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मुमुक्षुः- अनुभूतिके पहले कैसे...?
समाधानः- अनुभूतिके पहले तो उसकी उस जातकी लगन, उस प्रकारकी चटपटी हो, लगन हो, ज्ञायकको ग्रहण करने ओरकी उसकी परिणति हो। यह ज्ञायक ही है, अन्य कुछ मैं नहीं हूँ। ऐसा ज्ञायक ओरका निश्चय दृढ करना चाहिये। भेदज्ञानकी परिणति दृढ करनी चाहिये। ये सब मैं नहीं हूँ, मैं तो चैतन्य हूँ। अपना स्वभाव अंतरमेंसे ग्रहण होना चाहिये। स्वभावको ग्रहण करे, बारंबार-बारंबार चैतन्यकी धून लगे, चैतन्यके अलावा कहीं रुचे नहीं। एक चैतन्यमय जीवन कैसे हो जाय, ऐसी अपनी दृढ परिणति उस ओरकी होनी चाहिये। चैतन्यकी ही धून लगनी चाहिये। जागते-सोते चैतन्य-चैतन्य ओरकी परिणति ही जागृत रहनी चाहिये।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- विभावकी ओर दुःख और स्वभावका ग्रहण, दोनों साथमें (होते हैं)। स्वभावको ग्रहण करनेका प्रयत्न (होना चाहिये)। स्वभावमें ही सर्वस्व है, ऐसा निश्चय। स्वभाव ग्रहण करनेकी उसकी प्रतीति जोरदार होनी चाहिये और विभावकी ओर दुःख लगे, दोनों साथमें होते हैं।
मुमुक्षुः- सभी आत्माओंको इसी प्रकारकी विधि, विभाव परिणतमें दुःख लगे और स्वभाव ओर मुडे?
समाधानः- स्वभाव ग्रहण करनेकी परिणति। निज स्वभाव ओरका निश्चय और विभावमें दुःख लगे। विभाव तो आकुलतारूप ही है, स्वयंको आकुलता लगती नहीं है। उसका स्वरूप पहचाने कि ये तो आकुलता ही है। स्वभाव है वही शान्तिरूप है। ऐसा निश्चय स्वयंको होना चाहिये। विभाव ओर उसकी परिणति टिक न सके, अंतरकी ओर अंतरमें ही सुख है। विभाव होता है, परन्तु उसकी एकत्वबुद्धिको तोडता जाता है, स्वभावकी ओर मुडता जाता है।
मुमुक्षुः- अतीन्द्रिय आनन्दका स्वाद आने पूर्व उसे शुभभावरूप परिणतिमें उसे आकुलताका वेदन होता है?
समाधानः- शुभभावकी परिणति होती तो है, परन्तु यह मेरा स्वभाव नहीं है,
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ऐसा उसे निश्चय होता है। उसे आकुलता तो लगती है। ये सब मेरा स्वभाव नहीं है। सबमें आकुलता है तो आकुलता ही लगती है।
मुमुक्षुः- युक्तिसे आकुलताका वेदन लगे या वास्तवमें मन्द कषायमें भी आकुलताका (वेदन होता है)?
समाधानः- नहीं, युक्तिसे ग्रहण करे लेकिन उसे वेदनमें भी ऐसा लगे कि यह आकुलता है। उसमेंसे छूट नहीं सकता है, परन्तु उसे वेदनमें लगे कि ये आकुलता है।
मुमुक्षुः- मन्दमें मन्द कषाय हो तो भी उसे उस प्रकारका वेदन होता है?
