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मुमुक्षुः- माताजीके वचनामृतमें गुरुदेवने रसकस-से गुरुदेव स्वयं ही इतने ही रस- से बात करते हो, इस उपदेशकी जमावट (होती है), इतनी नवीनता (लगती है), ऐसे सुनते हों, परन्तु आपके कहनेके बाद सुनते हैं तो बहुत फर्क लगता है। नयी बात ही लगे।
समाधानः- हाँ। गुरुदेव स्वयं शास्त्रकी बात कहते हो, स्वयं भी ऐसा कहते थे।
मुमुक्षुः- शुरूआतमें आपके द्वारा लिखे गये समयसारके प्रवचन है, उसमें पहले पढा था। गुरुदेवका एक वचन आता है।
समाधानः- हमें रुचता है उसका गीत गाते हैं। दूसरेके लिये नहीं। हमको जो रुचता है उसका गीत हम गाते हैं। शास्त्र पढते वक्त गुरुदेव आहाहा..! स्वयं रंग जाते थे। वही शास्त्र हम पढे और गुरुदेव पढे, वह कुछ अलग ही होता है। गुरुदेव स्वयं एकदम रंगमें आकर पढते थे। उनकी स्वयंकी महिमाको मिलाकर जो निकालते थे, उनको जो महिमा आती थी, वह कुछ अलग ही प्रकार-से पढते थे। अपने आप पढें और गुरुदेव पढें, वह कुछ अलग ही प्रकार-से पढते थे।
जीवको देशनालब्धि होती है। जीव अनादिकाल-से जो समझा नहीं है। उसे एक बार जिनेन्द्र देव या गुरु, कोई उसे मिलता है। देशना सुनकर अंतरमें-से देशनालब्धि प्रगट होती है। आत्माका स्वरूप अप्रगटपने भी ग्रहण होता है। वह अपनेआप अनादि काल-से (प्रयत्न करता है)। जो चैतन्य-स्पर्शी वाणी आती है, उस वाणीके साथ उपादानका सम्बन्ध होता है। आत्माको जागृत होनेमें ऐसा उपादान-निमित्तका सम्बन्ध है। पुरुषार्थ भले अपने-से हो, जीव स्वतंत्र पुरुषार्थ करे तो भी निमित्त और उपादानका ऐसा सम्बन्ध है।
चैतन्यकी जो वाणी निकलती है वह अन्दर-से घुलमिलकर, अंतरमें जिसे प्रगट हुआ है, वह प्रगट जिनको हुआ है उनकी वाणी नीकले, उस वाणीकी असर उसके उपादान उपर (होती है)। ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। इसलिये गुरुदेवकी चैतन्य- स्पर्शी वाणी आये, वह दूसरेको जागृत होनेमें निमित्त होती है। ऐसा उपादान-निमित्तका सम्बन्ध है।
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अपनेआप शास्त्र पढे और जो गुरुदेव स्वयं कहे उसकी जो असर हो, वह असर अलग ही होती है। ग्रहण करके स्वयं पढे तो उसे दृष्टिमें कुछ समझमें आये, परन्तु पहले तो गुरुदेव समक्ष, जिन्हें साक्षात चैतन्य प्रगट हुआ है, उनकी वाणी ही चैतन्यको प्रगट होनेमें निमित्त होती है, ऐसा उपादान-निमित्तका सम्बन्ध है। जीव स्वतंत्र होने पर भी स्वतंत्र पुरुषार्थ करता है तो भी उपादान-निमित्तका ऐसा सम्बन्ध है। गुरुके साथ और देवके साथ।
उनका आत्मा किस प्रकार कहता है? वह स्वयं आत्मा है न, इसलिये उसे एकदम ग्रहण होता है। टेपमें भी .. सबको उस जातके संस्कार है न। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावका सम्बन्ध हो जाता है। टेप अलग होती है, सब अलग होता है।
