Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 216.

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ट्रेक-२१६ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- ११४ गाथा प्रवचनसारमें आता है, परको जानना सर्वथा बन्द कर दिया। ऐसी प्रक्रिया बताते हैं। पर्यायचक्षुको सर्वथा बन्द कर दे, तब द्रव्यचक्षु उघडता है।

समाधानः- सर्वथा बन्द कर दे उसका अर्थ है कि उसका उपयोग परमें जाता है न? उस उपयोगको स्वमें लाओ। छद्मस्थका उपयोग बाहरमें जाता है तो क्रम-क्रमसे जानता है। इसलिये तू उपयोग अपनी ओर ला। सर्वथा बन्द करनेका अर्थ ऐसा है कि उपयोग अपनेमें ला। राग आता है, उसमें एकत्वबुद्धि होती है इसलिये राग मत कर, ऐसा कहना है। जाननेका बन्द कर, उसका अर्थ राग बन्द कर। राग टाल दे, ऐसा उसका अर्थ है। तू स्वभावमें लीन हो जा। बादमें केवलज्ञान प्रगट होता है तो वह सबको जानता है। वीतरागता प्रगट कर दे, ऐसा उसका अर्थ है। तू जाननेका स्वभावका नाश कर दे ऐसा अर्थ नहीं है। तेरे स्वभावका नाश कर दे ऐसा अर्थ नहीं है। राग टाल दे और उपयोग स्वरूपमें ला, ऐसा।

छद्मस्थ तो एक बार जाने तो एक तरफ जान सकता है। इसलिये स्व-ओर उपयोग आवे तो पर-ओर उपयोग जाता नहीं है। इसलिये परको जाननेका सर्वथा बन्द कर दे। एक तरफ जाने, उपयोग तो एक तरफ जाता है। परिणति सब ओर रहती है। ज्ञानका उपयोग तो फिरता रहता है। स्वानुभूतिमें उपयोग जाय तो परको जानना छूट जाता है। और स्वानुभूतिमें लीन हो जाय तो पर-ओर उपयोग जाता नहीं है। आत्माका वेदन स्वानुभूतिमें होता है। इसलिये परको जाननेका स्वभाव नाश नहीं होता है।

मुमुक्षुः- एक प्रश्न था कि भगवान ऐसा कहते हैं कि हम अपनेको देखते हैं, तुम भी अपनेको देखो, परको मत देखो।

समाधानः- भगवान क्या कहते हैं?

मुमुक्षुः- भगवान कहते हैं, हम अपनेको देखते हैं, तुम भी अपनेको देखो, परको मत देखो।

समाधानः- परको मत देखो अर्थात पर-ओर उपयोग, परका राग मत करो। अनादि कालसे उपयोग बाहर भ्रमण कर रहा है। अपना अवलोकन करो, उसमें सब आ जाता है। अपनेको अवलोकन (करे)। जो स्वभाव है वह सब उघड जाता है। पर जाननेकी


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क्या चिन्ता? ऐसी आकुलता क्या करता है? यह जानुँ, यह जानुँ, यह जानुँ ज्ञेयको जाननेकी आकुलता मत करो। आकुलता करनेसे जाननेमें नहीं आता। ज्ञेय जाननेकी आकुलता नहि कर। जो एकको जानता है, वह सबको जानता है। सब जाननेकी आकुलता करता है, वह अपनेको नहीं जानता है, परको नहीं जानता है। एक आत्माको जानो, बस! उसमें सब आ जाता है।

जाननेका राग मत करो। स्वरूपमें लीन हो जाओ तो स्वभावका नाश नहीं होता है। उसमें जो ज्ञान है वह प्रगट हो जाता है। निर्मल ज्ञान। एक आत्माको जानो। ज्ञेय जाननेकी आकुलता मत करो। एक आत्माको जानो। उसमें सब आ जाता है।

मुमुक्षुः- ३१वीं गाथामें (आता है), जे इन्दिय जिणित्ता-इन्द्रियोंको जीतनेवाला जिन है। खण्ड ज्ञानको जीतनेवाला कैसा? भावइन्द्रियको जीतनेवाला कैसा? उसका खुलासा।

