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समाधानः- गुरुदेवकी आज्ञा हुयी। फिर मनमें ऐसा हुआ कि मैं तो कदाचित मान लूँ, परन्तु ये सबको बेचारोंको... सबको दुःख हो, उसका क्या? गुरुदेवने कोई जवाब नहीं दिया। परन्तु उस दिन सबको ऐसा हो गया था कि मानों गुरुदेव विराजते हों। गुरुेदवने बहुत प्रमोद-से कहा, मैं यहीं हूँ, ऐसा मानना। ऐसा कुछ नहीं रखना, ऐसा कहा। स्वप्न इतना ही था। स्वप्नमें ऊपर-से पाधरे हों, ऐसा स्वप्न था।
मुमुक्षुः- आपकी भावना-से गुरुदेवकी दूज अलौकिक रूप-से मनायी गयी। वैशाख शुक्ला-दूज।
समाधानः- वैशाख शुक्ल-दूज, बहुत अच्छी तरह-से मनायी गयी।
मुमुक्षुः- .. स्वयं भी पधारे हो, ऐसा बन सकता है।
समाधानः- बन सकता है, अपनेको लगे गुरुदेव स्वप्नमें पधारे। गुरुदेव गये तब भी थोडे महिने पहले भी देवका ऐसा स्वप्न आया था। गुरुदेवके रूपमें। मैं यहीं हूँ, ऐसा मानना। वह भक्तिमें जोडा है न? इन्द्र सरीखा शोभी रह्या छे..
मुमुक्षुः- वह स्वप्नके अनुसंधानमें है?
समाधानः- स्वप्न और अंतर-से सब जुडा है। मुझे तो ऐसा भावना होती है कि गुरुदेव यहाँ-से विमानमें जाते हो, .. पधारते हैं। गुरुदेव सीमंधर भगवानकी वाणी सुनने (जाते हैं)। ऐसी भावना हो, देवोंकी तो शक्ति है, सीधे महाविदेहमें जाये। परन्तु ये भरत और महाविदेह दोनों समीप है। सीमंधर भगवान जहाँ विराजते हैं, वह महाविदेह और यह भरत, घातुकी खण्ड दूर है, परन्तु भगवान विराजते हैं वह महाविदेह औरयह भरतक्षेत्र दोनों समीप है। ये भरतक्षेत्र तो बीचमें आता है। देवोंको तो बीचमें आये या न आये, वे तो अवधिज्ञान-से जान सकते हैं।
मुमुक्षुः- इस बार आपको फोटोमें कुछ प्रकाश जैसा लगता था।
समाधानः- सब लोग कहते थे कि गुरुदेव साक्षात विराजते हैं। फिर इन लोगोंने विडीयो दिखाया तो विडीयमों कौन जाने ऐसा प्रकाश, ऐसा कुछ लगा कि मानों गुरुदेव है। मैंने तो वहाँ मात्र दर्शन किये, मैं तो इस ओर बैठी थी। दूसरे लोग कहते थे। दर्शन करते समय ... उतनी बात है। परन्तु ये विडीयोमें मुझे ऐसा लगा कि ये किस
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जातका लगता है? गुरुदेव साक्षात विराजते हैं, ऐसा भाव आया। उस जातका विडीयोका कोई प्रकाश आ गया है।
मुमुक्षुः- प्रसंग इतना सुन्दर रूप-से मनाया गया कि ऐसा थोडा अनुमान हो कि गुरुदेव साक्षात यहाँ पधारे हों।
समाधानः- हाँ, पधारे हो ऐसा लगे।
मुमुक्षुः- आशीर्वादका फोटो ही ऐसा लगता था कि मानो आशीर्वाद दिये हों। साक्षात पधारे हों।
समाधानः- गुरुदेवका मस्तक और ये सब अलग दिखता था, मानों साक्षात क्यों न हो! ऐसा दिखे। मुझे तो कुछ मालूम नहीं था, सब कहते थे। लेकिन कौन-सा फोटो और क्या लगता है, विडीयोमें अचानक देखा तो ऐसा ही लगा।
मुमुक्षुः- आपकी गुरुदेव प्रति भक्ति ही ऐसी है।
समाधानः- ऐसा हो। बाकी गुरुदेव तो देवमें विराजते हैं।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- कोई-कोई बार बोलू वह आये। बाकी..
मुमुक्षुः- हमे तो उतना ही चाहिये।
समाधानः- प्रसंग हो तब आ जाता है।
मुमुक्षुः- मध्यस्थ लोगोंको तो बहुत लाभ हुआ है। ... कहते हैं कि बहुत..
