Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 256.

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ट्रेक-२५६ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- स्वरूपका अर्थात ध्रुवका भावभासन जिसे कहते हैं, वह वर्तमान जो ज्ञान परिणति है, उसका भाव निर्विकल्पपना और स्वपरप्रकाशकपना .... उसके ख्यालपूर्वक जानपनामात्र जो पूरी वस्तु है, वह मैं हूँ, उस प्रकार-से पहचान तो हुई, पहले उस प्रकार-से पहचान नहीं होती थी। ये कोई जाननेवाली सत्ता है कि नहीं? परन्तु उस जाननेवालेकी सत्ताका प्रगट ख्याल स्पष्टरूप-से नहीं आता था। इस स्पष्ट ख्यालपूर्वक पूरा ध्रुव स्वरूप, उसका लक्षण-से ख्याल किया कि ऐसा अणूर्तिक, मूर्तिक शरीर- से बिलकूल भिन्न अमूर्तिक ज्ञानमय आत्मा मैं हूँ, ऐसा निर्णय करना है। वह निर्णय करना है वहाँ तक तो बराबर है। परन्तु वह निर्णय हो नहीं रहा है, निर्णय टिकता नहीं है, विचारमें मैं यह हूँ, ऐसा करे, फिर रागका परिणाम हो जाय, उसमें ठीक- अठीकपना तुरन्त वेदनमें आकर उसकी अधिकता भासित हो जाय, फिर निर्णय तो जो था वही रहता है। यहाँ-से भी आगे बढना हो तो किस प्रकार-से करना चाहिये? और क्या करना चाहिये?

समाधानः- अंतरमें भावभासन हो कि ज्ञायक है वही मैं हूँ। ज्ञायकका अस्तित्व ग्रहण करके और बारंबार उसे यथार्थ निर्णय हो तो उसे टिकाये रखना चाहिये। वह टिकाता नहीं और पलट जाता है। बुद्धिपूर्वक निर्णय किया कि मैं भिन्न हूँ, ऐसा निर्णय किया कि मेरा अस्तित्व भिन्न है, ये सब विभावभाव-से मैं भिन्न हूँ। अकेला ज्ञानमात्र स्वभाव-ज्ञायक (हूँ)। ज्ञान माने अकेला गुण नहीं, परन्तु मैं पूरा ज्ञायक हूँ। ऐसे ग्रहण किया, बुद्धिमें नक्की किया परन्तु मैं भिन्न हूँ.. एकत्व परिणति जो स्वयंकी हो रही है, उस वक्त भी मैं भिन्न ज्ञायक हूँ, उस वक्त भी मैं भिन्न ज्ञायक हूँ, ऐसी उसकी दृढता और ऐसी उसकी परिणति बारंबार टिकाता नहीं है। पलटकर वह मुख्य हो जाता है और यह गौण हो जाता है। अपने अस्तित्वको स्वयं भूल जाता है और जो विभावका अस्तित्व है, उसे मुख्य (हो जाता है)। मेरा अस्तित्व मानो विभावमें है। अपना अस्तित्व भूल जाता है। एक बार, दो बार, तीन बार वह नक्की करता है, परन्तु जो विकल्पकी धारा वर्तती है, उसमें एकत्व हो जाता है।

अन्दर स्वयं भिन्न है, ऐसा यथार्थ निर्णय किया कि मैं भिन्न ही हूँ, ऐसा नक्की


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किया तो भिन्नता अनुसार स्वयं भिन्न कार्य करता नहीं है। मात्र बुद्धिमें निर्णय करता है। परन्तु भिन्नताका अभ्यास नहीं करता है। बारंबार उसे टिकाता नहीं है। और वह बुद्धिपूर्वक विकल्प-से करने जाय तो उपाधि और आकुलता हो जाय कि इसे कैसे टिकाना? एक जातका प्रयास वह नहीं कर सकता है। परन्तु वह सहजपने कैसे हो, उसकी बारंबार लगनी, अभ्यास बारंबार टिकाये रखे।

निर्णय किया उसका कार्य लाता नहीं है। मैं भिन्न हूँ, ऐसा नक्की किया लेकिन भिन्नतारूप कार्य नहीं लाता है। जो-जो परिणतिका उदय आता है, उसी वक्त मैं भिन्न हूँ, भिन्न रहनेका, उस प्रकार-से अपनी प्रतीतिको टिकानेका वह उद्यम नहीं करता है और कार्य लाता नहीं। इसलिये आगे नहीं बढता है। निर्णय करके छोड देता है, निर्णय करके छोड देता है।

मुमुक्षुः- छूट जाता है, माताजी!