स्वयंको चैतन्यको ग्रहण करना है, परन्तु गुरुकी वाणी चैतन्य बताये कि तू आत्मा है। बारंबार कहे। वह धोबीका वस्त्र गलती-से ओढकर सोया है। उसे बारंबार गुरु कहते हैं, ये वस्त्र तेरा नहीं है, तेरा नहीं है। तब उसे मालूम पडता है कि ये मेरा नहीं है। वैसे गुरुदेवने बारंबार उपदेशमें कहा कि तू आत्मा भिन्न है। ये शरीर भिन्न है, ये विभाव तेरा स्वभाव नहीं है, सब भिन्न है। भिन्न है-भिन्न है। कितने साल वाणी बरसायी। अन्दर दृढ संस्कार, गुरुकी वाणी-से दृढ संस्कार पडते हैं।
बाकी अनादि-से क्षयोपशम ज्ञान ऐसा है कि बाहरका सब ग्रहण करता है, परन्तु अपनेको ग्रहण करनेमें गुरुकी वाणी मिले तो उपादान और निमित्तका ऐसा सम्बन्ध है। क्षयोपशम ज्ञान बाहरका सब ग्रहण करे। एक जातिके लोग हो तो खुदने थोडा- सा देखा हो तो उस मनुष्यको पहचानता है। उसे स्थूल उपयोग कहते हैं, उसमें सूक्ष्मता- से भेद कर सकता है।
बहुत सालके बाद आदमीको देखे तो ऐसा कहे, यह वही आदमी है। उसमें क्या फर्क पडा? उस वह कह नहीं सकता कि उसके आँखें अलग है, या उसका चहेरा अलग है, यह अलग है, ऐसा भेद तो करता है, परन्तु वह बोल नहीं सकता। थोडा- थोडा फेरफार हो तो उसका ज्ञान क्षयोपशम ज्ञान चारों ओर पहुँच सकता है। यह फलाना आदमी, फलाना आदमी। ऐसे दूर-से भी पहचान सकता है। क्षयोपशम ज्ञान ऐसे भेद करता है। ऐसे स्थूल कहनेमें आता है, परन्तु सूक्ष्म भेद बाहरमें करता है।
अंतरमें स्वयंको पहचानना हो, वह भेद ज्ञान ही करता है। परन्तु वह ज्ञान अपनी ओर मुडकर स्वयंको पकडनेमें (सक्षम नहीं होता)। अनादिका बाहरका अभ्यास हो गया है, स्वयंको पकड नहीं सकता। पुरुषार्थ करे तो पकडे। गुरुकी वाणी आवे। उस वाणीके साथ उपादानका (सम्बन्ध है)। तू भिन्न है।
ज्ञान ज्ञानको ग्रहण करे, ज्ञायकको ग्रहण करे ऐसा उसका स्वभाव है। परन्तु वह
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ग्रहण करनेमें स्वयं पुरुषार्थ करे तो उसकी दिशा बदलती है। बाहरका ग्रहण करनेमें उसे सहज-सहज ग्रहण करता है। उसमें उसे उपाधि नहीं लगती, बोझ नहीं लगता। कुछ नहीं लगता। परन्तु अंतरमें जाय तो उसे उपाधि-बोझ लगता है। गुरुदेवने वाणी बरसाकर सरल कर दिया है। परन्तु पुरुषार्थ स्वयंको करना पडता है।
मुमुक्षुः- अंतर पुरुषार्थ ... बाहर-से भिन्न-भिन्न व्यक्तिको पहचान सकते हैं, ऐसे आत्माको भी पहचान सकता है?
समाधानः- आत्माको पहचान सकता है। स्वयं ही है। स्वयं ही है। ज्ञान ज्ञानको पहिचान सकता है। ऐसा सूक्ष्म भेद करता है।
मुमुक्षुः- बाहरमें तो वह ख्यालमें आता है, आप कहते हो वैसा। साधारण तो...