समाधानः- तत्त्व चर्चा करते हो उस वक्त धूनमें भले यथार्थ आता हो, बाहर प्रकाशित करनेमें चारों पहलू आने चाहिये। वह सब उसमें ध्यान रखना पडे। विडियो तो कभी-कभी लेते हैं।
मुमुक्षुः- आपको तो सहज होता है, उसमें आपको ध्यान रखना पडे...
समाधानः- वह तो सहज आता है।
मुमुक्षुः- चर्चामें चारों पहलूओंको आप समाविष्ट करी ही देते हो। आप कहते हो, लेकिन उस चर्चामें उस विषयमें आप चारों पहलूओंको दूसरे-तीसरे प्रकार-से आ ही जाता है। भाई ऐसा नहीं कहते हैं कि किसीको शंका पडे और दूसरा अर्थ निकाले। ऐसा भी नहीं होता।
समाधानः- पहले दिन चर्चा प्रश्नमें भेदज्ञानकी धून थी तो भेदज्ञानका बोली, फिर दूसरी बार आपने पूछा। फिर चारों पहलूसे स्पष्ट आया। पहले भेदज्ञान पर वजन आया, फिर आपने प्रश्न किया तो ज्यादा स्पष्ट हो गया।
मुमुक्षुः- परन्तु समझनेवाला आत्मा समझ जाता है।
समाधानः- हाँ, वह तो समझ (जाय), आशय समझ जाना चाहिये।
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मुमुक्षुः- अपेक्षाओँकी खीँचतान-से जो कुछ उलझनें उत्पन्न हुयी है, आप स्पष्टीकरण करते हो तो सबको एक जातका समाधान भी हो जाता है।
मुमुक्षुः- सबके पक्ष ऐसे हो गये हैं। जिसे जिज्ञासा हो वह समझता है। बाकी सबकी दृष्टि अनुसार सब खींचते हैं। .. बात ऐसी है, सबकी दृष्टि अनुसार खीँच लेते है। जिसे जिज्ञासा यथार्थ हो, उसे बराबर समझमें आये ऐसा है। ऐसा बहुत बार होता है। तो भी कोई प्रसंग हो तो तब आप विडीयो लाते ही हो।
मुमुक्षुः- हमें तो आप फरमाते हो, इसलिये वह प्रसंग ही बन जाता है।
समाधानः- .. गुरुदेवने तो चारों ओर बरसात बरसा गये हैं। मैं तो ठीक, प्रश्न पूछे उसके जवाब देती हूँ। गुरुदेवने चारों ओर मूसलाधार बारीश बरसा दी है। हर जगर अंकुर उत्पन्न हो गये, ऐसी बरसात बरसायी है। आम बोये हैं।
मुमुक्षुः- बारीश बरसनेके बाद किसीने अंगीकार कर लिया हो, उसमें-से भी नदी, झरने आदि बहते हैं न। उसका भी लाभ तो मिलना चाहिये न। ... देते होंगे, उसका लाभ तो हम लेनेवाले हैं।
समाधानः- आप आते हो तब प्रश्न तो पूछते ही हो।
मुमुक्षुः- बालक हो तो उसकी एक आदत होती है कि माताको थोडा परेशान करे। और माताको ऐसा होता है कि बालक परेशान करे तो भी मनमें उसे आनन्द होता है कि भले बालक परेशान करे। इसलिये हम बालक जैसे हैं।
समाधानः-
प्रश्न-चर्चा होती है, बाकी स्वास्थ्य ऐसा रहता है, इसलिये थोडी दिक्कत होती है। गुरुदेवने बहुत (समझाया है)। बहुत प्रश्न हो गये हैं।
मुमुक्षुः- .. स्वपरप्रकाशक है ऐसा भी कहनेमें आता है। दोनोंकी विवक्षा क्या है? कहाँ वजन है?
