा और किसीके लिये दूसरा, ऐसा नहीं है, एक ही मार्ग है-स्वभावको पहचानना और भेदज्ञान करना। एक ही मार्ग है। मार्ग तो एक ही है। परन्तु अन्दर लगन स्वयंकी हो तो होता है। लगन और पुरुषार्थ स्वयंका हो तो
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हो।
ज्ञायकको पहचानना, भेदज्ञान करना, प्रतिक्षण उसकी जागृति रखनी। वह सब (होना चाहिये)। अन्दर उतनी रात और दिन उतनी लगन हो तो हो। सुख लगे नहीं, अंतरमें स्वयं स्वयंको खोजे। अपना सुख अपनेमें है। ऐसे स्वयंको अंतरमेंसे उतनी लगन लगे तो होता है। मार्ग तो एक ही है।
गुरुदेव बारंबार-बारंबार बहुत ही सुनाया है। शरीर तू नहीं है, शुभाशुभ भाव तेरा स्वभाव नहीं है। भेदके विकल्पमें मत रुकना। तेरेमें गुण होनेके बावजूद उसके विकल्पमें मत रुकना। दृष्टि एक चैतन्य पर स्थापित करना। कहाँ तकका मार्ग बता दिया है। दृष्टि स्थापनी, भेदज्ञान करना, उसकी लगन लगानी, पुरुषार्थ, उसकी जागृति रखनी सब अपने हाथमें है। (पहले तो) एक ही संक्षेपमें कहते थे। फिर तो विस्तार होते गया। सब शास्त्र खुल्ले रूपमें पढना शुरू हो गया। पहले तो संक्षेपमें कहते थे। मन-वचन- कायासे आत्मा भिन्न है। विकल्पसे भिन्न है, उस पार है। ऐसा संक्षेपमें कहते थे।
पहले तो शास्त्र दूसरे होते थे हाथमें। ये तो मूल शास्त्र तो बादमें हाथ लगे। पहले तो हाथमें दूसरे शास्त्र हों और परिभाषा जो यथार्थ हो, वह करते थे। राजकोटमें पढते थे न? परदेसी राजाका अधिकार। उसमेंसे आत्मा पर उतारते थे। गुरुदेव स्वानुभूतिकी बात कर रहे हैं। उसमें ग्रहण स्वयंको करना है, स्वयंकी लगन लगानी, बारंबार पुरुषार्थ करना स्वयंको पडता है।
मुमुक्षुः- सबको भावना तो ऐसी रहती है। थोडा धक्का लगना चाहिये न, उसकी जरूरत पडती है, ऐसा लगता है।
समाधानः- करना तो स्वयंको है, कोई कर नहीं देता। गुरुए कहे वाक्य, बारंबार उनका उपदेश याद करना कि क्या मार्ग बताया है। धीरी गतिसे पुरुषार्थ करे तो धीरे हो, उग्र करे तो उग्र हो। अपने हाथकी बात है।
.. उतनी थी कि ये क्षण-क्षण जाय तो उसका दुःख लगे कि आहा..! कब यह होगा? उतनी अंतरमें उग्रता हो तो होता है। .. न हो तो धीरे-धीरे करे तो धीरे-धीरे होता है। कलका इंतजार करे तो कल और आज (करे तो आज हो)। दृष्टान्त देते थे न? जीमनका। आज जीमे बनिये, कल जीमे बारोट। ऐसे कल-कल करता रहे तो कल हो। आज करना है ऐसा करे तो आज हो जाय।
मुमुक्षुः- बनिये आज जिमे और बारोट कल। बारोटकी कल कभी आती नहीं।
समाधानः- हाँ। अपने पुरुषार्थकी गति जैसी हो वैसे होता है। .. मनुष्य जीवनमें कुछ कर लेना है। गुरुदेवने मार्ग बताया। अतः अंतरमें करना है। इसलिये विचार आदि उस ओर चले। ऐसा ही था कि, यह सत्य है तो पुरुषार्थ
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क्यों नहीं होता है? ऐसा कर-करके भावना चलती थी। यही सत्य है तो पुरुषार्थ क्यों नहीं हो रहा है? इस तरह भावना उग्र हो उस प्रकारसे।
