Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 27.

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ट्रेक-०२७ (audio) (View topics)

समाधानः- .. ऐसा नक्की करके बारंबार उसके विचार करे कि मैं तो भिन्न ही हूँ, ये विकल्प मेरा स्वरूप नहीं है। ऐसे अन्दरसे दृढता करे, बारंबार उसका प्रयास करे, उसकी लगनी लगाये। खाते-पीते, जागते-सोते, स्वप्नमें सबमें उसकी लगनी होती है कि मैं तो भिन्न ही हूँ। ऐसी अंतरसे लगनी लगनी चाहिये। बारंबार मैं भिन्न हूँ। ऐसे भेदज्ञानके प्रयास सहित। यथार्थ भेदज्ञान, सच्चा भेदज्ञान बादमें होता है, परन्तु पहले उसकी लगनी लगे। तबतक विचार करे, वांचन करे, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आये। गुरुदेव क्या कहते थे, भगवानने पूर्ण स्वरूप प्राप्त किया, गुरु कैसे होते हैं, गुरुका क्या स्वरूप है, गुरुदेवने क्या मार्ग बताया, यह सब नक्की करे। शास्त्रमें क्या मार्ग आता है, यह सब नक्की करे। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा करे, वह सब शुभभाव है, लेकिन वह पहले आये बिना नहीं रहते। अभी आत्मा-शुद्धात्मा प्राप्त नहीं हो, तब तक बीचमें आते हैं। परन्तु उसे ध्येय यह होता है कि मुझे शुद्धात्मा प्राप्त करना है। मुझे आत्मा कैसे प्राप्त हो, ऐसी अंतरसे लगनी लगनी चाहिये। उसे खटक रहा करे।

जिसकी स्वयंको इच्छा हो और वह नहीं मिलता हो तो अन्दर कैसे बार-बार याद आता है, वैसे उसे याद आये। अपनी माँ हो, तो मेरी माँ, जहाँ भी जाये कोई पूछे, तू कौन है? तेरा नाम क्या? बालक समझता नहीं हो तो (कहता है), मेरी माँ, मेरी माँ करे। मेरी माँ, मेरी माँ कैसा अंतरमें होता है?

वैसे मुझे आत्मा कैसे प्राप्त हो? ऐसी लगनी लगनी चाहिये। उसका प्रयास करे, बारंबर उसके भेदज्ञान करनेका अभ्यास करे, बारंबार मैं भिन्न हूँ, भिन्न हूँ। मात्र विकल्प मात्र ऊपर-ऊपरसे करे वह अलग बात है, परन्तु अंतरसे होना चाहिये।

मुमुक्षुः- आत्मा तो अपने पास ही है, तो फिर?

समाधानः- अपने पास है, दृष्टान्त तो ऐसा ही होता है। आत्मा अपने पास है, लेकिन भूल गया है। उसे ऐसा हो गया है, मानो मैं बिछड गया हूँ। ऐसा उसे हो गया है। भूल गया है। आत्मा स्वयं ही है, लेकिन मैं बिछड गया, मानो आत्मा दूर चला गया हो और मैं भूला पड गया हूँ। मानो शरीरमें एकमेक हो गया, मानो गुम गया हो ऐसा उसे हो गया है। जैसे बकरीके झुंडमें सिंह आ गया और भूल


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गया कि मैं सिंह हूँ, मैं बकरी हूँ, उसके जैसा हो गया है। सिंह भूल गया कि मैं कौन? ये बकरे अलग है और मेरा लक्षण अलग है, यह भूल गया। ऐसे स्वयं भूल गया है। उसमें सिंहको कोई कहनेवाला मिले कि अरे..! इस बकरेके झुंडमें तू सिंह है। लक्षणसे पहचान करवाये।

इसप्रकार गुरुदेव लक्षणसे पहचान करवाते हैैं कि अरे..! तू तो आत्मा जानने वाला है, ये शरीर तू नहीं है। तू उससे भिन्न है, तू देख। अन्दर जानने वाला आत्मा है। ऐसे गुरुदेव मार्गकी पहचान करवाते हैं, उस मार्गको बारंबार दृढता करके ग्रहण करना चाहिये। उसके लिये सब छोड दे, ऐसा कुछ नहीं होता, अन्दरकी रुचि लगनी चाहिये। उसे अंतरमें रस कम हो जाये। रस कम हो जाये। बाहर सब रहता है, बाहर सब करता हो, लेकिन अन्दर उसे रस छूट जाता है।

मुमुक्षुः- अन्दरकी रुचि कब हो? जब दुःख हो तब होती है?