समाधानः- बाहर खण्ड खण्ड उपयोग जाता है। वह उपयोग जो है, वह खण्ड खण्ड जाता है तो आकुलता होती है। अधूरा ज्ञान अपना स्वभाव नहीं है। अखण्ड आत्मा पर दृष्टि करो। मैं अखण्ड हूँ। खण्ड खण्ड आत्माका पूरा स्वभाव नहीं है। वह तो क्षयोपशम ज्ञान है। क्षयोपशम ज्ञानसे दृष्टि उठा ले। वह तो क्षयोपशम ज्ञान है। क्षायिक ज्ञान भी एक पर्याय है। एक पारिणामिकभाव अनादिअनन्त चैतन्य ज्ञायकस्वभाव पर दृष्टि करो, बस! वही जितेन्द्रिय, जिन है। ज्ञायक स्वभाव पर दृष्टि करो। क्षयोपशमभाव परसे दृष्टि उठा ले। एक क्षयोपशम ज्ञानकी क्या महिमा है? वह तो आकुलता है, क्रमवाला ज्ञान है। इहा, अवाय और धारणा ऐसे ज्ञानमें आकुलता होती है। ऐसे ज्ञान पर दृष्टि मत करो। एक अखण्ड पर दृष्टि करो। बीचमें तो आता है, उसको जान लो। खण्ड खण्ड उपयोग तो, जबतक पूर्ण नहीं हो जाता, तब क्षयोपशम ज्ञान तो रहता है। क्षयोपशम ज्ञान तो मुनिओंको भी रहता है। परन्तु उस पर दृष्टि नहीं करते। अखण्ड ज्ञान पर दृष्टि देते हैं। फिर मुनिओंको श्रुतज्ञान प्रगट होता है। उस पर दृष्टि नहीं करते हैं तो श्रुतज्ञानकी लब्धि प्रगट होती है। चौदह पूर्व ग्यारह अंगका ज्ञान प्रगट हो जाता है, भावलिंगी मुनिको। क्षयोपशम ज्ञान पर वे दृष्टि नहीं देते हैं, तो भी उघाड हो जाता है। बीचमें ऐसी श्रुतज्ञानकी लब्धि (प्रगट होती है)। उसमें जो शक्ति भरी है तो निर्मलता प्रगट होती है, उसमें सब प्रगट होता है।

उसका नाश नहीं होता है, परन्तु उस परसे दृष्टि हटा दे, उसकी महिमा हटा दो, उसको जाननेकी आकुलता छोड दो। फिर सहज हो जाता है तो हो जाता है। अखण्ड पर दृष्टि देनेसे केवलज्ञान प्रगट हो जाता है। केवलज्ञान पर भी दृष्टि मत दो, वह तो प्रगट हो जाता है। बीचमें आत्माकी जो विभूति है वह सब प्रगट हो जाती है। उसका नाश नहीं होता।


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मुमुक्षुः- परको जाननेकी आकुलता नहीं करे, लेकिन परको नहीं जाननेकी भी आकुलता करना ठीक है कि नहीं?

समाधानः- हाँ, नहीं जाननेकी आकुलता भी... मैं मलिन हो गया, निकाल दो, ऐसा भी नहीं करना चाहिये। शास्त्रमें समयसार कलशमें आता है कि मुझे मलिनता हो गयी, तो निकाल दो, निकाल दो। परन्तु राग निकालनेका है, जाननेका कहाँ निकाल दो, निकाल दो। ऐसा शास्त्रमें कलशमें आता है। जाननेकी आकुलता नहीं करना। जाननेमें आ जाय तो निकाल दो, नाश कर दो। ज्ञानका नाश करना है क्या? ज्ञानका नाश नहीं होता।

अनन्त कालमें जो प्रत्यभिज्ञान पडा है, तो सब जाननेमें पडा है। बचपनसे बडा हुआ तो वह सब ज्ञानमें पडा है। ज्ञानको निकाल दो। कैसे निकालना? स्वभाव कैसे निकल जाता है? पूर्व भवमें-से आया, सब जो-जो हुआ वह ज्ञानमें पडा है। ज्ञानमें आता है तो ऐसे कैसे निकल जाता है। बचपनसे अभी तकका ज्ञान हुआ तो ज्ञानका नाश कर दे, ज्ञान कैसे निकल जाता है? ज्ञान निकलता नहीं है। राग निकलता है, ज्ञान निकलता नहीं है। उसका कैसे नाश होता है?

