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मुमुक्षुः- पूज्य माताजी! शुद्ध द्रव्यका चिंतवन किस प्रकार-से करना चाहिये? थोडा-सा (स्पष्ट कीजिये)।
समाधानः- शुद्ध द्रव्यका चिंतवन तो मैं शुद्ध स्वभाव अनादिअनन्त (हूँ)। अनन्त काल गया, जन्म-मरण हुए, असंख्यात प्रकारके विभाव हुए और जन्म-मरण तो अनन्त हुए। उसके परिणाम भी अनेक प्रकारके हुए। तो भी वह द्रव्य पलटकरके अशुद्ध नहीं हुआ। द्रव्यका स्वभाव शक्तिरूप-से वैसा ही है। ऐसा मैं अनादिअनन्त शुद्धात्मा हूँ। अनन्त काल गया तो भी नाश नहीं हुआ। नाश होनेवाला नहीं है। वह स्वानुभवमें आ सकता है। ऐसा मैं स्वभाव अनादिअनन्त स्वयंसिद्ध आत्मा हूँ। उसका अस्तित्व ग्रहण करना। मैं ज्ञायक स्वभाव हूँ। ये विभाव है वह आकुलतारूप है। मैं निराकुल आत्मा ज्ञायक हूँ। ऐसा ज्ञायक स्वभाव मैं शुद्धात्मा हूँ। ऐसा विचार करना।
भीतरमें-से जब उसका अस्तित्व यथार्थ ग्रहण करे तो यथार्थ ग्रहणमें आता है। बाकी विचार करता है, अभ्यास करता है। यथार्थ ग्रहण तो भीतरमें जाकर उसका स्वभाव ग्रहण करे, उसका अस्तित्व ग्रहण करे तो यथार्थ ग्रहण होता है। बाकी विचार करे, प्रतीत करे, अभ्यास करे। मैं अनादिअनन्त शुद्धात्मा ज्ञायक हूँ और विभाव शुभभाव होता है वह पुण्यबन्धका (कारण), वह भी विभाव है। ऊँचा शुभभाव आवे, ज्ञान- दर्शन-चारित्रका भेद आवे तो भी शुभभाव रागमिश्रित है। मैं शुद्धात्मा हूँ। गुणका भेद होवे तो भी वह जान लेता है कि स्वभावमें ज्ञान, दर्शन, चारित्र सब है। तो भी उसका जो विकल्प आता है, वह विकल्प मेरा स्वरूप नहीं है। लक्षणभेद है। वास्तविकमें अनादिअनन्त अखण्ड चैतन्य हूँ, ऐसे शुद्धात्माको ग्रहण करना।
मुमुक्षुः- माताजी! स्वानुभव कालमें क्या द्रव्य-पर्याय दोनों एकसाथ अनुभवमें आते हैं?