समाधानः- भले छूट जाता है। उतना प्रयास उसका आगे चलता नहीं है, छूट जाता है। छूट जाता है, बारंबार उसे टिकता नहीं है। परन्तु विकल्परूप-से, अभ्यास- रूप-से भी टिकाता नहीं है। विकल्परूप-से या अभ्यासरूप-से टिकाये तो उसे आगे जाकर सहज होनेका अवकाश है। परन्तु वह उसे टिकता नहीं है, छूट जाता है। इसलिये जो परिणति है उस तरफ दौडा जाता है। विकल्पमें, भावमें उसे रुचिमें लगे कि मैं भिन्न हूँ। परन्तु भिन्नका भिन्नरूप कार्य तो होता नहीं। बुद्धिमें रहता है और कार्य होता नहीं।

मुमुक्षुः- रागमें एकता तो तुरन्त दिखती है कि एकता यहाँ हो गयी।

समाधानः- हाँ, एकता हो जाती है। भिन्न भिन्नरूप कार्यरूप होता नहीं। इसलिये वह कार्य नहीं होता है। वह दूर जाय तो उसे भिन्नतारूप कार्य लानेका है। भिन्नताकी परिणति करके कार्य लानेका है, वह कर नहीं सकता है। बारंबार ऐसे ही खडा रहता है। उसमें उसे महेनत पडती है, इसलिये वह करता नहीं।

मुमुक्षुः- उसमें महेनत किस प्रकारकी?

समाधानः- उसे सहज (नहीं होता)। वह सहज है इसलिये वहाँ दौडा जाता है, अनादिका अभ्यास है वह सहज हो जाता है। इसमें उसे दिशा पलटनी है वह छूट जाता है। बुद्धिपूर्वक करके छूट जाता है, बारंबार छूट जाता है। इसलिये उतनी रुचिकी मन्दता है, पुरुषार्थकी मन्दता है। इसलिये वह छूट जाता है।

उतनी लगन लगी हो कि बस, यह चैतन्य ही (चाहिये), चैतन्य बिनाकी परिणति मुझे चाहिये ही नहीं। मुझे चैतन्यका ही अस्तित्व चाहिये। यह अस्तित्व मुझे नहीं चाहिये। उतनी अन्दर-से लगन, महिमा और रुचिकी उग्रता हो तो उसका पुरुषार्थ टिका रहता


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है। नहीं तो उसका पुरुषार्थ बार-बार छूट जाता है। वह मात्र विकल्प-से नहीं टिकता। अन्दर-से सचमूचमें लगे तो वह टिके। वास्तवमें लगे तो टिके। तो उसका कार्यरूप आये। निर्णयका कार्य आये तो प्रतीति प्रतीतिरूप कार्य लाये।

मुमुक्षुः- पहले तो क्या होता था कि कोरा विकल्प था। भावभासन जिसे कहें ऐसा नहीं था। अब इतना ख्यालमें आता है कि इस प्रकार-से यह ज्ञायक है, उसमें अहंपना करना। परन्तु उसमें आधा घण्टा, एक घण्टा, दो घण्टा अभ्यास किया हो, परन्तु दूसरा प्रसंग आये इसलिये तुरन्त ऐसा लगे कि रागमें एकता हो जाती है।

समाधानः- अभी सहज नहीं है, इसलिये उसमें फिर-से एकता हो जाती है। उसे बारंबार अभ्यास करना चाहिये तो होता है। और रसपूर्वक अभ्यास हो और उसीकी महिमा लगे तो वह अभ्यास बारंबार हो।

मुमुक्षुः- इसीमें उग्र अभ्यास, रुचि, पुरुषार्थ और महिमा। इतना उसे बढना चाहिये।

समाधानः- हाँ, वह बढना चाहिये। अभ्यास, पुरुषार्थ, रुचि, महिमा सब बढना चाहिये।

मुमुक्षुः- .. निर्णय तो निर्णय है। निर्णय हो तो फिर क्यों हट जाय?

