Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 260.

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ट्रेक-२६० (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- नमस्कार मंत्र बोलते हैं या जब ध्यान करते हैं, उस वक्त वास्तवमें तो ऐसा विचार करना चाहिये कि भगवानका स्वरूप कैसा है, उनको मैं नमस्कार करता हूँ? नव नमस्कार मंत्र बोलते समय अथवा ... बोलते समय, एक-दो बार ऐसा ख्याल आता है, बाकी सब तो ऐसे चला जाता है।

समाधानः- शब्द बोल लेता है। शुभभाव-से भगवान... णमो अरहंताणं, भगवानको नमस्कार करता हूँ, सिद्ध भगवानको नमस्कार करता हूँ। परन्तु भगवान कौन और..

मुमुक्षुः- वह सब हर वक्त आना चाहिये?

समाधानः- हर समय आना चाहिये ऐसा नहीं परन्तु विचार-से समझना चाहिये कि भगवान किसे कहते हैं? सिद्ध भगवान, आचार्य भगवान, उपाध्याय भगवान, साधु भगवान। जो साधना करे सो साधु। आचार्य छठवें-सातवें गुणस्थानमें झुलते हैं, सिद्ध भगवानने पूर्ण स्वरूप प्राप्त किया, भगवानने केवलज्ञान प्राप्त किया। उसका स्वरूप तो समझना चाहिये।

हर बार विचार आये ऐसा नहीं, परन्तुु उसका स्वरूप समझमें तो लेना चाहिये न। तो उसे सहजपने ख्याल आवे, णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं यानी भगवान कैसे है, वह सहज उसे ख्यालमें आये कि भगवान ऐसे होते हैैं। ऐसा विचार-से समझा हो तो।

ओघे ओघे नहीं समझकर, विचारपूर्वक समझे कि भगवान किसे कहते हैं। हर बार बोलते समय विचार करता रहे ऐसा नहीं, परन्तु उनका स्वरूप तो स्वयंको समझ लेना चाहिये। हर बार एकदम बोले, परन्तु स्वरूप तो ख्यालमें लेना चाहिये। हर बार विचार करे ऐसा नहीं।

अन्दर पूर्ण स्वरूपमें जम गये हैं। सहज स्वरूपमें लोकालोकको जानने नहीं जाते, सहज ज्ञात हो जाता है। ऐसी कोई ज्ञानकी अपूर्व शक्ति, आत्माकी अपूर्व शक्ति प्रगट हुयी है। भगवानका स्वरूप विचार करके जाने। अनन्त आनन्द, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, चारित्र अनन्त भगवानको प्रगट हुआ।

(आत्माका स्वरूप) ऐसा भगवानका, भगवानका स्वरूप ऐसा आत्माका स्वरूप


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है। सिद्ध भगवान तो पूर्ण हो गये। आचार्य भगवान तो साधना (करते हुए) छठवें- सातवें गुणस्थानमें झुलते हैं, वे सब मुनिराज (हैं)।

... ऐसा कुछ नहीं है। एक जातकी अन्दर भावना है, उस जातकी परिणति, एक जातका अभ्यास होकर अन्दर भावना रहती है स्वयंको कि ...

मुमुक्षुः- .. और पुरुषार्थको कोई सम्बन्ध है?

समाधानः- व्यवहार-से सम्बन्ध कहनेमें आये। ऐसा कहनेमें आये कि पूर्वके संस्कारीको पुरुषार्थ जल्दी उठता है। ऐसे व्यवहार सम्बन्ध कहनेमें आता है। बाकी तो वर्तमान पुरुषार्थ करे तब होता है। बहुतोंको संस्कार हो तो भी पुरुषार्थ तो वर्तमानमें ही करना पडता है। पुरुषार्थ करे तब संस्कारको कारण कहनेमें आता है।

पूर्वमें जो कोई संस्कार डाले हो, उसकी योग्यता पडी हो। फिर वर्तमानमें स्वयं पुरुषार्थ करे तो उसे कारण होता है। पुरुषार्थ न करे तो कारण नहीं होता। वर्तमान पुरुषार्थ तो नया ही करना पडता है।

मुमुक्षुः- संस्कार डालने-से उसे क्या लाभ हुआ? एक जीव संस्कार बोता है और एक जीव संस्कार बोता है, उसमें उसे यदि पुरुषार्थ-से ही प्राप्त होता हो तो...?