समाधानः- हाँ, वह आकुलता है। .. किया कि यह आकुलता है और यह स्वभाव है। ऐसा निश्चय किया उतना ही नहीं, अपितु उसे अन्दर वेदनमें भी लगता है कि यह आकुलता है।
मुमुक्षुः- खटकका भी वही प्रकार, आकुलताका वेदन होता है इसलिये खटक रहा करे।
समाधानः- खटक रहा करे कि यह आकुलता है। लेकिन वह बीचमें आये बिना नहीं रहता। अभी शुद्धात्माका स्वरूप प्रगट नहीं हुआ है, वहाँ बीचमें आता है। अभी पूर्णता नहीं है, भले भेदज्ञानकी परिणति चालू हो तो भी बीचमें शुभभाव आते हैं। परन्तु वह समझता है कि आकुलता है। आकुलता आकुलतारूप वेदनमें आती है, स्वभाव स्वभावरूप वेदनमें आता है।
मुमुक्षुः- प्रश्न तो इतना होता है कि साधकको तो वैसा होना बराबर है, क्योंकि उन्होंने तो अतीन्द्रिय आनन्दका स्वाद चखा है, इसलिये आकुलता प्रत्यक्ष लगे। परन्तु उसके पहले भी मिथ्यादृष्टिकी भूमिकामें भी मन्द कषायमें भी वेदनमें आकुलता लगती है।
समाधानः- उसे लगे। खटककी तीव्रता हो जाय तो उसे लगे कि यह आकुलता है। नक्की करता है। वह प्रगट नहीं हुआ है तो वह अंतरमें अमुक प्रकारका वेदन पहचानकर नक्की करे तो अपनेसे नक्की किया ऐसा कह सकते हैं। ये अभी वेदनमें आता है, ये सब प्रवृत्तिरूप भाव आकुलतारूप है। ये ज्ञान है वह शान्तिरूप है। अमुक प्रकारसे वह युक्तिमें लेता है, अपने वेदन परसे नक्की करे तो उसने कुछ यथार्थ नक्की किया कहनेमें आये। ऊपर-ऊपरसे नक्की करे वह यथार्थरूपसे नक्की नहीं हुआ है।
स्वयं अपना स्वभावको पहचानकर, अपना वेदन अंतरसे पहचानकर नक्की करे तो उसने कुछ यथार्थ नक्की किया है। इसलिये उसे वेदनमें आता है कि यह आकुलता है, यह स्वभाव ज्ञान है वह शान्तिरूप है। लेकिन वह उससे छूट नहीं सकता है, भेदज्ञान नहीं होता है, परन्तु वह अमुक प्रकारसे निश्चय तो कर सकता है। उसके
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स्वयंके वेदनमें भी ज्ञात हो सके ऐसा है कि ये आकुलता है, ये शान्ति है, ज्ञान है। ज्ञायकता है वह शान्ति है। ऐसे।
मुमुक्षुः- ज्ञानी धर्मात्माको-भगवानको कैसा सुख होगा, वह भी नक्की हो सकता है? वेदनसे, अनुमानसे।
समाधानः- वेदनसे नक्की नहीं (कर सकता), परन्तु वह अनुमानसे नक्की कर सकता है। सुख कैसा हो? उस सुखका वेदन स्वयंको नहीं है।
मुमुक्षुः- स्वयंको दुःखका वेदन है, इससे विरूद्ध..
समाधानः- इससे विरूद्ध सुख (है), वह अनुमानसे नक्की कर सके। आकुलतासे विरूद्ध निराकुलता, उतना वह नक्की करे। परन्तु वह आनन्द गुणको नक्की करना वह अनुमानसे नक्की कर सके। आनन्दगुण उसे कहीं वेदनमें नहीं आता है। अनुमानसे अमुक प्रमाण परसे वह नक्की कर सकता है। युक्तिसे, स्वभावसे अमुक नक्की कर सकता है। उसके वेदनमें नहीं आता है।
मुमुक्षुः- आकुलताका तो वेदन होता है, इसलिये ज्ञानकी सूक्ष्मता होने पर उसे पकडमें आता है।
समाधानः- उसे पकडमें आता है। सुख पकडमें आये कि निराकुलता वह सुख, आकुलता वह दुःख। परन्तु आनन्दगुण है वह उसे अनुमानसे, अमुक प्रमाण परसे नक्की करे। जीव आनन्दको इच्छता है, इसलिये आत्मामें ऐसा कोई आनन्दगुण है कि जिसकी वह इच्छा करता है वह मिलता नहीं है। आत्मामें ऐसा आनन्दगुणका स्वभाव है।
मुमुक्षुः- माताजी! अन्दर जो शुभाशुभ भाव होते हैं, वह तो ..
