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समाधानः- ... इसलिये पीछेसे कितने ही...
मुमुक्षुः- कितने दिन तक वह चलता रहता है।
समाधानः- फिर थकान लगती है। चार-छः दिन तक हड्डियाँ दुःखने लगती है। ऐसा हो जाता है।
गुरुदेवके संस्कार और गुरुदेवकी बात पूरी अलग है। वह तो अन्दरसे भक्ति आये बिना रहे नहीं।
मुमुक्षुः- ऐसी अपूर्व बात दी। उनके लिये क्या करे और क्या न करे,..
समाधानः- हाँ, सच्ची बात है। वह बात सच्ची है। कहाँ पडे थे, उसमेंसे कहाँ... कैसा अंतरका स्वरूप गुरुदेवने बताया! कहाँ क्रियामें धर्म मानते थे, उसमेंसे कहाँसे कहाँ (ले आये)। शुभभाव पुण्यबन्धका कारण, परन्तु अंतरमें तू चैतन्य अखण्ड तत्त्वको ग्रहण कर। कितनी गहरी बात बतायी है! गुणभेद, पर्यायभेद सबका ज्ञान कर, परन्तु अंतरमें दृष्टि तो अखण्ड पर (कर)। कितनी गहरी बात बतायी! दूसरे लोग तो कहाँ दृष्टिमें पडे हैं। गुरुदेवने तो कोई अपूर्व आत्माकी स्वानुभूति अंतरमें हो, कैसा मार्ग बताया है।
मुमुक्षुः- दूसरी जगह एक अंश भी दिखे नहीं।
समाधानः- कहीं नहीं मिलता। कहीं नहीं है।
मुमुक्षुः- सोनगढमें और आप विराजते हो तो हमें गुरुदेव जो कह गये हैं, वह लाभ आपसे सीधा प्राप्त होता है।
समाधानः- .. सब किया है। आत्माको कोई जानता नहीं था।
मुमुक्षुः- माताजी कहते हैं। स्वीकार करना वह अपनी लायकात चाहिये।
समाधानः- (इस पंचमकालमें) गुरुदेव पधारे वह महाभाग्यकी बात है। ... स्वभाव बताया। ... ज्ञायक है। वाणीसे जीवको अंतरमें ... ऐसा सम्बन्ध है कि देवकी, गुरुकी वाणी जीवको देशनालब्धिरूप परिणमती है तब उसे ज्ञायककी पर्याय प्रगट होती है। ज्ञायककी पर्याय प्रगट होती है, उसमें गुरुकी वाणी निमित्त बनती है। गुरुकी वाणी और जिनेन्द्र देवकी वाणी जगतमें शाश्वत (है)। जैसे आत्मा शाश्वत
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है, वैसे जगतमें जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्र सब शाश्वत हैं। ये वाणी टंकोत्कीर्ण अक्षरमें उत्कीर्ण हो, इसलिये उसका अधिक शाश्वतपना होता है।
आत्माको और वाणीको ऐसा सम्बन्ध है-निमित्त-उपादान। ज्ञायक ज्ञायक स्वभावरूप परिणमता है, परन्तु उसमें निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। अनादि कालसे जीव न समझे, परन्तु वह समझे तब उसे देशनालब्धि होती है। उपादान-निमित्तका ऐसा सम्बन्ध है। निमित्त निमित्तरूप है, उपादान उपादानरूप है। फिर भी निमित्त और उपादानका सम्बन्ध हुए बिना नहीं रहता।
निमित्तमें प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र होने पर भी उसकी उपस्थिति तो होती ही है। निमित्त- उपादानका ऐसा सम्बन्ध है। स्वतंत्र (हैं), इसलिये उसकी उपस्थिति न हो ऐसा नहीं बनता। निमित्त-उपादानका सम्बन्ध ऐसा है। अनादि कालसे ऐसा वाणी और आत्माका सम्बन्ध है। सर्व प्रथम देशनालब्धि होती है तब उसे ऐसा सम्बन्ध हुए बिना रहता ही नहीं। निमित्त-उपादान।