समाधानः- संस्कार उसे पुरुषार्थ उत्पन्न होनेका कारण बनता है। वह लाभ है। लेकिन उसे कारण कब कहें? कि कार्य आवे तो। यथार्थ रीत-से अन्दर वह कार्य हो तो कार्य आवे और पुरुषार्थ उत्पन्न हो। परन्तु वह कारण अन्दर यथार्थ होना चाहिये। यथार्थ रीत-से हो तो पुरुषार्थ उत्पन्न होता है, ऐसा सम्बन्ध है।

पुरुषार्थ उत्पन्न हो वह पुरुषार्थ स्वतंत्र है और संस्कार भी स्वतंत्र है। पुरुषार्थ उत्पन्न हो तो उसे कारण कहनेमें आये। उसे कारण बनता है, इसलिये तू संस्कार डाल, (ऐसा कहते हैैं)। वह कहीं पुरुषार्थ उत्पन्न नहीं करवा देता। स्वयं पुरुषार्थ करे तो उसे कारण होता है।

मुमुक्षुः- ऐसा भी आता है कि जोरदार संस्कार पडे होंगे तो इस भवमें कार्य नहीं होगा तो दूसरे भवमें कार्य हुए बिना नहीं रहेगा।

समाधानः- यथार्थ कारण हो तो कार्य आता ही है। ऐसे। कारण कैसा, वह स्वयंको समझना है। कारण यथार्थ हो तो कार्य आता ही है। तो पुरुषार्थ उत्पन्न होगा ही। कारण तेरा यथार्थ होगा तो भविष्यमें पुरुषार्थ उत्पन्न होगा। परन्तु पुरुषार्थ उत्पन्न करनेवालेको ऐसी भावना होनी चाहिये कि मैं पुरुषार्थ उत्पन्न करुँ। मुझे संस्कार होंगे तो पुरुषार्थ उत्पन्न होगा, ऐसी यदि भावना रहती हो तो पुरुषार्थ उत्पन्न नहीं होता। पुरुषार्थ उत्पन्न करनेवालेको तो ऐसा ही होना चाहिये कि मैं पुरुषार्थ करुँ। तो उसे वह कारण बनता है। पुरुषार्थ करनेवालेको तो ऐसी ही भावना रहनी चाहिये कि मैं


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पुरुषार्थ करुँ। मुझे संस्कार होंगे तो अपनेआप उत्पन्न होगा, ऐसी भावना नहीं होनी चाहिये।

उसके संस्कार यथार्थ कारणरूप हों तो उसे पुरुषार्थ उत्पन्न होता ही है। ऐसा एक सम्बन्ध होता है। परन्तु पुरुषार्थ करनेवालेको ऐसा नहीं होना चाहिये कि मुझे संस्कार होंगे तो पुरुषार्थ उत्पन्न होगा। यदि ऐसी भावना हो तो पुरुषार्थ उत्पन्न ही नहीं होता। भावना ऐसी होनी चाहिये कि मैं प्रयत्न करुँ। मैं ऐसा करुँ, ऐसे स्वयंको भावना रहे तो कारण-कार्यका सम्बन्ध होता है। स्वयंको ऐसी भावना होनी चाहिये।

मुमुक्षुः- (इस भवमें) आत्माका अनुभव न हो तो संस्कार लेकर तो जायेंगे। तब ऐसा लगता है कि संस्कार और पुरुषार्थकी एक जात हो, ऐसा लगता है।

समाधानः- एक जात नहीं है। प्रयत्नमें उसे बहुत उलझन होती हो, प्रयत्न चलता नहीं हो.. पहले तो ऐसा होता है कि तू आखिर तक पहुँच जा। ऐसा तेरा प्रयत्न चलता हो तो तू प्रयत्न कर। परन्तु नहीं होता तो तू संस्कार तो डाल। परन्तु संस्कार यानी पुरुषार्थका सब कार्य संस्कारमें आ नहीं जाता।