समाधानः- द्रव्य-पर्याय दोनों (अनुभवमें आते हैं)। वास्तवमें पर्यायकी अनुभूति होती है और द्रव्य पर दृष्टि तो रहती है, निरंतर दृष्टि रहती है। अनुभूति पर्यायकी होती है, परन्तु द्रव्य और पर्याय दोनों ज्ञानमें आ जाते हैं। ज्ञानमें द्रव्य-पर्याय दोनों आ जाते हैं। द्रव्य और पर्याय, दोनोंकी अनुभूति। इस अपेक्षा-से द्रव्य-पर्याय दोनोंकी
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अनुभूति होती है। प्रगट पर्याय हुयी इसलिये पर्यायका अनुभव हुआ। ऐसा कहते हैं। परन्तु द्रव्य-पर्याय दोनोंका ज्ञान होता है।
मुमुक्षुः- मातेश्वरी! ये सब विकल्प, मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ करते-करते निर्विकल्पताका आनन्द नहीं आ रहा है।
समाधानः- विकल्प.. विकल्प... विकल्प-से निर्विकल्प नहीं होता है। उसका अभ्यास रहता है कि मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ। विकल्प तो विकल्प ही है। वह शुभ विकल्प है। परन्तु अभ्यास तो पहले ऐसे ही होता है। विकल्प, रागमिश्रित भाव साथमें रहता है कि मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ। विकल्प-से निर्विकल्प नहीं होता। मैं ज्ञायक हूँ, ऐसी परिणति प्रगट होवे और विकल्प टूट जाय।
मैं ज्ञायक ही ज्ञायक हूँ। स्वयंसिद्ध अनादिअनन्त ज्ञायक हूँ। ज्ञायक स्वभावी शुद्धात्मा ज्ञायक हूँ। ऐसी प्रतीत दृढ करके उसकी लीनता होवे, इस तरहकी परिणति प्रगट होवे तो निर्विकल्प होता है, तो विकल्प टूट जाता है। बाकी विकल्प बीचमें आता है, परन्तु विकल्प-से वह निर्विकल्प नहीं होता है। भीतरकी लीनता, उसकी एकाग्रता, उसकी प्रतीतिकी दृढता होवे, लीनताकी दृढता होवे तो निर्विकल्प होता है। विकल्प-से निर्विकल्प नहीं होता है।
मुमुक्षुः- आचार्य कहते हैं कि युक्तिके अवलम्बन-से अन्दरमें जाना। तो कौन- सी प्रबल युक्ति है जिससे अन्दर जाय?
समाधानः- युक्तिके अवलम्बन-से। दृढ युक्ति-से ऐसा निर्णय करना चाहिये कि मैं शुद्धात्मा ही हूँ और कुछ मैं नहीं हूँ। युक्ति-से, आगम-से ऐसे सबसे यथार्थ निर्णय करना, बादमें स्वानुभूति होती है। जो आगम बताता है, जो युक्ति-से (नक्की किया) कि स्वभाव है उसका नाश नहीं होता है। स्वभाव तो अनादिअनन्त जो स्वयंसिद्ध वस्तु है, उसका नाश नहीं होता है। ऐसी अनेक तरहकी युक्ति-से निर्णय करना चाहिये।
मैं ज्ञानस्वभाव हूँ। ज्ञान तो ज्ञान ही रहता है। जो पानी शीतल है, वह शीतल ही रहता है। अग्निकी उष्णताका स्वभाव है, उष्ण ही रहता है। ये तो दृष्टान्त है, स्थूल दृष्टान्त है। अनादिअनन्त परमाणु परमाणु रहता है, आत्मा आत्मा ही रहता है। वस्तुका नाश नहीं होता। ऐसी अनेक तरहकी युक्ति-से मैं चैतन्य स्वभाव आत्मा, शुद्धात्मा हूँ। उसमें अशुद्धता नहीं होती है। अशुद्धता पर्यायमें होती है। एक द्रव्यमें दूसरा द्रव्य प्रवेश नहीं करता। अनेक तरहकी युक्तिके बल-से और जो आचार्य भगवंत कहते हैं, गुरुदेव कहते हैं, उन सबका मिलान करके युक्तिके अवलम्बन-से दृढ प्रतीति करके आगे जाये कि मैं ज्ञायक हूँ, यथार्थ मैं ज्ञायक हूँ। स्वयंसिद्ध शुद्धात्मा हूँ। ऐसी बारंबार प्रतीति दृढ करके लीनताकी दृढता करना। बारंबार उसका अभ्यास करना। युक्ति अनेक
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तरहकी, यथार्थ युक्ति ऐसी दृढ होती है कि जो टूटती नहीं। ऐसी सम्यक युक्ति-से निर्णय करना चाहिये।
मुमुक्षुः- माताजी! वचनामृतमें आता है, खण्ड खण्ड उपयोग परवशता है। रागको परवशता समझना है कि ज्ञानको? खण्ड खण्ड उपयोग परवशता है तो वहाँ रागको समझना कि ज्ञानको?