समाधानः- क्या भेद है वह बोल नहीं पाता। उसकी आँखें अलग है, चहेरा अलग है, यह अलग है, दिखनेमें सब एक समान लगता है। तो भी क्षयोपशमज्ञान भेद तो करता ही है कि यह मनुष्य यह है और यह मनुष्य यह है। ज्यादा लोगोंमें क्षयोपशम ज्ञान भेद कर देता है। इतना सूक्ष्म होकर भी भेद करता है। उसी तरह अपनी ओर मुडे तो स्वयंको पहचान सके, परन्तु मुडता ही नहीं है।
मुमुक्षुः- ऐसा अपनेको स्पष्ट पहचान सकता है?
समाधानः- हाँ, स्पष्ट पहचान सकता है। उसमें उसे बाहरमें शंका भी नहीं पडती। कोई उसे तर्क करे कि ये मनुष्य वह नहीं है। तो भी कहता है, ना, वही है। बिना विचार किये, तर्क बिना नक्की करता है कि यह वही मनुष्य है। दूसरे लोग कहे तो भी जूठा ही है।
वैसे स्वयंको नक्की कर सकता है कि यह मैं ही हूँ, यही मेरा अस्तित्व है। ऐसे तर्क बिना निःशंकपने स्वयंको ग्रहण कर सकता है कि यही मैं हूँ। अन्य कुछ मैं नहीं हूँ। ये रागादि मैं नहीं हूँ, यही मैं हूँ। निःशंकपने ग्रहण कर सकता है।
मुमुक्षुः- अदभुत बात करते हो, परन्तु कितनी बार ऐसा प्रयत्न करने-से हो और क्या होता है... पीछली बार कहा था कि भावभासन होनेके बाद विकल्पात्मक भेदज्ञान-से उसे टिकाये रखना चाहिये। तो उसे टिकाये रखनेमें ऐसा विचार आता है कि परिणतिमें रसका वेदन तो हो जाता है, तत्त्वका रस वेदनमें आता है, उस वक्त मैं भिन्न हूँ, भिन्न हूँ, ऐसा अभ्यास करते रहना उसका नाम टिकना है? विकल्पात्मक भेदज्ञान (उसे कहते हैं)?
समाधानः- विकल्पमें उसे ऐसा गाढ अभ्यास हो गया है, इसलिये उसे बीचमें विकल्प आते ही रहते हैं। परन्तु अंतरमें जो अपना गुण है, उस गुण द्वारा पूरे ज्ञायकको ग्रहण करना कि यह ज्ञान जितना, वर्तमान जाने उतना ही मैं नहीं हूँ, परन्तु मैं पूर्ण
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जाननेवाला ही हूँ, जो जाननेवालेका अस्तित्व है वही मैं हूँ। यह जाना, वह जाना ऐसा पर्यायमात्र जाना वह नहीं, परन्तु जाननेवालेका पूरा अस्तित्व है वही मैं हूँ। परन्तु जाननेवालेका पूरा अस्तित्व है, वही मैं हूँ। ऐसा उसे अन्दरमें ऊतरकर उसकी परिणति अन्दरसे अपने अस्तित्वमें-से ग्रहण होनी चाहिये।
उसे विकल्प साथमें आते हैं, इसलिये बार-बार विकल्प छूट जाता है और दूसरा विकल्प आता है। इसलिये उसका अनादिका अभ्यास ऐसे ही चालू रहता है। परन्तु बारंबार (भेदज्ञानको) दृढ करता रहे तो सहज होता है।
मुमुक्षुः- शुरूआतमें दृढ यानी इसप्रकार विकल्पपूर्वक दृढ करता रहे?
समाधानः- विकल्प तो साथमें आये बिना नहीं रहता है। परन्तु विकल्पके पीछे जो ज्ञान काम करता है, विकल्पके पीछे जो प्रतीत काम करती है, उस प्रतीत और ज्ञानको दृढ करते रहना। विकल्प तो साथमें आता ही रहेगा। जबतक विकल्पकी स्थितिमें है इसलिये विकल्प साथमें आता है।
मुमुक्षुः- विकल्पके पीछे जो ज्ञान और प्रतीति है, उसे दृढ करते रहना?