यदि तू प्रतिक्रमण कर सकता है तो ध्यानमय करना। न कर सके तो श्रद्धा करना। ऐसे। तुझ-से बन सके तो आखिर तक ध्यान करके केवलज्ञान पर्यंत, मुनिदशा और केवलज्ञान प्रगट करना। परन्तु यदि नहीं होता है तो तू श्रद्धा कर, सम्यग्दर्शन प्राप्त कर। परन्तु सम्यग्दर्शन पर्यंत पहुँच न सके तो उसकी रुचि, भावना और संस्कार करना। परन्तु करनेका ध्येय तो, अपना प्रयत्न उत्पन्न हो तो पूरा करना।

आचार्य कहते हैं कि, तुझ-से बन सके तो पूर्ण करना। न बन सके और तुझे उलझन होती हो तो तू इतना तो करना। अंततः तू रुचिका बीज तो ऐसा बोना कि जो रुचि तुझे कारणरूप हो। ऐसी रुचि तो करना, न बन सके तो। उसमें रुचिमें सब आ नहीं जाता। तेरी अन्दर ऐसी गहरी भावना होगी तो भविष्यमें तुझे ऐसी भावना अन्दर-से उत्पन्न होगी और तुझे पुरुषार्थ बननेका (कारण होगा)।

परन्तु वहाँ भी तुझे ऐसा ही होना चाहिये कि मैं पुरुषार्थ करुँ। वहाँ भी ऐसा ही होता है कि भावना उत्पन्न हो तो पुरुषार्थ करुँ, अन्दर जाऊँ। अभी न होता हो तो अभ्यास करना। उसकी दृढता करना। बारंबार उसका घोलन करना। मैं ज्ञायक हूँ। मैं यह नहीं हूँ। ये विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। मेरा स्वभाव भिन्न है। बारंबार उसे तू दृढ करना। तेरी दृढता होगी तो तुझे भविष्यमें, अन्दर वह दृढता होगी तो तुझे स्फूरित हो जायगी, तो तुझे पुरुषार्थ होनेका कारण बनेगी। उसमें सब आ नहीं जाता।

मुमुुक्षुः- .. निमित्त रूप-से संस्कारको लेना? समाधानः- निमित्त रूप-से।


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मुमुक्षुः- संस्कारको निरर्थक करनेवाला है,..

समाधानः- वह अपेक्षा अलग है। द्रव्य-से निरर्थक करनेवाला है। संस्कार सार्थक करे, द्रव्य अपेक्षा-से संस्कार निरर्थक है। वस्तुमें वह नहीं है। मूल स्वभाव... पर्यायकी बात है। पर्याय पलट जाती है, परन्तु व्यवहार यानी कुछ नहीं है, ऐसा नहीं है।

मुमुक्षुः- तू पुरुषार्थ-से काम करे तो संस्कारको निमित्त कहें। ...

समाधानः- निगोदमें-से निकलकर तुरन्त वह होते हैं और फिर मनुष्य बनकर तुरन्त... उसमें संस्कार कहाँ थे? तेरा स्वभाव ज्ञायक है, वही तेरा संस्कार है। तेरा स्वभाव है वह। तेरा स्वभाव ही ज्ञायकरूप रहनेका है। तो ज्ञानस्वभावी है, वह तेरा ज्ञानस्वभाव ही तुझे तेरी परिणति ही ... तुझे यदि अंतरमें-से ऐसा होगा तो तेरा स्वभाव है वह स्वभाव ही संस्काररूप है।

तू चेतनता-से भरा है, कहीं जड तेरा स्वभाव नहीं है। चेतन तरफ तेरी परिणति, चेतनद्रव्य है वह तेरी परिणति, उसे तेरी ओर खीँचेगी। तेरा स्वभाव है। द्रव्य ही पर्यायको प्रगट होनेका कारण बनता है। द्रव्य पर दृष्टि गयी। तेरी पर्याय यथार्थ सम्यकरूप परिणमित हो जायेगी। तेरा स्वभाव ही सम्यकरूप है। यथार्थ ज्ञानस्वभाव है। वह स्वभाव ही उसका कारण है। सीधी तरह-से द्रव्य ही उसका कारण बनता है।

