Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 195.

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ट्रेक-१९५ (audio) (View topics)

समाधानः- ... दो तत्त्व भिन्न हैं। चैतन्यतत्त्व भिन्न है और यह जड तत्त्व भिन्न है। दो द्रव्य ही भिन्न हैैं। द्रव्यको भिन्न-भिन्न जाने, उसका भेदज्ञान करे तो अतरमें उसे जो एकत्वबुद्धि है, उस कारणसे उसे जो आकुलता होती है, वह आकुलता छूट जाय। आकुलतास्वरूप आत्मा है ही नहीं। आकुलता भिन्न और आत्मा भिन्न है। आत्मा तो शान्तिस्वरूप है। ऐसे उसका भेदज्ञान कर।

मैं भिन्न चैतन्य ज्ञायक हूँ। शान्ति मेरेमें है, बाहर कहीं नहीं है। शान्ति, आनन्द, ज्ञान आदि अनन्त गुणोंसे भरपूर आत्मा है, उसका भेदज्ञान कर। ज्ञायककी धून लगाकर ज्ञाताधाराकी उग्रता कर। उसीमें लीनता, उसीमें प्रयत्न। अनन्त कालसे जो यह एकत्वबुद्धि है इसलिये यह बन्ध और जन्म-मरण है। एकत्वबुद्धि टूटकर, अंतरमें भेदज्ञान करके चैतन्यको भिन्न जानना, वही जीवनका कर्तव्य है। और वही एक ध्येय रखने जैसा है। ज्ञायक आत्मा कैसे पहचानमें आये, वही करने जैसा है।

उस ज्ञातामें सब भरा है। ज्ञायक सहज स्वभाव है। वह स्वभाव उसे कहीं बाहर लेने नहीं जाना पडता। बाहरसे लेने जाता है वह अपनेमें कुछ नहीं आता। वह तो परवस्तु है। परवस्तुमें-से कुछ नहीं आता। परमें शान्ति नहीं है, परमें आनन्द नहीं है, परमें ज्ञान नहीं है। जो है, वह निज स्वरूपमें है। उस स्वरूपमें-से प्रगट हो ऐसा है। परकी कर्ताबुद्धि-मानों मैं परको कर सकता हूँ, पर मेरा कर सकता है, मैं उसमें फेरफार कर सकता हूँ, वह सब भ्रमणाबुद्धि है। परका तो जैसा होना होता है वैसे होता है। जो वेदना आनी है वह आती है। वस्तुका स्वरूप ही ऐसा है।

स्वयं निज स्वभावका कर सकता है। स्वयं ज्ञान, आनन्द आदि अनन्त गुणोंसे भरपूर आत्मा है, उसे प्रगट कर सकता है। उसे प्रगट करनेमें देव-गुरु-शास्त्र निमित्त होते हैं। परन्तु वह जागृत, स्वयं उपादान तैयार हो तो हो। अनन्त कालसे जीव आत्माको पहचानता नहीं है। ऐसेमें कोई गुरु अथवा देव मिले, उनकी देशना मिले उसे स्वयं ग्रहण करे और अंतरमें-से स्वयं पुरुषार्थ करे तो वह प्रगट हो सके ऐसा है।

जीवनमें एक ज्ञायक आत्मा वही ग्रहण करने जैसा है। गुरुदेव तो वहाँ तक कहते थे कि अनेक जातके जो गुणभेद पडते हैं, पाँच ज्ञानके भेद पडे, पाँच भावोंके भेद


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पडे, एक पारिणामिकभावस्वरूप मैं हूँ, एक ज्ञानस्वरूप मैं हूँ। भेद पर दृष्टि मत कर। उन सब भेदोंको गौण कर। ज्ञानमें तू सब जान। परन्तु एक अखण्ड चैतन्य पर दृष्टि कर, उसका ज्ञान कर और उसमें लीनता कर। चैतन्यमें शान्ति, आनन्द सब भरा है। और वही प्रगट करने जैसा है। वह कैसे प्रगट हो? तदर्थ उसका विचार, वांचन, उसकी लगन, उसका अनेक जातका श्रुतका चिंतवन आदि करके अन्दर यथार्थ निश्चय करके कि मैं भिन्न ही हूँ और ये सब परपदार्थ हैं। विभावभाव होते हैं वह भी निज स्वभाव नहीं है। पर्याय भी प्रतिक्षण बदलती है। शाश्वत स्वरूप आत्मा अखण्ड द्रव्य है उस पर दृष्टि करने जैसी है। पर्याय, गुण ज्ञानमें जाने। परन्तु दृष्टि तो एक आत्मा पर करने जैसी है और वही जीवनका (कर्तव्य), वही ध्येय होना चाहिये। वही मुक्तिका मार्ग। गुरुदेवने परम उपकार किया है। और वही सारभूत आत्मा है, उसे ग्रहण करने जैसा है।

