PDF/HTML Page 1227 of 1906
single page version
समाधानः- ... भगवानकी पर्याय, वह गुण कैसे हो? भगवान .. बेचैनी है, आकुलता है, अभी छूटा नहीं है, परन्तु उसे अंतरमेंसे ऐसा निर्णय हो कि मार्ग हाथमें आया, इसलिये बेचैनी कम हो जाती है। यही स्वभाव है, दूसरा नहीं है। ऐसे। यह स्वभाव है और यह मैं हूँ, ऐसे भावभासन हुआ इसलिये उसकी बेचैनी कम होती है।
मुमुक्षुः- ऐसा आता है न कि शरीर छूट जाय तो विकल्प छूट जाय। ऐसी जो तीखी भूमि है उसमें उसकी बेचैनी कम हो जाती है।
समाधानः- बेचैनी कम होती है। वह क्या कहा? शरीर छूट जाय, विकल्प..
मुमुक्षुः- द्रव्यदृष्टि प्रकाशमेंं आता है न कि शरीर छूट जाय या विकल्प टूट जाय, ऐसी स्थिति आ गयी है।
समाधानः- भावभासन हो तो बेचैनी कम हो जाती है।
मुमुक्षुः- आपके वचनामृतमें आता है, मार्गकी उलझन टल जाती है।
समाधानः- हाँ, मार्ग मिलने पर उलझन टल जाती है।
मुमुक्षुः- भावभासनकी कचास थी वह...
समाधानः- निर्णयमें डगमगा जाय तो भावभासनकी कचास है। भावभासन यथार्थ हो तो निर्णय दृढरूप रहे। ये जो भाव मुझे भासनमें आया वह यथार्थ है। तो निश्चय भी यथार्थ रहे। ज्ञान और श्रद्धाका ऐसा सम्बन्ध है। श्रद्धा यथार्थ हो उसके साथ ज्ञान यथार्थ हो। श्रद्धा यथार्थ हो उसके साथ ज्ञान यथार्थ होता है। ज्ञान यथार्थ हो तो श्रद्धा उसके साथ दृढ रहे।
.. जो लक्ष्यमें आया वह बराबर ही है। तो अंतरसे उसे शान्ति हो कि बराबर यही भाव है। ऐसा अन्दरसे निश्चय हो तो उसे भावभासन यथार्थ हुआ है। निश्चय न हो और भावभासन हो, तो भावभासनमें कचास है, निश्चय हो रहा है तो। अंतर ही कह दे कि यह बराबर है।
मुमुक्षुः- निश्चय नहीं है तो भावभासन नहीं है, ऐसा ही हुआ न?
समाधानः- हाँ, तो भावभासन नहीं है। अन्दर कचास है।
PDF/HTML Page 1228 of 1906
single page version
मुमुक्षुः- ख्यालमें आये कि परिणति मार्ग पर जा रही है या नहीं, कैसे स्वरूपकी ओर जाती है, कितने प्रमाणमें जाती है, वह सब उसे ख्यालमें आ जाता है?
समाधानः- उसे ज्ञानमें ख्याल आ जाता है। यथार्थ ज्ञान हो तो ख्यालमें आ जाय। ... दृष्टि और ज्ञान साथमें ही रहते हैं। साथमें काम करते हैं। दृष्टि मुख्य हो, परन्तु ज्ञान उसके साथ यथार्थपने रहता है। ज्ञान यथार्थ (हो तो) उसके साथ दृष्टि होती ही है। ऐसे दृष्टि और ज्ञान साथमेें रहे हैं। उसके विषयमें फर्क है। ज्ञान सब भेद करके जानता है। दृष्टिका विषय अभेद है।
जो सम्यक पंथ पर जाता है, उसमें दृष्टि मुख्य होती है और उसके साथ ज्ञान जुडा रहता है। .. काम करता हो तो दृष्टि उसमें साथमें होती ही है। पहले अभी निर्णय नहीं हुआ हो तो विचारके लिये ज्ञान हो, अभी दृष्टि यथार्थ नहीं हुई हो तो ज्ञानमें थोडी कचास होती है। जो मुख्य प्रयोजनभूत ज्ञान है उसमें। अभी उसे अंतरमेंसे जो प्रगट होना चाहिये उसमें। बुद्धिसे नक्की किया वह एक अलग बात है।
