Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 193.

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ट्रेक-१९३ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- ... स्वाध्यायमें भी बार-बार सुनते हैं कि ... ज्ञाता-दृष्टापना रखना चाहिये। तो ज्ञाता-दृष्टापना कैसे रखना?

समाधानः- स्वाध्यायमें न? ज्ञाता-दृष्टा तो अन्दर ज्ञायककी परिणति प्रगट हुयी हो तो ज्ञाता-दृष्टापना रहता है। जिसे ज्ञायकपना प्रगट नहीं हुआ है, उसे ज्ञातापन रहना मुश्किल है। ज्ञायकको पहचाने, भेदज्ञान करे और एसी ज्ञाताकी भेदज्ञानकी परिणति प्रगट हुयी हो तो उसे प्रत्येक शुभभावके कोई भी विकल्प हो, शुभाशुभ प्रत्येक भावमें उसे ज्ञातापन सहजरूपसे रहता है। शुभके विकल्प हो तो भी ज्ञाता रहता है। शुभाशुभ प्रत्येक भावमें, सर्व विकल्पमें उसे ज्ञातापना, भेदज्ञानकी धारा प्रगट हो गयी, ऊच्चसे ऊच्च शुभभाव हो तो भी उसे भेदज्ञान सहजपने, उसकी पुरुषार्थकी गति क्षण-क्षणमें मैं ज्ञायक हूँ, मैं ज्ञायक हूँ ऐसे सहजपने ज्ञाताके अस्तित्वमें उसकी परिणति उस ओर रहती ही है। कोई भी विकल्प आये उसे भेदज्ञानकी धारा चलती है। उसे श्रुतका चिंतवन हो, शास्त्रका अभ्यास हो तो भी उसे ज्ञातापना सहज रहता है।

लेकिन जिसे एकत्वबुद्धि है, जिज्ञासुकी भूमिका है, उसे ज्ञातापना रहे ऐसा होता नहीं। उसे तो मात्र भावना रहती है कि मैं ज्ञायक हूँ, ऐसे। भावना करनी रहती है, वह परिणति प्रगट करनी रहती है।

परन्तु जिसे ज्ञायककी दशा प्रगट हुयी है, स्वानुभूतिकी दशा प्रगट हुयी है, वह फिर सविकल्पमें आये तब उसे भेदज्ञानकी धारा रहती है। चाहे जैसे शुभके विकल्प हो तो भी उसे भेदज्ञानकी (चालू रहता है)। भगवानका दर्शन करे, पूजा करे, शास्त्र अभ्यास करे, कुछ भी करे तो भी उसे भेदज्ञानकी धारा चालू ही रहती है। शुभभावमें उसे एकत्वबुद्धि नहीं होती। उसे बाहरसे भगवानकी बहुत भक्ति दिखे, श्रुतका चिंतवन बहुत दिखे तो भी उसे एकत्वबुद्धि नहीं होती, उसे ज्ञायककी धारा भिन्न ही रहती है। उसे अमुक प्रकारका रस दिखे, लेकिन एकत्वबुद्धि नहीं है। उसे स्थिति अल्प पडती है, रस बहुत पडता है, परन्तु उसे भेदज्ञानकी धारा है, उसे स्थिति लंबी नहीं पडती। वह भिन्न रहता है, न्यारा ही रहता है। सहज दशा भेदज्ञानकी धारा रहती है।

मुमुक्षुः- उतना ही सत्य आत्मा है, जितना यह ज्ञान है।


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समाधानः- वह बात आयी।

मुमुक्षुः- ज्ञानसे ज्यादा लेनेमें मुख्य हेतु कोई है?