मुमुक्षुः- माताजी! आपकी मुद्र देखते हैं, आपकी वाणी सुनते हैं तब तो ऐसा लगता है, मानों आत्मा हमें प्राप्त हो जाता हो, ऐसा..

समाधानः- पुरुषार्थ स्वयंको करना है। उसकी रुचि हो, उसकी महिमा हो परन्तु पुरुषार्थ तो उसको स्वयंको करना है।

मुमुक्षुः- क्षेत्रसे इतने दूर आये हैं, फिर भी सभी मुमुक्षुओंको इसकी मुख्यता तो हमें देखने मिलती है।

समाधानः- गुरुदेवने जो यह मार्ग बताया है, वही करना है।

मुमुक्षुः- यह बात ही कहाँ थी।

समाधानः- यह बात ही कहाँ थी। मुुमुक्षुः- जिस संप्रदायमें हो, वहाँ धर्म माने, इसमें धर्म माने, उसमें धर्म माने।

समाधानः- बाहरसे धर्म माना था।

मुमुक्षुः- एक बार आप कहते थे, हमें तो जो भी मिला है, सोनगढसे गुरुदेवसे ही प्राप्त हुआ है, कहीं औरसे हमें नहीं मिला है।

समाधानः- गुरुदेवने ही सबको दिया है। और गुरुदेवने यहाँ साधना की तो यह क्षेत्र... शास्त्रमें आता है न? क्षेत्र भी मंगल है।

मुमुक्षुः- यह भूमि भी मंगल है।

समाधानः- हाँ, मंगल है। तीर्थ है। वह भूमि तीर्थ कहलाती है। गुरुदेव तो सर्वोत्कृष्ट थे। करना तो वही है, गुरुदेवने कहा वह। ये शरीर भिन्न, आत्मा भिन्न, सब गुरुदेवने बताया है। दो द्रव्य भिन्न हैं। विभावस्वभावसे भी भिन्न पडनेका गुरुदेवने कहा है।


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ज्ञायक आत्मा अंतर ज्ञान और आनन्दसे भरा है, उसे पहचानो, उसमें दृष्टि करो, उसमें लीनता करो। जो कहा है वह करनेका है। वह न हो तबतक उसका विचार, वांचन, मनन, उसकी लगन सब वही करनेका है। बाहर शुभभाव आये तो देव-गुरु- शास्त्रकी महिमा आदि। अंतरमें ध्येय एक आत्माका कि आत्मा कैसे पहचानमें आये? आत्माका भेदज्ञान कैसे हो? वह करनेका है। आत्मा अंतरमें निर्विकल्प तत्त्व है, उसे कैसे पहचाना जाय? स्वानुभूति कैसे प्रगट हो? बहुत लोग आफ्रिकामें बहुत हैं न?

मुमुक्षुः- हाँ, हमारे ज्यादा ... आफ्रिकामें हैं। पहले हमारे पासे स्वाध्याय होल नहीं था, कुछ नहीं था। मकानमें बैठकर स्वाध्याय करते थे, बस। फिर यह सब हो गया। गुरुदेवने सभी पर करुणा बरसाकर लाभ दे रहे हैं। इस उम्रमें, ९० सालकी उम्रमें।

समाधानः- सब पर करुणा बरसायी।

मुमुक्षुः- एक महिना नाईरोबीमें जयकार, चारों ओर बस्तीमें उल्लास, उल्लास, उल्लास।

समाधानः- कहाँ आफ्रिका, वहाँ गुरुदेव पधारे वह तो बहुत लाभका कारण हुआ।

मुमुक्षुः- ... बात करते थे। सहज-सहज सत्यमें आ गये, बहुत अभिनंदन। जेठाभाई कहे तो ही हो, न कहे तो ...

समाधानः- हाँ। उनका..

मुमुक्षुः- जेठाभाई हैं और उनकी हाँ है तो ही...

समाधानः- .. आत्माके लिये है।

मुमुक्षुः- एक-एक जगह, एक-एक घरमें...

