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समाधानः-... वृद्धावस्था और दूसरा?
मुमुक्षुः- मृत्यु-मौत।
समाधानः- कुछ भय वाला नहीं है, सबको भय लगता है।
मुमुक्षुः- किसका लगता है?
समाधानः- इस शरीरका राग है एकत्वबुद्धिका, इसलिये। शरीरमें वृद्धावस्था आये वह किसीको पोसाती नहीं और मरणका भय है, इसलिये मृत्यु अच्छी नहीं लगती। स्वयंको अच्छा नहीं लगता। आत्मा तो वस्तुका स्वभाव है। शरीर धारण करे वह छूटता ही है। एक शरीर धारण करे, दूसरा करे.. जबतक भवका अभाव नहीं हुआ है तबतक शरीर धारण करेगा। परन्तु उसको स्वयंको शरीरकी एकत्वबुद्धि, शरीरका राग है। इसलिये उसे भय लगता है। शरीरसे भिन्न नहीं होना है। भिन्न ही है, परन्तु एकत्वबुद्धि ऐसी है कि उसे भिन्न नहीं होना है। इसलिये उसे भय लगता है। वृद्धावस्थां एवं मृत्यु भय नहीं करवाते, परन्तु स्वयं डरता है। स्वयंको मृत्यु अच्छी नहीं लगती, स्वयंको वृद्धावस्था अच्छी नहीं लगती।
मुमुक्षुः- वृद्धावस्था आये तो सही।
समाधानः- आये बिना नहीं रहेगी।
मुमुक्षुः- फिर भी उसका भय लगता रहता है।
समाधानः- भय लगता है। वृद्धावस्थामें शरीर काम नहीं करता, इसलिये भय लगता है। एकत्वबुद्धि है। तो भी उसे वैराग्य नहीं होता कि संसारका स्वरूप तो ऐसा ही है। वैराग्यको प्राप्त होकर आत्माका कर लेना। वृद्धावस्था आनेसे पहले आत्माका कर लेना, ऐसे पुरुषार्थ करता नहीं, वैराग्य नहीं करता और भयभीत होता है। वैराग्य लाना चाहिये। उम्र बडी हो इसलिये शरीर काम नहीं करता। बैठनेमें, ऊठनेमें, देखनेमें, सुननेमें सबमें तकलीफ हो जाती है। पहलेसे कर लेना है, ऐसा स्वयंको वैराग्य करना चाहिये।
मुमुक्षुः- बाकी कोई भय रखने जैसा नहीं है।
समाधानः- भय रखने जैसा नहीं है। भय किसका है? वह तो वस्तुका स्वरूप
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है, ऐसा बनने वाला ही है।
मुमुक्षुः- स्वयं तो रहने वाला ही है।
समाधानः- स्वयं तो नित्य है। स्वयंको स्वयंका स्वरूप साध लेना, स्वयंके स्वरूपको सँभालकर स्वयंको आत्म स्वरूपकी प्राप्ति कर लेनी, यही करना है। वृद्धावस्था कोई नयी नहीं है, सबको दिखता ही है। ऐसा तो संसारमें बनता ही आया है। उसका भय रखना तो व्यर्थ है। वैराग्यको प्राप्त होकर स्वयंको स्वयंका कर लेना।
मुमुक्षुः- आत्माको अच्छा लगना, नहीं लगना..