... क्यों होती नहीं? झँखना क्यों नहीं होती? इतने साल बीत गये, अब बाकीके वर्ष जानेमें कहाँ देर लगनेवाली है? क्यों नहीं हो रहा है? ऐसी भावना रहा करे। पुरुषार्थ उस ओर ही चले, उसीके विचार चले। हर वक्त काम करते हुए, हर वक्त एक ही विचार रहे। जो करे उसे हो। सबको हो, परन्तु जो करे उसे हो। स्वभाव आत्माका है, सब कर सकते हैं। परन्तु जो करे उसे हो। स्वभावकी उग्रता जो करे उसे हो।
मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, उसकी उग्रता स्वयं (करे)। विकल्परूपसे भावना रूप हो वह अलग बात है, अन्दर सहजरूपसे उग्रता कैसे करनी, वह स्वयं करे तो हो। कहीं दूर नहीं है, स्वयं समीप ही है। परन्तु स्वयं ही नहीं जाता है। इसलिये दूर लगता है। अपना स्वभाव है, कहीं दूर नहीं है। स्वयंमेंसे ही प्रगट हो ऐसा है। कहीं लेने जाना पडे ऐसा नहीं है। बाहर कोई परद्रव्यमें नहीं है कि वहाँसे कोई दे नहीं। स्वयंमें ही है, स्वयं समीप ही है, स्वयं ही है। परन्तु स्वयं अन्दर जाय तो प्रगट हो। स्वयं ही नहीं जाता है।
"पोतानी आळसे रे, निरख्या नहि हरिने', गुरुदेव कहते थे। निज नयननी आळस। अपनी दृष्टिकी आलस्यके कारण स्वयं रुका है। दृष्टि निज चैतन्य हरि पर करता नहीं, इससिये स्वयं रुका है। अपनेमें ही पडा है और अपनेमें-से प्रगट होता है। स्वयं ही उस ओर दृष्टि करता नहीं। अपने नेत्रकी आलसके कारण स्वयं देखता नहीं है। दृष्टि बाहर घुमाता है, अन्दर देखे तो हो।
.. कहीं नहीं है। अपनेमें दृष्टि फेरनी है, परन्तु फेरता नहीं। गुरुदेवने कितना मार्ग बताया। दृष्टि स्वयंको फेरनी है। दृष्टिके बलसे ही प्रगट होता है। दृष्टि, ज्ञान और उसके साथ परिणतिकी लीनता हो तो स्वयंमें-से ही प्रगट होता है। छोटीपीपर घिसे तो उसमें जो चरपराई है उसीमेंसे प्रगट होती है। वैसे स्वयं अपने पर दृष्टि करे तो अपनेमें- से ही प्रगट होता है। बाहरसे कहींसे नहीं आता। उतना दृष्टिका बल, उतना प्रतीतका बल आये तो प्रगट हो। प्रतीत-दृष्टिका जोर आये तो ही अन्दरसे प्रगट होता है। अन्दर प्रतीतके बल बिना तो उसकी परिणति उस ओर जोरसे जाती नहीं। दृष्टिका बल, प्रतीतका बल, उसका प्रतीतका जोर आये तो उस ओर परिणति जाय। ऐसे कहे कि प्रतीत है, परन्तु अन्दर जो भेदज्ञानके अन्दर ज्ञायककी प्रतीति जोरदार अंतरमेंसे आनी चाहिये वह आये तो प्रगट हो।
(ज्ञान) तो असाधारण गुण है। वह तो लक्ष्यमें आये ऐसा है। बाकी दूसरे अनन्त
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गुण (हैं)। आनन्दादि गुण है, वह तो उसे स्वानुभूतिमें-अनुभवमें आयेगा। बाकी ज्ञायक तो उसका मुख्य गुण है। वह तो उसे प्रतीतमें आये ऐसा है। करना स्वयंको करना है। अन्दर गहराईसे विश्वास करके स्वयंको ही करना है।
मुमुक्षुः- लेकिन वह जो कहा न, थोडा धक्का मारनेकी जरूरत लगे। उपादान उसका काम करे, परन्तु निमित्तमेंसे थोडा धक्का लगे तो...