समाधानः- निर्णयमें इतना कि यह मैं हूँ, इतना। परन्तु यह मैं हूँ, इससे भिन्न हूँ। परन्तु भिन्न भिन्नतारूप कार्य करे तो प्रतीतिने कार्य किया कहनेमें आये। भिन्नतारूप कार्य नहीं आता है, तबतक प्रतीति ज्योंकी त्यों बुद्धिपूर्वक रह जाती है।

मुमुक्षुः- भिन्नतारूप कार्य आवे तो उसे अतीन्द्रिय आनन्दका आवे, ऐसा कहना है?

समाधानः- भिन्नतारूप कार्य लाकर वह यदि सहज हो तो उसे अतीन्द्रिय आवे।

मुमुक्षुः- उसके पहले भिन्नतारूप कार्य किस प्रकार-से?

समाधानः- उसे भेदज्ञानका कार्य सहज होना चाहिये। फिर वह कितनी बार हो, वह उसके पुरुषार्थ (आधारित है)। किसीको तुरन्त अतीन्द्रिय निर्विकल्प स्वानुभूति हो, किसीको थोडी देर लगे। परन्तु उसे सहज भेदज्ञानकी धारा होनी चाहिये, तो उसे होता है। उसका कारण यथार्थ हो तो कार्य आता है।

मुमुक्षुः- अनुभवके पहले भी ऐसा कोई जुदा कार्य दिखता है?

समाधानः- भिन्न कार्य उसे आना चाहिये, भेदज्ञानकी धाराका कार्य आना चाहिये। भेदज्ञानका कार्य... निर्विकल्प दशाका जो यथार्थ कारण है वह कारण उसे यथार्थ होना चाहिये।

मुमुक्षुः- उस जातका कार्य...

समाधानः- हाँ, उस जातका कार्य। निर्विकल्प दशाका कारण है उस जातका। उसके पहले तो अभ्यास करता रहे। अभ्यास छूट जाय (तो बार-बार करे)।


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मुमुक्षुः- कोई बार तो ऐसा लगे कि मानो सहज ख्याल आता हो ऐसा लगे। और कई बार घण्टों तक बैठे हों तो सामान्य स्पष्टता भी नहीं रहती हो, ऐसा भी बनता है।

समाधानः- भिन्न-भिन्न प्रकार-से परिणति कार्य करे। कोई बार सूक्ष्मरूप-से करे, कोई बार स्थूलरूप-से करे। इसलिये उसमें उसका प्रयत्न कोई बार तीव्र हो जाय। सूक्ष्म ग्रहण करे, कोई बार स्थूल (हो जाय), इसलिये उसमें उसे फेरफार होता रहता है।

मुमुक्षुः- .. कार्यमें आपने ऐसा कहा कि विकल्पात्मक भेदज्ञान अन्दरमें ऐसे कार्यरूप हो कि जिसका फल अनुभूतिरूप आये। ऐसी एक स्थिति भी बनती है।

समाधानः- हाँ, ऐसी स्थिति बनती है। उसे सहज धारा हो कि जिसका कार्य निर्विकल्प दशा आवे। अभी उसे, वास्तविक निर्विकल्पताके बाद जो सहज होता है, ऐसा नहीं कह सकते, परन्तु निर्विकल्प दशा पूर्व उसका कारण ऐसा प्रगट होता है।

मुमुक्षुः- उस जातका आप ईशारा करना चाहते हैं कि इस प्रकारका होना चाहिये?

समाधानः- हाँ। ... करते-करते यदि उसे उग्र पुरुषार्थ हो तो उसे यथार्थ कारण प्रगट होनेका बन जाता है। अन्दर-से लगा रहे तो। छोड तो कोई अवकाश नहीं है।

मुमुक्षुः- ... अपनेको देखने-से ऐसा तो लगता है कि पुरुषार्थकी मन्दता है। जितनी उग्रता चाहिये उतनी नहीं है।

समाधानः- अपनेको ख्याल आये।

मुमुक्षुः- .. फिर भी ऐसा लगे कि पुरुषार्थ मन्द है। ऐसा ख्याल आये तो करता रहे।

समाधानः- बाहरमें निवृत्ति हो तो भी अंतरमें करना तो स्वयंको रहता है।

मुमुक्षुः- अब ऐसा लगता है कि थोडा-थोडा भावभासनमें आता जाता है। लेकिन अभी तो बहुत रुचि इत्यादिका पुरुषार्थ बाकी है।