समाधानः- अच्छा नहीं लगे तो भी वह तो स्वरूप ही है, वह तो बनेगा ही, अच्छा लगे या नहीं। उसमें किसीका उपाय नहीं चलता। चाहे जितने डाक्टर बुलाये, दवाई करे तो भी वृद्धावस्था आनेवाली है, मृत्यु होगा, चाहे जैसे डाक्टर बुलाये। बडे- बडे राजा और चक्रवर्ती चले जाते हैं। सागरोपमका देवोंका आयुष्य भी पूरा हो जाता है। वह तो आनेवाला ही है, अच्छा लगे या नहीं, वह तो होगा ही। सबका पूरा होता है। इसलिये स्वयंको पहचान लेना, उसका-शरीरका राग छोड देना। यह संसार ऐसा ही है। इसलिये वैराग्यको प्राप्त होकर आत्माका कर लेने जैसा है।
आत्मा शाश्वत है, इस जन्म-मरणसे कैसे छूटा जाये? अन्दर जो आकूलता होती है, उससे कैसे छूटे? विकल्प स्वयंका स्वभाव नहीं है, तो फिर शरीर कहाँ अपना है? अच्छा लगे या नहीं, अच्छा नहीं लगे तो भी बनने वाला है। वह तो बनेगा ही। देवोंका सागरोपमका आयुष्य भी पूर्ण हो जाता है। तो मनुष्य तो क्या हिसाबमें है? चक्रवर्तीका चतुर्थ कालमें कितना लम्बा आयुष्य था, तो वह भी पूरा हो जाता है।
मुमुक्षुः- अभी ज्यादा दुःख लगता है, हुण्डावसर्पिणी काल है इसलिये ज्यादा दुःख लगता है?
समाधानः- कालके कारण दुःख नहीं लगता, स्वयंकी क्षतिके कारण दुःख लगता है।
मुमुक्षुः- हुण्डावर्सपिणीका मतलब क्या?
समाधानः- अभी ऐसे जीव जन्म लेते हैं, वैसे ही जीव (आते हैं)। चतुर्थ कालके बहुत सीधे एवं सरल जीव थे। अभी सब परिणाम ऐसे हो गये हैं। काल क्या करता है? अपनी योग्यता ऐसी है। चतुर्थ कालमें पुण्योदय ज्यादा था, पापके कम थे। अभी पापका उदय ज्यादा हो गया और सब बढ गया है, उसका कारण जीव ही ऐसे (हैं), ऐसा कर्म लेकर स्वयं ही आता है, उसमें काल क्या करे?
मुमुक्षुः- असंख्यात काल चक्रवात होनेके बाद ऐसा हुण्डावसर्पिणी काल आता है। असंख्यात कालचक्रके बाद। ऐसा विषम काल आया, हुण्डावसर्पिणी जैसा।
समाधानः- काल आया, ऐसे कालमें जन्म कौन लेता है? कि जिसने ऐसे भाव
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किये हों, वह जन्मता है। उसमें काल क्या करे? ऐसे भाव वाले जीव होते हैं कि ऐसे कालमें जन्मते हैं। परन्तु गुरुदेवके प्रतापसे बीचमें काल अच्छा आ गया कि गुरुदेवका जन्म हुआ, सबको मार्ग प्राप्त हुआ। बाहरके पुण्य-पापके संयोग एक ओर रह गये, बाकी गुरुदेवका जन्म हुआ वह धर्मका काल बीचमें आ गया। बीचमें चतुर्थ काल आ गया।
मुमुक्षुः- और अभी भी वर्तता ही है।
समाधानः- गुरुदेवका प्रताप अभी भी वर्तता ही है।
मुमुक्षुः- अभी तो आपका प्रताप है। सोनगढमें चतुर्थ काल वर्तता है।
मुमुक्षुः- चीमनभाई कहते हैं, यहाँ तो सब भूल जाता हूँ। ... हाथ घुमाता रहता हूँ, धडकन गिनता रहता हूँ, यहाँ तो सीने पर हाथ रखता हूँ तो भगवानकी गुँज उठती है। पहले हृदयकी धडकन सुनाई देती थी, अब आत्माकी सुनाई देती है।
समाधानः- ... चारों ओर भगवानके मन्दिर हैं। चारों ओर गुरुदेवकी टेप चलती है। आत्माकी बातें हो रही है। धर्मकाल बीचमें आ गया। ऐसा मार्ग गुरुदेवने प्रकाशित किया। चारों ओर उनकी वाणी ऐसी जोरदार थी, आत्माको दर्शाये ऐसी वाणी थी। पुण्यका काल, बीचमें धर्मकाल आ गया। पंचमकालमें ऐसा-ऐसा कोई-कोई काल आ जाता है, हुण्डावसर्पिणी होनेके बावजूद भी।
मुमुक्षुः- .. असंख्यात कालचक्र होनेके बाद ऐसा हुण्ड काल आता है। असंख्यात कालचक्रमें ऐसा..