समाधानः- पहले अपनी ओर मुडता है। उतना निश्चय कर कि जितना यह ज्ञान है। निश्चय करनेमें तो बीचमें ज्ञान आता है न। मुख्य तो दृष्टि है। अनादिअनन्त आत्मा है उस पर तू दृष्टि कर। परन्तु दृष्टिके साथ ज्ञान तो होता ही है। जिज्ञासाकी भूमिकासे आगे बढना हो तो इतना निश्चय कर। निश्चयके साथ दृष्टि होती है। दृष्टि प्रगट नहीं हुयी है, निश्चय तो पहले करना होता है कि जितना यह ज्ञान है, उतना तू है। इतना जो ज्ञान दिखता है वह ज्ञायक है। उसे तू ग्रहण कर, उसमें रुचि कर, उसमें संतुष्ट हो। कहनेकी शैलीमें, आगे बढनेकी शैलीमें उसे विचारोंमें तो सब ज्ञान आता है। दृष्टि तो उस पर स्थिर करनी। दृष्टिका विषय तो एक अभेद है।

दृष्टि तो मुख्य है, ऐसा कहकर यह कहना है कि तू दृष्टि आत्मा पर कर। आत्मा ऐसा है और वही ग्रहण करने जैसा है। उसे तू ग्रहण कर। वह अनादिअनन्त आत्मा, उसे अभेदरूपसे एक चैतन्य आत्मा वही मैं हूँ, उस पर दृष्टि स्थापित कर। दृष्टि प्रगट करनेकी दृष्टि है। परन्तु उसे निश्चय करनेमें तो बीचमें ज्ञान आता है।

मुमुक्षुः- जितना यह ज्ञान है उतना ही आत्मा है।

समाधानः- गुण और गुणी अभेद है। जो यह ज्ञान दिखता है-ज्ञानलक्षण उतना आत्मा है। ज्ञानके अलावा जो भी है वह सब विभाव, सब पर है। एक ज्ञानलक्षण जो दिखता है, ज्ञानलक्षणसे पहचान ले। वह जो लक्षण दिखता है वह ज्ञानलक्षण है उतना ही आत्मा है। उतना ही गुणी है। लक्षण और लक्ष्य दोनों एक ही है, उसे तू ग्रहण कर। पूरा ज्ञायक ग्रहण कर ले।

मुमुक्षुः- ग्रहण करवानेका वहाँ हेतु है।

समाधानः- हाँ, ग्रहण करवानेका हेतु है। जितना यह ज्ञान है उतना आत्मा है। जितना ज्ञानस्वभाव जिसके लक्ष्यमें आये, ज्ञानस्वभाव लक्षण है वह आत्मा है। बाकी सब जो दिखे वह सब विभाव है। एक ज्ञानलक्षण आत्माको पहचान ले अर्थात एक ज्ञायकको पहचान ले। उस पर दृष्टि कर। गुण और गुणी अभेद है। उस पर दृष्टि स्थापित कर।

उसमें तृप्त हो, उसमें रुचि कर, उसीमें सर्वस्व है। बाकी बाहर कुछ नहीं है। और उस पर तू दृष्टि स्थापित करके उसका ज्ञान कर। उसीमें संतुष्ट होगा, तृप्ति होगी, सब उसीमें है। अपूर्व सुख उसमें प्रगट होगा। सब ज्ञानस्वरूप आत्मामें ही सब भरा है। ज्ञायकमें ही सब भरा है। ऐसा हो कि अकेले ज्ञानमें क्या है? परन्तु अकेले ज्ञानमें अनन्त भरा है। जितना यह ज्ञान है, वह आत्मा है, उसे ग्रहण कर।


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मुमुक्षुः- बहुत भेद न पडे, परन्तु अभेद ही मुख्य है न?

समाधानः- ग्रहण अभेदको करनेका है। ग्रहण तो एक आत्माको (करना है)। भेद परसे दृष्टि उठा ले। ग्रहण करे एक अभेदको। परन्तु उसका ज्ञान बीचमें आ जाता है। भेद पर दृष्टि नहीं रखनी है। दृष्टि एक अभेद पर कर। बाकी सबका ज्ञान कर। दृष्टि एक अभेद पर कर। दृष्टि उसमें स्थापित की इसलिये उसमेंसे शुद्ध पर्याय प्रगट होगी, स्वयं प्रगट होगी। पहले तू यथार्थ निश्चय कर कि यह ज्ञानस्वरूप आत्मा है वही मैं हूँ। ऐसे निश्चय कर उसका और यथार्थ दृष्टि प्रगट कर। दृष्टि मुख्य है, परन्तु ज्ञान साथमें आता है। भेद परसे दृष्टि उठा ले, दृष्टि एक आत्मा पर कर।

