Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 245.

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ट्रेक-२४५ (audio) (View topics)

समाधानः- ... उसे धर्म हो, थोडा सामायिक या उपवास कर ले तो धर्म हो जाय, ऐसा सब मानते थे। उसमें ऐसी अंतर दृष्टि बतानेवाले ऐसे गुरुदेव (मिले)। ज्ञायक आत्माको पहचान, यह सब कहनेवाले मिले। स्थानकवासी, देरावासी, दिगंबर सबकी दृष्टि बाहर थी। दिगंबरोंमें भी इतना पढ ले, इतना रटन कर ले तो धर्म होगा या तत्त्वार्थ सूत्र (पढ लें), उसमें धर्म मानते थे। ऐसेमें गुरुदेवने दृष्टि दी। समयसार तो कोई पढते नहीं थे। गुरुदेवने समयसारके रहस्य खोले। पण्डित लोग कहते थे न? हम लोग समयसार पढते थे, उसमें आत्माकी बात आती थी उसे छोड देते थे। कितने लाखों जीवोंको (मार्ग बताया)। सच्चा यथार्थ होना वह पुरुषार्थकी बात है। परन्तु अंतरमें कुछ करनेका है, ऐसा मार्ग गुरुदेवने बताया, ऐसा मार्ग बता दिया।

मुमुक्षुः- .. आते ही पाप तो जैसे दूर ही भाग जाते हैं और मिथ्यात्व थर- थर काँपने लगता है। ऐसा मुझे अटूट विश्वास हुआ है कि आपके चरणोंकी कृपा- से ही मेरे भवका अंत आनेवाला है। कृपा करके यह बताईये कि सामान्य ज्ञानका आविर्भाव और विशेष ज्ञानका तिरोभाव कैसे करें?

समाधानः- सामान्य स्वरूप आत्मा है, अनादिअनन्त। वही स्वरूप सामान्य स्वरूप (है)। विशेष, पर-से दृष्टि उठाकर सामान्य पर दृष्टि स्थापित करने-से सामान्यका आविर्भाव होता है, विशेषका तिरोभाव होता है। दृष्टि बाह्य है, दृष्टि विभावमें एकत्वबुद्धि है। बाहरमें विभावके विशेष पर है तो सामान्य स्वरूप जो आत्मा, अखण्ड आत्मा उसके भेद पर लक्ष्य नहीं करके, एक सामान्य पर दृष्टि करने-से शुद्ध पर्याय प्रगट होती है। तो सामान्यका आविर्भाव होता है, विशेषका तिरोभाव होता है।

मुमुक्षुः- माताजी! ये भेद पर-से दृष्टि क्यों नहीं हटती है?

समाधानः- अपने पुरुषार्थकी मन्दता-से नहीं हटती है। पुरुषार्थ मन्द है और रुचि बाहरमें है, एकत्वबुद्धि है। इसलिये नहीं हटती है। भीतरमें रुचि, महिमा (आये)। आत्माका स्वरूप सर्वस्व है और ये सर्वस्व नहीं है-विभाव सर्वस्व नहीं है। आत्मा ही सर्वस्व है, ऐसा भीतरमें लगने लगे, इसकी महिमा लगे तो दृष्टष्टि (वहाँ-से) उठ जाय, तो दृष्टि अंतरमें आती है।


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मुमुक्षुः- स्वानुभवमें चितचमत्कार स्वरूप भासता है, इसका अर्थ कृपा करके बताईये।

समाधानः- सामान्य स्वरूप पर नहीं है, भेद-भेद पर दृष्टि है। विशेष यानी भेद- भेद पर दृष्टि है, वह दृष्टि उठाकर सामान्यमें दृष्टि स्थापित कर दे तो सामान्य पर दृष्टि करने-से चैतन्य चमत्कार, निर्विकल्प तत्त्व (की) निर्विकल्प स्वानुभूति होती है। इसमें चितचमत्कार आत्मा, जो चैतन्यका चमत्कार है वह स्वानुभूतिमें आता है। इसका उपाय एक ही है कि द्रव्य पर दृष्टि करने-से चैतन्य चमत्कार प्रगट होता है। विशेष पर जो दृष्टि है, वह विशेष गौण होकर आत्माका सामान्य स्वरूप प्रगट होता है।

