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समाधानः- .. ऐसे गुरुदेव थे। वह लब्धरूप अलग है और यह लब्धरूप अलग है। उसे स्वयंको चैतन्य निज अस्तित्वमें ग्रहण हुआ है। और वह अस्तित्व स्वयं ग्रहण करके फिर स्वानुभूतिमें जो वेदन हुआ है, वह वेदन उसे... वह परोक्ष है उसमें और यह परोक्ष है, इसमें फर्क है। दोनों लब्धरूप (हैं), लेकिन उस लब्ध-लब्धमें फर्क है।
मुमुक्षुः- वह तो स्मरणमात्र है कि..
समाधानः- स्मरणमात्र है। ये तो चैतन्यको स्वयं चैतन्यका वेदन (हुआ है)। उपयोग बाहर है। उसकी स्वानुभूति अभी नहीं है, लेकिन चैतन्यका जो अस्तित्व है वह अस्तित्व तो उसके हाथमें है। सविकल्प दशामें भी उसका अस्तित्व तो उसके हाथमें है। और उपयोग अपनी ओर आये तो शीघ्र उसका वेदन हो सके ऐसा है। वह उसे स्मरणमात्र नहीं है। वह परोक्ष और यह परोक्षमें फर्क है।
मुमुक्षुः- आप कल ऐसा बोले थे कि नजरमें प्रत्यक्ष है।
समाधानः- उसकी नजर स्थापित है, चैतन्य पर नजर स्थापित है। ये तो समीप है। गुरुदेवका है वह दूरवर्ती है, चैतन्य तो स्वयंको समीप ही है। और उपयोग बदले तो भी स्वानुभूतिका वेदन तुरन्त उसके हाथमें है, डोर उसके हाथमें है। वह परोक्ष और इस परोक्षमें अंतर है। लब्ध है, लेकिन उघाडरूप है। उसे उघाड ऐसा है कि अन्दर उपयोग लीन हो तो उसे स्वानुभूतिका वेदन उसी क्षण हो सके ऐसा है।
मुमुक्षुः- उपयोग लडाईका हो तो भी स्वानुभूतिका वेदन..
समाधानः- उपयोग लडाईमें (भले हो), लेकिन डोर अपने हाथमें है। उपयोग उस ओर है, लेकिन उपयोग पलट सके ऐसा है। स्वयं परिणति पलटे तो स्वयं अपनेमें लीन हो सके ऐसा है। डोर अपने हाथमें है। अस्तित्व अपना ग्रहण (किया है)। भेदज्ञानकी धारा चालू है। डोर उसके हाथमें ही है।
मुमुक्षुः- नींदमें हो तो भी नजर वहाँ स्थापित है?
समाधानः- नजर चैतन्य पर स्थापित है। चैतन्यको छोडकर स्वयं एकदम बाहर नहीं चला गया है। उसका उपयोग बाहर गया है। परन्तु दृष्टि तो उसमें स्थापित ही
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है। घरमें खडे हुए मनुष्यकी दृष्टि बाहर (है), घर छोडकर नहीं गया है। घरके बाहर खडा हो तो, एक पैर घरके अन्दर और एक पैर घरके बाहर, ये तो स्थूल दृष्टान्त है। वैसे घर छोडकर बाहर नहीं चला गया है, उसका उपयोग बाहर गया है। उसका उपयोग पलटे तो उसका कदम अपनी ओर आ सके ऐसा है। लेकिन पुरुषार्थकी कमजोरीके कारण उसका उपयोग बाहर गया है। और सविकल्पकी धारा, ज्ञाताकी धारा चालू है। उपयोग पलटे तो स्वयं अपनेमें स्वानुभूतिका वेदन कर सके ऐसा है। लेकिन उसकी दशा अनुसार होता है। उसकी जैसी भूमिका हो, उस अनुसार होता है। दृष्टि अन्दर चैतन्यमें है, उपयोग बाहर गया है।
मुमुक्षुः- छठवें गुणस्थानमें दृष्टि अन्दर चैतन्यमें है। उपयोग बाहर है।
समाधानः- दृष्टि तो चैतन्यमें है। चौथे गुणस्थानमें दृष्टि चैतन्यमें है और छठवें गुणस्थानमें दृष्टि चैतन्यमें है। छठवें गुणस्थानमें उपयोग बाहर है, लेकिन उसमें उनकी लीनता, दृष्टिके साथ लीनता अधिक है। चतुर्थ गुणस्थानमें दृष्टिके साथ उसकी लीनता, स्वरूपाचरण चारित्र जितना प्रगट हुआ उतनी लीनता है। और छठवें गुणस्थानमें उसकी लीनता बढ गयी है। दृष्टिके साथ लीनता भी है। लेकिन उपयोग बाहर गया है, उतनी लीनता (कम है), अभी केवलज्ञान नहीं है, इसलिये उतनी लीनतामें क्षति है। परन्तु छठवें गुणस्थानकी लीनता तो है।
