Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 26.

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ट्रेक-०२६ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- .. होने पर भी मात्र अशुद्धरूप क्यों परिणमता है? परका संग करता है तभी अशुद्धरूप उत्पन्न होता है। उसमें क्या कहना है?

समाधानः- पारिणामिक, स्वभाव पारिणामिक है, लेकिन वर्तमान पर्याय तो अशुद्धरूप परिणमती है। स्वयं पर ओर जाता है, अपने पुरुषार्थकी मन्दता है, इसलिये उसे जो उदय आता है, उसमें स्वयं जुड जाता है। सबमें पुरुषार्थकी मन्दता है। स्वयंकी ओर मुडता नहीं, सबमें स्वयंका ही कारण है। उसे किसीका कारण लागू नहीं पडता। अकारण पारिणामिक द्रव्य है। उसे कोई रोकता नहीं, कर्म रोकते नहीं, कोई नहीं रोकते। स्वयं रुका है, स्वयंसे। अपनी रुचि बाहर जाती है। निमित्तकी असर स्वयंको होनेका कारण स्वयंका है, दूसरेका नहीं है।

मुमुक्षुः- परसंग कुछ नहीं करवाता होगा?

समाधानः- परसंग कुछ नहीं करवाता, स्वयंकी क्षतिके कारण परकी असर स्वयंको होती है। परन्तु स्वयंके पुरुषार्थकी मन्दता हो तो स्वयं ऐसे निमित्त, सत्संग आदि निमित्तोंमें सत्संग करे। स्वयंकी उतनी शक्ति नहीं हो, निमित्तसे छूटकर अपना कर सके ऐसी, पुरुषार्थकी मन्दता हो तो देव-गुरु-शास्त्रका सान्निध्य हो वहाँ रहनेका विचार, उसकी भावना करे। ऐसा समागम, योह नहीं हो तो स्वयं अपने पुरुषार्थसे दृढ रहे।

मुमुक्षुः- पुरुषार्थकी मन्दता हो तो ऐसे संगसे उसे लाभ होनेका कारण है?

समाधानः- पुरुषार्थकी मन्दता हो तो ऐसा समागम निमित्त है, तैयारी तो स्वयंको करनी है। जिसे लगनी होती है, उसे स्वयंको असर होती है। अपनी लगन लगी हो उसे भावना होती ही है कि देव-गुरु-शास्त्रका सान्निध्य प्राप्त हो, समागम प्राप्त हो, ऐसे विचार उसे आते ही हैं, जिसे लगन लगी हो उसे। दूसरोंके परिचयमें आनेकी उसे रुचि नहीं होती, जिसे आत्माकी रुचि है उसे। फिर बाह्य संयोगके कारण आ जाये वह अलग बात है, परन्तु उसको स्वयंको रुचि नहीं होती।

मुमुक्षुः- परसंग ही करवाता है।

समाधानः- शास्त्रमें अनेक प्रकारकी बातें आती हैं। निमित्तकी ओरसे बात आये, उपादानकी ओरसे बात आये। सब प्रकारकी बात आये, उसमें नक्की स्वयंको करना


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है। ज्ञायककी बात आये। एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका कुछ करता नहीं ऐसा आये, द्रव्य- गुण-पर्याय अपने आपसे स्वतंत्र है। दूसरेके स्वतंत्र है। क्रिया, कर्ता एवं कर्म सब स्वयंका है, ऐसा भी आये। और निमित्त करवाता है, ऐसा भी आये। परसंग ही करवाता है, ऐसा भी आये। उन दोनोंका मेल स्वयंको करना पडता है। तू निमित्त छोड, ऐसा सब आये, उसका मेल स्वयंको करना पडता है।

मुमुक्षुः- मेल कैसे करना? दोनों शास्त्रके कथन है।

समाधानः- सब आचायाके कथन हैं। व्यवहार शास्त्रमें, तत्त्वार्थ सूत्र आदिमें व्यवहारकी बात आये और अध्यात्ममें अध्यात्मकी बात आये। उन सबका मेल करना पडता है। वह आचार्य भी छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें झुलने वाले थे, व्यवहारकी बात करते हैं। अध्यात्मकी बात करते हैं, वह भी छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें झुलने वाले थे। दोनों आचार्य इस प्रकार कहते हैं, इसलिये उसका स्वयंको मेल करना पडता है। अपेक्षा समझनी।

