Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 24.

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ट्रेक-०२४ (audio) (View topics)

समाधानः- ... लेकिन इतना गुरुदेवका उपदेश मिला, स्वयं विचार करे कि ये कुछ अपूर्व है, ऐसा बुद्धिपूर्वक भी विचारमें लगे तो उसे अप्रगट है कि नहीं, यह विचारनेका या ढूंढनेका कोई अवकाश ही नहीं रहता है। अपनी बुद्धिमें ऐसा आता हो कि यह कुछ अपूर्व है, ऐसा स्वयंको हृदयमें लगता हो।

मुमुक्षुः- प्रगटमें लगता हो तो फिर अप्रगटमें है ही।

समाधानः- अप्रगटमें सहज ही आता है।

मुमुक्षुः- किस ... उपादान ..

समाधानः- उपादान कारण है, ध्रुव स्वयं उपादान है। मूल वस्तु उपादान है। उसका आधार द्रव्य कहते हैं और ऐसे आधार कहते हैं। गुण-पर्यायसे आत्मा पहचाननेमें आता है। पुनः उसे साधन बताया। आज प्रवचनमें आया था। मूल उपादान तो वस्तु स्वयं है। लेकिन ये तो उससे पहचानमें आता है, पर्याय द्वारा पहचानमें आता है। द्रव्य और गुण पहचानमें आते हैं। गुण द्वारा द्रव्य पहचानमें आता है। इसलिये उसे साधन कहा। मूल वस्तु तो अनादि अनन्त शाश्वत है। द्रव्य और गुण दोनों शाश्वत है।

बाहरमें उपयोग जाता है, लौकिकमें जाता है वहाँ-से थोडा-सा अन्दरमें जाये। अनादिका जो संस्कार है वहाँ भाग जाता है, यहाँ टिकता नहीं। इसलिये बारंबार- बारंबार उसका विचार, वांचन अन्दर बारंबार दृढता करती रहनी। रुचि बढानी, सत्संग हो तो सत्संगसे समझना। बारंबार करना। अनादि कालसे महा मुश्किलसे यह मनुष्यभव मिलता है। तो यह मनुष्यभव तो आत्माका कैसे हो, यहाँ आत्माको पहचाना हो तो उसे भवका अभाव होता है। भवका अभाव नहीं हो, वह तो सम्यग्दर्शन प्राप्त हो तो होता है। परन्तु उसके लिये तैयारीमें जिज्ञासा, भावना, आत्माक कैसे पहचानमें आये, यह शरीर भिन्न, आत्मा भिन्न, दोनों वस्तु ही भिन्न हैं। दोनों तत्त्व भिन्न ही हैं। लेकिन उसे विचार करके नक्की करे।

अन्दर विकल्प होते हैं, वह भी स्वयंका स्वभाव नहीं है। उससे भी आत्मा भिन्न है। सिद्ध भगवान जैसा आत्मा ज्ञानानन्दसे भरा कोई अनुपम तत्त्व है। उसकी महिमा


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लाये, बारंबार उसका विचार करे तो होता है। बारंबार करना। अन्दर शुभभावमें देव- गुरु, जिनेन्द्र देव, गुरु और शास्त्र (होने चाहिये)। अंतरमें आत्माको कैसे पहचानुँ? आत्माकी महिमा आये, आत्मा कोई अपूर्व है, कोई अनुपम है। ऐसा उसके हृदयमें लगे तो उसमें विचार टिके। आत्माकी उतनी महिमा आयी नहीं हो, उतनी रुचि नहीं हो, रुचिकी मन्दता होती है, इसलिये वहाँ टिक नहीं सकता।

कारण दे उतना ही कार्य आता है। स्वयंका पुरुषार्थ मन्द है इसलिये उसका कार्य उतना ही आये। जिसका उग्र पुरुषार्थ है उसे कार्य आता है। अनन्त जीव पुरुषार्थ करके मोक्ष गये हैं, भेदज्ञान कर-करके गये हैं। स्वयंकी स्वानुभूति अंतरमें आत्माकी प्रगट की है, पुरुषार्थ द्वारा भेदज्ञान किया है। शरीर भिन्न आत्मा भिन्न, ऐसा क्षण- क्षणमें जिसकी परिणति हो जाये, सहज हो जाये। एक ज्ञायक आत्माकी परिणति।

ये तो उसे एकत्वका अभ्यास हो रहा है। शरीर और मैं, दोनों एक ही हैं, ऐसा उसे भासित होता है। विकल्पसे भिन्न तो भासित नहीं होता, परन्तु शरीरसे भिन्न भासित नहीं होता। ऐसी एकत्वबुद्धि (तोडनेको) बारंबार उसका अभ्यास करता रहे।

मुमुक्षुः- उसके लिये माताजी! स्वाध्याय पूरा-पूरा होना चाहिये?