समाधानः- दुःख हो ऐसा नहीं, परन्तु अन्दर नक्की हो कि गुरुदेव कहते हैं वह अलग है, आत्मा भिन्न है। भले सच्ची प्रतीत बादमें (होती है), परन्तु अन्दरसे ऐसा लगना चाहिये कि इस आत्मामें ही सब है, बाहरमें कहीं भी नहीं है। सुख बाहर कहीं नहीं है। जहाँ देखो वहाँ, खाते-पीते, सोते-जागते, घुमनेमें-फिरनेमें कहीं भी सुख नहीं है, ऐसा उसे नक्की होना चाहिये। सुख मेरे आत्मामें है। अन्दर आत्मा कोई अनुपम और अपूर्व है, ऐसा उसे नक्की हो कि आत्मा कोई अलग है, तो उसे उस ओर रुचि लगे।

लेकिन यह कौन बताये? गुरुदेव बताते हैं। मार्ग बताया है। सब लोग कहाँ पडे थे। क्रिया करे, थोडा बाहरसे करे कि थोडा ये कर लिया, उपवास कर लिया, ये कर लिया तो धर्म हो गया। धर्म उसमें नहीं है। धर्म अन्दर आत्मामें है। वह तो शुभभाव करे। उपवास करे तो शुभभावसे पुण्य बन्धता है, देवलोक होता है, उससे भवका अभाव नहीं होता। ऐसे देवके भव जीवने अनन्त कालमें बहुत किये, परन्तु मोक्ष नहीं हुआ। भवका अभाव तो आत्माको पहचाने तो होता है। लेकिन जबतक वह नहीं होता तबतक बीचमें शुभभाव आते हैं। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आदि (होते हैं)। अंतरमेंसे बाहरका सब रस छूट जाये।

.. जैसे होना होगा वैसा होगा, परन्तु उसमें पुरुषार्थ साथमें होता है। स्वयंको तो ऐसा ही विचार करना है कि मैं पुरुषार्थ करुँ। पुरुषार्थका क्रमबद्धके साथ सम्बन्ध है। ऐसा माने कि जैसा होना होगा वैसा होगा। तो-तो फिर जो परिणाम आये उसमें जुड जाये। ये अशुभभाव, एकत्वबुद्धिसे जड जाता है, ऐसा जो करता है कि जैसे होना होगा वैसा होगा, तो फिर खानेमें-पीनेमें हर जगह एकत्वबुद्धि रस लेने वाला,


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उसे शरीर सो मैं और मैं सो शरीर, ऐसी बुद्धि है, पुरुषार्थकी ओर जिसकी दृष्टि ही नहीं है, तो उसका क्रमबद्ध एैसा होता है कि उसे भवका अभाव नहीं होता। परन्तु जिसके हृदयमें ऐसा हो कि मैं पुरुषार्थ करुँ, मैं मेरे भावको बदलूँ। मुझे एक शुद्धात्मा चाहिये, मुझे और कुछ नहीं चाहिये। तो उसे उस जातका क्रमबद्ध होता है कि उसे मुक्तिकी ओरका होता है।

क्रमबद्धका पुरुषार्थके साथ सम्बन्ध है। जिसकी रुचि आत्माकी ओर जाये उसका क्रमबद्ध मोक्षकी ओर होता है। परन्तु जिसकी रुचि संसारकी ओर हो, उसे क्रमबद्ध संसारकी ओर होता है। स्वयंको तो ऐसा ही विचार करना है कि मैं पुरुषार्थ करुं। क्रमबद्ध-कुदरतमें जो होनेवाला है वह होगा, परन्तु स्वयंको ऐसा विचार करना कि मुझे-मैं पुरुषार्थ करुँ। मेरे आत्माके परिणाम बदलकर मैं ज्ञायकको पहचानुँ। स्वयंको ऐसा विचार करना चाहिये।