मुमुक्षुः- पहले अपने यहीं-से-सोनगढ-से बात चलती थी। हम लोग तो दूर- दूर रहते हैं। और जयपुरसे वही बात चलने लग गयी। हम लोगोंकी बुद्धि तो इतनी है नहीं। अभी तक तो यही जानते थे कि जो यहाँ बात चलती है, वही वे चलाते हैं। क्योंकि वे ऐसा कहते हैं कि माल भी गुरुदेवका है, मार्केट भी गुरुदेवका है। उसमें फर्क क्या डलता है, वह हमारी पकडमें नहीं आया था। सो आपसे प्रश्न किया। अब भी कोई विशेष बात हो कि जिससे बचके रहे। हमारे कानमें तो वही पडना है। हमें तो जाना वहीं है और वहीं सुनना है। क्या फर्ककी बात है?

समाधानः- अपनेको विचार करना। विचार करना, अपनी बुद्धिसे विचार कर लेना कि क्या फर्क होता है। गुरुदेवके प्रवचनमें दोनों बात आती है। उसका मेल करना चाहिये। गुरुदेव एक बात नहीं कहते हैं, गुरुदेव दोनों बात करते हैं। उसका मेल करना चाहिये।

मुमुक्षुः- सुनना था आपसे, मेल करना क्योंकि गुरुदेवके प्रवचन आ जाते हैं, प्रवचन गुरुदेवके ही आते हैं। उनकी बात पर चलती है।

समाधानः- सबकी सन्धि करनी चाहिये। शास्त्रमें भी दोनों बात आती है। शास्त्रमें उसका भी मेल करना चाहिये। निश्चयकी बात आये, व्यवहारकी बात आये। जो अपेक्षासे निश्चय है उसको निश्चय। असली स्वरूपमें क्या है, व्यवहार उसमें साथमें कैसे रहता है, सबको जानना चाहिये। वस्तु स्वरूप अनादिअनन्त वस्तु शुद्ध है। बीचमें साधक


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दशा आती है। ज्ञान, दर्शन, चारित्रके भेद पर दृष्टि मत कर। तो भी बीचमें भेद तो आता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र सब बीचमें आता है। तो उसका सब मेल करना चाहिये। निश्चय-व्यवहारका मेल करना चाहिये। समझना चाहिये।

मुमुक्षुः- अब तो आपने जो कहा उस पर हम अभ्यास करेंगे और आपकी जयंति पर आयेंगे, जो कुछ बात होगी तो कर लेंगे। माताजी! .. हम पामर प्राणिओंको संबोधनेके लिये पधारी। आज पूज्य गुरुदेव नहीं है यहाँ पर, फिर भी आपश्री विद्वान हैं तो ऐसा लगता है कि मानों साक्षात गुरुदेव ही विद्यमान हैं और गुरुदेवका ही सब कुछ हमको मिल रहा है। बडे भाग्यशाली हैं कि आपके दर्शन, आपकी बात सुननेको मिली। यह तो जन्म-मरणका अभाव करनेवाली है, माताजी! दुनियामें कहीं भी चले जायें राग-रंगकी बात (चलती है)। यह बात कहीं नहीं है।

समाधानः- गुरुदेवका प्रताप है। गुरुदेवने सब समझाया है। मैं तो उसका दास हूँ। उन्होंने जो समझाया है वह कहते हैं।

मुमुक्षुः- हम लोग कल चल जा रहे हैं। जो गलती हुयी हो, क्षमा करना आप।

समाधानः- ... ऐसा ही मानना, मुझे ऐसा विचार आया कि मानना परन्तु ये सब माहोल... विचार आया इसलिये हो जाय ... गुरुदेव तो विचार भी जानते थे। अन्दर भावना हो कि गुरुदेव पधारो, पधारो विनंती करनेका भाव आया तो गुरुदेव समाधान कर दिया कि मैं हूँ ऐसा ही मानो। ये सब बेचारे.. तो सबको शान्ति हो जाय।