मुमुक्षुः- यह क्षेत्र-भूमि है न, अपने लिये तो .. भूमि है। गुरुदेवने सबको बताया है।

समाधानः- .. सम्बन्ध होता है न। महापुरुषोंकी भूमि भी (ऐसी होती है कि) अन्दर आत्माके विचारोंकी स्फुरणा हो।

मुमुक्षुः- हम लोग जिस देशमें रहते हैं, उन लोगोंके विचार, गुजरातीओंके विचार भी हमारे जैसे सादा, सीधा, सरल। बहुत सरल विचार सबके। एक ही मतसे, एक ही विचारसे जो करना है करो। आफ्रिकामें कहाँ यह बात मिले? कहाँ मन्दिर बनाये? स्वाध्याय मन्दिर बनाये, .. बनाये। लेकिन समय समयका कार्य करता है।

मुमुक्षुः- मध्यस्थता, सरलता और जितेन्द्रियपना तत्त्व प्राप्त करनेका उत्तम पात्र है। मुमुक्षुः- ... सत साहित्य मिले, सत्य वाणी मिले, तत्त्वज्ञानकी बात मिले। परन्तु कुटुम्ब-परिवारका मोह है न।

समाधानः- जैसी अपनी तैयारी हो वैसे हो। जिज्ञासा तैयार करते रहना।

मुमुक्षुः- ... रहा करे कि हर साल वहाँ लाभ लेनेको जाना। लेकिन बहुत


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बार शरीर-प्रकृतिके कारण (आना नहीं होता)।

मुमुक्षुः- त्रिकालीका अनुभव नहीं होता। पर्यायका अनुभव होता है। इन लोगोंका जूठा लगता है।

समाधानः- द्रव्य अपेक्षासे त्रिकाल मुख्य है, वस्तु अपेक्षासे। वेदनकी अपेक्षासे वह मुख्य है। दृष्टि तो शाश्वत पर ही मुख्य है। दृष्टि तो शाश्वत पर, दृष्टि तो एक चैतन्य पर रखनेसे ही शुद्धपर्याय प्रगट होती है। दृष्टि तो पहलेसे आखिर तक उसकी दृष्टि तो शुद्धात्मा द्रव्य पर (होती है)। जो शाश्वत द्रव्य है, जो पलटता नहीं, जिसमें फेरफार होता नहीं, ऐसे द्रव्य पर ही दृष्टि, उसकी मुख्यता है।

फिर पर्यायको मुख्य अपेक्षासे (कहते हैं)। उसे वेदनमें, अनुभवके समय वेदनमें स्वानुभूति मुख्य होती है, तो भी उसकी द्रव्य पर दृष्टि है वह तो साथ ही रहती है। तो पर्यायके वेदनकी अपेक्षासे उसे मुख्य कहनेमें आया है। इसलिये उसमें दृष्टिको निकाल नहीं देनी है, परन्तु उस वक्त उसे पर्याय वेदनमें मुख्य है, इसलिये वेदनकी अपेक्षासे उसे मुख्य कहनेमें आया है।

वेदनमें पर्याय आती है इसलिये। वेदनमें द्रव्य नहीं आता है। तो भी दृष्टि तो द्रव्य पर ही रहती है। दृष्टि छूट जाय तो मुक्तिका मार्ग ही छूट जाय। तो मोक्षका मार्ग जो प्रगट हुआ है, वही छूट जाय। दृष्टि तो द्रव्य पर हमेंशा रहनी चाहिये। वेदनकी अपेक्षासे पर्यायको उस वक्त मुख्य कहनेमें आया है। वेदन अपेक्षासे। अनुभूति-वेदन, पर्यायकी अनुभूति होती है इसलिये।

द्रव्यका स्वरूप कैसा है, आत्माके गुण कैसे हैं, उसकी स्वानुभूति कैसी है, वह सब वेदनमें आता है। उस अपेक्षासे वेदनको मुख्य कहा है। इसलिये उसमें द्रव्यका लक्ष्य छोडना, ऐसा उसका अर्थ नहीं है।

मुमुक्षुः- वह रखकर है, दृष्टि और लक्ष्यको रखकर है।

समाधानः- वह रखकर है।

मुमुक्षुः- मर्यादित बात है।

समाधानः- मर्यादित बात है। दृष्टि अपेक्षासे दृष्टि मुख्य है और ज्ञान उसे जानता है इसलिये ज्ञानकी अपेक्षासे ज्ञान मुख्य है, उस वक्त।

मुमुक्षुः- वेदन मुख्य कहकर (पुरुषार्थको) उत्थान करनेका कोई प्रकार है?