समाधानः- भाव जो होते हैं उसे समझकर, वह भाव है वह आकुलताका वेदन है। अन्दर जाननेवाला है वह भिन्न है। शुभाशुभ भावोंको जाननेवाला भिन्न है और शुभाशुभ भाव भिन्न है। वेदन होता है वह तो आकुलतारूप है। उससे भिन्न मैं चैतन्य हूँ, उसे जाननेवाला भिन्न है।
मुमुक्षुः- ख्यालमें आता है न कि ये भाव हुआ, यह भाव हुआ। जो भाव होते हैं वह पकडमें आते हैं कि ऐसे भाव हुए। जिसे मालूम पडता है वह मैं हूँ, ऐसे?
समाधानः- हाँ, वह जो मालूम पडता है वह मैं हूँ। परन्तु वह मालूम पडता है वह उसकी पर्याय है, मूल तत्त्वको ग्रहण करनेका है। जो मालूम पडता है वह बराबर, मालूम पडता है वह ज्ञानकी पर्याय है। जो ये शुभाशुभ भाव होते हैं कि यह भाव आया, यह भाव आया, यह भाव आया। वह सब ज्ञानकी पर्याय है। परन्तु उसमें मूल वस्तु जो अनादिअनन्त है वह ज्ञायक परिपूर्ण है। एक-एक वस्तुको जाने,
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एक-एक विकल्पको जाननेवाला पर्यायें हुयी, परन्तु मैं एक अखण्ड ज्ञायक शाश्वत हूँ। ऐसे अखण्ड द्रव्यको ग्रहण करना। जो मालूम पडता है, उस परसे उसका पूर्ण अस्तित्व ग्रहण करना।
मुुमुक्षुः- जो मालूम पडता है वह पदार्थ मैं हूँ। समाधानः- हाँ, जो मालूम पड रहा है, वह पदार्थ मैं हूँ। जो खबर करनेवाला है वह मूल वस्तु अनादिअनन्त स्वतःसिद्ध मैं हूँ। जो शुभाशुभ भावोंको जाननेवाला है, वह खबर करनेवाला है, उसका जो मूल शाश्वत अस्तित्व है वह मैं हूँ। वह अस्तित्व पूर्ण ज्ञायक है। उस ज्ञायकमें अनन्त शक्तियाँ भरी हैैं।
मुमुक्षुः- मालूम पडनेमें अस्तित्व मालूम पडता है, बाकी दूसरे गुण इतने मालूम नहीं पडते हैैं कि दूसरे-दूसरे गुण है, उसका उतना ख्याल नहीं आता है। मालूम पडता है इसलिये .. ज्ञात होता है। परन्तु दूसरे भी अनन्त गुण हैं, वह मालूम नहीं पडते।
समाधानः- वह दिखाई नहीं देते हैैं। परन्तु जो शक्तिवान पदार्थ है, जो ज्ञायक है वह अनन्त शक्तिसे भरपूर हो। जो द्रव्य हो वह खाली नहीं होता, उसमें अनन्त गुण ही होते हैं। द्रव्य उसका नाम कहें कि जिसमें अनन्त शक्तियाँ हो। जिसमें अमर्यादित वस्तु है, चाहे जितना परिणमे तो भी खत्म न हो, ऐसी अनन्ततासे भरा द्रव्य है। फिर उसके युक्ति, प्रमाणसे नक्की होता है।
मुमुक्षुः- शान्तिका तो ख्याल आता है कि जब अन्दर जाते हैं तब सुख लगता है, बाहरमें .. उतना मालूम पडता है। शान्ति मालूम पडती है कि अन्दर जाते हैं तो थोडी..