सविकल्पतामें भी दृष्टि है, उसके साथ लीनता भी है। छठवें गुणस्थानमें उसकी भूमिका छठवें गुणस्थानकी है, इसलिये उतनी लीनता, सविकल्पतामें भी उतनी लीनता है, लेकिन उपयोग बाहर (गया है)। अंतरमें जाय तो वह सातवीं भूमिका होती है। परन्तु सविकल्पतामें भी छठवीं भूमिकामें जितनी दृष्टि स्थापित है, उसके साथ लीनता भी है। छठवें गुणस्थानमें अकेली दृष्टि है ऐसा नहीं है, उसके साथ लीनता भी है। उतनी चारित्रकी दशा साथमें है।
मुमुक्षुः- आप जो कहते हो कि परिणति गाढ होती जाती है, तो वह लीनता बढती जाती है।
समाधानः- लीनता बढती जाती है। और अमुक प्रकारसे लीनता, छठवें गुणस्थानमें छठवीं भूमिकाकी लीनता है। ऐसी लीनता है कि उपयोग अंतर्मुहूर्त बाहर जाय, फिर अंतर्मुहूर्तके बाद अंतरमें आता ही। ऐसी उसकी उग्र लीनता है। बारंबार उपयोग अंतरमें आता है। अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें। चतुर्थ भूमिकामें अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें अन्दर नहीं आ सकता है। क्योंकि उसकी भूमिका अमुक है। और छठवें-सातवेंमें तो अंतर्मुहूर्तमें अंतरमें आता है।
मुमुक्षुः- .. यह छठवाँ है, वह कैसे मालूम पडे? उसकी लीनता परसे ख्याल
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आता है?
समाधानः- उसकी लीनता परसे। उसकी स्वानुभूतिकी दशा और सविकल्पताकी लीनता अमुक प्रकारकी (होती है)। छठवें गुणस्थानकी लीनता प्रगट हो तो उसे गृहस्थाश्रमके विकल्प भी छूट जाते हैं। छठवीं भूमिकामें मुनिकी दशा प्रगट होती है। पाँचवीं भूमिका आये तब उसके विकल्प अमुक प्रकारके हो जाते हैं और लीनता भी अंतरमें विशेष होती है। दृष्टिके साथ लीनता बढ जाती है।
मुमुक्षुः- अर्थात जितनी निर्विकल्प दशा हुयी, उतनी ही लीनता हुयी, ऐसा नहीं।
समाधानः- निर्विकल्प दशा पर भी उसका नाप है, परन्तु उसकी वर्तमान जो लीनता है उस पर उसका नाप है। उसकी भूमिका पूरी पलट जाती है। छठवीं भूमिका हो गयी। छठवें-सातवें गुणस्थानमें ऐसी उसकी दशा (पलट जाती है)। वर्तमान निर्विकल्प दशा तो बढती गयी, लेकिन वर्तमान जो सविकल्प धारा है, उस सविकल्पतामें भी उसकी लीनता विशेष है। भेदज्ञानकी ज्ञायकताकी उग्रता और लीनता विशेष है। उसे जो अमुक प्रकारके विकल्प (होते हैं), वह विकल्प अमुक प्रकारके ही आते हैं। ज्ञायककी उतनी लीनता बढ जाती है, सविकल्पतामें भी।
मुमुक्षुः- छठवें गुणस्थानमें दो जीव हों तो दोनोंकी लीनतामें फर्क होगा।
समाधानः- उसकी भूमिका एक है। इसलिये भूमिका पलटे... वर्तमानमें तारतम्यता होती है, लीनतामें तारतम्यता हो सकती है। स्वरूपाचरण चारित्रमें उसकी तारतम्यतामें फेरफार हो सकता है।
मुमुक्षुः- सम्यग्दृष्टि जीवकी प्रशंसा करते हो तो वह लीनताकी अपेक्षासे प्रशंसा करते हैं? कि इनकी लीनता विशेष है, इनकी लीनता कम है।
समाधानः- गुरुदेव क्या कहते हों, वह गुरुदेवका अभिप्राय...