मुमुक्षुः- आपके विचार और आपकी भावना अनुसार गुरुदेवने कर दिया।

समाधानः- स्वर्गमें बैठे हैं फिर भी मानों उनकी शक्ति चारों ओर फैल जाती है। गुरुदेवको पधारना... मैं हूँ, ऐसा ही मानना। गुरुदेव पधारे ऐसा भी किसीको कहना नहीं रहा, सबको ऐसा हो गया कि गुरुदेव है। ... ये सबका क्या होगा? ऐसा मुझे हो जाय। गुरुदेव इसमें कैसे पधारे?

... पहले देखा था न। थोडा स्वप्न आया। कहो तो सही सबको। ... ये सजावट कैसी? ये तो सजावट है। ... ऐसी सजावट! गुरुदेव पधारे ऐसी भावना अन्दर हुयी। गुरुदेव पधारो। गुरुदेव मानों देवके रूपमें हाथ करते हैं कि ऐसा ही रखना कि मैं यहीं हूँ। ... ये सजावटी कैसी! ये तो सजावट है। गुरुदेव पधारो। ये कैसी सजावट है। उसी दिन जल्दी सुबह ऐसा हुआ कि ऐसी सजावट, गुरुदेव पधारे ऐसी भावना अन्दर हुयी कि गुरुदेव पधारो। गुरुदेव मानों देवके रूपमें हाथ करते हैं कि ऐसा ही रखना कि मैं यहीं हूँ।

मुमुक्षुः- ऐसा स्वप्न आया माताजी?


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समाधानः- हाँ। देवके रूपमें। .. रातको मिलने आयी थी। कहा, ये सजावट कैसी है! ये तो सजावट है। गुरुदेव पाधारो, ये कैसी सजावट है। उसी दिन जल्दी सुबह ऐसा हुआ कि ऐसी सजावट, गुरुदेव पधारे ऐसी भावना अन्दर हुयी कि गुरुदेव पधारो। गुरुदेव मानों देवके रूपमें हाथ करते हैं कि ऐसा ही रखना कि मैं यहीं हूँ। ऐसा ही रखना कि मैं यहीं हूँ। मेरे मनमें उस वक्त ऐसा हुआ कि ऐसे कैसे रखना? सबको कैसे रखना? परन्तु सबका... गुरुदेव है ही, ऐसा माहोल... .. प्रकाशमान है, मैं यहीं हूँ ऐसा मानना। देवके रूपमें गुरुदेव ही...

समाधानः- ... और पूर्ण प्रगट हो वह .. आंशिक प्रगट हो ... उसमें निश्चय और व्यवहार दोनों आ जाते हैं। निश्चयमें स्व, व्यवहारमें जो गुरुको प्रगट हुआ वे गुरु। सर्वज्ञदेव परमगुरु। स्व और गुरु दोनों आ गये। जिन्हें पूर्ण प्रगट हुआ... सहजात्म अर्थात स्वयं। सर्वज्ञ गुरु। जिसे प्रगट हुआ वे।

मुमुक्षुः- सत्पुरुषके योगमें मुमुक्षुको क्या लाभ होता है? सत्पुरुषके योगसे प्रथम भूमिकामें मुमुक्षुको क्या लाभ होता है?

समाधानः- अपनी तैयारी हो तो बहुत लाभ होता है। गुरु जो मार्ग बताते हैं, उनकी अपूर्व वाणी, प्रथम भूमिकामें स्वयंकी अंतरकी पात्रता और मुमुक्षुताकी विशेषता करनेमें गुरु (निमित्त होते हैं)। पूरा मार्ग प्रगट हो, जितनी स्वयंकी पुरुषार्थकी तैयारी उस अनुसार लाभ होता है। गुरुका तो प्रबल निमित्त है। उनकी वाणी अपूर्व, उनका योग अपूर्व, सब अपूर्व। उनका समागम अपूर्व है। अपनी पुरुषार्थकी तैयारी हो उस अनुसार लाभ होता है। उनका तो सर्वस्व लाभका ही निमित्त है।