मुमुक्षुः- दोनों साथमें ही होते हैं, सिर्फ विषयमें फर्क है।
समाधानः- सुमेल है। साथ-साथ होते हैं।
समाधानः- ... बाह्य संयोगको स्वयं बदल नहीं सकता। स्वयं अपने भाव... क्या योग्य है, उसका विचार करके स्वयं करना। दूसरेको तो स्वयं कुछ नहीं कर सकता। स्वयं अपना भाव कर सकता है। योग्य क्या है, उसका प्रयत्न कर ले, फिर न हो तो शान्ति (रखे)।
मुमुक्षुः- अच्छा हो और धारणा की हो कि हमारी जो इच्छा है वह हो तो अच्छा है। परन्तु ऐसा होता नहीं है। वह सिद्धान्त उसमें ज्यादा प्रबल होता है।
समाधानः- बाहरमें इच्छानुसार कुछ होता नहीं। स्वयं अपना कर सकता है। .. यह पावन भूमि है, यहाँ गुरुदेव विराजते थे। स्वयं विचार करके अपना करना है। यहाँ विराजते थे, जन्मजयंति मनाते थे, वह प्रसंग अलग था। ये तो विचार और अभिप्रायके मतभेद है। कहाँ करना और क्या करना वह। समाजमें क्या.. दो पत्रिकासे लगे, जो होना होगा वह होगा। अच्छा होगा, ऐसा मानना। गुरुदेवका प्रताप है, विशेष प्रभावना होगी, ऐसा मान लेना। सुलटा अर्थ लेना।
मुमुक्षुः- सबको जैसा लगे वैसा।
समाधानः- जो भी लगे। सब स्वतंत्र हैं, सबके अभिप्रायमें।
मुमुक्षुः- कहीं नुकसान होनेवाला ही नहीं है। पूर्ण भरा है।
समाधानः- स्वयं लबालब भरा है। बाहरमें देव-गुरु-शास्त्रमें स्वयंको कहाँ विवेक करना वह अपने हाथकी बात है। देव-गुरु-शास्त्रके प्रसंगोंमें विवेक कैसे करना, वह
PDF/HTML Page 1229 of 1906
single page version
मुमुक्षुके अपने हाथकी बात है। बाकी आत्मामें तो बाहरसे कुछ नुकसान नहीं होता है। देव-गुरु-शास्त्रके प्रसंगोंमें उसे विवेक आये बिना नहीं रहता। जिसे आत्माकी लगी है, और देव-गुरु-शास्त्रके कैसे प्रसंगमें कैसे वर्तन करना, उसे विवेक आये बिना रहता ही नहीं। .. एक द्रव्य दूसरे द्रव्यको लाभ-नुकसान नहीं करता है, परन्तु उसका विवेक उसे हो जाता है, देव-गुरु-शास्त्रके प्रसंगोंमें।
मुमुक्षुः- .. पत्रिका-लेखन तो हो गया है, ये तो मात्र उस वक्त...
समाधानः- मंगलस्वरूप ही है। देव-गुरु-शास्त्रके सब प्रसंग मंगलरूप है। वह सब आत्माके ध्येयपूर्वक करने योग्य है। सब मंगलरूप है। आत्माका स्वरूप कैसे प्रगट हो, आत्माकी अंतरमें निर्मलता और अंतरकी मंगलिकता कैसे प्रगट हो? शुभभावमें गुरुदेव मंगल और इस पंचमकालमें गुरुदेव वर्तमानमें पधारे। उनका द्रव्य कोई अपूर्व था कि सबको तारनेमें महासमर्थ निमित्त था। गुरुदेव मंगल और सब मंगल ही है। देव-गुरु-शास्त्र मंगल और आत्मा मंगल है, उसकी प्राप्तिके करनेके ध्येयसे वह स कार्य मंगलरूप है। गुरुदेवका प्रभावना उदय महा कल्याणकारी है।