संस्कार एक परिणति है। परिणति उसका कारण हो, वह व्यवहार हुआ। द्रव्य ही उसका मूल कारण, द्रव्य ही कारण है। निश्चय-से तेरा मूल स्वभाव ज्ञायक ही है, वह स्वभाव ही उसका कारण बनता है। निगोदमें-से निकलता है, वह उसका स्वभव है। वह स्वभाव नहीं है, मैं तो यह चैतन्य हूँ, यह मैं नहीं हूँ। स्वभाव पर दृष्टि गयी, वहाँ परिणति पलट जाती है। वहाँ पहले संस्कारको दृढ करना पडा या मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा अभ्यास करना पडा, ऐसा कुछ नहीं है। सब अभ्यास एकसाथ ही हो गया। मैं ज्ञायक ही हूँ, ऐसा एकदम जल्दी दृढता हो गयी तो अंतर्मुहूर्तमें हो गया। और संस्कार अर्थात बार-बार, बार-बार देर लगे, मन्द पुरुषार्थके कारण देर लगे, मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ऐसी परिणति सहजरूप-से दृढ नहीं हुयी, इसलिये बार-बार, बार-बार अधिक काल अभ्यास किया, इसलिये उसे संस्कार कहा। उसमें तो अभ्यास करना कुछ रहा ही नहीं, तुरन्त एकदम पुरुषार्थ किया तो एकदम हो गया। उसमें संस्कार बीचमें लानेकी जरूरत नहीं पडती। मूल स्वभाव, ज्ञायक स्वभाव, अपना स्वभाव ही कारणरूप बनता है। फिर परिणतिके संस्कार करनेका बीचमें कोई अवकाश ही नहीं है। जिसका तीव्र पुरुषार्थ उत्पन्न हो, उसे कहीं बीचमें संस्कारकी जरूरत ही नहीं होती, द्रव्य ही उसका कारण बनता है।

मुमुक्षुः- उस अपेक्षा-से स्वभावको संस्कार निर्रथक करनेवाला कहा।


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समाधानः- निरर्थकर करनेवाला, द्रव्य संस्कारको निरर्थक करनेवाला है।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- संस्कार डाले। उसमें द्रव्य कारण बनता है और एकदम अंतरमें जाते हैं। निगोमें-से निकलकर मनुष्य होकर, तुरन्त मैं ज्ञायक स्वभाव ही हूँ, ऐसे अंतर्मुहूर्तमें प्राप्त कर लेते हैं। बीचमें संस्कारकी कोई जरूरत ही नहीं पडती।

मुमुक्षुः- वैसे जल्दी काम हो, उसका कोई रास्ता बताओ तो काम आये।

समाधानः- स्वयं जल्दी पुरुषार्थ करे तो जल्दी हो जाय। धीरे-धीरे अभ्यास करता रहे कि मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, उसके बजाय मैं ज्ञायक हूँ, ऐसे एकदम दृढता- से ... स्वयं एकदम विभाव-से छूटकर जाय तो जल्दी हो। पुरुषार्थ धीरे-धीरे करे इसलिये उसमें संस्कार बीचमें आते हैं। जल्दी करे तो बीचमें संस्कार आते ही नहीं। अभ्यास करे इसलिये संस्कार हुए। उसमें जल्दी किया। एकदम द्रव्य पर दृष्टि गयी और हो गया। कमर कसकर तैयार हुए हैं। प्रवचनसारमें (आता है)। ऐसे स्वयं तैयार होकर अंतरमें जाये तो एकदम हो जाता है।

मुमुक्षुः- प्रवचनसारमें (आता है), हमने कमर कसी है।

समाधानः- हाँ, कमर कसी है।

मुमुक्षुः- एक बार कहा था, मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा विश्वास ला तो लंबा काल नहीं लगता।