मुमुक्षुः- .. उसके पहले ज्ञानसे आत्माके स्वरूपको भेदपूर्वक विचारता है कि मैं ऐसा ज्ञान सामर्थ्यका पिण्ड हूँ, ऐसे सुख सामर्थ्यका पिण्ड हूँ, ऐसी प्रभुता .. हूँ।

समाधानः- उसके विचारमें ऐसा निश्चय बीचमें आये बिना नहीं रहता। निश्चय किये बिना... वह बीचमें आता है। भेदके विचार (आते हैं), परन्तु दृष्टि एक अभेद पर करनी है। दृष्टि अभेद पर गयी और उसमें लीन हुआ तो विकल्प छूट जाता है। तो उसमेंसे उसे स्वानुभूति प्रगट होती है। परन्तु पहले वह निश्चय करे तब भेदके विकल्प आते हैं।

मुमुक्षुः- .. भेदके ग्रहणपूर्वक ही उसे यथार्थ निश्चय होता है और फिर भेदको छोडकर अभेदको ग्रहण करता है?

समाधानः- अभेदको ग्रहण करता है। (बीचमें) व्यवहार आये बिना रहता नहीं। विकल्प द्वारा नक्की करके फिर मति-श्रुतकी बुद्धिओंको समेटकर स्वयं निर्विकल्प होता है। ऐसा गाथामें आता है, उसकी टीकामें। .. है उसे थोडा-थोडा जवाब देती हूँ। उस प्रश्नके जवाब लगभग कैसेटोमें वही आये हैं। वही होता है। कैसे करना? क्या करना? वही प्रश्न बहुभाग सबके होते हैं।

.. बहुत सुननेका है। बिना पूछे कितने ही ऊतारकर ले गये हैैं। मुझे तो मालूम नहीं है, कौन ऊतारकर ले गया है। पीछेसे बोलूँ उसे ऊतारा है। पहले मैं वांचन करती थी, उसकी तो मैं स्पष्ट ना कहती थी। किसीने ऊतारा नहीं है। बहुत समय बाद ऊतारा तो ऐसे ढककर ऊतारा। अभी भी सभी बहनोंको ऊतारनेकी ना ही कहती हूँ। सब बहनें नहीं ऊतारती है। सब बहनें नहीं ऊतारती। यहाँ कोई लेकर बैठा होता है। बाकी सब बहनें नहीं ऊतारती है। सबके पास नहीं है।

... अकेली बैठी होऊँ तब धूनमें कुछ बोलना होता है। शास्त्रके अर्थमें कुछ धूनमें ही धूनमें उस दिन बोलती थी। विकल्प तुम भाग जाओ ऐसा सब। अब सब जाईये, ऐसा सब बोलती थी। शास्त्रके साथ कोई मेल नहीं हो, ऐसा कुछ बोलती हूँ।


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मुमुक्षुः- वही शास्त्र है, उससे ऊच्च शास्त्र कौन-सा होगा? मस्तीकी तो सबसे ज्यादा कीमत है न।

समाधानः- तन-मन-धन। गुरुदेवके चरणमें मन-विकल्पको छोड दिये। गुरुदेवके चरणमें अब तुम्हारा यहाँ स्थान नहीं है, मैं तो ज्ञायक हूँ। विकल्प गुरुदेवके चरणमें रख दिये। अब चले जाओ। गुरुके चरणमें.. उसका अर्थ कोई पूछे कि गुरुदेवके चरणमें विकल्प, वह क्या? वह तो भावमें ही बोलना होता है। गुरुदेवको कहाँ विकल्प चाहिये? और किसीको कहाँ चाहिये?