समाधानः- उत्थान करनेका नहीं है। उसे वेदनमें पर्याय ही आती है। वेदनमें उसे द्रव्यका वेदन नहीं होता। परन्तु पर्यायका वेदन होता है। उन पर्यायोंका वेदन होता है, उसका ज्ञान करवानेको और वेदनका ज्ञान करनेके लिये है। उत्थान तो द्रव्यदृष्टिसे ही उत्थान होता है।


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मुमुक्षुः- मुख्य करना, वह किसके साथ मिलान करके मुख्य करना? जो वेदनको मुख्य कहा, वैसे दृष्टि तो मुख्य है तो उसमें तो पर्यायके साथ मिलान करके कहें कि दृष्टि द्रव्य पर मुख्य है। तो अब, जो वेदनको मुख्य कहा, तो वह किसके साथ मिलान करके कहा?

समाधानः- उसे मुख्य कहा (क्योंकि), द्रव्य जो है वह वेदनमें नहीं आता है। इसलिये वेदनकी अपेक्षासे उसे मुख्य कहा। द्रव्य वेदनमें नहीं आता है, इसलिये वेदनकी अपेक्षासे मुख्य है।

मुमुक्षुः- क्योंकि द्रव्य वेदनमें आता नहीं।

समाधानः- द्रव्य वेदनमें नहीं आता है, इसलिये वेदनकी अपेक्षासे (उसे मुख्य कहा)। बाकी दृष्टि तो हर जगह साथ ही रहती है। द्रव्य वेदनमें नहीं आता है, इसलिये वेदनकी अपेक्षासे वह मुख्य है। आत्मा कब ज्ञात हुआ? आत्मा कब कहा जाय? कि वेदनमें आया तब। वेदनमें आया तब वास्तविक आत्मा। ऐसा कहनेमें आता है। केवलज्ञानरूप परिणमा तब। वास्तविक आत्मा कब कहलाया? कि जैसा है वैसा प्रगट हुआ तब। इसलिये वेदनकी अपेक्षासे उसे मुख्य कहनेमें आया। उस अपेक्षासे दृष्टिको गौण की। परन्तु दृष्टि तो साथमें मुख्य रहती है। वेदनकी अपेक्षासे दृष्टिको गौण की। दृष्टमें तो आया जैसा था वैसा। परन्तु वह जैसा है वैसा कार्यरूप परिणमित नहीं हुआ है तो आत्मा जैसा है वैसा कार्य नहीं किया है। तो वह किस कामका? इसलिये जैसा है वैसा जब प्रगट हुआ, तब वह वास्तविक आत्मा है।

वेदनमें आया वही वास्तविक आत्मा। वहाँ आंशिक अनुभव हुआ, वहाँ ऋजुसूत्रनय कहते हैं, वहाँ पूर्ण हुआ तो एवंभूतनयकी अपेक्षासे कहते हैं। बाकी साधनामें ... दृष्टि द्रव्य पर है तो भी कैसे स्वरूप रमणता प्राप्त करुँ, वीतरागता प्राप्त करुँ, आत्माकी स्वानुभूतिकी विशेषता प्राप्त करुँ, ऐसी सब भावना उसे होती है। साधकदशामें आती है। परन्तु उसके साथ दृष्टि होनी चाहिये। दृष्टि बिना सिर्फ भावना करे तो भावनाका जोर, दृष्टि बिना उसका जोर आगे नहीं चलता। दृष्टि साथमें हो तो ही भावनाका बल (रहता है)। दृष्टिके साथ भावना। ऐसी पर्याय प्रगट होनेकी भावना हो। कैसे चारित्रदशा प्राप्त हो, कैसे केवलज्ञान प्राप्त हो, स्वानुभूतिकी विशेषता कैसे हो, ऐसी सब भावना, पर्याय प्रगट करनेकी भावना होती है। परन्तु दृष्टिको साथमें रखकर आती है।

मुमुक्षुः- दृष्टि बिनाकी भावना तो रूखी भावना हो गयी।

समाधानः- हाँ, वह भावना जोर नहीं कर सकती। जोर नही कर सकती। अंतिम बोलमें लिया न? वास्तविक आत्मा कब? कि पर्याय प्रगट हुयी वह आत्मा। अंतिम बोलमें वह है न। अलिंगग्रहणमें वह आता है।