समाधानः- भावभासन होकर उसको टिकाना, उस प्रकारका अभ्यास करना वह बाकी रहता है।

मुमुक्षुः- १७वीं गाथामें आया कि पहले जानना और फिर श्रद्धान करना, वह कैसे जानना? आत्मा तो अरूपी है।

समाधानः- अरूपी जाननेमें आता है। अरूपी है परन्तु कोई अवस्तु नहीं है। वस्तु है इसलिये ज्ञात होती है। ज्ञानको ज्ञान-से जाना जाता है, ज्ञायकको ज्ञान-से जाना जाता है। ज्ञायक अरूपी और ज्ञान भी अरूपी। इसलिये ज्ञायक ज्ञान-से ज्ञात होता है। उसे जाननेके लिये रूपी वस्तुकी जरूरत नहीं पडती। अरूपी अरूपी-से ज्ञआत होता है। ज्ञान अरूपी और ज्ञायक अरूपी है। ज्ञान-से ज्ञायक ज्ञात होता है। उसे


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रूपी वस्तुकी मददकी आवश्यकता नहीं है। बीचमें निमित्त होता है उतना। बाकी स्वयं उसके लक्षण-से जान सकता है। देव-गुरु-शास्त्रका निमित्त होता है, परन्तु उपादान स्वयं तैयार करके जाने तो स्वयं अपनेको ज्ञान द्वारा ज्ञायक ज्ञात होता है।

मुमुक्षुः- विकल्प द्वारा नहीं?

समाधानः- विकल्प-से ज्ञात नहीं होता। विकल्प बीचमें आता है, परन्तु विकल्प- से ज्ञात नहीं होता, ज्ञायक ज्ञान-से ज्ञात होता है।

मुमुक्षुः- सलाह देनेवाला मिथ्यादृष्टि है उसे रागका ही स्वभाव वर्तता है, ज्ञायकका ज्ञान नहीं वर्तता, तो उसका कैसे करना?

समाधानः- नहीं वर्तता है उसे प्रयत्न करके जानना चाहिये। रागका ज्ञान उससे भिन्न होकर, पुरुषार्थ करके स्वयं स्वसन्मुख दिशा बदलनी चाहिये, तो ज्ञात होता है। अनादिका जो अभ्यास है उसमें चला जाता है। अंतरमें देखता नहीं, इसलिये मात्र रागका ज्ञान वर्तता है। स्व तरफ उपयोग करके स्व तरफ मुडना चाहिये, तो ज्ञात हो। उसकी दिशा बदलनी चाहिये, उसे पलटना चाहिये तो ज्ञात हो।

दिशा बदलता नहीं है, एक ही दिशामें चला जाता है। उसे पलटना चाहिये। मार्ग पर चलता हुआ मनुष्य ऊलटी दिशामें चलता हो, वह पलटे तो दूसरी दिशामें मुड सकता है। गुरुदेवने तो बहुत बताया है। कौन-सी दिशा, किस ओर मुडना वह बताया, परन्तु मुडना अपने हाथकी बात है।

मुमुक्षुः- कोई आसान तरीका बताईये न।

समाधानः- वह आसान ही है। आसानमें आसान वह-ज्ञान लक्षण-से आत्माको पहचानना। वह सरल-से सरल है। उसमें बाहरका कुछ करना नहीं होता, या उसमें कुछ बाहर-से कष्ट करना या दूसरा कुछ नहीं आता। तेरे स्वसन्मुख उपयोग करके, सूक्ष्म दृष्टि करके अंतरकी लगनी और महिमा लगाकर तू अंतरमें जा। अंतरमें देख, उसका भेदज्ञान कर कि यह भिन्न है, राग भिन्न और ज्ञान भिन्न है। ऐसा भेदज्ञान कर, अंतर-से न्यारा हो जा, वह सरल-से सरल उपाय है। उसकी लगन लगा, महिमा लगा, वह सब कर। वह सरल उपाय है।

बाहरका सब है वह उसे सरल लगा है। वह तो पर पदार्थ है। उसे अपना करनेके लिये प्रयत्न किया तो भी वह अपने होते नहीं। उस सर्व उपाय निष्फल है। वह उसे सरल लगता है वह दुर्लभ है, और यह अपना सरल है वह उसे दुर्लभ हो गया है।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- जाननेवाला है। ऐसा पूरा जाननेवाला मैं हूँ। जो जाणकतत्त्व है पूरा जानन स्वभाव-से भरा है। जिसमें नहीं जानना ऐसा कुछ नहीं है। ऐसा जाननेवाला