समाधानः- जो है वह प्रगट करना है, उसका प्रयत्न करनेमें थकना नहीं। करना स्वयंको हो। देव-गुरु-शास्त्र साथमें हो तो अपनेको ज्यादा लाभ होता है। वह स्वयं करनेवाला है।
मुमुक्षुः- भगवान पधारे तो आप कितनी महिमा करते हो।
समाधानः- भगवान सर्वोत्कृष्ट हैं। उनकी क्या बात करनी। गुरु साधना करे, शास्त्र सब बताये। वह सब तो आदर करने योग्य है। महिमारूप है। सर्वोत्कृष्ट जगतमें है। ज्ञायक आदरने योग्य है। भगवान सर्वोत्कृष्ट है। गुरु साधना करते हैं। वे भी आदरने योग्य हैं। पंच परमेष्ठी आदर करने योग्य हैं। अंतरमें ज्ञायकका प्रेम हो तो जो दिखे उनका दर्शन, जिन्होंने प्रगट किया उन पर उसे आदर आये बिना रहे ही नहीं। अन्दर आदर न आये तो उसे ज्ञायकका भी आदर नहीं है। आदर हो तो देव-गुरु-शास्त्रका आदर आये बिना रहे नहीं।
देव-गुरु-शास्त्रका आदर है वह ज्ञायकको प्रगट होनेका कारण है। ऐसा निमित्त- उपादानका सम्बन्ध है। कल टेपमें आया था न? सब कारण आये थे। भगवान सम्यग्दर्शनका कारण, फिर पंच कल्याणक सम्यग्दर्शनका कारण, जिनबिम्ब सम्यग्दर्शनका कारण, देवलोककी ऋद्धि सम्यग्दर्शनका कारण, फिर क्षेत्र। भगवानके क्षेत्र हों, महापुरुषोंके क्षेत्र जहाँ विचरे हों, वह सब क्षेत्र सम्यग्दर्शनका कारण है। ऐसा सब आया था।
मुमुक्षुः- जातिस्मरण।
समाधानः- हाँ, जातिस्मरण, वेदना ऐसा सब आया था। वह कारणरूप। करना अन्दर स्वयंको है, परन्तु यह सब कारण हैं। गुरुदेवकी टेपमें ही आया था। यथार्थ ज्ञान हो तो ज्ञायकको पहचाने। परन्तु जिसने प्रगट किया, जिनबिंब, साक्षात भगवान, उनके क्षेत्र वह सब आया था। पंच कल्याणक।
यह गुरुदेवका क्षेत्र है। गुरुदेव यहाँ रहे। कल क्षेत्रका आया था। करना स्वयंको है। अपना ज्ञायक कारण है। कारण स्वयं है। मूल वह है। ऐसा आया था। ये सब कारण हैं। स्वयं है। परन्तु ये सब व्यवहारके कारण है। फिर ऐसा आये कि अनन्त बार मिला, परन्तु हुआ नहीं। उसमें भी अपना ही कारण है। स्वयं तैयार नहीं हुआ। निमित्त तो निमित्तरूप था ही, परन्तु स्वयंने ग्रहण नहीं किया। निमित्तको जिस प्रकार
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अन्दर उपादानमें स्वयंको ग्रहण करना चाहिये वैसे नहीं किया।
अर्ध पुदगल परावर्तन आया था और भावमें अपूर्व करण और अधःकरण आया था। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव सब आया था। पंच कल्याणक आदि।
मुमुक्षुः- क्षेत्रमें अर्ध पुदगल परावर्तनमें काल,..
समाधानः- कालमें अर्ध पुदगल परावर्तन। उसकी स्थिति और रस कम हो जाय न। अर्ध पुदगलका काल रह जाय।
.. अपनी ओर मुड जाता है। वेदनामेंसे किसीको ऐसा हो जाता है। पूर्व भवमेंसे ऐसा हो जाय, संसारका वैराग्य आ जाय। परन्तु यथार्थ ज्ञान बिना वह होता नहीं। अपना ज्ञान करे। वह मूल मार्ग (है)।