समाधानः- राग परवश है। रागके साथ अधूरा ज्ञान है, अधूरा ज्ञान। इसलिये अधूरे ज्ञानको उपचार-से परवश कहनेमें आता है। रागमिश्रित क्षयोपशम ज्ञान भी परवश है। अधूरा ज्ञान भी परवश है। क्रम-क्रम प्रवर्तता है, खण्ड खण्ड प्रवर्तता है। पूर्ण केवलज्ञान है वह एक साथ प्रवर्तता है। राग परवशता है, लेकिन क्षयोपशम ज्ञानको भी परवश गिननेमें आता है। उसको भी उपचार-से परवश कहनेमें आता है।
मुमुक्षुः- .. वचन हमेशा अनुभवपूर्ण होते हैं, ऐसे हम आप चरणोंकी सेवामें हमेशा बने रहेंगे, यही भावना भाते हैं। ... बताया, उसमें और आपके बतलानेमें कुछ भी अंतर नहीं है।
समाधानः- बहुत स्पष्ट किया है, पूरे हिन्दुस्तानको जगा दिया। कोई जानता नहीं था, मार्ग बताया सबको। सब क्रियामें पडे थे। सब बाहरमें पडे थे, दृष्टि बाहर थी। कोई थोडा स्वाध्याय कर ले, कोई थोडी क्रिया कर ले, थोडा उपवास कर ले (उसमें) धर्म मान लेते थे। गुरुदेवने ...
मुमुक्षुः- ... समवसरणके साथ जा रहे हैं। समवसरणमें जा रहे हैं। तो वे बोले, क्या तीर्थंकरके पास? तीर्थंकर भी विराजमान हैं, दोनों विराजमान हैं। परमागम मन्दिर हमको गुरुदेवकी याद दिलाता है और वचनामृत भवन बन रहा है, वह माताजीकी याद दिलाता है।
समाधानः- ४५ वर्ष गुरुदेव यहाँ विराजमान रहे। बरसों तक निरंतर वाणी बरसायी। वाणी बरसानेवाले कोई महाभाग्य-से निरंतर वाणी बरसानेवाले। ऐसे अध्यात्मके निरंतर...
मुमुक्षुः- गुरुदेव तो कहते थे कि मेरु सम पुण्यका उदय हो तब ज्ञानीके वचन सुननेको मिलते हैं। हम लोगोंका महाभाग्य, बहिनश्री! आपकी छत्रछाया हम लोगोंके ऊपर है।
मुमुक्षुः- पूज्य माताजी! गुरुदेवने टेपमें फरमाया था कि प्रमाण पूज्य नहीं है, नय पूज्य है। थोडा-सा स्पष्टीकरण।
समाधानः- गुरुदेव ऐसा कहते थे कि नय पूज्य है। मुक्तिके मार्गमें नय मुख्य होता है। शुद्धनय शुद्धात्माको ग्रहण करो, द्रव्यदृष्टि करो, इसलिये नय पूज्य है। इस अपेक्षा-से। प्रमाण पूज्य है वह नयकी अपेक्षा-से नहीं, ऐसा कहते थे। परन्तु प्रमाण
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ऐसे साथमें रहता है। जिसको नय प्रगट होती है उसके साथमें प्रमाण होता है। प्रमाणज्ञान साथमें रहता है। द्रव्य-पर्याय दोनोंका प्रमाण-से मिलान होता है। इसलिये जो केवलज्ञान प्रगट होता है, जो मुनिदशा प्रगट होती है, साधक दशा-साधना वह सब पर्यायमें होती है। इस अपेक्षा-से नय और प्रमाण दोनों पूज्य हैं। गुरुदेव कोई जगह कहते थे, नयको मुख्य करते थे।
यदि प्रमाण पूज्य नहीं होवे तो मुनिदशा भी पूज्य नहीं होवे, तो केवलज्ञान भी पूज्य नहीं होवे। पर्याय प्रगट होती है तो नय और प्रमाण दोनों (साथमें रहते हैं)। साधक दशामें द्रव्यदृष्टि मुख्य करके साधनाकी पर्याय जो प्रगट होती है, चौथी भूमिका, पाँचवी, छठ्ठी-सातवीं भूमिका सब भूमिका होती है। उसमें सब पर्याय प्रगट होती है। इसलिये दोनों साथमें (होते हैं)।