समाधानः- स्वप्रकाशक अर्थात स्वयं परमें जाता नहीं है, पर पदार्थके साथ एक नहीं हो जाता है। स्व और पर। जो भी जानता है, वह स्वयं ज्ञानके स्वभाव-से जानता है। पर-से स्वयं जानता नहीं है। इसलिये स्वप्रकाशक कहनेमें आता है। बाकी स्वपरप्रकाशक उसका स्वभाव है।
स्वप्रकाशक यानी स्वको ही जाने और परको जानता ही नहीं, उसे परका कुछ ज्ञान ही नहीं होता है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। तो-तो उसका ज्ञानस्वभाव मर्यादित हो जाय। स्वप्रकाशक यानी परको जानता ही नहीं, ऐसा हो तो ज्ञान मर्यादित हो जाय। वास्तवमें स्वयं अपनी परिणतिमें रहे, स्वभावमें रहे और सहज ज्ञात हो जाय। अर्थात ज्ञान ज्ञानको जानता है, ज्ञान परको नहीं जानता है, उस अपेक्षा-से ऐसा कहनेमें आता है। परन्तु ज्ञान ज्ञानको जाने यानी वह दूसरे का कुछ स्वरूप जानता नहीं है,
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ऐसा नहीं है।
वह ज्ञेयोंका स्वरूप जानता है। ज्ञानमें सब ज्ञेयोंका स्वरूप आता है। अनन्त ज्ञेय जो जगतमें हैं, छः द्रव्य, उसके द्रव्य-गुण-पर्याय, उसका भूत-वर्तमान-भविष्य सब उसके ज्ञानमें आता है। यदि ज्ञानमें न आये तो उसे ज्ञानस्वभाव कैसे कहें? ज्ञानगुण उसे कहते हैं कि जिसमें मर्यादा न हो, ऐसा गुण हो। इसलिये वह पूर्ण जानता है। ज्ञानमें उसे सब आता है। उपयोग बाहर नहीं जाता, अपनी परिणतिमें रहकर, ज्ञान ज्ञानमें रहकर सब जानता है। ऐसा उसका स्वभाव है। इसलिये स्वपरप्रकाशक इस तरह है।
परमें जाकर, उसका क्षेत्र छोडकर बाहर नहीं जाता है। अपने क्षेत्रमें रहकर जाने, यानी ज्ञान ज्ञानके स्वरूपको जाने, ज्ञान ज्ञानको जाने, ऐसा कहनेमें आता है। लेकिन वह ज्ञान ज्ञानको जाने इसलिये उसमें दूसरेका ज्ञान आता ही नहीं है, ऐसा नहीं है। पूरे लोकालोकका ज्ञान, नर्क, स्वर्ग, पूरे लोकालोकका ज्ञान, छः द्रव्य, उसके द्रव्य- गुण-पर्याय, भूत-वर्तमान-भविष्य कुछ न जाने, यदि वह नहीं जानता हो तो। ज्ञानमें सब आता है। अतः ज्ञान स्वपरप्रकाशक है।
केवलज्ञान होता है तब सहज ज्ञात होता है, उसका स्वभाव ही है। नहीं होता तबतक उसका अधूरा ज्ञान है। स्वयं अपने स्वरूपमें रहे इसलिये उसका उपयोग बाहर नहीं होता, इसलिये निर्विकल्पताके समय उसे बाहरका उपयोग नहीं है। बाकी उसके ज्ञानका नाश नहीं हुआ है। ज्ञानकी शक्ति तो अमर्यादित है।
मुमुक्षुः- मतलब उपयोगात्मक रूपसे बाहरका जानना उस वक्त नहीं होता।
समाधानः- नहीं है, उपयोगात्मक नहीं है। बाकी उसमें ऐसी जाननेकी शक्ति नहीं है, ऐसा नहीं है। प्रत्यभिज्ञान... ज्ञान तो है, ऐसा स्वभाव है। तो भूतकालका कुछ जाने ही नहीं, भविष्यका कुछ जाने ही नहीं। ऐसा नहीं है। केवलज्ञान होने- से पहले पूर्वका सब जाने ऐसा उसका .. है। नहीं है, ऐसा नहीं।
मुमुक्षुः- पूर्वका जानता है, वर्तमान जानता है और भविष्यका..
समाधानः- भविष्यका जाने, सब जान सकता है। ऐसा उसका स्वभाव है। उसकी दिशा पर तरफ-ज्ञेय तरफ (है)। तेरी दिशा बदल दे। तेरी दिशा स्वसन्मुख कर दे। तेरे स्वद्रव्य तरफ तेरी दिशा बदल दे। बाकी कुछ ज्ञात नहीं होता है, ऐसा नहीं है। अपनी परिणति स्व-ओर गयी और उपयोग स्वयं निर्विकल्प स्वरूपमें स्थिर हुआ, इसलिये बाहरका उपयोग नहीं है, इसलिये ज्ञात नहीं होता। उसका स्वभाव नाश नहीं हुआ। वह अधूरा ज्ञान है इसलिये क्रम-क्रम-से ज्ञान जानता है। उपयोग अन्दर स्थिर हो गया, इसलिये बाहरका ज्ञात नहीं होता।
मुमुक्षुः- उपयोगात्मक स्थिति अलग है और स्वभावकी स्थिति..