आचार्यदेव कहते हैं, कोई द्रव्यदृष्टिकी बात, कोई पर्यायकी बात करे, कोई निमित्तकी बात करे, कोई उपादानकी बात करे, अनेक जातकी बात आती है। (स्वयं) मेल कर लेता है, वह कोई नहीं करवाता। अन्दर लगन लगी हो वही अन्दर मेल कर लेता है। स्वयं ही। वस्तु स्वयं अनेकान्तमय मूर्ति-अनेकान्त स्वरूप है। अनन्त धर्मसे भरी अनेकान्तमय मूर्ति (है)। इसलिये उसकी सभी बातें अनेकान्तमय होती हैं। द्रव्यदृष्टिकी, पर्यायकी अनेक प्रकारकी बात होती है, उसमेंसे स्वयंको मेल करना पडता है।

वस्तु द्रव्य, गुण और पर्याय वाली है। अकेला द्रव्य है, गुण नहीं है, पर्याय नहीं है ऐसा नहीं है। द्रव्य, गुण, पर्याय सब द्रव्यमें है। भेद अपेक्षा आये, अभेद अपेक्षा आये।

... शास्त्रमें क्या आता है, गुरुदेवने क्या बताया है, उनके प्रवचन, मूल शास्त्र समयसार, प्रवचनसार दोनोंमें आता है कि आत्माका स्वरूप क्या है, जाननेके लिये स्वाध्याय करना प्रयोजनभूत है। वह सब होता है, परन्तु करना अंतरमें है। गुरुदेवने मार्ग दर्शाया, उसका साथमें ध्येय होना चाहिये। नहीं हो तबतक यह सब होता है। पूजा, स्वाध्याय, भक्ति। और सच्चा समझ, आगे जानेके लिये सच्ची समझ और अंतरकी लगनी और वह सच्ची समझ-सच्चा ज्ञान होनेके लिये स्वाध्याय जरूरी है। (आत्माका) ध्येय रखना, उसमें सर्वस्व नहीं मान लेना। करनेका अंतरमें है, वह जबतक नहीं होता तबतक स्वाध्याय, पूजा, भक्ति आदि होता है।

.. अनन्त कालमें बहुत हुआ। सबको ऐसा (भाव रहता है कि), आत्माका करना, लगनी लगाये, ध्येय ऐसा रहता है और स्वाध्याय आदि सब करता है। दर्शन, पूजन सब होता है। जहाँ गुरुदेवका मुमुक्षु मण्डल है वहाँ सब होता है। सर्वस्व आत्मामें


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है। कल्याण अंतर दृष्टिमें है।

मुमुक्षुः- ... ज्ञानमें पर भिन्न है और मैं ज्ञायक भिन्न हूँ, राग मेरा स्वरूप नहीं है, वह भी मेरेसे (भिन्न है), ऐसा बारंबार अभ्यास करनेसे उसके प्रति विरक्ति भाव सहज ही आ जाता होगा?

समाधानः- मैं ज्ञायक हूँ और यह भिन्न है, राग भिन्न है। ऐसा बारंबार करनेसे विरक्ति भाव आये, ऐसा नहीं। जिसे अंतरमेेंसे उसका रस छूट जाये, उसे भेदज्ञानका बारंबार अभ्यास चलता है। प्रयास करनेसे विरक्ति आये ऐसा भी होता है और विरक्ति हो तो उससे भेदज्ञानका अभ्यास हो। ज्ञायकमें सब है, सबकुछ ज्ञायकमें है, सब ज्ञायकमें है, यह राग तो आकूलतामय है। इसप्रकार रागसे स्वयं पीछे हटे तो अन्दर मैं ज्ञायक हूँ, यह मैं नहीं, मैं ज्ञायक हूँ, यह मैं नहीं। जिसे रागका रस है वह रागसे भिन्न नहीं पडता। जिसे रागका रस छूट जाता है, वह रागसे भिन्न होता है।

रागसे भिन्न पडनेका प्रयत्न कब करे? कि रागका रस छूटे तो रागसे छूटनेका प्रयत्न करे। रागमें रस, एकत्वबुद्धि हो वह भिन्न नहीं पडता। रागका रस छूटकर अंतरमें ज्ञायकका रस लगे, ज्ञायककी महिमा लगे, ज्ञायकमें ही सबकुछ है। ज्ञायकका रस लगे, उसकी रुचि लगे और रागका रस छूटे तो उससे भिन्न पडता है।

मुमुक्षुः- रागका रस छूटे कि राग आकूलतारूप है,...