चैतन्य चमत्कार निर्विकल्प स्वरूपमें प्रगट होता है। विकल्प-से एकत्वबुद्धि तोडकर आत्माकी प्रतीति करने-से विकल्प छूट जाता है और निर्विकल्प स्वरूपमें स्वानुभूतिमें चैतन्य चमत्कार प्रगट होता है। निर्विकल्प स्वानुभूति होने-से चैतन्य चमत्कार होता है। सामान्य स्वरूप आत्माको लक्ष्यमें लेने-से, उसकी प्रतीत करने-से, उसमें लीनता करने- से वह प्रगट होता है। सामान्यमें प्रगट होता है। भेद पर दृष्टि करने-से नहीं प्रगट होता है।

मुमुक्षुः- भिन्न उपासता हुआ ज्ञायक शुद्ध होता है, इसका क्या अर्थ है?

समाधानः- पर भावों-से भिन्न उपासता हुआ...?

मुमुक्षुः- ज्ञायक शुद्ध..

समाधानः- शुद्ध ज्ञायक। पर भावों-से भिन्न है आत्मा। पर भाव अपना स्वरूप नहीं है। पर भाव-से भिन्न उपासना, चैतन्यकी उपासना करे। चैतन्यकी सेवा, आराधना चैतन्यकी करे। बारंबार मैं चैतन्य हूँ, ऐसा अभ्यास करे। प्रगट तो यथार्थ बादमें होता है। (पहले तत) बारंबार उसकी उपासना करे। मैं ज्ञायक हूँ। पर द्रव्य, पर भाव, गुणका भेद, पर्यायका भेद परसे दृष्टि उठाकर, आत्मा ज्ञायककी उपासना करे। बारंबार मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ। ज्ञायककी परिणति प्रगट करे।

ज्ञायक स्वरूप है, ऐसा बोलने मात्र नहीं, रटन मात्र नहीं, परन्तु यथार्थ परिणति करे। इसकी उपासना करे, इसकी आराधना करे। इसमें तद्रूप होवे तो उसमें ज्ञायक प्रगट होता है। शुद्ध ज्ञायक, मैं शुद्धात्मा ज्ञायक हूँ। ऐसे लीनता करने-से प्रगट होता है। यह मैं नहीं हूँ, विभाव मैं नहीं हूँ, स्वभाव मैं ज्ञायक हूँ। इसकी उपासना करना।

मुमुक्षुः- प्रथम उपशम सम्यग्दर्शन कितने काल टिकता है?

समाधानः- अंतर्मुहूर्त टिकता है। अंतर्मुहूर्त, कितना अंतर्मुहूर्त इसका कोई माप नहीं है। सम्यग्दर्शनका काल अंतर्मुहूर्त ही होता है। अंतर्मुहूर्त टिकता है। उसको ख्यालमें आ जाता है। स्वानुभूति हुयी, वह उसे पकडमें आ जाती है। उपयोग बाहर-से छूटकर


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भीतरमें लीन हो जाता है। स्वरूपकी प्रतीति, ज्ञान उपयोग उसमें लीन हो जाता है। ख्यालमें आ जाता है। उपयोगका काल अंतर्मुहूर्त है। बादमें बाहर आ जाता है।

स्वानुभूति हुयी तो वह ख्यालमें आ जाता है। जगत-से जुदी ऐसी स्वानुभूति, दुनिया- से अनुपम, विभाव-से अनुपम ऐसी स्वानुभूति होती है तो उसको ख्यालमें आ जाता है, ज्ञानमें आ जाता है। स्वानुभूति अंतर्मुहूर्त टिकती है। बाहर आकर ज्ञायककी धारा रहती है। ज्ञायकधारा। उदयधारा और ज्ञायकधारा दोनों चलती हैं। स्वानुभूतिमें अंतर्मुहूर्त रहता है।

मुमुक्षुः- .. दुःख लगता नहीं और आत्माका पता नहीं है। कैसे जानेकी वर्तमान पर्याय दुःखरूप है और आत्मा चैतन्य त्रिकाली है। उसका अनुभव करने-से सुख होता है। कैसा आत्मा, यह पता नहीं चलता है।

समाधानः- वर्तमान पर्यायमें दुःख लगता है?