समाधानः- शान्ति लगती है। अनन्त गुण तो दिखाई नहीं देते, परन्तु वह अनन्त शक्तिवान पदार्थ है। जिसमेंसे जो अनन्त पर्याय (होती है)। ज्ञान है वह अधूरा नहीं होता। जो स्वतः ज्ञान, स्वयं स्वतःसिद्ध वस्तु है, वह वस्तु अनादिअनन्त है। उस ज्ञानकी कोई मर्यादा नहीं होती। ऐसा ज्ञान अमर्यादित है। इसलिये अमर्यादित ज्ञान हो वह अनन्त शक्तिसे भरा हुआ ज्ञान है। ऐसे उसमें अस्तित्व, वस्तुत्व आदि अनन्त गुण हैं। वैसे उसमें आनन्दगुण है। वह भी अनन्तासे भरा है। इस तरह द्रव्य अनन्त-अनन्त शक्तिओंसे भरा है। वह दिखता नहीं है, वेदनमें नहीं आता है, परन्तु उसका अनुमान हो सकता है। और वह युक्ति ऐसी होती है कि यथार्थ होती है। वह स्वयं नक्की कर सकता है।
मुमुक्षुः- अस्तित्वका भी ख्याल आता है कि मेरी मौजूदगी है। ... उसका ख्याल आये, अस्तित्वका ख्याल आये।
समाधानः- अस्तित्व, परन्तु वह अस्तित्व अनन्ततासे भरा है। ऐसा स्वयं नक्की
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करे तो हो सकता है। आचायाने युक्तिसे, दलीलसे (सिद्ध किया है)। जो अस्तित्व हो वह अधूरा नहीं होता। पूर्ण अनन्त स्वभावसे भरा है।
समाधानः- ... अनादिअनन्त जैसा है वैसा ज्ञायक है। दृष्टि तो ऐसी कर। उसकी कृतकृत्य दशा पूर्ण पर्याय प्रगट हो तब हो। नहीं तो अनादिअनन्त.. दृष्टि तो चैतन्य पर स्वयं जैसा है वैसा ही है। उसमें कोई फेरफार नहीं हुआ है। ऐसे द्रव्य पर दृष्टि कर। स्वयं जाननेवाला है। साधकभाव भी व्यवहार है। इसलिये उस प्रकारसे स्वयं विभाव कर्ता नहीं है। अधूरी पर्याय जितना भी स्वयं नहीं है। अधूरी पर्यायें हों, वह भी अपना मूल स्वरूप नहीं है। इसलिये तू द्रव्य पर दृष्टि कर। क्षयोपशमभाव और उपशमभाव भी अधूरी पर्यायें हैं। इसलिये तू पूर्ण पर दृष्टि कर। तू जाननेवाला ज्ञायक है। आगे- पीछे मैंने कुछ सुना नहीं है, परन्तु उसका आशय यह है।
साधकभाव भी व्यवहार है। दृष्टि तो अखण्ड होती है। साधकभाव बीचमें आये बिना रहता नहीं। साधकभाव व्यवहार है। इसलिये तू अखण्ड द्रव्य पर दृष्टि कर। वह अखण्ड है उसमें साथमें पुरुषार्थ आ जाता है। पुरुषार्थ उसमें (है)। दर्शन, ज्ञान, चारित्र व्यवहार पर्याय तो अधूरी है, इसलिये उसमें पुरुषार्थ तो करना ही है, परन्तु तू वह सब कर्ताबुद्धि छोड दे। तू ज्ञाता है। वह कर्ताबुद्धि छोड दे। तो भी पुरुषार्थ तो उसमें करनेका रहता है।
निश्चय और व्यवहार दोनों जानने योग्य है। दृष्टि एक चैतन्य पर रख। आदरणीय एक चैतन्य है। दृष्टिके बलसे पुरुषार्थ होता है। इसलिये तू अखण्ड ज्ञायक है। साधकभाव व्यवहार है। वह बीचमें आये बिना रहता नहीं। तू कोई भी पर्याय है, उस पर्यायका निश्चय दृष्टिसे तेरा अकर्तास्वभाव है, तेरे स्वभावका कर्ता अनादिअनन्त पारिणामिकभावसे है। ऐसा कहना है।
मुमुक्षुः- अर्थात वहाँ ज्ञायककी दृष्टि करानेको...।