मुमुक्षुः- वचनामृतमें जगह-जगह भावनाका महत्व बहुत आता है। तो भावना पर्याप्त है?
समाधानः- वह तो प्रथम भूमिकामें भावना आती है। फिर तो सम्यग्दर्शन, चारित्र दशा बढती जाती है। पहले जिसने कुछ प्राप्त नहीं किया है, उसे भावना (आती है)। स्वयं यथार्थ भावना करे तो फल आये। भावना हो तो उसे पुरुषार्थ हुए बिना रहता ही नहीं।
उसकी भावना उग्र हो कि मुझे चैतन्य ही चाहिये, दूसरा कुछ नहीं चाहिये, ऐसी अंतरमें से भावना हो तो उसके साथ पुरुषार्थ भी प्रगट हुए बिना रहता ही नहीं। यदि उसे उस जातकी भावना नहीं है, अंतर चैतन्यकी ओर रुचि नहीं है, भावना नहीं है तो उसका पुरुषार्थ भी उस ओर जाता नहीं। रुचि हो, भावना हो तो ही
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उसका पुरुषार्थ (उस ओर जाता है)।
बाहरकी रुचि और बाहरकी भावना हो तो पुरुषार्थ अपनी ओर मुडता नहीं। इसलिये भावना, जिज्ञासा उग्र करे तो अपनी ओर पुुरुषार्थ मुड सकता है। अपनी रुचिके बिना कार्य होता नहीं। रुचि और भावना हो तो पुरुषार्थ होता है। शुरूआतकी भूमिकामें वह भावना आती है। तेरी भावना यथार्थ होगी तो कार्य होगा।
मुमुक्षुः- भावना उग्र हो तो दूसरे कारण स्वतः प्राप्त हो जाते हैं?
समाधानः- तो कारण प्राप्त हो जाते हैं। तेरी भावना उग्र हो तो सब कारण अंतरमें प्राप्त हो जायेंगे। तेरी भावना... यदि तुझे अंतरमें चैन न पडे कि मुझे चैतन्य प्राप्त हो तो ही शान्ति होगी, चैतन्यके बिना शान्ति न हो, चैतन्यका स्वभाव प्रगट न हो तबतक उसे चैन न पडे ऐसी भावना हो तो उसे सर्व कारण प्राप्त हो जाते हैं।
मुमुक्षुः- बाहरमें दुःख लगे तो अन्दर आये बिना रहे नहीं और दूसरी जगह ऐसा है कि एकान्त दुःखके बलसे भिन्न पडे ऐसा नहीं है।
समाधानः- बाहरमें यदि उसे रुचि लगती हो और बाहरमें सुख लगे तो वह वापस ही नहीं मुडता। इसलिये बाहर कहीं सुख नहीं है। बाहरमें आकुलता और दुःख ही है। इस प्रकार दुःख लगे तो वापस मुडे। लेकिन अकेला दुःख-दुःख करता रहे और अपना अस्तित्व ग्रहण न करे तो भी अंतरमें आ नहीं सकता। अपना अस्तित्व ग्रहण करे कि बाहर तो दुःख है, लेकिन सुख कहाँ है? सुख मेेरे आत्मामें है। एक ज्ञायकको ग्रहण करे, स्वभाव ग्रहण करे तो वापस मुडे।
सब आस्रव आकुलतारूप है, विपरीत है, दुःख है, दुःखका कारण है, ऐसा उसे अंतरमें हो। परन्तु मैं कौन हूँ? ऐसे यदि निज अस्तित्व ग्रहण न हो तो ये सब दुःख है, दुःख है ऐसा करते रहनेसे, एकान्त ऐसा करनेसे नहीं होता। उस दुःखके पीछ निज अस्तित्व ग्रहण हो तो प्रगट हो। दुःख भी लगे और अपना स्वभाव क्या है, उसे भी ग्रहण करे, तो प्रगट हो।