मुमुक्षुः- नहीं लगता है।

समाधानः- नहीं लगे तो भीतरमें कैसे जाय? जिसको अंतरमें जाना है, उसको विभाव अच्छा नहीं है, मेरा स्वभाव अच्छा है, ऐसी रुचि तो होनी चाहिये। रुचिके बिना भीतरमें नहीं जा सकता। रुचि होनी चाहिये। यह करने लायक नहीं है, यह यथार्थ नहीं है, यह दुःखरूप है। मेरा स्वभाव सुखरूप है। ऐसी रुचि तो होनी चाहिये। यथार्थ स्वभावको बादमें ग्रहण करे, परन्तु रुचि तो होनी चाहिये।

विपरीतता, अशुचिरूप, दुःखरूप, दुःखके कारण, ये सब दुःखरूप है, दुःखका कारण है, ऐसा तो होना चाहिये। जो आत्मार्थी होता है, आत्माका जिसको प्रयोजन है, उसको विभाव अच्छा नहीं लगता है। ये दुःखरूप है, ये अच्छा नहीं है, ये विभाव अच्छा नहीं है। मेरा स्वभाव ही सुखरूप है। ऐसी रुचि तो होनी चाहिये। बादमें ऐसा ज्ञान और प्रतीत, विचार करके दृढ करे। परन्तु रुचि तो होनी चाहिये। रुचि नहीं होती है तो आगे नहीं बढ सकता। मुझे आत्माका करना है। आत्मामें सर्वस्व है, ये विभाव अच्छा नहीं है। ऐसा होना चाहिये।

मैं आत्मा त्रिकाल शाश्वत हूँ। विचार करके, लक्षण-से नक्की करता है कि ज्ञान है वह सुखरूप है, ज्ञानमें आकुलता नहीं है, ज्ञान सुखरूप है। गुरु कहते हैं, देव कहते हैं, शास्त्रमें आता है। विचार करके युक्ति-से, न्याय-से ज्ञान लक्षण-से पहचान लेना चाहिये। रुचि तो होनी ही चाहिये। स्व तरफकी रुचिके बिना आगे नहीं बढ सकता। दुःख तो आत्मार्थीको लगता ही है। ये अच्छा नहीं है। वर्तमान पर्यायजो चलती है वह अच्छी नहीं है। स्वभाव अच्छा है, उसकी रुचि तो होनी चाहिये। जिसको विभाव अच्छा लगता है, वह आगे नहीं बढ सकता।


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चैतन्य तत्त्व ही हूँ। विशेष भेदभाव गौण करके शुद्धात्माकी पर्याय प्रगट होती है। विभावकी पर्याय गौण हो जाती है। मैं चैतन्य शुद्धात्मा हूँ, ऐसी प्रतीत तो दृढ करनी चाहिये, ऐसा ज्ञान करना चाहिये, उसकी लीनता होनी चाहिये। तो स्वानुभूति होती है। बारंबार मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ऐसा विचार करके, लक्षण पहचानकर (आगे बढना)। यथार्थ पीछान होवे तो भी उसका अभ्यास करना चाहिये। ये अच्छा नहीं है, मैं चैतन्य ज्ञायक हूँ। सामान्य स्वरूप अनादिअनन्त (हूँ)। गुणका भेद, पर्यायका भेद पर दृष्टि नहीं करके, मैं चैतन्य हूँ। उसमें गुण है, पर्याय है तो भी दृष्टि तो अखण्ड पर रखनी चाहिये। ज्ञान सबका होता है, परन्तु दृष्टि एक अखण्ड चैतन्य सामान्य पर होती है। द्रव्यदृष्टिके बल-से उसमें लीनता (होती है)।

दृष्टि-सम्यग्दर्शन होने-से सब नहीं हो जाता है। लीनता-चारित्र, स्वरूप रमणता- लीनता बाकी रहता है। मुनिओं छठवें-सातवें गुणस्थानमें झुलते हैं। लीनता विशेष हो जाती है। सम्यग्दृष्टिको इतनी लीनता नहीं होती। तो भी उसको स्वानुभूति होती है। स्वरूपाचरण चारित्र होता है। भेदज्ञानकी धारा चलती है। स्वानुभूति-से बाहर आवे तो भेदज्ञानकी धारा क्षण-क्षण, क्षण-क्षण, क्षण-क्षणमें खाते-पीते, जागते, स्वप्नमें भेदज्ञानकी धारा (चलती है)। ज्ञायकधारा और उदयधारा दोनों भिन्न चलती है। कोई-कोई बार स्वानुभूति होती है। निर्विकल्प स्वानुभूति-से बाहर आवे तो भेदज्ञानकी धारा (चलती है)।