समाधानः- आकूलतारूप है। सुखरूप नहीं है, आकूलतामय है। मेरा स्वभाव नहीं है। स्वयंको ऐसा निश्चय हो, उसका रस छूटे, ऐसी प्रतीत आये तो उससे भिन्न पडनेका प्रयत्न करे। सच्ची यथार्थ प्रतीति अलग है, परन्तु पहले भी उसे रागका रस छूटे, यह मेरा स्वभाव नहीं है, आकूलतारूप है, दुःखरूप है, ऐसा उसे लगे तो उससे छूटनेका प्रयत्न करे। और उससे भेदज्ञान करनेका प्रयत्न करे। मैं ज्ञायक जानने वाला, मैं सबसे उदासीन, यह मेरा स्वरूप नहीं है, ऐसे भिन्न पडनेका प्रयत्न करे। और इस ओर ज्ञायककी महिमा आये तो रागका रस छूटे। ज्ञायककी महिमा आये तो ही उसका रस छूटे। राग आकूलतारूप लगे। समस्त प्रकारका विभावभाव आकूलतारूप है, ऐसा उसे अंतरसे लगे।

वह आगे नहीं बढ सके और शुभभावमें खडा रहे, वह अलग बात है, परन्तु उसे प्रतीतमें ऐसा लगे कि सब आकूलतारूप ही है। अन्दरसे बराबर श्रद्धा होनी चाहिये। तो उसे भिन्न पडनेका प्रयत्न (चले)।

मुमुक्षुः- ...

समाधानः- वह तो विशेषता ही है। जैनदर्शन यथार्थ है। एक-एक पक्ष। कोई आत्माको एकान्त-एकान्त कहता है। एकान्त नित्य कहे, कोई एकान्त अनित्य कहता


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है, कोई किसीसे मुक्ति कहे, कोई किससे मुक्ति कहे, उसमें तो बहुत फेरफार है। जैनदर्शन तो यथार्थ है। आत्माके द्रव्य-गुण-पर्याय सब यथार्थ बात आती है। अपेक्षासे आत्मा नित्य शाश्वत है, उसकी पर्यायमें अनित्यता है, बाकी वास्तविक वस्तु अनित्य नहीं है। बहुत प्रकारकी (बात) अन्दर (है)। मुक्तिका मार्ग आत्माको पहचाने तो होता है। भेदज्ञान करे। बहुत फेरफार है। स्वानुभूति कैसे हो? जैनमें यथार्थ मार्ग है, ऐसा मार्ग कहीं नहीं है। सबमें फेरफार है।

मुमुक्षुः- जैनमें हम जन्मे इसलिये मान लेना कि जैन ही सत्य है।

समाधानः- जन्म हुआ इसलिये मान नहीं लेना, लेकिन विचार करके मानना कि यथार्थ जैनदर्शन सत्य ही है। विचार करे, यथार्थ जिज्ञासा हो तो आत्माका करना ही है तो यथार्थ मार्ग क्या है, उसे स्वयं पहचान सकता है। यथार्थ सत्पुरुषको पहचान ले, आत्माका स्वरूप कैसा, कौन-सा मार्ग सच्चा है, वह समझ सकता है। और अपनी उतनी शक्ति नहीं हो तो स्वयं जो महापुरुष हो गये, उनकी बातका स्वयं स्वीकार करके, स्वयं विचार करके निर्णय करे। ये वीतरागी मार्ग है। अन्यमें तो कोई-कोई फेरफार है। गुरुका, शास्त्रमें सब अलग आता है।

स्वतंत्रता जो जैनदर्शनमें आती है, ऐसी दूसरेमें आती नहीं। कोई कर देता है, किसीसे होता है, किसीको कोई देता है, ऐसी अनेक जातकी विपरीतता है। ऐसा नहीं हो सकता। आत्मा स्वतंत्र है।