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मुमुक्षुः- द्रव्यसे नहीं आलिंगित ऐसी शुद्ध पर्याय वह आत्मा है।

समाधानः- हाँ, ऐसी शुद्ध पर्याय वह आत्मा है, ऐसा कहा है। क्योंकि जैसा है वैसा, गुण-पर्याय जैसे हैं वैसे अनुभवमें आये, इसलिये वह वास्तविक आत्मा है। दृष्टि तो उसने लब्धरूपमें स्थापी है, परन्तु प्रगट उपयोगात्मकरूप नहीं है। इसलिये जो उपयोगात्मकरूप परिणमा वह आत्मा है।

मुमुक्षुः- .. उसकी विशेषता..

समाधानः- हाँ, उसकी विशेषता उस प्रकारसे। विशेषता तो है। दृष्टि तो हुयी, परन्तु दृष्टिको कार्य प्राप्त करनेके साथ भावना रहती है। दृष्टिसे करे, दृष्टिमें साथमें साधनाका बल आये वही सच्ची दृष्टि है। साधनाका बल साथमेंं न आये तो सच्ची दृष्टि ही नहीं है।

दृष्टिका हेतु क्या है? कि वह शुद्धात्मा प्राप्त कैसे हो? वह हेतु है। आत्माको पहचाननेका हेतु क्या? ये विभावपर्याय छूटकर शुद्धात्माकी पर्यायें प्राप्त हों, ऐसा उसका हेतु है। द्रव्य पर दृष्टि करनेका।

मुमुक्षुः- प्रयोजनकी मुख्यता है।

समाधानः- हाँ, प्रयोजनकी मुख्यता वही है कि द्रव्य पर दृष्टि स्थापकर उसका कार्य वह आना चाहिये कि स्वानुभूति प्राप्त हो। उसका कार्य वह आना चाहिये। दृष्टि दृष्टिरूपसे उसका कुछ कार्य न आये, तो वह दृष्टि ही नहीं है। उसे दृष्टिके साथ कार्य आना चाहिये। उसे निश्चय हुआ उसके साथ आंशिक व्यवहार तो उसे प्राप्त होना चाहिये, पर्यायको, शुद्धात्माकी पर्याय प्राप्त होनी चाहिये। फिर उसके पुरुषार्थ अनुसार (होता है)। कोई बार वह व्यवहार पर्यायको मुख्य करके (कहते हैं)। जो प्रगट हुआ वह आत्मा। दृष्टिको गौण करते हैं उस वक्त। उसका विषय मुख्य है। कार्य अपेक्षासे इसे मुख्य कहे। जैसा दृष्टिमें, जो उसका ध्येय था वह कार्य आया, इसलिये उस कार्यको मुख्य कहा।

मुमुक्षुः- बहुत सुन्दर।

समाधानः- मुनिदशाकी प्राप्ति हो, चारित्रदशा, ज्ञान-दर्शन-चारित्रकी एकता हो, वह प्रगट हुआ। तब भी दृष्टि तो है, परन्तु वह पूजनिक... प्रगटतामें पूजनिकतामें तब आये कि जब उसे प्रगट चारित्रका परिणमन होता है तब।

मुमुक्षुः- आचरण..

समाधानः- आचरण प्रधानता। आचरणमें आवे तो उसे कार्य आया। दृष्टि तो है, परन्तु कार्य आया। (दंसण मूलो) धम्मो। सम्यग्दर्शन मूल है। वहाँ चारित्र खलू धम्मो आया। चारित्र वह धर्म है। आचरणकी अपेक्षासे। दृष्टिका कार्य आये।


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मुमुक्षुः- चारित्र है वह दृष्टिका कार्य है?

समाधानः- हाँ, दृष्टिका कार्य वह आना चाहिये।

मुमुक्षुः- गजब बातें हैं ये सब।

समाधानः- हाँ। ऐसा है। .. काल लगे, परन्तु दृष्टिका कार्य वह आना चाहिये। तो ही यथार्थ दृष्टि है। तो ही उसका सम्यग्दर्शन, स्वानुभूति (यथार्थ है)। उसका कार्य आना ही चाहिये। राजा राजाके कार्यरूप परिणमे तो राजा, ऐसे। वैसे आत्मा आत्माके कार्यरूप परिणमे वह आत्मा।

मुमुक्षुः- एक ओर ऐसा कहे कि, परद्रव्यमें, परभावं, हेयं इति। और दूसरी ओर ऐसा कहे इसलिये...