मुमुक्षुः- शब्दोंके अर्थ करने जाय तो तकरार हो जाय।

समाधानः- ऐसा ही है। ज्ञायकमें विकल्प नहीं है। मेरे हृदयमें एक ज्ञायक है। विकल्प अब चले जाओ, मुझे नहीं चाहिये। विकल्पको खडे रहनेका स्थान नहीं रहता है। या ज्ञायक या गुरु। मेरे हृदयमें गुरु हैं। दूसरा कोई स्थान नहीं है। तुम अब चले जाओ। तन तो गुरुदेवके चरणमें, मन कैसे? विकल्प जाओ, अब मेरे गुरुदेवके चरणोंमें जाओ, ऐसा सब बोलती थी। ऐसा हो कि यह सब ऊतारकर उसका अर्थ क्या करना? ऐसा हो जाता है कोई बार।

मुमुक्षुः- अपने कहाँ अर्थ करके समझ लेना है?

समाधानः- चले गये। ... सब ठीक करके देना पडे न। सब भिन्न-भिन्न हो उसे एकट्ठा करके देना पडे।

मुमुक्षुः- अच्छा आता है।

मुमुक्षुः- किस प्रकार..

समाधानः- शुद्धात्मा, ऐसा है न?

मुमुक्षुः- शिर्षक ऐसा है।

समाधानः- ध्रुव अनादिअनन्त है। ध्रुव है वह तो शुद्ध ही है, शुद्धात्मा शुद्ध है। बाकी शब्दोंका मेल तो शास्त्र... प्रवचनसारमें बहुत जगह ज्ञान अपेक्षासे कहते हैं, कोई जगह दृष्टि अपेक्षासे कहते हैं। दृष्टि और ज्ञानमें साथमें होते हैं। वहाँ दो द्रव्यको भिन्न किया और यहाँ दृष्टि और ज्ञान साथमें रखे। स्वधर्मसे एकत्व स्वयंसे और परसे भिन्न है-विभक्त। परधर्मसे भिन्न और स्वधर्ममें एकत्व। अपनेमें एक है इसलिये शुद्ध है। इसलिये वह उपलब्ध करने योग्य है। वह ध्रुव है। इसलिये दृष्टि तो तू ऐसी कर। और परसे भिन्न इसलिये उसमें ज्ञान साथमें आया, दृष्टि साथमें आती है। इसलिये दृष्टि और ज्ञान साथमें रखते हैं।

आचार्यदेव बहुत जगह दृष्टि मुख्य करके ज्ञानको साथमेंं रखते हैं। और ज्ञानका विषय हो तो यहाँ दृष्टि और ज्ञान दोनों साथमें रखे। इसलिये ऐसा लगे कि यह दृष्टि


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है या ज्ञान है? कोई जगह दृष्टि और ज्ञान दोनोंकी साथमें बात करते हैं। ध्रुवत्वके कारण वह उपलब्ध करने योग्य है। वह एक है, परसे भिन्न है। परधर्मसे भिन्न और स्वधर्मसे एकत्व है। यह विभाव है, उससे तू भिन्न कर। स्वधर्ममें एक है, अपनेमें एक है, ध्रुव है, ऐसा कहकर यहाँ दृष्टि साबित करते हैं कि तू अपनी ओर देख। और परसे भिन्न होता है इसलिये उसमें ज्ञान भी साथमें आ जाता है।

मुमुक्षुः- दोनों बात..