समाधानः- ... आत्मा भिन्न है, ये चैतन्यतत्त्व भिन्न है। ये शरीर भी भन्न है और भीतरमें विकल्प होता है वह भी आत्माका स्वभाव नहीं है। आत्मा चैतन्य तत्त्व है, उसमें ज्ञान, आनन्द, सब उसमें भरा है। बाहरमें कुछ नहीं है। अंतरमें दृष्टि करनेसे प्रगट होता है। अंतरमें जाकर भेदज्ञान करके उसमें लीन होनेसे स्वानुभूति होती है। ऐसे बाहर मात्र क्रियासे नहीं होता। अंतर दृष्टि करनेसे मुक्तिका मार्ग प्रगट होता है। बाहरसे नहीं होता है। जो स्वभाव है उस स्वभावमेंसे प्रगट होता है। बाहरसे नहीं होता है। जिसका जो स्वभाव है उसमेंसे वह (प्रगट होता है)। ज्ञानस्वभाव आत्मामेंसे प्रगट होता है। दर्शन, चारित्र सब आत्मामेंसे होता है। बाहरसे नहीं होता है। ऐसे जो वस्तुका स्वभाव है उसमेंसे वह प्रगट होता है। जो चैतन्यका स्वभाव है उसमें दृष्टि करनेसे प्रगट होता है। स्वानुभूति करना वह मुक्तिका मार्ग है।
भेदज्ञान करनेसे स्वानुभूति (होती है)। गुरुदेवने वही कहते थे। मार्ग एक ही होता है जन्म-मरण टालनेका। विभाव स्वभाव अपना नहीं है। शुभभाव बीचमें आता है, पुण्यबन्ध होता है, स्वर्ग मिलता है। परन्तु शुभभाव भी आत्माका स्वभाव नहीं है। जैसा सिद्ध भगवानका स्वरूप है वैसा आत्माका है। निर्विकल्प तत्त्व है। शुभभाव बीचमें आता है, परन्तु वह तो पुण्यबन्ध होता है। वह आत्माका स्वभाव नहीं है। इसलिये उससे भी भिन्न आत्माको पहचानो, ऐसा गुरुदेव कहते थे। ये पुण्यबन्धका कारण है। ऐसी श्रद्धा करना, ऐसा ज्ञान करना। ऐसा करनेसे स्वानुभूति प्रगट होती है। मुक्तिका मार्ग एक ही होता है, दूसरा नहीं होता है।
PDF/HTML Page 1230 of 1906
single page version
मुमुुक्षुः- शुद्ध भाव प्रगट करना। समाधानः- सच्चा ज्ञान करना, सच्ची श्रद्धा करनी, यथार्थ। ऐसी लगन लगे। सच्चा ज्ञान करना उसके लिये, तत्त्वका विचार करना। मैं भिन्न हूँ, ये स्वभाव मेरा नहीं है। ऐसी सच्ची श्रद्धा करना, सच्चा ज्ञान करना और शुद्धात्माको पहचानना। उसके लिये वह करना।
... स्वभानुभूति होती है। सम्यग्दर्शन होवे फिर मुनिदशा भी छठवे-सातवें गुणस्थानमें झुलते हुए क्षण-क्षणमें स्वानुभूति होती है। मुनिको भी स्वानुभूति बारंबार-बारंबार स्वानुभूति होती है। सच्चे मुनि भी तब होते हैं, जब स्वानुभूति यथार्थ बारंबार होती है तब होती है। उसमें ही केवलज्ञान होता है। विशेष-विशेष प्रगट होनेसे, स्वानुभूति होनेसे मुनिदशा, केवलज्ञान, सब उसमें होता है। सम्यग्दर्शन सब इसमें होता है। सम्यग्दर्शनसे लेकर मुनिदशा, केवलज्ञान सब स्वानुभूतिमें होता है।
मुमुक्षुः- ज्ञान तो हो गया, आत्मा अलग है..