सम्यग्दर्शन प्राप्त करनेके अंशसे पूर्णता पर्यंत लाभ हो ऐसा गुरुके निमित्तमें तो है, परन्तु स्वयंकी तैयारी हो उस अनुसार लाभ होता है। अपनी मुमुक्षुता विशेषतासे स्वयंको मार्ग मिले, स्वयं आगे बढ सके, स्वानुभूति प्रगट हो, स्वयंका पुरुषार्थ हो अनुसार लाभ होता है। जिसकी स्वयंकी पुरुषार्थ तैयारी हो, उस अनुसार लाभ होता है। यथार्थ रुचि प्रगट हो, यथार्थ मार्ग मिले, यथार्थ निश्चय हो, चारों ओरकी पात्रता हो, स्वयंका पुरुषार्थ हो तो लाभ होता है।

अपने उपादानकी तैयारी हो उस अनुसार लाभ होता है। निमित्त तो प्रबल है। अपनी तैयारी होनी चाहिये। यथार्थ ज्ञान हो, यथार्थ प्रतीत हो, यथार्थ लीनता हो, सब होता है। अपने पुरुषार्थ अनुसार होता है। .. स्पष्ट हो जाय उनके निमित्तसे। पुरुषार्थकी तैयारी, अपनी तैयारी हो तो लाभ हुए बिना रहता ही नहीं।

जीवनमें एक ही करना है, आत्माकी रुचि कैसे प्रगट हो? आत्मा कैसे समझमें आये? भेदज्ञान कैसे हो? आत्माको मुक्तिका मार्ग कैसे मिले? स्वानुभूति कैसे हो?


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वह सब जीवनमें एक ही करना है। चैतन्यका ध्येय रखकर देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा और एक ज्ञायक चैतन्य कैसे पहचानमें आये? उसका स्वानुभव कैसे हो? वह भावना रखने जैसी है।

समाधानः- ... उसमें चला जाता है, परन्तु बारंबार-बारंबार मैं तो भिन्न चैतन्य ज्ञायक हूँ, यह मेरा स्वभाव नहीं है। एकत्वबुद्धि तोडना। बारंबार उसका अभ्यास करना। जैसे बारंबार बाहरमें जाता है, वैसे बारंबार अंतरमें अंतरदृष्टि करना। बारंबार प्रयत्न करना। छूट जाय तो भी बारंबार प्रयत्न करना चाहिये। उसका रटन दृढ करना चाहिये। बारंबार।

समाधानः- .. बाहरसे सब छोड दिया। आचरणमें-से छोड दिया। बाहरसे अर्थात अंतर और बाह्य दोनों एकसाथ हो गया। अंतरमें भगवानरूप स्वयं ही परिणमता है। ..अंतरपूर्वक बाहर। भावलिंग, अन्दरसे भाव प्रगट हो और बाहर हो, वह अलग होता है। वैराग्य देखकर ...

... अगाध जिसकी जाननेकी शक्ति है। जाननेवाला यानी जाननेवाला ही। उसमें नहीं जानना ऐसा आता ही नहीं। अनन्त-अनन्त जाननेसे भरा ही है। ऐसा जाननेवाला कौन है? मात्र इतना जाना, इतना जाना, उतना जाननेवाला नहीं, परन्तु वह जानन स्वभाव अनन्त स्वभावसे भरा है। जाननेमें नहीं जानना ऐसा आता नहीं। ऐसा अनन्त- अनन्त जानन स्वभावसे भरा ऐसा वह जाननेवाला कौन है?