मुमुक्षुः- सभी दर्शन वाले कहते हैं, हमारा भी सत्य है।

समाधानः- प्रत्येक दर्शन वाले कहे, लेकिन विचार करके स्वयंको नक्की करना चाहिये। मुक्ति होनेके बाद वापस आता है, ऐसा अनेक प्रकारका आता है। सब आत्मा एक है। सब एक हो तो प्रत्येकके सुख-दुःखका वेदन भिन्न-भिन्न होता है, प्रत्येककी स्वतंत्रता (है)। किसीका वेदन अन्य किसीको नहीं होता। विचार करके सब नक्की हो सके ऐसा है। पुरुषार्थ किसके लिये करना? स्वयंके लिये। स्वयं स्वतंत्र है।

मुमुक्षुः- पुरुषार्थ कैसे करना? और भेदज्ञानकी रीत क्या है?

समाधानः- पुरुषार्थ आत्माको पहचाननेका (करन)। मैं एक जानने वाला हूँ, विचार करके नक्की करे कि ये जानने वाला जो अन्दर है वही मैं हूँ। ये जड कुछ नहीं जानता। अन्दर संकल्प-विकल्प राग-द्वेष होते हैं, वह भी स्वयंको नहीं जानते। उसे जानने वाला अन्दर कोई अलग ही है। पहले बचपनमें जो-जो भाव आये वह भाव तो चले गये, विकल्प (चले गये) और जानने वाला ऐसा ही खडा है। वह जानने वाला सब अन्दर याद करने वाला भिन्न है और ये संकल्प-विकल्प सब भिन्न हैं। शरीर भी भिन्न है, इसप्रकार विचार करके नक्की कर सकता है। अन्दर जो जानने


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वाला है, वह मैं हूँ। मात्र दूसरेको जाने इसलिये जानने वाला है ऐसे नहीं, परन्तु जानने वाला स्वयं जानने वाला ही है।

जैसे यह एक जड वस्तु स्वयं है। वैसे आत्मा जानने वाला भी एक स्वयंसिद्ध वस्तु है। जानने वाला मैं हूँ। इसप्रकार जानने वालेको नक्की करके दृढ निर्णय करना कि यह जानने वाला ही मैं हूँ, उससे ये सब भिन्न है। ये जड शरीर भिन्न, आत्मा भिन्न, विकल्प आकर चले जाये वह मेरा स्वभाव नहीं है। वह सब भिन्न, मैं भिन्न। स्वयंको स्वयंसे नक्की करके भेदज्ञान करनेका प्रयत्न करना। पहले उसकी प्रतीत दृढ करे कि ये जानने वाला है वही मैं हूँ, अन्य नहीं। ऐसा नक्की करके जानने वाला शाश्वत है, उसमें गुण है, जानने वाला ज्ञानसे भरा, आनन्दसे भरा, अनन्त गुणसे भरा आत्मा महिमावंत है। उसकी महिमा लाकर, उसकी प्रतीत लाकर दृढ निर्णय करे और उसका प्रयास करनेका प्रयत्न करे।

एकत्वबुद्धि अनादिसे हो रही है, उसे बारंबार प्रतिक्षण भिन्न करनेका प्रयत्न करे। विचार करके, निर्णय करके, जब तक नहीं होता तब तक शास्त्रका अभ्यास करे, स्वाध्याय करे, विचार करे, वांचन करे, बारंबार उसकी लगनी लगाये तो होता है। भेदज्ञान करनेका प्रयास करे, मैं भिन्न हूँ। उससे (-परसे) भिन्न पडे, संकल्प-विकल्प आये उसमें एकत्व नहीं हो और रस छूट जाये। जिसे आत्माकी ओर रस लगा, उसे मन्द पड जाता है, सब छूट नहीं जाता, मन्द पड जाता है। ये जानने वाला ज्ञायक है वही मैं हूँ। भेदज्ञान करना वही मार्ग है। और उसका प्रयास करते-करते यदि अंतरसे सच्चा प्रयत्न हो तो उसे स्वानुभूति भी उसी भेदज्ञानके मार्गसे होती है। दूसरा कोई मार्ग नहीं है।