यदि स्वयं ऐसा विचार करे कि सब क्रमबद्ध होगा तो फिर स्वयंको कुछ करना नहीं रहता है। तो जैसे आये वैसे परिणाम चलते रहे, (क्योंकि) स्वयंको कुछ करना ही नहीं है। पुरुषार्थके साथ क्रमबद्धका सम्बन्ध है। स्वयंको तो रुचि पलटकर पुरुषार्थ करना। क्रमबद्ध इसप्रकार है। क्रमबद्धका पुरुषार्थके साथ सम्बन्ध है।

मुमुक्षुः- क्रमबद्ध ऐसा कि कहीं जुडना नहीं, देखते रहना, आये उसे रोकना नहीं।

समाधानः- जुडना नहीं वह भी पुरुषार्थ हुआ न? जुडना नहीं वह अन्दर उस जातका पुरुषार्थ हुआ। मुझे जुडना नहीं है, ऐसा भाव आया वह पुरुषार्थ ही है कि मुझे नहीं जुडना है। जुडना नहीं है, मुझे भेदज्ञान करना है, ज्ञायकको पहचानना है। तो वह पुरुषार्थ हुआ, वह तो पुरुषार्थ हुआ।

मुमुक्षुः- यानी अच्छा किया न?

समाधानः- हाँ, वह अच्छा है, लेकिन वह पुरुषार्थ हुआ। उसके साथ क्रमबद्ध (है), पुरुषार्थके साथ क्रमबद्ध हुआ उसके साथ क्रमबद्ध अच्छा होता है। जो ऐसा कहे कि मुझे जुडना नहीं है, ऐसा नहीं रखे और कहे कि क्या करुँ? जुड जाता हूँ। क्रमबद्ध ऐसा था। ऐसा करे उसका क्रमबद्ध अच्छा नहीं होता। जुड जाता हूँ, क्या करुँ? कर्मका उदय है। ऐसा माने तो उसका क्रमबद्ध अच्छा नहीं होता। ऐसा कहे कि मुझे नहीं जुडना है, मुझे आत्माको पहचानना है, तो उसका क्रमबद्ध अच्छा होता है। आकूलता नहीं करनी, शांतिसे पुरुषार्थ करे। लेकिन पुरुषार्थकी ओर जिसकी दृष्टि हो उसका ही क्रमबद्ध अच्छा होता है।

मुमुक्षुः- क्रमबद्धमें पुरुषार्थ करना..


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समाधानः- क्रमबद्धमें पुरुषार्थ करे, लेकिन स्वयंको तो ऐसा होता है न कि मैं पुरुषार्थ करुँ, मेरे भाव बदलूँ। भले क्रमबद्धमें। परन्तु स्वयंको तो ऐसा विचार आना चाहिये कि मैं पुरुषार्थ करुँ। क्रमबद्धमें पुरुषार्थ आयेगा, ऐसा विचार करे तो भी पुरुषार्थ नहीं होता। क्रमबद्धमें पुरुषार्थ होगा, ऐसा माने तो उसे पुरुषार्थ नहीं होता। मैं पलटुँ, परिणाम मेरी ओर आये, मुझे ये नहीं चाहिये। स्वयं यदि ऐसा विचार करे कि मैं पलटुँ, उसे ही क्रमबद्धमें पुरुषार्थ आता है, दूसरेको नहीं आता। स्वयंको तो ऐसा ही लेना। उसमें तो कुदरतकी पर्यायें स्वयं परिणमति है। स्वयं परिणमे उसे तुझे क्यों देखने जाना है? क्रमबद्ध अपने आप पलटता है। सभी पर्यायें कुदरती पलटती है, उसे तुझे नहीं देखना है। तू तेरे पुरुषार्थकी ओर नजर कर।