समाधानः- हाँ, स्वाध्याय होना चाहिये, विचार होने चाहिये। स्वाध्याय करे तो उसके विचार आये कि इसमें क्या आता है? अनन्त जीव यह मार्ग प्राप्त कर मोक्ष गये हैं। गुरुदेव इस पंचमकालमें (पधारे)। बाहरमें सब थोडा कर ले तो मानो धर्म हो गया, ऐसा मानते हैं। लेकिन वह तो मात्र शुभभाव है, पुण्य बन्धता है, (उससे) देवलोक मिले, उससे भवका अभाव नहीं होता। भवका अभाव तो आत्माको पहचाने तो होता है। गुरुदेवने मार्ग बताया कि आत्मा कोई अपूर्व वस्तु है। मार्ग अंतरमें है, बाहरमें नहीं है। इसलिये करने जैसा वही है। अंतरमें कैसे पहचानमें आये? बारंबार विचार करना, बारंबार वांचन करना, नहीं समझमें तो किसीको पूछना, जो समझते हो उसे।

मुमुक्षुः- वहाँ अभी बन्धका स्वरूप चलता है। शुभभाव भी बान्धता है और अशुभभाव भी बान्धता है, तो पूरा दिना कौन-सा भाव करना?

समाधानः- शुभसे भी बन्ध है, अशुभसे भी बन्धन। उस भावसे भिन्न, आत्मतत्त्व भिन्न है, उस भिन्न आत्माको पहचाने तो अबन्ध परिणाम होते हैं। तो बन्धता नहीं है। शरीर और आत्माकी एकत्वबुद्धिसे बन्धा है। स्वयं ऐसा मानता है, स्वयंको भिन्न नहीं जानता। स्वयंको भिन्न जाने और स्वयंका भिन्न अनुभव करे तो बन्धका अभाव होता है। शुभ और अशुभ दोनों बन्धन करते हैं। उसमें अशुभभावसे बचनेको उसे शुभभाव गृहस्थाश्रममें होते हैं। लेकिन वह शुभभाव मन्द कषाय है, उससे पुण्य बन्धता है।


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गृहस्थाश्रममें अभी आत्माको नहीं पहचाना, जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्रकी भक्ति आये, उसके विचार आये, उसकी महिमा आये, वह बन्धन है, लेकिन वह आये बिना नहीं रहता। जबतक आत्मा पहचाननेमें नहीं आता, तबतक बीचमें आते ही हैं। लेकिन आत्माको जो भिन्न पहचाने, उसे पहचानकर आत्मामें लीन होवे तो वह भाव अबन्धभाव है, वह मुक्त (होता है), अन्दरसे छूटता है। लेकिन अभी आंशिकरूपसे छूटता है। सम्यग्दृष्टि होता है वह आत्माको पहचाने, वह गृहस्थाश्रममें हो तो उसे भी शुभभाव तो आता है। जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्रके विचार आये। परन्तु जैसे-जैसे आगे बढे और स्वयं अन्दर आत्मामें लीन होते जाये, वैसे वह शुभभाव भी छूटते जाते हैं। ऐसा करते-करते मुनिदशा आती है, तब आत्मामें बहुत लीन होते हैं। क्षण-क्षणमें आत्मामें लीन होते हैं। इसलिये उन्हें शुभाशुभ दोनों भाव इतने कम हो जाते हैं, और आत्मामें लीन हो जाये तो वह शुभभाव छूट जाते हैं। आत्माको पहचानकर आत्मामें लीन होवे तो वह शुभाशुभ भावसे रहित होता है।

मुमुक्षुः- मध्यस्थ भाव.. माताजी!