समाधानः- लंबा काल नहीं लगता। एकदम दृढताके साथ। यदि विश्वासरूप- से परिणति एकदम दृढ हो जाय कि मैं ज्ञायक ही हूँ। विश्वास है ऐसी ही परिणति, मैं ज्ञायक हूँ, उसकी दृढता हुयी। मोहग्रन्थिका मैंने घात कर दिया है। अंतरमें तुरन्त हो जाता है। मोहग्रन्थिका घात करके सम्यग्दर्शन प्राप्त करके चतुर्थ कालमें कितने ही अंतरमें लीनता कर दी, तो एकदम सम्यग्दर्शनका कार्य लीनतारूप एकदम हो जाता है, जो जल्दी करता है उसे।

विभावके संस्कार भी चले आते हैं। आता है, क्रोधादि तारतम्यता सर्पादिक मांही। विभावका संस्कार होते हैं, वैसे यह स्वभाव तरफकी रुचिके संस्कार वह भी उसे पूर्व भवमें आते हैं। परन्तु वह पुरुषार्थ करे तब उसे कारणरूप कहनेमें आता है।

मुमुक्षुः- पुरुषार्थ करे उसे उपयोगी कहनेमें आये, न करे उसे..

समाधानः- पुरुषार्थ तीव्र हुआ और द्रव्य पर दृष्टि गयी तो संस्कारका वहाँ प्रयोजन नहीं रहा। अभ्यास करता रहे तो बीचमें संस्कार आते हैं। कितने ही जीव ऐसा अभ्यास करते-करते (आग जाते हैं)। एकदम अंतर्मुहूर्तमें हो जाय ऐसा कोई विरल होता है। बाकी अभ्यास करते-करते (आगे जाते हैं)। चतुर्थ कालमें जल्दी हो जाय ऐसे बहुत


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होते हैं। तो भी अंतर्मुहूर्तमें हो जाय ऐसे तो कोई विरल होते हैं। अभ्यास करते- करते (बहुभाग होता है)।

नींव खोदते-खोदते निधान प्राप्त हो जाय, ऐसा तो किसीको ही होता है। बाकी तो महेनत करते-करते होता है। उसमें भी यह तो पंचमकाल है।

मुमुक्षुः- पूर्णता प्रगट कर। वास्तवमें तो तुझे यह सिखाते हैं। वह नहीं हो तो श्रद्धा प्रगट कर, और श्रद्धा भी न कर सके तो गहरे संस्कार तो डाल।

समाधानः- संस्कार तो डाल। उपदेशकी ऐसी शैली (है)। कोई सुनाये तो उसे मुनिपनाका उपदेश देते हैं। फिर मुनि न हो सके तो श्रावकका उपदेश देते हैं। पहले उतनी शक्ति न हो तो श्रावकका उपदेश (देते हैं)। सम्यग्दर्शनपूर्वक श्रावक।

यह पंचमकाल है। सम्यग्दर्शन पर्यंत परिणति प्रगट करनेका उतना पुरुषार्थ न हो तो रुचिके संस्कार डाल (ऐसा कहते हैं)। यथार्थ रुचि (कर कि), आत्मा ज्ञायक है, ये सब भिन्न है। उसमें तो शुभभावमें, क्रियामें, थोडा शुभभाव हुआ उसमें धर्म मान लिया, उसकी तो श्रद्धा भी जूठी, उसका सब जूठा है।

मुमुक्षुः- उसके संस्कार भी जूठे। समाधानः- हाँ, सब जूठा है। मुमुक्षुः- असतके संस्कार। समाधानः- धर्म दूसरे प्रकार-से माना। कोई कर देगा ऐसा माने। ऐसी कुछ- कुछ भ्रमणाएँ होती हैं। ये गुरुदेवके प्रताप-से वह सब भ्रमणा दूर हुयी है, गुरुदेवने सबको उपदेश दे-दे कर। भगवान कर देंगे, मन्दिरमें जायेंगे तो होगा, ऐसा करेंगे तो होगा, ऐसी सब भ्रमणा (चलती थी)। गुरुदेवने कहा, प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। तू कर तो होगा। शुभभाव आये देव-गुरु-शास्त्र तरफके, भक्ति आवे वह अलग बात है। परन्तु अंतरमें करना तो तुझे है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!