परन्तु नयकी अपेक्षा-से अनादि काल-से जीवने शुद्धनयका पक्ष किया नहीं। शुद्धनयके बिना मुक्ति प्रगट होती नहीं। इसलिये नय पूज्य है, प्रमाण पूज्य नहीं है। वह तो पर्यायको गौण करनेके लिये कहा है। परन्तु साधक दशामें पर्याय तो आती है। इसलिये मुनिको पूज्य कहते हैं, केवलज्ञान (पूज्य है)। दोनों अपेक्षा समझनी चाहिये।
गुरुदेवकी बातमें दो अपेक्षा आती थी। दूसरी जगह प्रमाण और नयका सबका सम्बन्ध आता था। गुरुदेव भक्तिका अधिकार, दानका अधिकार सब पढते थे तो उसमें निश्चय-व्यवहारका मिलान करते थे। दोनों समझना चाहिये।
नय मुख्य है। अनादि काल-से जीवने उसे ग्रहण नहीं किया। मुक्तिके मार्गमें शुद्धात्माकी दृष्टि मुख्य रहती है। परन्तु पर्यायकी शुद्धता होती है। इसलिये नय और प्रमाण साथमें रहते हैं। प्रमाण पूज्य नहीं है। परन्तु नय-प्रमाण दोनों पूज्य हैं, कोई अपेक्षा-से। तो मुनिदशा पूज्य नहीं होती, तो केवलज्ञान पूज्य नहीं होता। यदि प्रमाण पूज्य नहीं होता तो, पर्याय पूज्य नहीं होती तो।
मुमुक्षुः- आज टेपमें आया था, माताजी! कि ध्रुवके षटकारक अलग है, पर्यायके षटकारक अलग हैं। तो हमें गभराहट होती है।
समाधानः- नहीं, अलग ऐसे नहीं है। ध्रुवके षटकारक अलग, वह दूसरी अपेक्षा है। दोनों द्रव्य अलग-अलग हैं। ध्रुवका षटकारक और दूसरे द्रव्यका अलग है। और पर्यायके षटकारककी अपेक्षा दूसरी है।
जितना द्रव्य स्वतंत्र है, उतनी पर्याय स्वतंत्र नहीं है। पर्याय द्रव्यके आश्रयमें होती है। पर्याय यदि इतनी स्वतंत्र होवे तो द्रव्य और पर्याय दोनों द्रव्य हो जाय। यदि इतनी पर्याय स्वतंत्र हो तो पर्याय ही द्रव्य हो जाय, दोनों द्रव्य हो जाय। इसलिये पर्याय द्रव्यके आश्रय-से होती है। परन्तु पर्याय एक अंश है। वह स्वतंत्र है। यह बतलानेके
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लिये उसके षटकारक भिन्न बताये। परन्तु इतनी अपेक्षा समझनी चाहिये कि द्रव्यके आश्रय- से पर्याय रहती है। द्रव्यके आश्रयमें पर्याय रहती है। इसलिये द्रव्य जितना स्वतंत्र है, उतनी पर्याय स्वतंत्र नहीं है। ऐसा समझना चाहिये। गुरुदेवकी अपेक्षा अनेक प्रकारकी (आती थी)।
मुमुक्षुः- ... पूरा सार आ गया। भविष्यका चित्रण बताना तेरे हाथकी बात है। उसको ही संभालकर रहे। परद्रव्यकी सँभाल करते-करते अनन्त काल बीत गया। लेकिन आत्मद्रव्य भीतर विराजमान है, उसकी सँभाल एक समयमात्र नहीं करी। ये मार्ग मिला कहाँ-से? ये रग-रगमें भरा हुआ है। रोम-रोममें। क्या वचनामृत है! अनमोल- अनमोल वचन हैं, जिसकी कीमत नहीं आंकी जा सकती। अगर उसको पान कर ले, .. चिंतन कर ले, वही सच्चा भक्त है, नहीं तो क्या है? सब सेवा करी, लेकिन आपके वचनोंको पालन करके