समाधानः- शुभ और अशुभ दोनों बन्धनका कारण है, ऐसा बराबर जानना। सुवर्णकी बेडी और लोहेकी बेडी दोनों बन्धन करती है। परन्तु जबतक आत्माको भिन्न नहीं पहचाना है, तबतक स्वर्ण बेडीरूप जो शुभभाव है, वह बीचमें आये बिना नहीं रहते। इसलिये वह यदि गृहस्थाश्रममें शुभमें नहीं खडा रहेगा तो अशुभमें चला जायेगा। तो उससे तो पाप बन्धता है, उससे नरक, निगोद होता है। और इस शुभभावसे भवमें देवलोक मिले या ऐसा कुछ होता है, लेकिन वह भव तो प्राप्त होगा ही। शुभभावसे भगवान मिले, गुरु मिले परन्तु भव तो चालू ही रहेंगे। उससे रहित आत्माको पहचाने तो भवका अभाव होता है। इसलिये वह तो बीचमें आते हैं। लेकिन उससे भिन्न आत्माको पहचाननेका प्रयत्न करना। कैसे पहचानमें आये? उसका अभ्यास करना, बारंबार विचार करना। उससे तीसरा भाव आत्माको पहचानना वह है।

(आत्माकी) अनुभूति हो, उसमें लीन हो जाये, बाहरकी कुछ खबर नहीं रहे, अन्दर ऐसा लीन हो जाये, वह तीसरा भाव है। परन्तु पहले वह नहीं हो तो उसकी श्रद्धा करे कि इन दोनों भावसे रहित आत्माका स्वरूप है। उससे नहीं हो सके तो पुरुषार्थ मन्द हो तो श्रद्धा तो बराबर करे। आचार्यदेव कहते हैं, तुझसे नहीं हो सकता है तो श्रद्धा बराबर करना कि ये दोनों भाव बन्धका कारण है। लेकिन उससे भिन्न भाव, जो ज्ञायक जानने वाला है, वह मोक्षका कारण है, ऐसी श्रद्धा तो बराबर करना। नहीं हो सके तो श्रद्धा तो बराबर रखना। शुभभाव जो है वह तो बीचमें आयेंगे। अशुभभावसे बचनेको वह पुण्यभाव बीचमें आयेंगे। परन्तु तू श्रद्धा बराबर रखना, नहीं


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हो तो। श्रद्धामें ऐसा मत करना कि ये शुभभाव है, उससे देवलोक मिलेगा। ऐसी इच्छा मत करना। भिन्न आत्मा है, उसकी श्रद्धा करना।

मुमुक्षुः- उस श्रद्धाका फल ..

समाधानः- ऐसी श्रद्धा रखे उसमें जो विकल्प आये वह शुभभाव, पुण्यबन्धका कारण है। विकल्प पुण्यबन्धका कारण है। श्रद्धा तो उसे आगे बढनेका कारण बनती है। विकल्प पुण्यबन्धका कारण है।

मुमुक्षुः- इस भवमें बहुत प्रयत्न करनेके बाद भी, देव-गुरु-शास्त्र सबका योग है, फिर भी नहीं हो, जीवकी उन्नति नहीं हो तो इस परिणामसे यही चीज टिक सकती है?

समाधानः- स्वयंकी तैयारी हो तो टिक सकती है। ऐसे गहरे संस्कार डाले कि मुझे यही चाहिये। ऊपर-ऊपरसे हो तो नहीं रहता। गहरे संस्कार हो तो टिकता है। मुझे यही चाहिये, आत्मा ही चाहिये, और कुछ नहीं चाहिये। ऐसे गहरे संस्कार हो तो वह दूसरे भवमें टिकते हैं। अन्दर गहराईसे (होना चाहिये)। स्वयंको अन्दरसे रुचि होनी चाहिये तो टिकता है। और वह शुभभाव भी ऐसे होते हैं कि उसे साधन भी वैसे मिल जाते हैं। गुरु मिले, देव मिले। गहरी रुचि हो तो होता है। संस्कार गहरे होने चाहिये।

समाधानः- ... सत्य तो सरल और सुगम है, लेकिन सत्य खोजनेको चर्चा, राग-द्वेष आदि समझनेके लिये नहीं होते हैं। जिज्ञासु हो उसे समझनेके लिये होते हैं। तत्त्व क्या है उसका विचार, उसकी खोज, अन्दरसे मंथन आदि हो। विचार, वांचन (आदि होते हैं)। तत्त्व समझनेमें राग-द्वेष नहीं होते।

मुमुक्षुः- अधिकसे अधिक संघर्ष, सत्यको समझनेकी योग्यताके लिये है या किसके लिये है? हमारे जैसे भी..