समाधानः- सच्चा भेदज्ञान होता है, उसमें आगे क्या करना वह उसमें आ जाता है। भेदज्ञान हुआ, शरीर भिन्न आत्मा भिन्न। उसमें जो विकल्प होता है न? आकुलता- विकल्प उससे भी भेदज्ञान करना। शरीर तो स्थूल है। भीतरमें जो विकल्प होता है उसका भी भेदज्ञान होता है। विकल्प भी मैं नहीं है, विकल्प मेरा स्वभाव नहीं है। उससे भी भेदज्ञान होना, क्षण-क्षणमें जो विकल्प होते हैं, उससे भेदज्ञान होना। उसमें मैं ज्ञायक हूँ और ज्ञाताधाराकी उग्रता होती है। भेदज्ञान ऐसे बोलनेसे नहीं होता है। भेदज्ञान, विकल्पसे भी भेदज्ञान करना। विकल्पसे भेदज्ञान करके इसमें ज्ञायक जो है, मैं ज्ञायक हूँ, उसमें लीनता करना, स्थिरता करना, उसमें बारंबार-बारंबार बाहरसे उपयोग हटाकर आत्मामें लीन होना, बारंबर आत्मदर्शन होना, वह करनेका है। भेदज्ञान करनेसे (होता है)। जिसको आत्माका स्वरूप बारंबार-बारंबार आत्मदर्शन होता है। उसमें आ जाता है, भेदज्ञानमें सब आ जाता है। उपयोग आत्मामें लीन होता है।
मुमुक्षुः- ज्ञानलक्षण, अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यके भाव और अवस्थामें हो रहे विकारी परिणाम, उससे पृथक हो, लक्षणका अस्तित्व वह उसके ज्ञानमें स्पष्ट ख्यालमें तो आना चाहिये न? ज्ञानमें भिन्नरूपसे पकडमें तो आना चाहिये न। और उस परसे ऐसा त्रिकाल ज्ञानमूर्ति परिपूर्ण मैं हूँ, ऐसे अन्दरमें अहंभाव करे तो, अभी तो बहुत बार ऐसा लगता है कि राग और ज्ञान मिश्ररूपसे ख्यालमें (आते हैं), स्पष्टरूपसे ये स्वच्छतामात्र सो ज्ञान, चैतन्य स्वच्छतामात्र सो ज्ञान और यह राग, वृत्तिका .. राग, वह भी बहुत स्पष्टरूपसे देखे तो उपयोगकी सूक्ष्मता न हो तो वह आभासमें ख्याल नहीं आता है। धारणासे तो बोल ले कि आत्माका जानपना है वह आत्माका ज्ञान है, वह आत्माका
PDF/HTML Page 1231 of 1906
single page version
लक्षण है। परन्तु फिर अहंभाव वास्तविक हो सके कि मैं यही हूँ और यह नहीं हूँ। ऐसा होना कठिन लगता है।
समाधानः- परिणति विभाव-ओर है। परद्रव्य, परद्रव्यके भाव, विभावभाव उसके साथ जो ज्ञान है, उसे उपयोग स्थूल हो गया है। और उपयोगकी ओर चैतन्यको सूक्ष्मरूपसे ग्रहण करना वह उसे बुद्धिसे ग्रहण करे, लेकिन उस तरह टिकाना कि यह अस्तित्व ही मैं हूँ, चैतन्यका अस्तित्व ज्ञानलक्षण सो मैं हूँ, ऐसा त्रिकाल शाश्वत मैं हूँ कि यह ज्ञानलक्षण अस्तित्व सदाके लिये स्वतःसिद्ध है। उसे ग्रहण करके टिकाना वह उसे ओर अंतरकी परिणति स्वकी ओर अमुक प्रकारसे परिणति मुडे तो दृढ रहे, नहीं तो बुद्धिमें ग्रहण हो। परन्तु परिणति तो उसकी विकल्पके साथ एकमेक हो रही है। एकमेक हो रही है इसलिये उसे ज्ञानको भिन्न करना दुष्कर पडता है।
उसे यह ज्ञान सो मैं और यह मैं नहीं हूँ। वैसा ही मैं हूँ, यही मैं हूँ और यह मैं नहीं हूँ, ऐसी परिणति हमेशा प्रगट करनी उसके लिये पुरुषार्थ हो तो होता है। नहीं तो उसका जो अनादिका वेग है, उस वेगमें वह चला जाता है। बुद्धिमें ग्रहण किया कि यह ज्ञान सो मैं हूँ, यह मैं नहीं हूँ, उसे बुद्धिमें भूल जाय तो बारंबार ग्रहण करता रहे। परन्तु परिणति तो विकल्पके साथ एकमेक हो रही है। उस परिणतिको वह भिन्न नहीं करता है, तबतक उसे यथार्थ प्रकारसे भेदज्ञान नहीं होता है। भेदज्ञानकी परिणति नहीं होती है। बुद्धिसे ग्रहण करता है। परन्तु भेदज्ञानकी परिणति यदि हो तो ही उसका भेदज्ञान यथार्थ है। तो उसने अपना अस्तित्व यथार्थ ग्रहण किया है। नहीं तो वह बुद्धिमें ग्रहण करता है, परन्तु परिणति तो उसके साथ एकमेक-एकमेक होती ही रहती है। जो अनादिका प्रवाह है उसीमें चला जाता है।