लेकिन परस्पर सम्बन्ध है। जिसे दुःख लगे वह स्वयंको अंतरमें खोजे बिना नहीं रहता। और जो निज अस्तित्व यथार्थ रूपसे ग्रहण करता है, उसे बाहरमें दुःख लगे बिना नहीं रहता। ऐसा अस्ति-नास्तिका सम्बन्ध ही है। अपना अस्तित्व ग्रहण करे तो बाहरसे यह मेरा स्वरूप नहीं है, ऐसा नास्तित्व आ जाता है। और ये विभाव है वह दुःखरूप है, मेरा स्वभाव नहीं है। इस प्रकार उसे अस्तिपूर्वक नास्ति आये। यथार्थ अस्तिको ग्रहण करे तो उसमें विभावकी नास्ति आ ही जाती है। एकदूसरेको सम्बन्ध है।
लेकिन यह विभाव मुझे नहीं चाहिये, वह अस्तिपूर्वक यदि ग्रहण करे तो उसे
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यथार्थपने दुःख लगा है। यदि अस्तित्व ग्रहण नहीं करता है तो यथार्थ दुःख नहीं लगा है। अनन्त कालसे ऐसा तो किया कि ये सब दुःख है, दुःख है। ऐसे छोडनेका प्रयत्न किया। परन्तु अंतरसे यदि सच्चा दुःख लगे तो उसे अस्तित्व ग्रहण हुए बिना रहता नहीं। यथार्थ लगना चाहिये। तो अस्तित्व ग्रहण हो, तो ही वह दुःखसे भिन्न पडता है।
अनन्त कालसे बहुत बार यह दुःख है, ऐसा वैराग्य किया, लेकिन अस्तित्व ग्रहण नहीं किया। अस्तित्व ग्रहण करे तो वह दुःख लगे। यथार्थ दुःख लगे तो अस्तित्व ग्रहण करे। उसका अर्थ यह है कि अनन्त कालसे दुःख लगा, लेकिन सच्चा दुःख ही नहीं लगा है। सच्चा दुःख लगे तो अस्तित्व ग्रहण करता ही है।
मुमुक्षुः- दोनोंको परस्पर सम्बन्ध है।
समाधानः- परस्पर सम्बन्ध है।
मुमुक्षुः- .. आत्मा ज्ञानस्वरूप है, ऐसा स्वीकार करना। और दूसरी ओर ऐसा कहना कि राग-द्वेषके परिणाम मेरे हैं, ऐसा स्वीकार करना।
समाधानः- मेरे नहीं है, मेरे हैं ऐसा नहीं। ज्ञानस्वरूप हूँ, ऐसे ग्रहण (कर)। मेरे हैं अर्थात मेरी अशुद्ध परिणतिमें होते हैं, परन्तु वह मेरा स्वभाव नहीं है। मेरे हैं, वह अहंपना तो अनादि कालसे है। स्वामीत्वबुद्धि नहीं, परन्तु मेरी अशुद्ध परिणतिमें वह होता है। मैं मेरा स्वभाव उससे भिन्न है, मैं ज्ञायक हूँ। ये मेरा स्वभाव नहीं है। ऐसे उसका भेदज्ञान करे। मेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है, परन्तु वह मेरा है ऐसा नहीं। उसका स्वामीत्व छोडना है। मेरा है, ऐसा नहीं। वह मेरा स्वभाव नहीं है। मेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है, परन्तु मेरा स्वभाव नहीं है। उसका भेदज्ञान करे कि मैं ज्ञायक हूँ और ये विभाव है।
मुमुक्षुः- (रागादि) परिणाम पुदगलका है।