ज्ञायकदेव अन्दरसे भेदज्ञान करके जब स्वयं अपने चैतन्यघरमें बसता है, तब वाणीका निमित्त बनता है। ज्ञायक ज्ञायकको ज्ञान द्वारा पहचाने, प्रज्ञाछैनी द्वारा। परन्तु उसमें वाणी- देव-गुरुकी वाणी और शास्त्र निमित्त साथमें होता है। ऐसा सम्बन्ध है। अनादि ऐसा वस्तुस्थितिका सम्बन्ध है। वाणीका निमित्त, उपादानके साथमें होता है। सर्व प्रथम ऐसा सम्बन्ध होता ही है। देशनालब्धिका। सर्व कारण इकट्ठे हों, उसमें देशनालब्धिका एक कारण बनता है।
... सब विकल्पको छोडता जाता हूँ। विकल्प उसकी भूमिका अनुसार सब छूटते जाते हैं, गृहस्थाश्रमके विकल्प। पाँचवी भूमिकामें अमुक प्रकारके विकल्प, चतुर्थ भूमिकामें आये तो अनन्तानुबन्धी जाय, इसलिये सम्यग्दर्शन हो, स्वानुभूति हो तो अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी जो-जो परिणाम थे वह छूट गये। फिर उसे चतुर्थ भूमिकामें तारतम्यता अनुसार उसकी भूमिका अनुसार, पाँचवी भूमिकामें अमुक जातके उसके विकल्प छूट गये। छठवें- सातवें गुणस्थानमें उसे एकदम... छठवें-सातवें गुणस्थानमें झुलता है। फिर भी उसे देव- गुरु-शास्त्रके विकल्प तो उसके साथ ही साथ रहते हैं। उसके गृहस्थाम सम्बन्धीके दूसरे विकल्प छूटते जाते हैं।
चौथे गुणस्थानमें हो तो भी अमुक प्रकारके (होते हैं)। विकल्पको छोडता जाता हूँ और मेरी स्वानुभूतिमें जाता हूँ। विकल्पका साथ मुझे नहीं चाहिये। वह छूटता जाता है। परन्तु देव-गुरु-शास्त्रके विकल्प तो वहाँ रहते हैं। चतुर्थ गुणस्थानमें रहते हैं, पाँचवेमें रहते हैं और छठवें-सातवें गुणस्थानमें भी वह विकल्प तो रहता है। उसके कायामें फर्क पडता है। चौथे गुणस्थानमें देव-गुरु-शास्त्र और बाहर जो .. अमुक जातके होते
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हैं, उसके कायामें फर्क पडता है। परन्तु विकल्पमें फर्क नहीं पडता, विकल्प तो ऐसे ही साथमें रहते हैं।
मुनिके अमुक कार्य होते हैं। दर्शन और अमुक जातके शास्त्रकी रचनाक करते हैं। मन्दिर और ऐसा सब मुनिओंको होता है। दर्शन करे। गृहस्थाश्रमके कार्य अमुक प्रकारके होते हैं, प्रभावनाके। परन्तु देव-गुरु-शास्त्रके विकल्प तो मुनिराजको भी साथ- साथ होते हैं। अबुद्धिपूर्वकमें उसके अमुक विकल्प अबुद्धिपूर्वकके रह जाय तो शुक्लध्यानकी श्रेणी चढते हैं तो भी आखिर तक श्रुतका विकल्प उन्हें साथें ही होता है।
जब अंतरमें एकदम शाश्वत जम गये, स्वयं ज्ञान ज्ञानरूप परिणमित हो गया, तब उसे श्रुतका रागमिश्रित विचार था अबुद्धिपूर्वकका वह छूट गया। वह विकल्प आखिर तक साथमें रहता है। बाकी सब विकल्प छूटते जाते हैं। उसकी भूमिका अनुसार सब छूटते जाता है। परन्तु यह विकल्प तो (होता है), इसलिये उसका साथ तो आखिर तक रहता है। आखिरमें शुक्लध्यानकी श्रेणि चढे तो श्रुतका विकल्प भी उसे अबुद्धिपूर्वकका होता है। फिर जब एकदम जम जाय, केवलज्ञान हो तब उसके विकल्प छूटते हैं। इसलिये वह तो आखिर तक होता ही है। नहीं चले उसमें वह आ ही जाते हैं। विकल्प, आपके बिना सब चलेगा, मैं आपको निकालना चाहता हूँ। ज्ञायक तो मेरे साथ ही है। ज्ञायककी स्वानुभूतिमें मैं विशेष बढता जाता हूँ। परन्तु बाहर आता हूँ वहाँ देव-गुरु-शास्त्रके विकल्प ऐसे ही होते हैं।