समाधानः- ऐसा योग मिला और उसमें गुरुदेव मिले। ऐसा योग भी अनन्त कालके बाद मिलता है, गुरुदेव मिले ऐसा। इस पंचमकालमें गुरुदेव कहाँ-से मिले? ऐसी वाणी, ऐसा मार्ग दर्शानेवाले कहाँ-से प्राप्त हो? और मुनिओं पहले बहुत हो गये हैं, उन्होंने कितनी वाणी बरसाई! शास्त्रोंमें अभी चली आ रही है। गुरुदेवने सब मुमुक्षुओंके बीच रहकर इतने साल वाणी बरसाई। ऐसा तो कभी-कभी बनता है। कोई जंगलमें चले जाये। ये तो मुमुक्षुओंके बीच रहकर इतने साल वाणी बरसायी, ये तो महाभाग्यकी बात है।
मुमुक्षुः- आज सुबह विचार आया, स्वाध्याय मन्दिरको ५० वर्ष होंगे। स्वर्ण महोत्सव मनाना है। कोई भी मन्दिरसे स्वाध्याय श्रेष्ठ मन्दिर स्वाध्याय मन्दिर है, जहाँ केवलज्ञानका ही घूटन हुआ है और समयसारकी स्थापना हुई है। ५० वर्ष पूर्ण होंगे।
समाधानः- गुरुदेवने बरसों तक स्वाध्याय मन्दिरमें वाणी बरसायी। बरसों तक यहाँ बिराजे।
मुमुक्षुः- पोपटभाई ...ने स्वाध्याय मन्दिर नाम रखा था।
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समाधानः- बरसों पहले यहाँ कुछ नहीं था। सब मन्दिर (बने)। जब स्वाध्याय मन्दिर हुआ तब वहाँ कुछ नहीं था। गुरुदेवके प्रतापसे सब वहाँ हो गया।
मुमुक्षुः- गुरुदेव कहते थे कि, यहाँ तो भैंस घूमती थी।
समाधानः- हीराभाईकी दुकानसे लेकर यहाँ तक ऐसा लगे कि जंगलमें है। जंगलमें हैं ऐसा लगे।
मुमुक्षुः- वैराग्य एवं उदासीनता..
समाधानः- एक ही है। लगभग एक ही है। वैराग्य अर्थात परसे भिन्न होकर अपनेमें (आये), उदासीनता भी वही है। उदास हो जाये, उसमें भी वही है।
मुमुक्षुः- उपशमपना?
समाधानः- उपशममें कषायकी उपशमता, उसमें थोडा फर्क है। जुडना नहीं, कषायके वेगमें बहना नहीं। शांत परिणाम रखे, कहीं बहे नहीं, वह उपशम। तीव्र कषाय, जो मुमुक्षुकी भूमिकाको शोभते नहीं ऐसे कषायोंमें बह नहीं जाता, वह उपशमभाव। .. उसकी क्या बात!