ऐसा विचार करे कि क्रमबद्धमें पुरुषार्थ होगा तो होगा। तो उसे पुरुषार्थ नहीं चलता। ऐसा विचार करे तो भी। ऐसा विचार करे तो उसका पुरुषार्थ मन्द पड जाये। तो पुरुषार्थ नहीं चलता। स्वयंको तो ऐसे ही लेना है कि मैं पुरुषार्थ करुँ। तो उसका क्रमबद्ध मोक्षकी ओर आये। मुझे एक ज्ञायक चाहिये, और कुछ नहीं चाहिये। मुझे संकल्प-विकल्प आकूलतामय है, वह नहीं चाहिये। मुझे एक आत्मा अनुपम है वही चाहिये। ऐसी भावना करे। मुझे पुरुषार्थ करके मुझे ही पलटना है। ऐसे विचार आये तो उसका क्रमबद्ध पलटता है। स्वयंको ऐसे ही विचार आने चाहिये।

मुमुक्षुः- नहीं तो स्वयंको स्वंयके आधीन कोई परिणाम ही नहीं रहे और दूसरा क्रमबद्ध..

समाधानः- हाँ, स्वयं स्वाधीन नहीं रहा। कोई कर देगा ऐसा हो गया। क्रमबद्ध मुझे पुरुषार्थ कर देगा, तुझे क्या करना है? क्रमबद्ध पुरुषार्थ करेगा तो तुझे पुरुषार्थ होगा ही नहीं। तेरा पुरुषार्थ मन्द ही हो जायेगा। ऐसा विचार करना। आत्मार्थीओंको, जिसे आत्माकी लगी है, वह ऐसे विचारोंमें रुकता नहीं। बीचमें उसे वह बचावका पहलू आ जाता है। जो आत्मार्थी हैं, वह ऐसा मानते हैं कि मेरी क्षति है। मेरी क्षतिके कारण मैं रुका है, मेरी मन्दता है। मेरी मन्दता है, मेरी रुचिकी कमी है, मेरे पुरुषार्थकी कमी है, तो ही वह आगे बढता है।

... कारण वह है। परद्रव्यका स्वयं कर्ता नहीं होता। परद्रव्यमें जो होना होगा वह होता है। वहाँ क्रमबद्धमें खडा रहे। अपने पुरुषार्थमें यदि क्रमबद्ध लेगा तो पुरुषार्थ मन्द हो जायेगा। बाहरके उदय, पुण्य-पापके उदय, बाहरके फेरफार आदि सब क्रमबद्ध (है)। अंतरमें क्रमबद्ध है, परन्तु वह क्रमबद्ध, स्वयं जिज्ञासु आत्मार्थी हितकी ओर जाने वाला अपने पुरुषार्थकी ओर ही देखने वाला होता है। और उस पुरुषार्थके साथ क्रमबद्धका सम्बन्ध है। अकेला क्रमबद्ध मोक्षकी ओर जो जाता है, वह अकेला नहीं


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होता। पुरुषार्थके साथ क्रमबद्धका सम्बन्ध होता है। काललब्धि, पुरुषार्थ, क्षयोपशम सबका सम्बन्ध है, उसमें पुरुषार्थ मुख्य है। जैसी पुरुषार्थकी गति मुमुक्षुकी होती है, उस अनुसार सब पलटता है।

मुमुक्षुः- पुरुषार्थ मन्द पडे तो समझना कि क्रमबद्ध अभी बैठा नहीं है।

समाधानः- हाँ, तो क्रमबद्ध सच्चे स्वरूपमें समझा ही नहीं। क्रमबद्धको सच्चा समझा ही नहीं।

मुमुक्षुः- जैसा आप कहते हो उसमें तो पुरुषार्थ ही...

समाधानः- पुरुषार्थकी ओर ही जाना, मुख्य पुरुषार्थ है। सब कर्ताबुद्धि छुडानेकी बात है। अन्दरके पुरुषार्थकी मन्दताके लिये वह नहीं है। तू ज्ञायक हो जा। ज्ञाताकी धारा आयी, उसमें पुरुषार्थ आ गया। ज्ञायक हुआ उसमें भेदज्ञानका प्रयत्न आ गया।

मुमुक्षुः- कर सकता नहीं, तो अकर्ता स्वभाव पर लक्ष्य रखना?