उसके कायामें फर्क होता है, चौथे-पाँचवें गुणस्थानें। छठवें-सातवें गुणस्थानमें कार्य अमुक जातके होते हैं। परन्तु विकल्प तो उसके साथ ही होते हैं। उसकी भूमिका अनुसार। छठवें-सातवें गुणस्थानमें संज्वलनके विकल्प हो जाय तो भी यह विकल्प तो उसके साथ ही होते हैं।
आचार्य कैसे शास्त्र रचते हैं। जिनेन्द्र देवकी भक्तिके कैसे शास्त्र रचते हैं। अमुक जातके शुभभाव तो बाहर आते हैं तब आते ही हैं। श्रुतका चिंतवन करे तो शास्त्रोंकी रचना करते हैैं। केवलज्ञान हो तब उसे अबुद्धिपूर्वकका विकल्प हो (वह छूट जाते हैं)। नहीं तो साथमें ही होते हैं। मुझे आपके बिना नहीं चलेगा, उसका अर्थ यह है कि वह तो उसका साथ लेकर जाता है। स्वतंत्र अपने पुरुषार्थसे होता है, परन्तु बाहर आये वहाँ यह होता है। बाहर आकर कहाँ खडे रहते हैं? देव-गुरु-शास्त्रके परिणामोंमें खडे रहते हैं। देव-गुरु-शास्त्र और शुभके अमुक जातके उनके व्रतके विकल्पमें खडे रहते हैं। देव-गुरु-शास्त्र और उसके आचरणके व्रतके विकल्पमें खडे हैं। दूसरे विकल्प छूटते जाते हैं। दूसरे सब विकल्प छूटते जाते हैं। सब क्रमशः घटते जाते हैं। संज्वलनका रह जाता है।
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अन्दर तो दृष्टि स्थिर हुयी है। शुद्धात्माकी साधना करनेवाले, शुद्धात्मा जिसने प्रगट किया,.. मूर्तिमंत दिखता है उस पर उसकी दृष्टि जाती है। भगवान दिखे, भगवानकी प्रतिमा दिखे, गुरु, गुरुकी वाणी मूर्तमान रूपमें दिखता है और अन्दर स्वानुभूतिमें और ज्ञायकमें उतनी स्थिरता नहीं होती है तो बाहर शुभ विकल्पमें वहाँ जाता है। शास्त्र आदिमें। .. दर्शनमें दिखता है। दृष्टि स्थिर हो गयी है, उपयोगमें भी (अंतर्मुख हो गया है)।
.. ज्ञायककी भेदज्ञानकी धारा खडी है। उपयोग वहाँ बाहर जाता है। ... शुद्धात्माको खोजता है। अंतरमें तो शुद्धात्मा उसके पास है। परन्तु उसे प्रेम है इसलिये वह बाहर भी वही खोजता है। .. उसे हेय मानता है। परन्तु शुद्धात्माका जो प्रेम अन्दर परिणति वहाँ लगी है न, इसलिये बाहर जाता है तो उसे खोजता है। बीचमें शुभ आ जाता है। वह तो आये बिना रहता ही नहीं। इसलिये वह तो बीचमें आ जाता है। उसे शुभरागको रखनेकी इच्छा नहीं है। परन्तु उसके साथ आ जाता है। बाहर आये तब, उसे शुद्धात्माका प्रेम है इसलिये शुद्धात्मा खोजता रहता है। इच्छा नहीं है, लेकिन वह बीचमें आता है।
मुमुक्षुः- महा मंगलकारी जन्म जयंति है। शासनके सब भक्त सम्यकत्वकी महिमा .. कर रहे हैं, ऐसे प्रसंगमें सम्यकत्वका ... कृपा कीजिये। और वह कैसे प्राप्त हो, वह समझानेकी कृपा कीजिये।
समाधानः- वह तो गुरुदेवने बहुत प्रकारसे बताया है। गुरुदेवका परम उपकार है। गुरुदेवने यह मार्ग बताया। सब लोग कहाँ पडे थे। गुरुदेवका परम उपकार है।