समाधानः- बाहर तो शुभ विकल्प आये इसलिये... उसके लिये संघर्षमें जाना, ऐसा कुछ नहीं होता। वह तो स्वयंको स्वयंका करना है। बाहर तो शुभ विकल्प आये। स्वयंको द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव (ऐसे) लगे तो कहे, नहीं लगे तो नहीं कहे। उसके लिये संघर्ष करना, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। वह उसे रोकता नहीं। स्वयं विचार करके अंतरमें समझना है।

मुमुक्षुः- सत्य कोई ऐसे प्रकारसे है कि जिसे समझनेके लिये भिन्न-भिन्न मनुष्यको भिन्न-भिन्न प्रकारसे सत्य प्राप्त हो?

समाधानः- भिन्न-भिन्न प्रकारसे नहीं। अंतरमें तो मार्ग एक ही है। मार्ग अलग


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नहीं है। विचार करे, वांचन करे, स्वाध्याय करे। मूल प्रयोजनभूत तत्त्वको जानना चाहिये। अधिक जाने इसलिये समझमें आये या अधिक पढे तो समझमें आये ऐसा कुछ नहीं है। प्रयोजनभूत समझे तो आत्माको पहचाने। आत्माके द्रव्य-गुण-पर्याय क्या है, परपदार्थ क्या है, विभाव क्या है, स्वभाव क्या है, (ऐसा) प्रयोजनभूत समझे तो मुक्तिका मार्ग होता है। ज्यादा समझे और बहुत पढे, ऐसा कोई उसका अर्थ नहीं है। बीचमें अशुभभावसे बचनेको शुभभाव आते हैं, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, शास्त्र स्वाध्याय आदि होता है, तत्त्वका विचार होता है, प्रयोजनभूत तत्त्वको जाननेके लिये। विशेष जाने तो उसे ज्ञानकी निर्मलता होती है, उसमें कोई नुकसान नहीं है। लेकिन ज्यादा जाने और ज्यादा पढे तो ही होता है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है।

शिवभूति मुनि कुछ नहीं जानते थे। याद नहीं रहता था। बाई दाल धो रही थी। छिलका भिन्न और दाल भिन्न, ऐसा भिन्न समझकर (याद आ गया कि), मेरे गुरुने ऐसा कहा है, ऐसा समझकर यह आत्मा भिन्न, शरीर भिन्न और विभावस्वभाव मेरा नहीं है, इसप्रकार भेदज्ञान करके अंतरमें ऊतर गये। ज्ञायकको पहचानकर, भेदज्ञान करके स्वरूपमें लीन हो गये तो उन्हें मार्ग प्राप्त हो गया। श्रेणि लगाकर केवलज्ञान हो जाये। प्रयोजनभूत जाने उसमें सब आ जाता है।

मुमुक्षुः- प्रयोजनभूतके ऊपर कोई नाम तो नहीं लिखा होता कि यह प्रयोजनभूत है। प्रयोजनभूतको नक्की कैसे करना?

समाधानः- प्रयोजनभूत-स्व-परका भेदज्ञान करना यह प्रयोजनभूत है। स्वयंके द्रव्य- गुण-पर्याय और अन्यका, परद्रव्यका स्वभाव और स्वद्रव्यके स्वभावको भिन्न करना, यह प्रयोजनभूत है। मूल वस्तु चैतन्यको पहचानना। ज्ञायक, ज्ञायक वस्तु स्वभावसे एक है। उसमें गुण और पर्याय, लक्षणभेदसे भेद है, मूलमें भेद नहीं है। उसमें गुण लक्षणसे भिन्न हैं। ऐसे द्रव्य-गुण-पर्यायका स्वरूप पहचाने। उसका परिणमन होता है वह पर्याय है। इसप्रकार मूल वस्तुको समझे। द्रव्य-गुण-पर्यायको (समझे), यह सब मूल प्रयोजनभूत है।