समाधानः- उसे दृढ करना। चैतन्यका आश्रय-द्रव्यका आश्रय-अस्तित्व है वही मैं हूँ। विकल्पका अस्तित्व वह मैं नहीं, परन्तु ज्ञायकका अस्तित्व है वह मैं हूँ।
मुमुक्षुः- ज्ञान और प्रतीतिमें दृढता तो इसप्रकार बाहरमें क्षयोपशम ज्ञानमें अनेक लोग हो और स्पष्ट ख्यालमें आये, ऐसा अपने आत्माका ख्याल आ जाता है?
समाधानः- हाँ, अपने आत्माका ख्याल आता है कि मैं आत्मा हूँ। वह तो रूपी है। ये अरूपी है, अरूपी है लेकिन खुद है। वह तो दूर है, वह मनुष्य दूर है। ये तो स्वयं और स्वयं समीप है। फिर भी पहचान नहीं सकता है।
मुमुक्षुः- आप कहते हो ... वह अमूर्तिक है। इसलिये हमें तो इस मूर्तिक पदाथामें ऐसा लगता है कि बराबर, क्षयोपशम ज्ञान-से ख्याल आ जाता है, इसका कैसे ख्याल आये?
समाधानः- अरूपीमें स्वयं दृढता, एकाग्रता करे, अपना अस्तित्व ग्रहण करे उसमें बारंबार दृढता करे तो स्वयं अपनेको ग्रहण हुए बिना नहीं रहता। उसे ऐसा हो गया है, गुरुदेव कहते थे न, नौ-दस लोग हो तो ये है, ये है, ऐसा करके स्वयंको गिनतीमें भूल जाता है। वैसे यह सब, यह सब है, परन्तु जाननेवाला कौन है? यह सब है (जानता है)। वह स्वयंको भूल जाता है। मैं कौन हूँ? ऐसा स्वयंको दृढ करना चाहिये कि यह मैं हूँ।
मुमुक्षुः- आप कहते हो, अंतर निवृत्ति (कहते हो), बाह्य-से तो निवृत्ति ली, परन्तु अंतर निवृत्ति लेकर ऐसा कर, अंतर निवृत्ति माने क्या?
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समाधानः- अंतर निवृत्ति माने अंतरमें अनेक जातकी विकल्पकी जालमें रुकता हो, अनेक जातके विकल्पमें रुकता हो, उसमें-से स्वयं छूटकर बारंबार चैतन्य तरफ जाना, वह अंतर निवृत्ति है। अनेक जातकी जालमें रुकता हो, (उसमेंसे बाहर निकलकर) चैतन्य तरफका विचार करना, चैतन्य तरफ यह मैं हूँ, ऐसे अपनेको ग्रहण करना। विकल्पकी जालकी प्रवृत्ति आडे वह बार-बार आती है, इसलिये वह उसे गौण हो जाता है। इसलिये विकल्पकी जालकी प्रवृत्ति कम करके अपनी ओरका अभ्यास बढाये, वह अंतर निवृत्ति है।
वास्तविक निवृत्ति तो स्वयं ज्ञायकका ज्ञायकरूप परिणमन हो जाय तो वास्तविक निवृत्ति है। परन्तु अन्य विकल्प कम करके चैतन्य तरफका अभ्यास बढाये तो भी अंतर निवृत्ति है।
मुमुक्षुः- आपके पास-से यह मार्गदर्शन बहुत सुन्दर मिलता है कि अनुभव पूर्व किस प्रकार आगे बढना, यह बहुत सुन्दर रीत-से आपसे ख्यालमें आता है।
मुमुक्षुः- न्याय उतना गंभीर और दृष्टान्त इतना सरल। पहचानमें आता है, और कह नहीं सकता कि कैसे पहचाना? सब एक सरीखे दिखते हैं फिर भी कैसे अलग करता है?