समाधानः- ज्ञायककी दृष्टि करनेको। बन्ध-मोक्षके जो विकल्प आये, वह विकल्प भी शुभभाव है। वह बन्ध-मोक्षकी जो पर्याय हैं, वह पर्याय भी प्रगट होती है मोक्षकी। इसलिये तू पर्याय पर दृष्टि मत करना। वह साधकभाव बीचमें आता है। मोक्ष है वह भी एक पर्याय है। इसलिये तू ज्ञायक जाननेवाला है, अखण्ड शुद्धात्मा है। ऐसा कहना है। पर्याय जितना ही तेरा स्वरूप नहीं है। तेरा स्वरूप अखण्ड है।
जो बादमें प्रगट होता है, तेरा मूल स्वरूप तो अनादिअनन्त है। परन्तु उसमें द्रव्यदृष्टि करे तो ही शुद्ध पर्याय प्रगट होती है। साधकभाव तो बीचमें आता है। साधकभाव व्यवहार है, ऐसा कहना है। सब अधूरी पर्याय व्यवहार है।
मुमुक्षुः- यानी वहाँसे लक्ष्य छुडाना है।
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समाधानः- लक्ष्य छुडाते हैैं। लक्ष्य छुडाकर अखण्ड द्रव्य पर दृष्टि करवाते हैं। ज्ञान तो सबका (होता है)। अनादिअनन्त है उस पर दृष्टि कर, ऐसा कहना है।
मुमुक्षुः- गुरुदेवकी उस पर बहुत प्रसन्नता थी। इसलिये लगा, गुरुदेवका जाननेपर बहुत (वजन था)।
समाधानः- तू सब जान, तू कर्ता नहीं है। जान, ज्ञायक हो। सब जान। अधूरी पर्याय, पूर्ण पर्याय उन सबका तू जाननेवाला ज्ञायक है। तू सब जान।
मुमुक्षुः- जाननेकी पर्यायको भी करनी नहीं है, ऐसे लिया। उसका जाननेवाला है, ऐसे लिया। इसलिये बहुत..
समाधानः- जाननेवाली पर्यायका भी तू जाननेवाला है। इसलिये उसमें व्यवहार नहीं है, ऐसा कहनेका आशय नहीं है। परन्तु वस्तुदृष्टि करवानी है। वस्तुका मूल स्वरूप बताते हैं। इसलिये वह पर्याय आत्मामें नहीं है, ऐसा नहीं। वह जाननेकी पर्याय उसमें होती नहीं, ऐसा नहीं है। वह सब व्यवहार है, लेकिन तू दृष्टि... मूल वस्तुका स्वरूप बताते हैं। अकेला ऐसा हो तो ये बन्धके विभावभाव होते ही नहीं। तो अकेली मोक्षकी पर्याय हो। यदि ऐसा हो तो ये जाननेका स्वभाव जो दिखता है, वह भी... आत्मा कुछ जान सके नहीं। यदि जाननेका स्वभाव ही न हो तो। वह सब जाननेकी पर्याय है। परन्तु तू दृष्टि तेरे स्वकी ओर कर, ऐसा कहना है।
तेरा स्वपरप्रकाशक स्वभाव है, परन्तु दृष्टि तेरे द्रव्य पर कर, ऐसा कहना है। आचार्यदेव, गुरुदेव सब एक ही बात करते हैं। दृष्टि तू शुद्धात्मा पर कर। पर्याय उसमें होती है, साधकदशा उसमें होती है, स्वपरप्रकाशक तेरा स्वभाव है। परन्तु दृष्टि तू परसे हटाकर एक अखण्ड ज्ञायक पारिणामिकभाव पर कर। पारिणामिकभाव अर्थात एक भाव पर नहीं, लेकिन अखण्ड द्रव्य पर दृष्टि कर।
मुमुक्षुः- इतना तत्त्व मिला, हम हमसे हो सके उतना प्रयत्न, चिंतन, मंथन सब करते भी हैं, परन्तु हमारे व्यवहारिक जीवनमें चलते-फिरते, कोई जूठ बोलनेका भाव, मायाचारीके भाव होते हो, अथवा सामनेवाले जीवको दुःख होगा ऐसा जाननेकी दरकारका भाव न रहता हो, वह सब तो बाह्य है। तो वह आत्मसाधनामें कुछ अवरोधरूप हो या पात्रताकी (क्षति है)?