सम्यकत्व अर्थात क्या? कोई जानता नहीं था। बाहरमें कुछ श्रद्धा की इसलिये सम्यग्दर्शन (है), ऐसा मानते थे। उसमें गुरुदेवने स्वानुभूतिका मार्ग (प्रगट किया)। स्वानुभूति हो वही सम्यग्दर्शन है। गुरुदेवने यह मार्ग बताया है। और वह सम्यग्दर्शन अंतर चैतन्यमें भेदज्ञान करके मैं ज्ञायक हूँ, उसके अलावा बाकी सब है वह मैं नहीं हूँ, अपितु मैं एक ज्ञायक हूँ। ऐसी उसकी प्रतीत और श्रद्धा यथार्थ करे, उसके विकल्प टूटकर अनन्दर लीन हो तो स्वानुभूति हो, वही सम्यग्दर्शन है। बाकी सम्यग्दर्शन बाहरमें नौ तत्त्वकी श्रद्धा यानी सम्यग्दर्शन, शास्त्र जान लिये वह ज्ञान, ऐसा मानते थे। ऐसेमें गुरुदेवका परम-परम उपकार है। कोई जानता नहीं था। उस मार्ग पर चढाया हो, उसकी दृष्टि दी हो, और स्वरूप एकदम स्पष्ट करके बताया हो तो गुरुदेवने।
सम्यग्दर्शनकी लगन लगे, कहीं उसे चैन पडे नहीं। एक ज्ञायक.. ज्ञायक.. ज्ञायक आत्माके अलावा कहीं सुख नहीं है। कोई विभावमें, कहीं बाहरमें सुख नहीं है। सुख हो तो आत्मामें ही है। शास्त्रमें आता है कि उतना ही परमार्थस्वरूप आत्मा है कि
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जितना यह ज्ञान है। उस ज्ञानमात्र आत्माका निश्चय कर कि ज्ञानमात्र आत्मामें सबकुछ है। उसीमें रुचि कर। बाहरमें कहीं नहीं है। सब आकुलतास्वरूप-दुःखस्वरूप है। ज्ञानमात्र आत्मामें सब कैसे आ जाता है, उसीकी रुचि कर, उसकी श्रद्धा कर। उसीमें संतुष्ट हो, उसीमें तृप्त हो, तो उसमेंसे तुझे मार्ग प्रगट होगा।
अंतरमें जो स्वानुभूति होती है उसका पहले वेदन नहीं होता है, पहले उसका निश्चय होता है। इसलिये यह जो ज्ञानमात्र आत्मा है, उसका निश्चय कर। उतना ही सत्य कल्याण है कि जितना यह ज्ञान है। उतना ही परमार्थस्वरूप आत्मा है कि जितना यह ज्ञान है। वह ज्ञान अर्थात पूरा ज्ञायक समझ लेना। किसीको ऐसा हो कि ज्ञानमें क्या रुचि, क्या प्रीति, क्या संतोष करना? ज्ञानमें सब आ गया? ज्ञान अर्थात ज्ञायक है। ज्ञायकमें अनन्त गुण हैं। ज्ञायक पर दृष्टि कर, उसमें संतोष कर, उसमें तृप्त हो, तो उसमेंसे वचनसे अगोचर ऐसा कोई सुख तुझे प्राप्त होगा। उसमें अनन्त गुण भरे हैं।
तू स्व-परका विभाग कर कि ये जो विभावका भाग है, वह ज्ञान-ओरका नहीं है। जो शुभाशुभ दोनों भाग हैं, वह सब भाग विभाव-ओरके हैैं। शुभ बीचमें आये बिना नहीं रहता। शुभ बीचमें आये, लेकिन वह सब भाग पर-ओरका है। निज स्वभावका भाग नहीं है। इसलिये तू स्वभावको पहचान ले कि ये जितना भाग ज्ञान-ओरका है, जो ज्ञायक है वह भाग चैतन्यका है और ये जो विभाव है, वह सब पर-ओरका है। उसका विभाग कर। ज्ञायक स्वरूप आत्मा जो अखण्ड शाश्वत अनादिअनन्त आत्मा है। शाश्वत आत्माकी दृष्टि कर, उसका ज्ञान कर, उसमें लीनता (कर)। उसका विभाग करके चैतन्यकी ओर परिणतिको झुका। तो उसमें जो है वह प्रगट होगा।