अभी कितने ही समझे बिना ध्यान करने बैठ जाते हैं। परन्तु समझ बिनाका ध्यान तरंगरूप हो जाता है। पहले मार्ग जानना चाहिये, यथार्थ ज्ञान करना चाहिये कि जानने वाला है वही मैं हूँ। इसप्रकार जानने वालेकी प्रतीति करके उसमें लीनता करे, एकाग्र हो तो सच्चा ध्यान होता है। नहीं तो सच्चा ध्यान नहीं होता। ध्यानमें बैठे तो विकल्प मन्द पडे, तो मानो कुछ हो गया, ऐसा मान लेता है। यथार्थ भेदज्ञान करे, आत्माको पहचाने और उसमें ध्यान हो तो यथार्थ होता है। पहले भेदज्ञान करनेका प्रयास करे। द्रव्यको पहचाननेका (प्रयास करे), द्रव्य पर दृष्टि स्थिर करे कि, यह द्रव्य है वही मैं हूँ, बाकी सब मुझसे भिन्न है। अपने द्रव्यको पहचाने, गुण और पर्याय, सबका स्वरूप पहचाने। यह चैतन्यद्रव्य है वही मैं हूँ, ऐसी दृढता करे।

पहले मार्गको नक्की करना। स्वभावको बराबर विचारे। अपने हाथकी बात है, जिज्ञासु नक्की करता है। ... गुरुदेवने वाणी बरसायी, सब लोग कहाँ थे, ये वीतरागी मार्ग यथार्थ है, कितने ही रीतसे स्पष्ट कर-करके समझाया है। कहीं किसीको पूछने जाना


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पडे ऐसा नहीं है। स्वयंको प्रयत्न करना बाकी है, इतना गुरुदेवने स्वानुभूतिका मार्ग दर्शाया है। पहलेसे समझा दिया है। कोई शंका ही नहीं रहे। कोई दूसरे दर्शन क्या कहते हैं, उसकी भी शंका नहीं रहे, ऐसा उनकी वाणीमें सब स्पष्ट आता था।

मुमुक्षुः- भले सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हो, लेकिन उसके जो संस्कार है, वह कितने प्रमाणमें अपने साथ आते हैं?

समाधानः- गहरे संस्कार हो तो साथ आते हैं। ऊपर-ऊपरसे हो, जैसे बाकी सब रूढिगत रूपसे धर्म करते हैं कि धर्म करना चाहिये, ऐसे रूढिगतरूपसे हो तो साथ नहीं आते। परन्तु गहरे संस्कार हो और अन्दर सच्ची लगन लगी हो कि मुझे आत्मा प्राप्त करना ही है, मुझे आत्मा कैसे प्राप्त हो, ये विभाव मुझे नहीं चाहिये, ये सब आकूलतारूप है, मुझे आत्मा कैसे मिले, ऐसी अन्दरकी लगन लगी हो तो वह साथ आते हैं।

मुमुुक्षुः- ऐसी लगन लगी हो, परन्तु उतना भेदज्ञान नहीं किया हो तो? समाधानः- भले भेदज्ञान नहीं किया हो, लेकिन लगन लगी हो तो वह लगनी, स्वयंकी लगनी अंतरकी हो तो वह साथ आते हैं, भेदज्ञान भले नहीं हो।

मुमुक्षुः- .. शुरूआत करने के लिये भेदज्ञान विशेष कैसे करना? समाधानः- पहले तो आत्माको पहचानना कि आत्मा कौन है? मैं एक आत्मा हूँ, ये जानने वाला, जानता है वह मैं हूँ, ये जानता नहीं है वह जड है। अन्दर जो जानने वाला है, वह मैं हूँ। जानने वाला ज्ञान, आनन्दसे भरा आत्मा है। उस आत्माका विश्वास करना कि यह आत्मा जानने वाला है वही मैं हूँ। अन्दर जो आकूलता होती है, संकल्प-विकल्प, अनेक प्रकारके विकल्प होते हैं, वह विकल्प भी मेरा स्वभाव नहीं है, मैं उससे भिन्न हूँ। ऐसी अन्दर दृढता करे, बारंबार उसका अभ्यास करे।

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