ये जड। तो जडके जितने भाग करो उसमें नहीं जानना ऐसा ही आयगा। वह जानता ही नहीं। और जाननेवाला है उसमें इतना जाना ऐसा नहीं, जाननेवाला अर्थात सब जाननेवाला ही है। ऐसा अगाध जाननेवाला वह स्वयं है। वह स्वयं स्वको जाने, निज अनन्त गुण-पर्यायको जाने और अनन्त लोकालोकको जाने। ऐसी अनन्त जाननेकी शक्ति जिसमें है वह (मैं हूँ)। वर्तमान तो विभावमें उसकी दृष्टि है इसलिये जान नहीं सकता है, परन्तु अनन्त-अनन्त जाननेकी, अगाध जाननेकी शक्ति है। ऐसा जाननेवाला वह मैं हूँ। वह मूल है, तत्त्व मूल पदार्थ वह है।

मुमुक्षुः- स्वभाव है, उस पर लक्ष्य जाय तो कार्यसिद्धि हो।

समाधानः- हाँ, तो कार्यसिद्धि हो। अनन्त जाननेका स्वभाव है, कि जिसकी मर्यादा नहीं है। असीम जाननेका स्वभाव है। ऐसा जो तत्त्व, उस पर दृष्टि जाय तो कार्य हो।

मुमुक्षुः- ये वर्तमान वर्तता जो जानपना है,..

समाधानः- वर्तमान वर्तता जो क्षणिक जानपना है वह नहीं, अगाध जाननेवाला। जो जाननहार ही है, जिसमें नहीं जानना ऐसा कुछ है ही नहीं, ऐसा अनन्त जाननेवाला। भले वर्तमानमें पूरा जानता नहीं है, परन्तु उसकी शक्ति जानन-जानन (स्वभावसे) भरी


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है। ऐसा जो पदार्थ, उस पर दृष्टि जाय तो वह यथार्थ तत्त्वको पहचानता है। जाननेवालेका अस्तित्व, जाननेवाला ज्ञायकका अस्तित्व पहचानमें आये तो उसने स्वयंके पदार्थको पहचाना है।

मुमुक्षुः- क्योंकि जब जाननेकी बात आती है तब लक्ष्य.. प्रथमसे हमारी ऐसी भूल होती है कि यही ज्ञात होता है, यही ज्ञात होता है। इसलिये जाननेकी बात आती है तब यह सब ज्ञात होता है। भले करते नहीं है, परन्तु ज्ञात होता है।

समाधानः- हाँ, सब ज्ञात होता है, किसके अस्तित्वमें ज्ञात होता है? ऐसा स्वतःसिद्ध जाननेवाला, जो अनादिअनन्त है, जिसे किसीने बनाया नहीं है, ऐसा स्वतःसिद्ध जाननेवाला तत्त्व है। ऐसा अगाध जाननेवाला वह मैं हूँ। यह जाना, यह जाना, यह जाना ऐसा नहीं। अगाध अस्तित्व, जानन अस्तित्वसे भरा ऐसा जाननेवालेका अस्तित्व ग्रहण करना चाहिये।

मुमुक्षुः- .. होनेसे लक्षणको जानने-से लक्षणकी प्रतीति करनेसे लक्ष्य ज्ञानमें आ जाता है?

समाधानः- लक्षण द्वारा लक्ष्यकी पहचान होती है। परन्तु लक्षणमें मात्र अटक जाय तो... यह लक्षण है वही मैं हूँ, ऐसा नहीं। लक्षण द्वारा लक्ष्यको पहचानना चाहिये। ये लक्षण जिस पदार्थका है वह पदार्थ मैं हूँ। वह पूर्ण पदार्थ मैं हूँ।

मुमुक्षुः- लक्षणमें नहीं अटकना। समाधानः- लक्षणसे लक्ष्य पहचानना चाहिये। ये जानन तत्त्वको पहचाने तो होता है। ये जाननेवाला अगाध शक्तिसे भरा, ऐसा जाननेवाला अनन्त शक्ति, ऐसी अनन्त शक्ति उसमें है। ऐसा जाननेवाला आनन्द आदि अनन्त शक्तिसे भरा ऐसा ज्ञायक अस्तित्व, उसे पहचाने और ये सब विभावसे भिन्न पडे कि ये जाननेवाला सो मैं हूँ, ये विभाव मैं नहीं हूँ। सब प्रकारके विभाव है वह विभाव ही है। शुभाशुभ सब विभाव है। उससे भिन्न पडकर मैं ज्ञायक हूँ। ज्ञायकको पहचाने, ऐसे निर्विकल्प तत्त्वकी प्रतीत करे, उसका ज्ञान करे।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!