समाधानः- स्वयं समझ लेना कि कैसे भाव आते हैं। मुमुक्षुकी भूमिकामें आत्मार्थका प्रयोजन मुख्य (होता है)। आत्मार्थीको न शोभे ऐसे मर्यादा तोडकर ऐसे विचार आत्मार्थीको होते नहीं। ऐसे कार्य भी आत्मार्थीको नहीं होते। जो आत्मार्थका पोषण हो, आत्मार्थताकी मुख्यता रहे ऐसे भाव आत्मार्थीको होते हैं। अपनी आत्मार्थताकी मर्यादा टूट जाय ऐसे भाव आत्मार्थीको होते नहीं। फिर कैसे आते हैं, उसका विचार स्वयंको करना रहता
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है। उसमें कचास हो तो अपनी पात्रता बढानी। आत्मार्थताका मुख्य प्रयोजन (होना चाहिये)। आत्मार्थताको कोई हानि पहुँचे ऐसी मर्यादा तोडकर ऐसे विचार आत्मार्थीको होते नहीं।
मुमुक्षुः- .. जब मोक्षमें जाते हैं, वहाँ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकायका अंत आ जाता है, वहाँसे आगे नहीं जा सकते। बराबर? धर्मास्तिकाय जो गतिमें उदासीन सहायतारूप होता है, वहाँ स्थिर हो जानेके बाद धर्मास्तिकाय कैसे मदद करता है?
समाधानः- वह तो ऐसा है कि जो चलते हुए गतिमान हो उसे निमित्त होता है। गतिमान न हो उसे निमित्त होता है, ऐसा नहीं है। जो गतिमें हो उसे निमित्त होता है। जो चलनेके बाद स्थिर हो उसे अधर्मास्तिकाय निमित्त बने। गतिमानको धर्मास्तिकाय निमित्त होता है। ऐसा होता है। प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। ...
मुमुक्षुः- विहार करते हैैं तब एक भाई छटपटाते हैं, गर्मीका दिन था, छटपटाता है और कहता है कि बचाओ, बचाओ, बचाओ, मुझे थोडा पानी दो। भावलिंगीके पास कमंडलु उपकरण होता है, उसमें पानी था। तो उन्हें देना योग्य है या अयोग्य है? पानी देना चाहिये कि नहीं देना चाहिये? विचित्र प्रश्न पूछ रहा हूँ।
समाधानः- भावलिंगी मुनि स्वयं तो भिन्न होकर स्वरूपमें लीन होकर बसते हैं। सर्व प्रकारके विकल्प छूट गये हैं। भिन्न हो गये हैं। सर्व कायासे छूट गये हैं। लौकिज्ञक कायासे छूट गये हैं। ऐसे कायामें उन्हें उस प्रकारका विकल्प नहीं आता है। उनका उपयोग बाहर नहीं होता है। उस जातके कायामें वे जुडते नहीं। छूट जाते हैं। यथार्थ मुनिदशा छठवें-सातवें गुणस्थानमें झुलते हैं। ऐसे कायासे छूट गये हैं। वह सब कार्य गृहस्थोंके हैं। उस कार्यसे छूट गया है।
जिसने यथार्थ मुनिपना अंगीकार किया, छठवें-सातवें गुणस्थानमें झुलते हुए, केवलज्ञानकी तलहटी, केवलज्ञान पूर्ण कृतकृत्य दशाकी तलहटीमें खडे हैं, मुनिदशा यानी छठवें-सातवें गुणस्थानमें झुलते मुनिराज हैं। ऐसे बाह्य कायासे छूट गये हैं। और उस जातका विकल्प नहीं होता है, भिन्न हो गये हैं।