तत्त्वकी सब बात समझे, यह प्रयोजनभूत है। मूलभूत वस्तु। तिर्यंचको नौ तत्त्वके नाम भी नहीं आते, तो भी अन्दरमें मैं यह हूँ और यह विभाव है (ऐसा) समझता है। अन्दरमें साधकदशा प्रगट होती है। उसे संवर आ जाता है, आगे बढने पर निर्जरा होती है, सब उसमें आ जाता है, नाम नहीं आते हैं फिर भी। कर्मकी सत्ता कितनी, उसकी प्रकृति, उसका क्या, उसका रस कितना, उसकी स्थिति कितनी आदि कुछ नहीं आता। उसे देवलोक क्या, नर्क क्या, उसके भेद, कहाँ-से कहाँ जाता है और कहाँ-से कहाँ जाता है, वह सब नहीं आता है। सत्ता, स्थिति, प्रकृति आदि कुछ नहीं आता है। मूल प्रयोजनभूत तत्त्व भेदज्ञान आता है।


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मुमुक्षुः- पर्याय है। पारिणामिकभाव है उसमेंसे पर्याय निकलती है, उसमें समाविष्ट हो जाती है। अर्थात केप्सुल होती है, दवाई, फिर केप्सुलमें कुछ नहीं होता, लेकिन जो दवाई उसमें भरे, वह केप्सुल उसकी कही जाती है। वैसे जो वर्तमान-वर्तमान परिणति है, पर्याय, वह उसमेंसे निकलती है और उसमें समाविष्ट हो जाती है। समा जाती है तब खाली हो जाये। अर्थात निकलते समय और दाखिल होते समय बिलकूल खाली- खाली होती है। इसलिये पारिणामिकभावको कोई तकलीफ नहीं होती।

समाधानः- तकलीफ तो किसीको नहीं होती। वह तो भरा हुआ तत्त्व है। वह कोई खाली केप्सुल नहीं है।

मुमुक्षुः- खाली रहे फिर भर जाये। भरा हुआ कितने समय रहे? एक समय रहे? फिर खाली हो जाये?

मुमुक्षुः- अभी एक चर्चा निकली। पर्याय है वह निकलती है, फिर पर्याय फिरसे दाखिल हो जाये।

मुमुक्षुः- पर्यायका समय तो एक समय है।

समाधानः- खाली केप्सुलमें दवाई भरनी हो तो दवाई बाहर निकल जाये, फिर वही दवाई अन्दर प्रवेश कर ले, ऐसा?

मुमुक्षुः- परपदार्थके कारण रागक-द्वेष होता है। राग-द्वेष होता है उसका कारण बाह्य संयोगमें जुडता है। पर्याय तो रूखी ही है। फिरसे बाहर जाये तब खाली होकर जाये।

समाधानः- ... सुखसे भरा आत्मा है। वह अनन्त पारिणामिकभाव है। वह खाली भी नहीं होता और भरता भी नहीं है, जैसा है वैसा है। उसकी पर्यायें परिणमति हैं।

मुमुक्षुः- पर्यायका उत्पाद होता है और पर्यायका व्यय होता है। तो पर्याय कैसे निकलती है?

समाधानः- पर्याय अन्दर परिणमति है। उसके कार्य आते हैं। जो अनन्त गुण भरे हैं, जैसे ज्ञानलक्षण है (तो) ज्ञानका जाननेरूप कार्य आता है। वह उसका उत्पाद है। जो उसके गुण हैं, वह गुण गुणका कार्य करते हैं, वह उसकी पर्याये हैं। वह परिणमति रहती हैं। प्रकाशका प्रकाशरूप परिणमन होता है, लवणका लवणरूप-खारापनेरूप परिणमन होता है। ज्ञानका जाननेरूप परिणमन होता है। गुण स्वयं अपना कार्य करते रहते हैं।

मुमुक्षुः- विपरीतता होती है उसे कहीं-से भी दाखिल करनी है। खाली हो तो ही विपरीतताका प्रवेश हो सके न?

समाधानः- विपरीतता स्वयं स्वयंकी (है)। स्फटिक निर्मल है। बाहर निमित्त आया


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तो स्फटिक स्वयं लालरूप परिणमता है। कहींसे नहीं आता।

.. घोटाला करता रहता है। स्वयं ही पुरुषार्थकी मन्दतारूप परिणमता है। पर्याय कोई घोटाला नहीं करती। द्रव्य-गुण-पर्याय वस्तुका स्वरूप ही है। एक दूसरेके बिना एक दूसरे होते ही नहीं। अनन्त गुण आत्मामें हैं। वह गुण अपना कार्य नहीं करे तो (गुण कैसा)? द्रव्य गुण बिनाका हो तो वह द्रव्य कैसा? गुण स्वयं अपना कार्य न करे तो वह गुण कैसा? द्रव्य-गुण-पर्याय, पर्याय कोई घोटाला नहीं करती।