उसके पहले उसकी महिमा करनी चाहिये, उसकी लगनी करनी चाहिये, तत्त्वका विचार करना चाहिये, आत्माका स्वभाव पहचानना चाहिये। आत्माका ज्ञान लक्षण (पहचानकर) मैं ज्ञायक हूँ, मैं अखण्ड ज्ञायक हूँ, उसको विचार करके ग्रहण करना चाहिये। उसके भेदज्ञानका अभ्यास करना चाहिये। मैं चैतन्य अखण्ड हूँ। मैं विभाव- से (भिन्न हूँ)। गुणभेद, पर्यायभेद आदि भेदमें विकल्प आता है। वास्तविक भेद आत्मामें नहीं है। आत्मा अखण्ड है। इसमें ज्ञान, दर्शन, चारित्र सब है। लक्षण भिन्न-भिन्न है, तो भी वस्तु एक है। उसका निर्णय करके उसकी प्रतीत करनी चाहिये। उसमें लीनता करनी चाहिये।

मुमुक्षुः- .. बाहरमें तो अच्छा लगता नहीं है। अन्दर जानेमें कितना समय लगेगा?

समाधानः- क्या कहते हैं? बाहरमें अच्छा नहीं (लगता)। स्वभावकी पहचान करे तो, स्वभावका लक्षण पहचानकर उसकी प्रतीत दृढ होवे, बारंबार अभ्यास करे। जिसको यथार्थ पुरुषार्थ उठता है तो अंतर्मुहूर्तमें हो जाता है। और विशेष पुरुषार्थ करे तो, आचार्यदेव कहते हैं, छः महिनेमें हो जाता है। परन्तु इतना अभ्यास नहीं करता है। अच्छा नहीं लगता है, दुःख लगता है तो भी स्वरूपका लक्षण पीछानकर उसका


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अस्तित्व ग्रहण करना चाहिये। उसका अस्तित्व ग्रहण करके यह मैं नहीं हूँ और यह मैं हूँ। चैतन्यका अस्तित्व ग्रहण करके बारंबार क्षण-क्षणमें उसका अभ्यास (करे)। मैं ज्ञायक हूँ। जितना ज्ञानस्वरूप, ज्ञायकस्वरूप उतना मैं हूँ, विभाव मैं नहीं हूँ। बारंबार निरंतर इसका अभ्यास करे और उसका उग्र अभ्यास करे तो देर नहीं लगती। अपना स्वभाव है। क्षणमें हो जाता है। पुरुषार्थकी उग्रता होवे तो उत्कृष्ट छः महिने लगते हैं, देर नहीं लगती है। परन्तु अपने पुरुषार्थकी मन्दता है। दुःख-दुःख करे, लेकिन सुख स्वभाव क्या है? उसको ग्रहण करे, उसमें प्रतीत दृढ करे, बारंबार उसकी परिणति प्रगट करे तो होवे।

दुःख लगे तो भी अपना स्वभाव ग्रहण करना चाहिये। स्वभाव ग्रहण करे तो विभाव- से छूट जाता है। स्वभावको ग्रहण करे बिना दुःख-दुःख करे तो भी नहीं छूट सकता है। स्वभावको ग्रहण करे तो छूट जाता है। तो भेदज्ञान हो जाता है। स्वभावको ग्रहण करना चाहिये, अपने अस्तित्वको ग्रहण करना चाहिये। मैं यही हूँ और यह मैं नहीं हूँ, ऐसे बारंबार उसको ग्रहण करनेका अभ्यास करे तो होवे।

मुमुक्षुः- श्रद्धागुण तो निर्विकल्प है...

समाधानः- श्रद्धा निर्विकल्प है, परन्तु पहले विचार-से निर्णय करना चाहिये। पहले तो ऐसा विचार आता है, पहले प्रतीत दृढ नहीं होवे तो विचार करना चाहिये। विचार-से अपना स्वभाव पहचानना चाहिये कि ज्ञानलक्षण, असाधारण ज्ञान लक्षण है। अखण्ड द्रव्यको पीछानना चाहिये। ज्ञान-से विचार करे। प्रतीत तो दृढ (बादमें होती है)। पहले विचार आता है। तत्त्वका विचार। बारंबार मैं भिन्न हूँ, यह मैं नहीं हूँ। स्वभावको भीतर-से उसका लक्षण पीछानकरके नक्की करना चाहिये।