उसमें ज्ञान भरा है, उसमें आनन्द भरा है, उसमें अनन्त गुण भरे हैं। वह ज्ञान है वह खाली नहीं है, परन्तु लबालब भरा है। वह ज्ञान शून्य है, परन्तु लबालब है। इसलिये तू ज्ञानमात्र आत्माका ही विश्वास कर, उसीका निश्चय कर कि उसमें ही सब है, उसीमें संतुष्ट हो, उसीमें तृप्त हो। और ऐसा निश्चय करके यदि तू अंतरमें जायगा तो तुझे उसीमें तृप्ति होगी, उसमें ही संतोष होगा। तुझे बाहर जानेका मन नहीं होगा। उसी क्षण विकल्प टूटकर तत्क्षण तेरे आत्माका अनुभव तुजे होगा। इसलिये तू उसका निश्चय कर। सदाके लिये उसीकी प्रीति कर और उसीका संतोष कर और उसीमें रुचि कर। बाहरकी सब रुचि छोड दे। सब विभाव-ओरकी रुचि छोडकर अंतर स्वभावकी रुचि कर।
वह ज्ञानमात्र जो दिखता है, वह सूखा नहीं है, लबालब भरा है। इसलिये ज्ञानमात्र आत्मा-ज्ञायकमात्र आत्माका निश्चय कर। निर्विकल्प स्वरूप आत्मा है। ज्ञायककी उग्र
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धारा कर, ज्ञाताधारा-मैं चैतन्य हूँ, मैं चैतन्य हूँ, अन्य कुछ नहीं हूँ। मैं एक अनुपम तत्त्व हूँ। उस ओर बार-बार परिणतिको झुकाता रह, वह तत्कल न हो तो उसकी भावना कर, उसकी लगन लगा और उसके स्वभावको पहचाननेका प्रयत्न कर। स्वभाव अलग है और यह विभाव भिन्न है।
जैसे स्फटिक रत्न स्वभावसे निर्मल है, ऐसे आत्मा निर्मल स्वभाव है। ये सब विभाव दिखता है वह सब पर-निमित्तसे है, अपने पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है। परन्तु वह निज स्वभाव नहीं है। उससे भिन्न हो। तू अंतरमें जायगा तो अंतरमें अनन्त गुण भरे हैं, वह सब तुझे (प्रगट होंगे)। स्वभावमेंसे ही स्वभाव आयेगा, विभावमेंसे स्वभाव नहीं आयेगा। इसलिये स्वभाव-ओर दृष्टि कर, उसीमेंसे सब प्रगट होगा। उसीमें संतुष्ट हो, उसीमें तृप्त हो, उसीमें-से सब प्रगट होगा। तुझे अंतरमें-से ऐसा प्रगट होगा कि तुझे स्वयंको ही ऐसा लगेगा कि यही मेरा स्वभाव है और यही मेरा आनन्द है, अन्य कुछ नहीं है। निर्विकल्प तत्त्वस्वरूप मैं स्वयं ही आत्मा हूँ। उसीमें-से तुझे स्वयंको ऐसी प्रतीति-विश्वास, अनुपम सुख दृष्टिगोचर होगा। और उसमें-से तुझे साधना बढते- बढते उसमें ही तुझे केवलज्ञान प्रगट होगा।
सुखका यह एक ही उपाय है। उसके लिये अनेक प्रकारसे उसका द्रव्य क्या, उसके गुण क्या, उसकी पर्यायें क्या? उसका विचारके निश्चय करे। पहले यथार्थ निश्चय कर और बादमें उसका प्रयत्न (कर)। ऐसा मार्ग है और वह मार्ग गुरुदेवने प्रगटरूपसे बताया है और वही करना है।
जीवनमें उसकी लगन, उसका पुरुषार्थ, उसके लिये एक आत्मा, ज्ञायकस्वभाव आत्मा मुझे चाहिये, दूसरा कुछ नहीं चाहिये। एक ही चाहिये। उसके ध्येयसे उसे सब करना होता है। बाहरमें श्रुतका चिंतवन, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा। मुझे एक आत्मा-ज्ञायक आत्मा चाहिये, दूसरा कुछ नहीं चाहिये। उसीमें सब है। ज्ञानस्वरूप आत्मामें ही सब है। वही सर्वस्व है।
मुमुक्षुः- ९५वीं मंगलकारी जन्म जयंति मनानेके लिये, आपकी आज्ञा और आशीर्वाद लेने आये हैैं। आप हम बालकोंको आप आशीर्वाद देकर ... आभारी करें। हम तो आत्म-प्राप्ति करें ऐसे आशिष हमें अधिक-अधिक उपकारी है।