... (जिन) प्रतिमा जिन सारखी कहनेमें आती है। उसमें भावना वालेको एक ही दिखाई देता है, प्रतिमा और भगवानमें कुछ फर्क नहीं दिखता। भावसे देखे उसे भगवानकी प्रतिमामें फर्क नहीं दिखता। जिन प्रतिमा जिन सारखी, ऐसा शास्त्रमें आता है। अल्प भव स्थिति जाकी, सो ही जिन प्रतिमा परमानै, जिन सारखी, ऐसा आता है।
जगतमें रत्न भी भगवानरूप परिणमित हो रहे हैं। भगवान जगतमें सर्वोत्कृष्ट हैं तो कुदरतमें शाश्वत प्रतिमाएँ हैं। शाश्वत मन्दिर एवं शाश्वत प्रतिमाएँ। मेरुमें, नंदिश्वरमें, ऊर्ध्व, मध्य, अधोलोकमें चारों ओर हैं।
मुमुक्षुः- रत्न ऐसी प्रतिमारूप परिणमते हैं?
समाधानः- प्रतिमारूप रत्न परिणमते हैं। साधारण पत्थर नहीं, बल्कि उच्च रत्नोंके परमाणुरूप ऐसे स्कंध प्रतिमारूप परिणमित हो गये हैं। सब शास्त्रमें आता है।
मुमुक्षुः- कृत्रिम नहीं, रत्न ही ऐसे परिणमित हुए हैं।
समाधानः- ये पुदगल रत्नरूप परिणमित होकर सब प्रतिमारूप होकर, उसके आकार प्रतिमा मानों साक्षात भगवान ही बैठे हैं, एकमात्र वाणी नहीं, उतना। समवसरणमें बैठे हों ऐसे हूबहू। पाँचसौ-पाँचसौ धनुषकी (प्रतिमाएँ)। किसीने नहीं बनाया, अपने आप। कुदरत मानो कहती है कि जगतमें भगवान सर्वोत्कृष्ट है।
मुमुक्षुः- नंदिश्वर द्विप देखा तब आश्चर्य होता था। शाश्वत भगवान किसप्रकार होंगे? आज स्पष्ट हुआ, आज स्पष्ट हुआ।
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समाधानः- पर्वत पर मन्दिर, किसीने नहीं बनाया, अपनेआप, स्वयं (ही है)। जैसे भगवान हैं बराबर वैसे, कोई फर्क नहीं।
मुमुक्षुः- उसकी यात्रा हो सकती है?
समाधानः- वह तो देव कर सकते हैं। नंदिश्वरकी यात्रा तो। मेरु पर्वतकी यात्रा विद्याधर हो वह कर सकते हैं, कोई देव ले जाये तो कर सकता है। विद्याधर हो तो जा सकते हैं। कोई शक्तिशाली मुनि हों तो जा सकते हैं। बाकी नंदिश्वरमें तो देव ही जाते हैं। मनुष्य नहीं जा सकते। नंदिश्वरमें मनुष्य नहीं होते, देव ही होते हैं।
मुमुक्षुः- ऐसा कहते हैं, यहाँ नंदिश्वरमें आते हैं न, देव हो वही आ सकते हैं। ऐसे।
समाधानः- .. सब होता है।
मुमुक्षुः- .. हमें कहते थे कि आपका भी कोई प्रताप है। हम आज गुरुदेवकी आप पर अपार कृपा थी और वह कृपा आज हमारे पर बरस रही है, आपके द्वारा। ऐसा हम मानें तो कुछ गलत है?
समाधानः- सब गुरुदेवका प्रताप है।
मुमुक्षुः- भगवान.. भगवान। कुन्दकुन्दाचार्यने भी कभी अपना नाम नहीं आने दिया। .. श्रुतंधर भद्रबाहु .. भगवान। वैसे आप भी कहीं...