राग और ज्ञान, राग और ज्ञान एकसाथ-एकसाथ ऐसे ही चलता ही है। परन्तु जिस समय राग और ज्ञान साथमें है, उसी क्षण यह मैं नहीं हूँ, यह मैं हूँ और यह मैं नहीं हूँ, ऐसी परिणति करनेके लिये उसे उस जातका सूक्ष्म उपयोग और वैसे उसे अन्दरसे ग्रहण होना चाहिये। वह उसे एकबार ग्रहण हो ऐसे नहीं, बारंबार वह ग्रहण करता ही रहे, तो उसे सहजता हो तो अन्दरसे कुछ यथार्थ भेदज्ञान होनेका अवसर आये। परन्तु एकबार बुद्धिमें बारंबार करता रहे, परन्तु परिणति भिन्न न पडे तबतक यथार्थ भेदज्ञान नहीं होता। परिणति तो साथ ही साथ चलती रहती है। बुद्धिमें ग्रहण करे परन्तु परिणति तो ऐसे ही काम करती रहती है। राग और ज्ञान, राग और ज्ञान साथ-साथ, साथ-साथ होता ही रहता है।
जिस समय राग और ज्ञान साथमें होते हैं, उसी क्षण यह मैं ज्ञान हूँ और यह मैं नहीं हूँ, यह ज्ञान सो मैं हूँ, और यह मैं नहीं हूँ। इस प्रकार प्रतिक्षण उसकी
PDF/HTML Page 1232 of 1906
single page version
परिणति भिन्न करता हुआ अपने अस्तित्वको बारंबार ग्रहण करे और उसमें ऐसे दृढता करे तो उसे सहज होनेका प्रसंग आये। बारंबार उसे इस तरह ग्रहण करे तो हो।
मुमुक्षुः- परिणति एकमेक हो रही है, उस वक्त ज्ञान भिन्न पडे तो यह राग भिन्न है, यह मैं हूँ और यह मैं नहीं हूँ, वह यथार्थपने सच्चा अभ्यास हो।
समाधानः- सच्चा हो कि यह ज्ञान सो मैं हूँ और यह मैं नहीं हूँ।
मुमुक्षुः- इस अभ्यासमें थोडी दिक्कत होती है। उतनी सूक्ष्मता है.. क्योंकि अव्यक्त है, उपयोग तो व्यक्त है और अस्तिरूप है। और वह ऐसे अस्तिरूप है कि रागसे भिन्न है। इसलिये जिस प्रकारसे है उस प्रकारसे ग्रहण करनेका प्रयत्न अथवा तो उपयोग सूक्ष्मता हो तो हुए बिना रहे नहीं। फिर भी अभी भी नहीं हो रहा है, इसलिये उतनी रुचिकी कचास, उपयोगकी सूक्ष्मताकी कचास, अभ्यासकी कचास अथवा चटपटी उतनी कम है?
समाधानः- चटपटी कम है, सूक्ष्मता कम है, प्रयत्न कम है, सब साथमें है। यथार्थ लगन लगे तो यथार्थ अन्दरसे पुरुषार्थ हुए बिना रहे नहीं, भिन्न हुए बिना रहे नहीं। अन्दर सब साथमें है, सब कचास साथमें है।
मुमुक्षुः- अभ्याससे भिन्न तो पड सकता है।
समाधानः- पड सकता है।
मुमुक्षुः- ज्ञान उपयोग, ज्ञानमें ख्यालमें तो पकडमें आता है कि यह ज्ञानउपयोग और यह वृत्ति भिन्न है, यह राग भिन्न है और यह मैं भिन्न हूँ, ऐसा अभ्यास करे तो भिन्न तो पड सकता है।
समाधानः- भिन्न पड सकता है। अभ्यास बारंबार करे तो भिन्न पड सकता है। परन्तु वह बारंबार अभ्यास करता नहीं है। बुद्धिसे नक्की करके छोड देता है। बारंबार अभ्यास करनेमें उसे श्रम पडता है, उसे मेहनत पडती है, बारंबार वैसी उतनी तीखी रुचि नहीं है कि यह मेरी जरूरत ही है, ऐसा तीखा नहीं है इसलिये वह प्रयत्न कम करता है, नहीं करता है। उसके लिये सूक्ष्मता करके क्षण-क्षणमें मैं यह भिन्न ही हूँ, ऐसा प्रयत्न तो हो सकता है, परन्तु वह करता नहीं है।