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तत्त्व है वही मैं हूँ। यह जड तत्त्व है और यह जाननेवाला तत्त्व है। वह जाननतत्त्व अनन्त-अनन्त शक्ति-से भरा हुआ, ऐसा जाननतत्त्व मैं हूँ। मात्र वर्तमान जाना उतना नहीं, परन्तु अखण्ड जाननेवाला है वह मैं हूँ। पूर्ण जाननेवाला वह मैं हूँ।

मुमुक्षुः- .. श्रद्धामें नक्की करना ना?

समाधानः- यह मैं ही हूँ, ऐसा श्रद्धा-से, विचार-से नक्की करना। लक्षण पहिचानकर, विचार करके उसकी प्रतीत-श्रद्धा करे कि यही मैं हूँ, अन्य कुछ मैं नहीं हूँ। ऐसे प्रतीत तो स्थूलता-से की, परन्तु अंतर-से जब प्रतीत हो तब उसे अन्दर-से सत्य ग्रहण होता है। पहले बुद्धिपूर्वक विचार करे, फिर अंतर-से विचार करे।

मुमुक्षुः- ऐसा होकर फिर छूट जाता है।

समाधानः- विचारपूर्वक नक्की करे, अभ्यास करे, परन्तु अंतर-से जो होना चाहिये, वह स्वयं पलटे तो होता है।

मुमुक्षुः- उस दिन आपने .. बात कही तो दो-तीन दिन-से..

समाधानः- स्वयं तो भिन्न ही है। अभ्यास करना, छूट जाय तो। अनादिका अभ्यास है इसलिये बारंबार उसमें चला जाता है। छूट जाये तो बारंबार अभ्यास करना। बारंबार उसकी लगनी, महिमा, विचार, बारंबार प्रतीत करनेका अभ्यास बारंबार करना, छूट जाय तो। छूट जाय तो बारंबार करना। थकना नहीं। बारंबार करना।

... आचार्यदेव कहते हैं, अविच्छिन्न धारा-से भानी। केवलज्ञान हो तबतक भेदज्ञानकी धारा ज्ञानदशामें सहजपने चलती है। तो पहले उसका अभ्यास करना। वह अभ्यास छूट जाय तो बारंबार करना।

मुमुक्षुः- थोडे समयमें क्या करना?

समाधानः- सबको एक ही करनेका है। आचार्यदेव कहते हैं न, आबालगोपाल सबको एक ज्ञायक आत्मा पहचानना है।

मुमुक्षुः- हमारी तो बहुत उम्र हो गयी है।

समाधानः- बहुत साल सुना है। बस, वह एक ही करनेका है। एक ज्ञायक आत्माको पहिचानना वही करनेका है। ज्ञायक आत्माको पहिचानना। ज्ञायक जुदा है और शरीर जुदा है। सब भिन्न है। विभाव स्वभाव अपना नहीं है, उससे स्वयं भिन्न है। आत्मा शाश्वत (है)। ये उम्र आदि शरीरको लागू पडता है, आत्माको कुछ लागू नहीं पडता। आत्मा तो शाश्वत है। आत्माको पहिचानना, आत्मा ज्ञायक है।

देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा अंतरमें और अंतरमें शुद्धात्माको पहिचाननेका प्रयत्न करना। सबको एक ही करना है। एक ज्ञायक आत्माको पहिचानना। मैं ज्ञायकदेव भगवान आत्मा हूँ। मेरे आत्मामें ही सर्वस्व है। मैं अदभुत आत्मा, अनुपम आत्मा आनन्द-से भरा,


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ज्ञान-से भरा, अनन्त प्रभुता-से भरा मैं चैतन्य हूँ। ऐसा अदभुत तत्त्व मैं हूँ। सबको एक ही करना है। मैं ज्ञायक आत्मा जाननेवाला, शाश्वत आत्मा हूँ। शरीरकी कोई भी अवस्था हो, वह मैं नहीं हूँ। मैं उससे भिन्न हूँ। मैं चैतन्य स्वरूप आत्मा शाश्वत हूँ।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!