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समाधानः- स्वभावकी परिणति... सम्यग्दृष्टि अपने अस्तित्वकी जो प्रतीत हुयी, उसे ज्ञायककी धारा है। वह परिणति ज्ञायक ज्ञायकरूप परिणमती है। और मैं इस स्वरूप हूँ और इस स्वरूप नहीं हूँ, ऐसी परिणति तो उसे सहज चलती है। मैं चैतन्य ज्ञायक स्वरूप हूँ और इस स्वरूप नहीं हूँ। यह हूँ और यह नहीं हूँ। ऐसी दो जातकी उसकी परिणति, ऐसा सहज ज्ञान उसे वर्तता ही रहता है। उपयोगरूप नहीं है। वह लब्ध है उसका मतलब एक ओर पडा है, ऐसा नहीं। उसे वेदनमें ऐसा आता है कि मैं यह हूँ और यह नहीं हूँ। यह मैं हूँ-ज्ञायक हूँ और यह नहीं हूँ। ऐसा सहज ज्ञान निरंतर उसे ज्ञायककी धारा रहती ही है। सविकल्प दशामें ऐसी ज्ञायकधारा वर्तती रहती है।
मुमुक्षुः- अहंपना रूप वृत्ति अथवा व्यापार निरंतर चलता ही रहता है।
समाधानः- वह निरंतर चलती है। मैं यह हूँ, इसलिये उसमें मैं नहीं हूँ, ऐसा आ जाता है। मैं यह हूँ, इसलिये परसे भिन्न यह मैं हूँ।
मुमुक्षुः- यह मैं हूँ, ऐसी परिणति (वर्तती है तो) वहाँ उसे स्वप्रकाशक कहना है?
समाधानः- स्वप्रकाशक और पर, दोनों साथमें आ गया। स्वपरप्रकाशक है। उसकी परिणति स्वपरप्रकाशक है। प्रतीति-यह मैं हूँ-ऐसा दृढ है। प्रतीति निर्विकल्प है, परन्तु ज्ञानकी धारा है कि यह मैं हूँ और यह नहीं हूँ, वह स्वपरप्रकाशक है। अस्ति और नास्ति दोनों ज्ञानमें आ गया है। प्रतीतिमें मैं यह हूँ, दृष्टिमें यह मैं हूँ, ऐसा (है)। बाकी ज्ञानकी-ज्ञायककी धारा चलती है। यह मैं हूँ और यह नहीं हूँ। उस जातकी सहज परिणति है।
मुमुक्षुः- दिशा स्व तरफ करनी है, वह एक अलग बात है। बाकी स्वभाव तो ऐसा ही है।
समाधानः- स्वभाव तो ऐसा ही है। दिशा स्व तरफ पलटनी है। समाधानः- द्रव्य-गुण-पर्याय तो वस्तुका स्वभाव है। पर्याय एक अंश (है)। अंश जितना अंशी नहीं है। (अंशी) अखण्ड है, वह तो अंश है। दृष्टिकी अपेक्षा-से पर्याय मेरेमें नहीं है। पर्याय है ही नहीं, ऐसा तो नहीं है। द्रव्य-गुण-पर्याय वस्तुका स्वभाव है।
ज्ञान सबका होता है। द्रव्य-गुण-पर्याय सबका। पर्याय जितना, एक अंश जितना क्षणिक, ऐसा क्षणिक स्वभाव आत्माका नहीं है। आत्मा शाश्वत है। पर्याय क्षण-क्षण पलटती रहती है। ऐसे ज्ञान करना। पर्याय नहीं होवे तो पर्याय ऊपर-ऊपर नहीं होती है, पर्याय द्रव्यके आश्रयसे होती है।
मुमुक्षुः- शिखरजीमें चर्चा हुयी थी गुरुदेवकी वर्णीजीके साथ, उसमें उन्होंने कहा था कि ... होता है। तो गुरुदेवने कहा था, रागकी पर्याय .. होती है।
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समाधानः- किसके साथ चर्चा हुयी थी?