समाधानः- उसके लक्षण-से पहचाना ऐसा कहे। परन्तु क्या लक्षण, वह कह नहीं सकता। किसीकी आवाज पर-से (पहचान करता है)। सबके आवाज बारीक हो तो आवाज पर-से कहता है कि यह फलाना मनुष्य है। आवाजमें क्या फर्क पडा उसे कह नहीं सकता है। स्वयं ज्ञानमें ग्रहण कर लेता है कि इसकी आवाज यह है, इसलिये यह मनुष्य है। इस प्रकार स्वयं ग्रहण कर लेता है। ऐसे लक्षण-से रूपीको पहचान लेता है।
परन्तु अपने ज्ञानलक्षण-से ज्ञायकको पहचाननेमें मुश्किल पडती है। उसमें बिना विकल्प, बिना तर्क पहचान लेता है, निःशंकपने पहचान लेता है। बारंबार चैतन्यका अभ्यास करे, उसमें उलझनमें न आ जाय, उसमें आकुलता न हो, परन्तु भावना रखे। बहुत आकुलता करे कि क्यों होता नहीं? तो उसे बहुत उलझन हो तो आगे नहीं बढ सकता। परन्तु अमुक प्रकारकी भावना-से आगे बढता है। उलझनमें आ जाय तो दिक्कत हो जाय।
मुमुक्षुः- उलझनमें न आ जाय। मार्ग निकालता जाय।
समाधानः- मार्ग निकालता जाय। बाहरकी तकलीफमें-से जैसे मार्ग निकालता है, वैसे अंतरमें स्वयं रास्ता निकालता है। कोई विकल्पकी जालमें नहीं उलझकर स्वयं रास्ता निकालकर चैतन्यका अभ्यास कैसे बढे? इस तरह स्वयं रास्ता निकालता है।
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मुमुक्षुः- मालूम पड जाता होगा कि मुझे सम्यग्ज्ञान होनेवाला है?
समाधानः- सबको मालूम पडे या न पडे। सबको मालूम ही पड जाय ऐसा नहीं है।
मुमुक्षुः- बहुतोंको मालूम पड जाता है?
समाधानः- बहुतोंको मालूम पडे। परिणति एकदम पलट जाय तो मालूम पड जाय। भावना उग्र हो, पुरुषार्थ उग्र हो, एकदम अंतर्मुहूर्तमें पलट जाय तो पहले-से मालूम नहीं भी पडता, किसीको मालूम पडता है, किसीको नहीं पडता है।
मुमुक्षुः- विचार दशा लंबी चली हो तो?
समाधानः- लंबी चली हो तो किसीको मालूम पडता है। सबको मालूम पड जाता है, ऐसा नहीं।
मुमुक्षुः- ज्ञानी होनेके बाद ऐसा मालूम पडे कि अब इस बार निर्विकल्प दशा होगी?
समाधानः- इस बार होगी, ऐसे विकल्प होते ही नहीं। इस वक्त होगी या इस समय होगी (ऐसा विकल्प नहीं होता)। वह स्वयं अंतर परिणतिमें स्वरूप लीनताका प्रयास करता है। काल ऊपर, कब होगी उस पर उसका ध्यान नहीं है। उसे परिणति भिन्न होनेकी, ज्ञाताधाराकी उग्रता होनेकी, उस पर उसकी दृष्टि होती हैै।
निर्विकल्पता कब होगी, वैसी उसकी (दृष्टि) नहीं होती। उस जातका उसको विकल्प नहीं होता। अपनी परिणति भिन्न करता जाता है। भिन्न परिणतिमें उसे सहज धारा उठे तो (निर्विकल्प) होता है।
मुमुक्षुः- विकल्प भले न करे, परन्तु मालूम नहीं पडता होगा कि अब दो दिनमें या चार दिनमें निर्विकल्प दशा होगी?
समाधानः- उस पर उसकी दृष्टि ही नहीं है। उसकी दृष्टि निज चैतन्य पर स्थापित हो गयी है। उसकी परिणति पर ही उसका (ध्यान है)। ध्यान अपनी परिणति, लीनता पर, ज्ञाताधाराकी उग्रता पर है। उसकी ज्ञाताधाराकी उग्रता पर ही (उसका ध्यान है)।
मुमुक्षुः- ज्ञाताधाराकी उग्रता पर ध्यान हो तो सहज निर्विकल्प दशा होती है?