समाधानः- वह सब सन्धि है।

मुमुक्षुः- पर्यायको उतनी गौण करवायी! क्षायिकभाव आदि चारों भाव परभाव, हेय?

समाधानः- दृष्टिमें सब निकाल दिये। क्षायिकभाव भी। केवलज्ञान भी एक पर्यायका भेद है। एक द्रव्य पर दृष्टि करनी। उदयभाव, उपशम, क्षयोपशम और क्षायिक। एक पारिणामिकभाव पर दृष्टि कर। दृष्टिमें उतना जोर है कि कोई अपेक्षा.. जिसमें अपूर्ण- पूर्ण पर्यायकी भी अपेक्षा नहीं है। ऐसा अनादिअनन्त द्रव्य जो शाश्वत कृतकृत्य द्रव्य है, दृष्टि वैसी है।

(फिर भी, पर्यायमें) जो शुद्धता, अशुद्धता है उसका ख्याल है। शुद्धता प्राप्त करनी है। पर्यायमें ज्ञानमें सब ख्याल है। दृष्टि, ऐसा अखण्ड, मैं पूर्ण द्रव्य हूँ, ऐसी दृष्टि है। केवलज्ञानकी पर्याय पर भी दृष्टि नहीं है। क्योंकि वह बादमें प्रगट होती है। यह अनादिअनन्त द्रव्य जो शक्तिरूप है, वही मैं (हूँ)। दृष्टि ऐसी जोरदार है। कोई पर्यायमें अटकता नहीं, परन्तु वेदनमें सब आता है कि ये पर्याय मुझे प्रगट हुयी, या वह हुयी, उसमें दृष्टि कहीं नहीं अटकती। सब जो अपूर्ण पर्याय निकल जाय, शुद्ध पर्याय प्रगट हो उसमें पूर्ण शुद्ध पर्याय प्रगट हो, उन सबका वेदन होता है। उस वेदनरूप परिणमा वह वास्तविक आत्मा है। अपना मूल स्वरूप था, वह उसने प्रगट किया।

... एक द्रव्य पर दृष्टि करके, फिर वह दृष्टि करके करना क्या? साधना करनेके लिये वह दृष्टि है। द्रव्य पर दृष्टि करके, फिर मैं शुद्धात्मा अनादिअनन्त हूँ। ये विभाव (मैं नहीं हूँ)। अपूर्ण, पूर्ण पर्याय जितना भी मैं नहीं हूँ, मैं तो पूर्ण शुद्धात्मा हूँ। दृष्टि करके फिर कार्य तो शुद्ध पर्यायको प्रगट करनेका कार्य लाना है। कार्य न आये तो दृष्टि नहीं है।

मुमुक्षुः- (कार्य न आये तो) उसका कोई अर्थ नहीं है।


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समाधानः- उसका कोई अर्थ नहीं है। मुमुक्षुः- कार्य आये तो ही वह सच्ची दृष्टि है। समाधानः- कार्य आये तो ही सच्ची दृष्टि है। अंतरसे शान्ति प्रगट हो। मुमुक्षुः- फिर भी लक्ष्य कार्य पर नहीं होता। समाधानः- लक्ष्य कार्य पर नहीं है कि ये पर्याय प्रगट हुयी और वह पर्याय प्रगट हुयी, उसमेंं दृष्टि रुकती नहीं। उसका वेदन होता है, परन्तु मैं पूर्ण भरा हुआ, पूर्ण भरा हूँ। एक-एक पर्याय प्रगट हो, पूर्ण पर्याय प्रगट हो तो, उससे भी अनन्त मेरे द्रव्यमें भरा है। केवलज्ञानकी पर्याय क्षण-क्षणमें परिणमती रहती है। एक वर्तमान समयकी पर्याय प्रगट हो, तो यह मुझे प्रगट हुयी, ऐसे उसमें रुकता नहीं। उससे अनन्तगुना द्रव्यमें भरा है। द्रव्य पर, दृष्टि तो द्रव्य पर है। केवलज्ञानकी पर्याय एक समयकी है, उससे अनन्तगुनी शक्ति द्रव्यमें भरी है। क्योंकि वह तो क्षण-क्षणमें, क्षण-क्षणमें परिणमता रहता है, द्रव्य तो।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!