श्रद्धा भले निर्विकल्प हो, ज्ञान काम करता है। ज्ञानमें विचार (करके), नक्की करके श्रद्धाको दृढ करना चाहिये। मुक्तिका मार्ग सम्यग्दर्शन-से प्रगट होता है। परन्तु जब पहले सम्यग्दर्शन नहीं होवे तब विचार, यथार्थ ज्ञान करना चाहिये। ज्ञान बीचमें आता है। प्रतीतको दृढ करना।

समाधानः- ... गुरुदेवको सब शोभा दे। वहाँ स्टेजमें बैठना, करना आदि... गुरुदेवकी छत्रछायामें अपने तो बोल लेते हैं।

मुमुक्षुः- हम तो गुरुदेवकी आज्ञाका पालन करते हैं। गुरुदेव कहकर गये हैं...

समाधानः- चित्र आदि सब था न, इसलिये वहाँ मनमें ऐसी भावनाका घोटना होता था कि ये सब है, गुरुदेव पधारे। ऐसी भावना (होती थी)। बस, ऐसे ही घोटन चलता था कि गुरुदेव पधारे तो अच्छा। प्रातः कालमें स्वप्नमें ऐसा आया कि गुरुदेव ऊपर-से पधार रहे हैं। ऐसा कहा, पधारो गुरुदेव। गुरुदेव देवके रूपमें थे। देवके वस्त्र


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पहने थे। देवके रूपमें थे। ऐसे पहचानमें आये कि ये गुरुदेव हैं। गुरुदेव देवके रूपमें ही थे।

गुरुदेवने कहा कि ऐसा कुछ नहीं रखना, मैं यहीं हूँ। देवमें विराजता हूँ, (लेकिन) मैं यहीं हूँ, ऐसा रखना। ऐसा गुरुदेवने कहा। ऐसा हाथ करके कहा। ऐसा हुआ कि ये सब कैसे (समाधान करे)? गुरुदेवने जवाब नहीं दिया। गुरुदेवने दो-तीन बार कहा कि मैं यहीं हूँ, ऐसा ही मानना। मैं यहीं हूँ, ऐसा गुरुदेवने कहा।

... स्वप्न वैशाख शुक्ल-२का था। बादमेंं कहा। गुरुदेवने कुछ जवाब नहीं दिया, सुन लिया। गुरुदेवने कहा, मनमें ऐसा नहीं रखना, मैं यहीं हूँ। मेरा अस्तित्व है, ऐसा ही मानना। हाथ ऐसे करके कहा। गुरुदेव देवके रूपमें थे। हूबहू देवके रूपमें। देवके वस्त्र, मुगट सब देवके रूपमें था।

मुमुक्षुः- तो भी पहचान लिया कि ये गुरुदेव ही हैं।

समाधानः- हाँ, गुरेदव ही हैं, देव नहीं है। मैं यहीं हूँ, ऐसा मानना। मैं कदाचित मानूं, लेकिन ऐसे कैसे मान लें? ऐसा विचार तो आये। ये सब कैसे (माने)? ये बेचारे कैसे माने? गुरुदेव कुछ बोले नहीं। परन्तु गुरुदेवका अतिशय प्रसर गया। उस वक्त सबको ऐसा हो गया। नहीं तो हर साल सबके हृदयमें दुःख होता था। उस वक्त एकदम उल्लास-से सब करते थे।

गुरुदेवने कहा, ऐसा मनमें नहीं रखना। उस वक्त स्वप्नमें बहुत प्रमोद था। उस एकदम ताजा था न। मैं यहीं हूँ। गुरुदेवकी आज्ञा हुयी, फिर कुछ...

गुरुदेव शाश्वत रहे, महापुरुष... अलग थी। मैं तो उनका शिष्य हूँ। उन्होंने जो मार्गका प्रकाश किया, वह कहनेका है। साक्षात गुरुदेव ही लगे, देवके रूपमें। ऐसा कुछ नहीं रखना। मैं यहीं हूँ, ऐसा मानना। कैसे पधारे? कैसे पधारे? गुरुदेव पधारो, पधारो ऐसा मनमें होता था। पूरी रात अन्दर ऐसी भावना रहा करती थी, गुरुदेव पधारो, पधारो। फिर प्रातःकालमें गुरुदेव ऊपर-से देवके रूपमें पधारे हों, ऐसा (स्वप्न आया)। गुरुदेव पधारे।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!