समाधानः- दोनों बात एकमें आ जाती है। तू दृष्टि यथार्थ कर, उसके साथ ज्ञान भी साथमें आ जाता है। परसे भिन्न और स्वमें तू एकत्व है। अपनेमें एकत्व साबित करता है। तू दृष्टिको मुख्य कर। ज्ञान साथमें रखता है। .. ज्ञानको गौण करते हैं और यहाँ प्रवचनसारमें बहुत जगह दृष्टि-ज्ञान साथमें होते हैं। ऐसा है। कमर कसी है, ऐसा सब आता है। उसी गाथामें कहीं पर आता है। प्रवचनसारमेें आगे आ गया है। ८०वीं गाथामें ऐसा आया कि यह द्रव्य है, गुण है, पर्याय है। ऐसा मनसे नक्की करके फिर स्वयंमें संक्षेप करके विकल्पको तोड दे। कर्ता-कर्मका विभाग विलय हो जाता है और स्वयं अपनेमें एकत्व हो जाय, निर्विकल्प हो जाय। उसमें ऐसे लिया है। उसमें दृष्टि और ज्ञान दोनों साथमें ले लिया कि ऐसी दृष्टि कर। फिर ज्ञानसे नक्की करता है। विकल्प तोडकर अपनेमें लीन हो जाता है।

मुमुक्षुः- एक ही गाथामें दो बात ली है।

समाधानः- हाँ, एक गाथामें दो बात ली है।

मुमुक्षुः- यथार्थ निर्णय होता है, अनुभव पूर्व यथार्थ निर्णय होता है और उस यथार्थ निर्णयमें एक धारणारूप निर्णय होता है और एक भावभासनरूप निर्णय होता है। सविकल्प दशाकी बात करता हूँ। धारणारूप निर्णयमें तो केवल शास्त्रसे, आगमसे उसने नक्की किया होता है कि आत्मा ऐसा है, आत्मा ऐसा है। और भावभासनरूप निर्णयमें तो अंतर सन्मुख झुककर लक्षणसे कुछ आभास होता हो कि ऐसा ज्ञानमय आत्मा अन्दरमें है और वह मैं हूँ। उस निर्णयका फल, उस निर्णयके बाद आगे बढने पर उस निर्णयका अभाव होकर निर्विकल्पता हो, वह बराबर है?

समाधानः- भावभासनका निर्णय यथार्थ हो तो उस निर्णयकी विशेष दृढता वह परिणतिरूप हो तो निर्विकल्प दशा होती है। सहजरूपसे हो तो निर्विकल्प दशा हो।

मुमुक्षुः- परिणतिरूप होनेमें तो केवल अभ्यास ही मुख्यरूपसे (होता है)?

समाधानः- बारंबार उसका अभ्यास करे। उसमें ज्यादा तदाकार हो जाय। भावभासन है उसे ज्यादा दृढतारूप करता जाय। ज्यादा दृढतारूप करके उस रूप परिणमता जाय तो विकल्प छूटनेका प्रसंग आवे।


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मुमुक्षुः- धारणारूप निर्णयकी तो कीमत ही नहीं है। वह तो केवल शास्त्रसे और..

समाधानः- शास्त्रसे निर्णय किया है। मुुमुक्षुः- धारणा कर ली है।

समाधानः- धारणा की है। उतना कि कुछ जानता नहीं था, वह उसने कुछ जाना है, उतना। बाकी अंतर भावभासनमें तो अलग ही होता है।

मुमुक्षुः- भावभासनमें शुद्धात्माका स्वरूप जैसा है वैसा आता जाता है। फिर भी निर्णय न हो ऐसा भी बनता होगा? निर्णय, विकल्पात्मक निर्णय न हो। भावभासनमें स्वरूप ख्यालमें आता हो, फिर भी निर्णयरूप न हो सके।

समाधानः- भावभासन हो तो उसे निर्णय तो होता है। दोनोंका अविनाभावी सम्बन्ध है। भावभासनमें आये कि यह भाव है, तो निर्णय भी साथमें होता है कि ऐसे ही है। निर्णय न हो तो भावभासनमें उसकी कचास है। .. इसलिये तो निर्णयमें दृढता नहीं आती है।

मुमुक्षुः- भावभासनरूप निर्णय पर ही पूरा वजन है। मुख्य तो उसको वही पुरुषार्थ (करना है)।

समाधानः- भावभासन हो तो ही वह भावभासनसे आगे बढता है। स्वानुभूतिकी जो सविकल्प दशा है वह तो उसकी सहज धारारूप है। परन्तु उसके पहले है वह तो उसने भावभासनसे निर्णय किया है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!