मुमुक्षुः- आधा घण्टा, एक घण्टा लगातार बैठकर इसीको ज्ञानको भिन्न ज्ञानमें लेनेके लिये एकाद घण्टा बैठा, फिर भी उस ज्ञानको जैसे ज्ञानमें भिन्न लेना है उस प्रकारसे ज्ञानमें भिन्नरूपसे नहीं आता है। और पहलेसे मैं भिन्न हूँ, ऐसा ऊपर-ऊपरसे चला जाता है।
समाधानः- थोडी देर उसे विचारमें आवे, फिर जो भी हो विचारोंमें अमुक प्रकारकी स्थूलता हो जाती है इसलिये चला जाता है। ऐसा होता है।
PDF/HTML Page 1233 of 1906
single page version
मुमुक्षुः- कोई बार तो ऐसा लगता है कि ऐसे ही काल व्यतीत हो जायगा।
समाधानः- ऐसे स्थूल हो जाय तो भी बारंबार उसका अभ्यास करता रहे तो हो सकता है। थोडी देर करे, उतनेमें उपयोग स्थूल हो जाय, टिक सके नहीं। थोडा विचार करने उतनेमें।
मुमुक्षुः- नहीं तो ऐसी स्थिति है कि बाहरमें जो कुछ काम है उतना विकल्प आये, घर बैठनेमें तो दूसरा कोई विचार नहीं है, कुछ नहीं है, इसलिये धून भी यह रहती है। फिर भी जितना चाहिये उस जातका, अभी भी ऐसा लगता है कि ज्ञान ज्ञानमें भिन्न पडे तो कुछ गरमी आ जाय कि यह मैं हूँ और यह भिन्न है। तो वह अभ्यास ज्यादा करनेका..
समाधानः- ज्यादा करनेकी उसे अन्दरमें गरमी आये। विचार करनेसे उपयोग फिरसे स्थूल हो जाय। स्थूल हो जाय इसलिये उसे बार-बार सूक्ष्म करनेके लिये बारंबार दृष्टि करनी पडे। थक जाय, प्रयत्न कम हो जाय, बारंबार करे...
मुमुक्षुः- एक घण्टा, दो घण्टा चला.. फिर
समाधानः- थकान, बाहरसे थकान नहीं, अंतरमेंसे। आगे चले नहीं इसलिये दूसरे विचार आ जाय। भले जाननेके विचार आये, परन्तु ग्रहण करनेमें उसे उपयोग सूक्ष्म करना पडे, उतना धीरा होकर ग्रहण करना पडे तो होता है। ऐसी मेहनत तो उसे प्रथम भूमिकामें चलती ही रहे। क्योंकि जब तक ग्रहण नहीं हुआ है, श्रीमद कहते हैं न, प्रथम भूमिका विकट होती है। इसलिये पहले उसे जिज्ञासाकी भूमिकामें मेहनत चलती रहे। जबतक ग्रहण नहीं हो जाता तबतक।
मुमुक्षुः- ज्ञान भिन्न पड जाय, ज्ञान ज्ञानमें अभ्यास-प्रयत्न करे तो ..
समाधानः- प्रयत्नसे भिन्न पड सकता है। स्वयं ही है, अपना स्वभाव है। इसलिये भिन्न तो पड सकता है। अनन्त मोक्षमें गये, भेदज्ञान करके ही गये हैं। भेदज्ञानके अभ्याससे। भेदज्ञानके अभ्यासमें द्रव्य पर दृष्टि, भेदज्ञान आदि सब उसमें समा जाता है। द्रव्य पर दृष्टि करे इसलिये उसमें भेदज्ञान आ जाता है। यह मैं चैतन्य हूँ और यह मैं नहीं हूँ। ऐसे दृष्टि और ज्ञान दोनों साथमें आ जाते हैं। मैं यह चैतन्य हूँ, मेरा अस्तित्व स्वतःसिद्ध यह मैं हूँ और यह मैं नहीं हूँ। दोनों उसमें साथमें आ जाते हैं। अभ्यास करनेसे हो सकता है। एकदम हो जाय वह किसीको ही होता है। बहुभाग अभ्यास करनेसे होता है।
छोटीपीपर घिसते-घिसते गुरुदेव कहते थे कि चरपराई प्रगट होती है। छाछ और मक्खन सब इकट्ठा हो तो मंथन करते-करते मक्खन बाहर आता है। छाछको बिलोने पर मक्खन अन्दरसे भिन्न पड जाता है।प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!