समाधानः- तो सहज होती है।
मुमुक्षुः- इतना दूर है, ऐसा किसके जोर-से कहते थे।
समाधानः- ज्ञायकके जोरमें कहती थी। वह कुछ निश्चित नहीं था, ज्ञायकके जोरमें कहती थी। ज्ञायकके जोर-से ऐसा लगता था कि समीप है। यह परिणति ऐसी है कि आखिर तक पहुँचकर ही छूटकारा करेगी। यह पुरुषार्थकी धारा ऐसी है कि आखिर तक पहुँच जायगी। अपनी उग्रता-से कहती थी। कब होगा, ऐसा कुछ मालूम
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नहीं था। अंतरकी ज्ञायककी उग्रता-से कहती थी। अपनी भावना, पुरुषार्थके जोरमें कहती थी।
मुमुक्षुः- अनुभव पूर्वका विश्वास भी गजबका!
समाधानः- इस पुरुषार्थका जोर ऐसा है कि आखिर तक पहुँचकर ही छूटकारा करेगा।
मुमुक्षुः- .. पढा था, उसमें आया था कि भरत चक्रवर्ती सुबह उठकर रोज पहले अनुभव करते थे, निर्विकल्प दशामें एक बार आते थे। उसके बाद ही प्रातःकालमें आगे बढते थे।
समाधानः- ऐसी ध्यानधारा स्वयं करते हैं, इसलिये निर्विकल्प दशा आती है। ऐसा। उस जातकी अपनी वर्तमान परिणतिकी उग्रता करते हैं तो निर्विकल्प दशा आती है। भूमिका सम्यग्दर्शनमें पलटती है वह उसकी वर्तमान चारित्र लीनताकी दशाकी उग्रता वह वर्तमानमें करता है। स्वानुभूति कैसे जल्दी करुँ, उसके बजाय उसकी वर्तमान विरक्त दशा बढ जाती है कि वह गृहस्थाश्रममें भी रह नहीं सकते। ऐसी उसकी लीनता उतनी बढ जाती है कि वर्तमान लीनता बढने-से स्वानुभूति त्वरा-से होती है। इसलिये छठवें- सातवें गुणस्थानें अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें उनकी दशा त्वरा-से होती है। उनकी लीनता, वर्तमान लीनता उतनी बढ जाती है।
वर्तमान चारित्रकी दशा, विरक्तिकी दशा उनकी सविकल्पतामें लीनताका जोर उतना बढ जाता है कि निर्विकल्प दशा उन्हें शीघ्रता-से आती है। निर्विकल्प दशा, उनकी वर्तमान चारित्रदशा, उनकी वर्तमान ध्यानकी उग्रता चारित्रका वह कार्य है। अपनी चारित्रदशाकी उग्रताके कारण वह शीघ्रता-से होती है। अंतरकी उग्रता, अंतरमें वर्तमानकी जो उग्रता होती है उससे उसका कार्य होता है। वीतराग दशा उन्हें छठवें-सातवें गुणस्थानमें बढती जाती है वर्तमानमें, अतः उसमें श्रेणी लगाते हैं। श्रेणी लगाऊँ ऐसा उन्हें नहीं होता। उन्हें वीतराग दशाकी उग्रता होती जाती है। इसलिये श्रेणी चढते हैं। उनकी स्थिति ऐसी हो जाती है कि अंतरमें गये सो गये, फिर बाहर ही नहीं आते हैं। इतनी उग्रता हो जाती है इसलिये श्रेणी चढते हैं। उतनी वीतराग दशा बढ जाती है।
वैसे गृहस्थाश्रममें उनकी वर्तमान ज्ञाताधाराकी उग्रता, उनकी लीनता, दशाकी विरक्तिमें उतनी गति होती है, इसलिये स्वानुभूतिकी दशा उन्हें होती है। उनकी लीनताके कारण वह कार्य आता है। स्वरूपाचरण चारित्र चतुर्थ गुणस्थानमें होता है। परन्तु उसकी भी तारतम्यता होती है। किसीको उग्र होती है। भूमिका पलटे उसमें तो लीनताकी उग्रता अधिक बढ जाती है।