समाधानः- अपनी पर्याय नहीं पलट सकता, वह बात एक ओरकी है। द्रव्यके जोरमें कहता है। बाकी अपनी पर्यायको एक अपेक्षासे बदल सकता है। एकान्त नहीं बदल सकता ऐसा नहीं है। अशुभमेंसे शुभमें आये और शुभमेंसे शुद्धमें जाता है। वह अपने पुरुषार्थकी गतिसे ही होता है। वह उसे कोई नहीं कर देता। वह अपनेआप होता है, ऐसा कुछ नहीं है।

द्रव्यदृष्टिके जोरमें, द्रव्यदृष्टिमें ऐसा आये कि पर्याय अपनेआप होती है। अपनेआप होती नहीं, द्रव्यके आश्रयसे पर्याय होती है। पर्याय ऊपर-ऊपर नहीं होती। उसकी रुचि जिस ओरकी हो उस जातकी पर्याय वैसी होती है। पर्यायका कर्ता स्वयं नहीं है, वह एक ओरकी बात है। द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षासे कहनेमें आता है। द्रव्यके आश्रयसे पर्याय होती है। पर्याय ऊपर-ऊपर नहीं होती।

... की पर्याय अपनेआप नहीं होती। जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र प्रगट होते हैं, तो वह द्रव्यदृष्टिके आलम्बनमें होती है। वह आलम्बन अपनेआप नहीं हो जाता। उसका कोई कर्ता नहीं है, ऐसा नहीं है। द्रव्यके आश्रयसे होती है। द्रव्यदृष्टिके आलम्बनके बलसे होती है। उसमें ज्ञानके साथ, लीनता साथमें होती है। साधना होनी होगी तो होगी, वह पर्याय अपने आप होगी, ऐसा नहीं है। द्रव्यदृष्टिके बलमें ऐसा कहनेमें आता है। बाकी तो वह एकान्त हो जाता है।

मुमुक्षुः- ... कहते हैं तो ऐसी कोई विवक्षा है कि द्रव्यदृष्टिका..

समाधानः- नहीं, द्रव्य शाश्वत है और पर्याय अंश है। इसलिये पर्यायका परिणमन पर्याय स्वतंत्र करे, ऐसा कहनेमें आता है। कहनेमें आता है यानी वह अंश है और वह त्रिकाल है। अर्थात वह पर्याय ऊपर-ऊपर नहीं है। कोई द्रव्यका उसे आश्रय नहीं


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है, बिना आश्रय पर्याय परिणमित हो गयी, ऐसा नहीं है। द्रव्यके आश्रयसे पर्याय परिणमति है। पर्याय एक अंश है इसलिये उसे भिन्न करके पर्याय स्वयं परिणमित हुयी, ऐसा एक अपेक्षासे कहनेमें आये। परन्तु वह द्रव्यके आश्रय बिना ऊपर-ऊपरसे परिणमित हुयी, ऐसा नहीं है।

मुमुक्षुः- द्रव्यका आश्रय तो बराबर है कि पर्यायको द्रव्यका आश्रय तो होता है। परन्तु आश्रय द्रव्यका रखकर भी स्वतंत्ररूपसे परिणमती है, ऐसी कोई विवक्षा है?

समाधानः- स्वतंत्र परिणमे यानी द्रव्यके हाथमें डोर नहीं है और उसे ठीक पडे वैसे परिणमती है, ऐसा नहीं है। मोक्षमार्गकी डोर उसके हाथमें है। विभावकी ओर जाना हो तो वह स्वतंत्र जाये और स्वभाव (की ओर जाना है तो वहाँ जाये), ऐसे पर्याय नहीं जाती। उसके हाथमें डोर है। डोरको किस ओर ले जाना, वह उसके हाथमं है। द्रव्यदृष्टिके हाथमें उसकी डोर है।