समाधानः- पुदगलका है ऐसे नहीं, वह तो पुदगलके निमित्तसे होता है। पुदगलका है अर्थात स्वयं कुछ करता नहीं और स्वयं शुद्ध है और वह पुदगल है, ऐसा नहीं। अपनी अशुद्ध पर्यायमें होता है। लेकिन अपना स्वभाव नहीं है। मेरा है ऐसे ग्रहण नहीं करना है। वह मेरा और मैं उसका, ऐसे एकत्वबुद्धि नहीं (करनी है)। एकत्वबुद्धि तोडनी है। मैं ज्ञायक और वह मेरा स्वभाव नहीं है। मुझसे भिन्न है। लेकिन मेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है, पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है।
भेदज्ञान करना। जडका ही ऐसा नहीं। परन्तु मेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे, पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है। सिद्ध भगवान जैसे शुद्ध निर्मल हैं, वैसा मैं शाश्वत द्रव्य निर्मल हूँ। परन्तु वह मेरा स्वभाव नहीं है। लेकिन होता है वह मेरी पर्यायमें होता है, परन्तु वह मेरा स्वभाव नहीं है। उसे स्वयंमें एकत्वरूप मानना नहीं, तथापि जडका है ऐसा
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भी नहीं। परन्तु अपने पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है, मेरा स्वभाव नहीं है।
(पुदगलके) निमित्तसे होता है इसलिये पुदगलका। परन्तु अपने पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है, इसलिये अपनी पर्यायमें, चेतनकी पर्यायमें होता है। परन्तु स्वभाव अपना नहीं है।
मुमुक्षुः- प्रीति चित्तेन सुनी है, वह भावि निर्वाण भाजनम, उसमें हम आ गये कि नहीं?
समाधानः- जिसने प्रीतिसे सुना वह सब आ जाते हैं। अंतरकी प्रीतिसे सुना वह सब आ ही जाते हैं। ऐसे गुरुदेव मिले, ऐसी अपूर्व वाणी बरसायी। अंतर प्रीतिसे जिसने बात सुनी, उसका स्वयंका हृदय कह दे कि मैं आ गया कि नहीं आ गया। जिसने स्वयंने अंतर प्रीतिसे वार्ता सुनी वह आ ही जाता है। उसका स्वयंका आत्मा ही बोलता है। स्वयंको कितनी प्रीति है, तत्त्वकी रुचि है, गुरुदेवकी वाणी जो तत्त्व बताती है, उसकी रुचि स्वयंको कितनी है, वह स्वयं ही स्वयंका आत्मा बता देता है।
... अनादिका अभ्यास है। करनेका यह तत्त्व गुरुदेवने बताया, ऐसा अपूर्व तत्त्व समझनेका अभी अवसर है। गुरुदेवने जो बताया है, वह महिमावंत तत्त्व है। पुरुषार्थको बदल देना। अनादिका अभ्यास है उसमें पलट जाय तो भी बदल देना। करनेका एक ही है।
मुमुक्षुः- द्रव्य और पर्यायकी भिन्नताकी बातें बहुत करते थे। और आप द्रव्य एवं पर्यायकी अभिन्नताकी बातें बहुत करते हो, अभिप्राय तो दोनोंका एक है।
समाधानः- अभिप्राय तो एक ही है। गुरुदेव बहुत करते थे ऐसा नहीं, प्रवचनमें जब वह विषय आये तब वे कहते थे। और जब द्रव्य-पर्याय, प्रवचनसारके प्रवचन हों तो गुरुदेव उसमें दूसरे प्रकारसे कहते थे। जिस प्रकारका विषय हो, प्रवचनमें जो गाथा आयी हो, उस अनुसार गुरुदेव कहते थे। गुरुदेवका आशय वैसा ही था।