समाधानः- गुरुदेवके लिये तो जितना करें उतना कम है। गुरुदेवका तो महान उपकार है। गुरुदेवने तो .. ये जन्म-मरण मिटकर.. आत्माका स्वरूप अपूर्व बताया। गुरुदेवके लिये जितना करें उतना कम है।
गुरुदेव तो नित्य सोनगढमें ही (विराजते थे)। सोनगढका कण-कण पावन किया है। महापुरुष जहाँ विचरे, जहाँ रहते हों वह भूमि भी तीर्थस्वरूप है। शास्त्रमें आता
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है, जो तीर्थ, जिनेन्द्र देव विचरे हों, मुनिराज विचरे हों, जहाँ रहते हों वह सब भूमि पावन तीर्थ कहलाती है। वैसे गुरुदेव यहाँ कितने ही वर्ष नित्य बसे। और वाणी बरसायी। मुनिराज तो जंगलमें होते हैं। गुरुदेवने तो मुमुक्षु भक्तोंके बीच रहकर वाणी बरसायी। तीन वक्त उनकी वाणी बरसती रही। जैसे साक्षात तीर्थंकर भगवान समवसरणमें वाणी बरसाये। उसी तरह नियमरूपसे गुरुदेवकी वाणी इस सोनगढमें बरसती थी। नियमरूपसे बरसती थी।
गुरुदेव कोई अपूर्व... तीर्थंकरका द्रव्य अपूर्व! यहाँ मानों सबको तारनेके लिये आये हों, वैसे यहाँ भरतक्षेत्रमें पधारे। उनके लिये जितना करें उतना कम है। यहाँ नित्य विराजे। ये तीर्थस्वरूप भूमि है। इसलिये जितना गुरुदेवका करें उतना कम है। उनका उपकार कोई अनुपम है।
मुमुक्षुः- उनकी जन्म जयंति ही सबसे अधिक यहाँ शोभा देती है।
समाधानः- गुरुदेवकी भूमि यह तीर्थस्वरूप भूमि है। गुरुदेव जहाँ विराजे वह सर्वोत्कृष्ट है। वह क्षेत्र मंगल, वह काल मंगल, वह भाव मंगल। गुरुदेव कहते थे, सम्मेदशिखरकी यात्रा करते समय, तीर्थंकर भगवानका द्रव्य और जहाँ विचरे वह क्षेत्र मंगल, जिस कालमें उन्हें और निर्वाण-प्राप्ति हुयी वह काल मंगल, जो भाव प्रगट किये वह भाव मंगल हैं। वैसे यहाँ भी गुरुदेव विराजे, उन्होंने साधना की, वह मंगलस्वरूप ही है।
मुमुक्षुः- पूरा सोनगढ मंगलस्वरूप हो गया।
समाधानः- गुरुदेवके प्रतापसे सब मंगलस्वरूप (है)। गुरुदेव स्वयं ही मंगलमूर्ति थे। यहाँ विराजकर पूरे हिन्दुस्तानमें उन्होंने विहार करके सब जीवोंको यह मार्ग बताया और हजारों जीवोंको यह दृष्टि बतायी है। अंतर दृष्टिका मार्ग बताया है।
चत्तारी मंगलं, अरिहंता मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपणत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारी लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपणत्तो धम्मो लोगुत्तमा।
चत्तारी शरणं पवज्जामि, अरिहंता शरणं पवज्जामि, सिद्धा शरणं पवज्जामि, केवली पणत्तो धम्मो शरणं पवज्जामि।
चार शरण, चार मंगल, चार उत्तम करे जे, भवसागरथी तरे ते सकळ कर्मनो आणे अंत। मोक्ष तणा सुख ले अनंत, भाव धरीने जे गुण गाये, ते जीव तरीने मुक्तिए जाय। संसारमांही शरण चार, अवर शरण नहीं कोई। जे नर-नारी आदरे तेने अक्षय अविचल पद होय। अंगूठे अमृत वरसे लब्धि तणा भण्डार। गुरु गौतमने समरीए तो सदाय मनवांछित फल दाता।