समाधानः- सब मूल मार्ग तो गुरुदेवने प्रकाशित किया है। सब गुरुदेवका ही है।
मुमुक्षुः- बात बिलकूल सत्य है, परन्तु आज भी हमें गुरुदेवका स्मरण करवाने वाले भी आप ही हो न।
समाधानः- सब गुरुदेव ही है, अपन तो उनके दास हैं। आप लोग कुछ भी कहो।
मुमुक्षुः- बहिनश्री! हमें ऐसा लगता है, हम गुरुदेवको देखते थे, जब वे आपको आते देखते थे और कभी .. कोई अहोभावसे देखते थे। अहोभावसे। मानो भगवानका एक नमूना आता हो! ऐसा उनको भी लगता था, ऐसा हम बराबर अनुभव करते थे। इसलिये गुरुदेवके हृदयमें आपका स्थान कोई अनेरा था, अनेरा था। आज तक उनके हृदयमें यदि किसीने स्थान जमाया हो तो एक मात्र बहिनश्री है, और कोई नहीं। अत्यंत करुणा थी। बहिनश्रीका नाम आये तो उनका हृदय उल्लसित हो जाता था। पुरुषार्थ.. पुरुषार्थ..
मुमुक्षुः- श्रीमदका अन्दर पढा था, अगासके कोई पुस्तकमें, समीप समय अज्ञात, बस, यह रखना, समीप समय अज्ञात। ...
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मुमुक्षुः- जब अकेला बैठा था तब बारंबार याद आता है कि बहिनश्री जब भाईके लिये विशिष्ट पुरुषकी बात करते हैं, तब विशिष्ट भूतकालके, वर्तमानके या भविष्यके? ये मुझे .. विशिष्ट पुरुष कहते हैं तो विशिष्टताका शब्दार्थ और समय..
समाधानः- कुछ कहना नहीं है, वह तो बोल दिया होगा।
मुमुक्षुः- स्पष्टता होगी तो उसमें किसीको कोई नुकसानका कारण नहीं होगा, लाभका कारण होगा।
समाधानः- गुरुदेवके प्रतापसे सबको आत्माकी साधना करनी है, सबको साधना करनी है।
मुमुक्षुः- ... भाई है या बहन है, ऐसा हम नहीं गिनते। पवित्र आत्माएँ हैं और पवित्र आत्माके पुरुषार्थमें...
समाधानः- आपको जैसा मानना हो वैसा मानो, मैं कुछ नहीं कहती हूँ। बोला होगा, बाकी कुछ नहीं कहना है।
समाधानः- .. धारणामें होता है, लेकिन अन्दर उतनी जिज्ञासा और लगनी हो तो अंतरमें आये। अंतरसे स्वभाव पहचानना चाहिये। अंतरसे स्वभाव नहीं पहचानता, इसलिये धारणामें रह जाता है। स्वयंके पुरुषार्थकी मन्दताका कारण, रुचिकी मन्दता, पुरुषार्थकी मन्दता है इसलिये नहीं होता। तीव्र जिज्ञासा हो, तीव्र लगनी हो तो अंतरमें आता है। अंतरमें क्यों नहीं हो रहा है? विचारमें आता है, अंतरमें क्यों नहीं आता है, ऐसे लगनी लगनी चाहिये। क्यों बाहर ही बाहर रहता है? क्यों अंतरमेंसे नहीं आता? उसकी लगनी अंतरमें लगनी चाहिये, तो होता है।
(लगनी) लगे उसे थोडा समझे तो भी हो जाता है। शिवभूति मुनि कुछ नहीं समझते थे। मात्र प्रयोजनभूत तत्त्वको समझे कि मैं भिन्न और ये शरीर भिन्न, ये विभाव मेरा स्वभाव नहीं है, सबसे मैं भिन्न हूँ, ऐसा भेदज्ञान किया। परन्तु जिसे अंतरसे लगा, अंतरसे आत्माको ग्रहण कर लिया। तो अंतरमें स्वयं गहराईमें ऊतरे तो होता है। गहराईमें ऊतरता नहीं इसलिये ऊपर-ऊपरसे सब चलता रहता है। यदि प्रयत्न करे, भले गहराईमें नहीं जाये परन्तु समझनेका प्रयत्न करे वह भी ठीक है, लेकिन अंतरमेंसे हो, यथार्थ तो तब होता है।