मुमुक्षुः- अकारण पारिणामिक द्रव्य।

समाधानः- अकारण पारिणामिक द्रव्य भी अलग है। इसे अन्दर पुरुषार्थसे प्रगट पर्याय होती है। ये ऐसे क्यों परिणमा? अकारण पारिणामिक है। लेकिन जो बुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ होता है, उसमें उसकी डोर उसके हाथमें है। डोर हाथमें नहीं है और ठीक पडे वैसे पर्याय परिणमती है, ऐसा नहीं है। उसकी पूरी दिशा बदल गयी है। द्रव्यदृष्टिका आलम्बन है। आलम्बनके जोरमें सब पर्याय इस ओर आती है। उसके आलम्बनके जोरमें आती है।

मुमुक्षुः- डोर उसके हाथमें है, वही उसकी स्वतंत्रता है।

समाधानः- वह उसकी स्वतंत्रता है। पर्याय अलग फिरती है, ऐसा नहीं है। द्रव्यके आश्रयसे (होती है)। डोर उसके हाथमें है-साधकके हाथमें। वह मुख्य रहता है। आत्मा कैसे समझना?

समाधानः- .. उसे कैसे समझमें आये, नौ तत्त्व और छह द्रव्य? ध्येय होना चाहिये।

.. उसे सुखका होता है। बाकी आत्मा कोई महिमावंत है, एक अलग तत्त्त्त्व है, उसमें अगाध ज्ञान भरा है, उसके अनन्त गुण कोई अपूर्व हैं, ऐसे भी महिमा आये। तत्त्व कोई अगाध गंभीरतासे भरा है, ऐसे भी महिमा आती है। कोई अगाध गंभीरता है। उसे एक ज्ञानसे पहचान सके ऐसा है। अन्य कोई रीतसे पहचाना नहीं जाये ऐसा है। ऐसा कोई महिमावंत पदार्थ (है)। अंतरमें जाये, उसमें दृष्टि करे, उसमें लीनता करे तो पहचानमें आये। ऐसा कोई अनुपम है कि जिसे किसीकी उपमा लागू नहीं पडती, ऐसा अनुपम है। ऐसे भी महिमा आती है। पदार्थकी अनुपमतासे, पदार्थकी


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गंभीरतासे, पदार्थके अनन्त गुणोंसे कि जिसके गुणोंका पार नहीं है। ऐसा अगाध तत्त्व कैसा होगा? ऐसे भी महिमा आये। ... परन्तु मुख्य उसे सुख (है), भटकता है उसमें सुखकी इच्छासे बाहर भटकता है। जहाँ दुःख लगता है, वहाँ-से एकदम पीछे मुड जाता है। जहाँ अत्यंत दुःख और आकूलता, जहाँ दुःखके प्रसंग आये वहाँ-से भागता फिरता है। कहाँ सुख मिले, कहाँ सुख मिले?

मुमुक्षुः- वह तो जीवकी स्वाभाविक पर्याय है कि दुःख हो वहाँ-से भागना। समाधानः- भागना, वही उसे परिणतिमें अन्दर होता है। .. लगे, फिर भले ही अपनी कल्पनासे दुःख लगा हो, परन्तु दुःख लगता है इसलिये वह भागता है। ऐसी उसे प्रतीत हो कि सुख बाहर तो नहीं है, जहाँ सुख लेने भागता हूँ, वहाँ कहीं भी सुख तो मिलता नहीं। इसलिये सुख कोई और जगह है। कोई अंतरमेंसे, ऐसा सुख अंतर तत्त्वमेंसे आ जाओ कि जो सुख अंतरमें होना चाहिये। ऐसा समझकर वापस मुडता है। जो शाश्वत है, जिसे बाह्य साधनकी कोई जरूरत नहीं है, जो पराधीन नहीं है, जो स्वयंसिद्ध है, जिसे कोई तोड नहीं सकता, जिसे कोई विघ्न नहीं आते। उसके लिये स्वयं वापस मुडता है। आत्मा ज्ञायक जानने वाला है, उसका ज्ञानगुण कोई अपूर्व है। ऐसा समझकर भी मुडता है, परन्तु मुख्य तो उसे सुखका हेतु हर जगह होता है। सुखका हेतु हर जगह होता है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!
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