सिद्ध भगवानको अनन्त गुण-पर्याय परिणमते रहते हैं। आनन्दगुण, ज्ञानगुण है वह परिणमता रहता है। परिणमन किया, वह पूरा हो गया इसलिये दूसरे समय खाली हो गया, ऐसा नहीं है। वह तो अनन्त काल तक परिणमता रहे तो भी थोडा-सा भी अन्दर खाली नहीं होता। उतनाका उतना आनन्द भरा है और उतनाका उतना ज्ञान भरा है। उत्पाद-व्यय होते ही रहते हैं। उत्पाद और व्यय। व्यय हो गया इसलिये सब खलास नहीं हो जाता। वैसाका वैसा भरा है। अनन्त भरा रहता है।

मुमुक्षुः- अनन्त सामर्थ्य वाली पर्याय होने पर भी अनन्तमेंसे कुछ खाली नहीं होता?

समाधानः- अन्दरमें कुछ खाली नहीं होता, अनन्त भरा ही है। मुुमुक्षुः- उतनाका उतना पूरा भरा रहता है? समाधानः- पूराका पूरा भरा रहता है, थोडा भी खाली नहीं होता। ज्ञानने एक समयमें जान लिया, अब दूसरे समय क्या जानेगा, ऐसा नहीं है। उतनाका उतना अनन्त भरा है।

मुमुक्षुः- ... पूर्ण निकालो और पूर्णका पूर्ण रहे।

समाधानः- अनन्त कभी खत्म ही नहीं होता। स्व-परप्रकाशक ज्ञान एक समयमें लोकालोक पूरा जान लिया। तो भी दूसरे समय उतना ही जाननेका अनन्त सामर्थ्य भरा है। उतना लोकालोक है, वह ज्ञेय है उतना ही जाना (ऐसा नहीं), अनन्त लोकालोक हो तो भी उसे जाननेका अंतरमें सामर्थ्य है।

मुमुक्षुः- चमत्कारिक अमृतका घडा, बहिनश्रीने लिखा है।

समाधानः- .. अनुभवमें आ गया इसलिये दूसरे समय खलास हो गया, ऐसा नहीं है। अनन्त काल पर्यंत परिणमता रहे तो भी उतनाका उतना है।

मुमुक्षुः- पाँच लड्ड थे, उसमेंसे चार खाये तो एक ही बाकी रहे न?

समाधानः- वह अलग बात है। वह तो पुदगलकी बात है, यह तो स्वभावकी बात है।

मुमुक्षुः- अक्षिण ऋद्धि वालेको भी लड्ड कम नहीं होते। लाख्खों लोग आये


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तो भी पाँच लड्डमें सबका हो जाता है।

समाधानः- मुनिओंको ऐसी ऋद्धि प्रगट होती है कि जिसके घर आहार ले, अक्षिण ऋद्धि हो तो खत्म ही नहीं हो।

मुमुक्षुः- ऐसी लालसा हमें रहा करती है कि ऐसी कुछ ऋद्ध हमें दीजिये कि जिससे..

समाधानः- ऐसी ऋद्धिको क्या करना? अन्दर आत्माकी ऋद्धि प्रगट हो, स्वभावका भेदज्ञान हो और मुक्तिका मार्ग प्रगट हो, वह ऋद्ध है। ये सब तो बाह्य (ऋद्धि हैं)। मुनिओंको अंतर दशामें सहज प्रगट हो जाती है। उन्हें उसका कोई ध्यान भी नहीं होता। मेरु पर्वत पर मुनिको वैक्रियक शरीरकी ऋद्धि प्रगट हुयी तो ध्यान भी नहीं रहा कि वैक्रियक शरीरकी ऋद्धि प्रगट हुयी है। बालि मुनिने ५०० मुनिओंको उपसर्ग दिया था। उन्हें कहा कि, ऐसा उपसर्ग है। (मुनिराजको) ऋद्धि थी यह भी मालूम नहीं था। हाथ ऐसा किया तो मालूम हुआ कि वैक्रियक शरीरकी ऋद्धि है। मुनिओंका ऋद्ध पर ध्यान भी नहीं है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!
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