मुमुक्षुः- वर्णीजीके साथ।
समाधानः- हाँ, अपने पुरुषार्थकी मन्दता-से रागकी पर्याय होती है। शुद्धात्माकी शुद्ध पर्याय शुद्धात्माके आश्रय-से होती है। और पुरुषार्थकी कमजोरी-से रागकी पर्याय होती है। कर्म करवाता नहीं। कर्म जबरजस्ती नहीं करवाता। आत्मा स्वयं रागरूप परिणमता है।
जैसे स्फटिक हरा, पीला रूप परिणमता है, वह स्फटिक परिणमता है। लाल- पीले फूल उसमें नहीं आते। वह तो निमित्त है। परिणमन स्फटिकका है। वैसे परिणमन चैतन्यका है। और मूल स्वभाव जो स्फटिकका है, उसका नाश नहीं होता। आत्माके मूल स्वभावका नाश नहीं होता है। उसके शुद्ध स्वभावका नाश नहीं होता है।
मुमुक्षुः- पर्याय द्रव्यमें-से निकलती है तो निकलते-निकलते कुछ कम नहीं होती है? अन्दर-से निकलती है तो?
समाधानः- तो-तो द्रव्यका नाश हो जाय। राग भीतरमें नहीं है, रागरूप आत्मा परिणमता है। शुद्धात्माकी शुद्ध पर्याय शुद्धात्माके आश्रय-से होती है। भीतर-से निकलते- निकलते (कम हो जाय) तो द्रव्यका नाश हो जाय। ऐसा नहीं है। द्रव्य तो अनन्त शक्ति (संपन्न है)। अनन्त काल द्रव्य परिणमन करता है तो भी द्रव्य तो ऐसाका ऐसा है।
ज्ञानकी पर्याय एक समयमें लोकालोक जानती है। तो भी अनन्त काल परिणमन करे तो उसमें कम नहीं होता है। ऐसा कोई द्रव्यका अचिंत्य स्वभाव है। उसमें त्रुट नहीं पडती। अनन्त काल परिणमे तो भी।
समाधानः- ... कोई कारण-से द्रव्य उत्पन्न हुआ है या कोई कारण-से उसका नाश होता है, ऐसा नहीं है। द्रव्य अकारण स्वतःसिद्ध अनादिअनन्त है। और उसका जो परिणमन है, वह स्वतः परिणमता है। वह किसीके आश्रय-से परिणमता है या कोई उसे मदद करे तो परिणमता है, कोई उसे विपरीत करे तो विपरीत हो और सुलटा करे तो सुलटा हो, ऐसा नहीं है। अकारण पारिणामिक द्रव्य-उसे कोई कारण लागू नहीं पडता। वह स्वयं परिणमता है।
स्वयं अनादिअनन्त स्वभावमें परिणमे उसमें विभाव अन्दर उसके स्वभावमें प्रवेश नहीं करता। ऐसा अकारण स्वयं अपने स्वभाव-से परिणमता है, ऐसा उसका स्वभाव है। और विभाव हो तो भी वह स्वयं स्वतंत्र परिणमता है। और स्वयं स्वभावको प्रगट करे तो भी स्वतंत्र है। उसमें निमित्त कहनेमें आता है, परन्तु वास्तवमें स्वयं परिणमता है। उसमें कोई कारण लागू नहीं पडता। तो ही उसे द्रव्य कहा जाय कि जिसे कोई कारण लागू नहीं पडता। कोई निमित्तके आश्रय-से परिणमे, किसीकी मदद-से परिणमे तो उस द्रव्यकी द्रव्यता ही नहीं रहती।
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द्रव्य ही उसे कहते हैं कि जिसे किसीकी सहायताकी जरूरत न पडे। उसका नाम द्रव्य है। वह द्रव्य अनादिअनन्त स्वतःसिद्ध अकारण परिणमता है। वह उसका स्वभाव है। स्वयं अपना स्वभाव किसी भी प्रकार-से तोडता नहीं है। ऐसे तो परिणमता है, परन्तु विभावमें भी कर्मका निमित्तमात्र है। स्वयं परिणमता है। स्वभावमें पलटता है वह स्वयं-से पलटता है, स्वभाव तरफ भेदज्ञान करके। उसमें देव-गुरु-शास्त्र निमित्त होते हैं। परन्तु उपादान स्वयंका है।
वह अकारण पारिणामिक द्रव्य है कि जिसे कोई कारण लागू नहीं पडता। अभी तक जीव स्वभाव तरफ क्यों पलटता नहीं? वह उसका स्वयंका कारण है, किसीका कारण नहीं है। उसे कोई दूसरेका कारण लागू नहीं पडता। स्वयं अपने ही कारण- से विभावमें परिणमे, अपने कारण स्वभावमें परिणमे। ऐसा अकारण पारिणामिक द्रव्य है। ऐसा उसका परिणमन स्वभाव स्वतःसिद्ध है। कोई उसे परिणमन करवाता नहीं और किसी अन्य-से उसका नाश नहीं होता।