एक तरफ बैठकरके अंतर मनन कर ले, तेरा कल्याण हो जायगा। वही सच्चा भक्त है। गुरुदेव कहेंगे कि मेरे मार्गमें आया, मेरा सच्चा भक्त है। एक बातको धारण करके ... एक-एक बोल... एक आया न? विकल्प हमारा पीछा नहीं छोडते। तो विकल्प तेरेको नहीं लगा, विकल्पको तू लगा है। तू विकल्पको छोड दे न। इतनी-सी बात। इतनेंमें सारा सार समा गया। ... छेदन हो गया। विकल्पका ज्ञायक हूँ, विकल्प मेरा स्वरूप नहीं है। धन्य हो!
मुमुक्षुः- हमारे कहते हैं कि जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि। मुमुक्षुः- मेरे रोम-रोममें समाया हुआ है, वचनामृतका एक-एक बोल। धन्य है! अगर एक बार उसने पढ लिया आत्म चिंतन-से एक बार मनन कर लिया, उसका कल्याण नहीं होवे ये बात बन सकती नहीं। .. मैं कहता हूँ ... वचनामृत पूरा- शुरू-से आखिर तक। अभिप्राय तेरा कहाँ पडा हुआ है? रुचिको पलट दे। तेरेको कहीं न लगे तो जा।
मुमुक्षुः- कहीं न रुचे तो अन्दर जा। मुमुक्षुः- विश्वका अदभुत तत्त्व तूं ही है। कौन कहनेवाला है? अदभुत तत्त्वको पहचानकरके, जिसको जानकरके जिन्होंने बता दिया कि विश्वका अदभुत तत्त्व तू ही है। सारा सार, जो देखो वह उसमें भरा है। निकालनेवाला होना चाहिये, खोजनेवाला होना चाहिये। और अपन नहीं खोजेंगे तो क्या फायदा? आपके बताये हुए मार्ग पर चलकर, एक सत्पुरुषको खोज ले और उसके चरणकमलमें सर्व अर्पण कर दे। तो तेरा कल्याण हो जायगा। धन्य हमारा भाग्य! ऐसे शब्द कहाँ मिलते थे? कौन जानता था? आज हमारा भाग्य खिल गया। आहाहा..!
जन-जनमें यह बात, आत्मा-आत्मा कौन जानता था? आज तो सरल मार्ग बता
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दिया। हलवा रख दिया सामने परोसकर, उठाकर खा ले। पर ऊतारना पडेगा। नहीं खाये तो ... अब तो ऊतार।
समाधानः- ... तीर्थंकर भगवान छद्मस्थ अवस्थामें होते हैं।
मुमुक्षुः- सर्वोत्कृष्ट तीर्थंकर ही होते हैं।
मुमुक्षुः- पहले ऐसा लिखा है कि श्रावक, सम्यग्दृष्टि, मुनिवर और बादमें लिखा है कि छद्मस्थ तीर्थंकर।
समाधानः- छद्मस्थ कहनेमें आता है। जबतक केवलज्ञान नहीं होता तबतक कहनेमें आता है। भगवानको कहनेमें आता है। अभी अधूरा ज्ञान होता है तबतक छद्मस्थ कहनेमें आता है। अरिहंत-अरिहंत सब अरिहंत कहलाते हैं, परन्तु तीर्थंकर भगवान विशेष पुण्यशाली होते हैं। इसलिये पुण्यवंत अरिहंत कहनेमें आता है। उनका प्रभावना उदय, उनका पुण्य विशेष होता है तीर्थंकर भगवानका। दूसरे अरिहंत भगवानके पुण्य होता है। उसमें तीर्थंकर भगवान सातिशय पुण्यशाली विशेष होते हैं। इसलिये पुण्यशाली अरिहंत कहनेमें आता है।
मुमुक्षुः- ... पात्रता। यह विशेष इसमें लिया है-निर्भ्रान्त दर्शनकी पगदण्डी पर। उसमें ऐसा लिखा है। गर्भित पात्रता है, वह ज्ञानी ही जान सकते हैं। तो हमें कैसे मालूम पडे?
समाधानः- गर्भित पात्रता-अन्दर अव्यक्त पात्रता हो। वह स्वयं न जान सके तो स्वयंको अपनी पात्रता प्रगट करनी। अन्दरमें स्वयं अपनेको जान सकता है कि मेरी पात्रता किस प्रकारकी है। अन्दर अव्यक्त पात्रता हो वह स्वयंको पकडमे न आये तो स्वयं अंतरकी जिज्ञासा, लगन तैयार करके स्वयं पुरुषार्थ करके पात्रता प्रगट करनी। अन्दर अव्यक्त हो वह सबको पकडमें आ जाय, ऐसा नहीं होता।
मुमुक्षुः- प्रगट हो जाय उसके बाद तो जानना कहाँ रहा? वह तो ज्ञात हो गया।
समाधानः- इतनी जिज्ञासा हो कि मेरी पात्रता किस जातकी है। मुझे क्यों मालूम नहीं पडती। तो पात्रता अन्दर-से प्रगट करनी।
मुमुक्षुः- तबतक हुयी नहीं है।
समाधानः- हाँ, तबतक नहीं हुयी है। स्वयं प्रगट करनी। उतनी अंतरमें स्वयंको भावना होती हो तो।
मुमुक्षुः- कोई-कोई ज्ञानिओंको, गर्भित पात्रताका ख्याल कोई-कोई ज्ञानियोंको आ जाता है। गर्भित पात्रताका ख्याल कोई-कोई ज्ञानियोंको आ जाता है।
समाधानः- आ जाय, उसकी अमुक जातकी लायकात देखकर ख्यालमें आ जाता
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है कि इस जीवकी किस प्रकारकी लायकात है। वह जान सकते हैं। स्वयं जान न सके तो कोई ज्ञानी उसे जान सकते हैं। सबकी जान सके ऐसा नहीं, कोई-कोईकी जान सकते हैं। उसके परिचय-से किस जातके परिणाम और किस जातकी उसकी गहराई और किस जातका है, उस पर-से जान सकते हैं।
मुमुक्षुः- पात्रताके परिणाम तो अनुभव-से अधिक स्थूल है। समाधानः- हाँ, स्थूल है। मुमुक्षुः- अनुभवका जान सके तो पात्रता तो... समाधानः- अनुभूति तो स्वयंकी है। अनुभूति तो, स्वयं स्वानुभूति करे वह स्वानुभूति तो स्वसंवेदन ज्ञान है। स्वयं ही उसका अनुभव करनेवाला है। इसलिये वह उसका अनुभव कर सकता है। ये तो दूसरेकी पात्रता। बाकी तो स्वयं ही है, स्वानुभूति है तो। स्वानुभूतिमें स्वयं स्वसंवेद्यमान स्वयं है। इसलिये तो उसका वह अनुभव कर सकता है। दूसरेका जानना, उसमें सबका जान सकते हैं, ऐसा नहीं है। किसीको ऐसा प्रत्यक्ष ज्ञान हो तो जान सकता है। किसीको मति-श्रुतकी निर्मलता हो, कोई अवधिज्ञानी हो वह जान सकता है। बाकी कोई जीव परिचयमें आया हो तो (जान सकते हैं)।