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समाधानः- .. विचार करना, भगवानकी स्थापना करे, और स्थापित कर सकता है, इसलिये उसकी महिमा है। दूसरी अपेक्षा-से जब साक्षात सम्यग्दर्शन होता है तब प्रत्यक्ष निमित्त होता है। देव-गुरुका प्रत्यक्ष निमित्त हो तभी सम्यकत्वका निमित्त बनता है। स्थापनाकी इतनी महिमा है कि भगवानका विरह हो, जहाँ भगवान विराजते न हो, वहाँ उसे भगवानके मन्दिर आदि ही उसे लाभरूप होता है। इसलिये भगवानके मन्दिरमें तो जब भी जाना हो तब जा सकता है।
केवलज्ञानी भगवान विचरते हैं, तीर्थंकर भगवान विचरते हों, जहाँ भगवान विचरते हों वहाँ भी मन्दिर और प्रतिमाएँ होती हैं। क्योंकि निमित्त और उपादान... स्वयं लाभके लिये उसकी स्थापना करता है। इसलिये उसकी महिमा उस अपेक्षा-से ज्यादा है।
मुमुक्षुः- जो शाश्वत है, वह सब भी..
समाधानः- शाश्वत मन्दिर है वह तो कुदरत महिमा बता रही है। जगतमें सर्वोत्कृष्ट भगवान है, उनकी ऐसी महिमा है। जगतमें सर्वोत्कृष्ट हो तो भगवान ही है ऐसा कुदरत बताती है। कुदरतके परमाणु भी भगवानरूप परिणमते हैं। इसलिये जगतमें यदि कोई सर्वोत्कृष्ट वस्तु हो तो भगवान है। चैतन्यमूर्ति भगवान है, वह सर्वोत्कृष्ट है। कि परमाणु भी उस रूप, परमाणु भी प्रतिमाजीरूप परिणम जाते हैं, भगवानरूप परिणम जाते हैं। इसलिये भगवानकी महिमा कुदरत बता रही है। प्रतिमाएँ साक्षात चैतन्यमूर्ति भगवानकी महिमा बता रही है और स्थापना निक्षेप भी महिमावंत ही है। कुदरतमें उस स्थापना निक्षेपकी महिमा, कुदरती प्रतिमा...
मुमुक्षुः- अनादिअनन्त है इसलिये?
समाधानः- अनादिअनन्त है।
समाधानः- ... यह ज्ञानस्वभाव है, उसका निर्णय करके, प्रतीत करके फिर मति और श्रुतका उपयोग जो बाहर जाता है, उसे मर्यादामें लाकर स्वरूप सन्मुख करता है। परन्तु पहले प्रतीत हुयी है। ज्ञानस्वभावकी प्रतीति करके, उसका ज्ञानस्वभावका आश्रय करके फिर मति-श्रुतका जो उपयोग बाहर जा रहा है, उसे मर्यादामें पलटाता है। पहले ज्ञानस्वभावकी प्रतीति की कि यह ज्ञान .. मति-श्रुतका उपयोग मर्यादामें आता है।
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मुमुक्षुः- तो ही मर्यादामें आये।
समाधानः- तो ही मर्यादामें आये।
मुमुक्षुः- माताजी! अभी जो क्षयोपशम ऐसा भी हो सकता है कि क्षायिक लेकर ही बीचमें छूटे नहीं, ऐसा हो सकता है?
समाधानः- हाँ, क्षयोपशम सम्यग्दर्शन ऐसा भी होता है।
मुमुक्षुः- आजके महामंगलकारी दिन, मंगलकारी सम्यकत्वके कारणरूप भेदज्ञानका स्वरूप ..
समाधानः- गुरुदेवने परम उपकार किया है। गुरुदेवने तो भेदज्ञानका स्वरूप, स्वानुभूतिका स्वरूप भरतक्षेत्रमें था नहीं। गुरुदेवने परम उपकार किया है। गुरुदेवने स्पष्ट इतना किया है कि कोई प्रश्न उत्पन्न हो और पुरुषार्थ करना स्वयंको बाकी रहता है। सूक्ष्म-सूक्ष्म करके, गहरा-गहरा अनेक रीत-से गुरुदेवने चारों ओर-से समझाया है।
स्वानुभूतिका मार्ग, भेदज्ञानका मार्ग गुरुदेवने स्पष्ट करके बताया है। मुमुक्षुकी अन्दर- से गहरी भावना हो कि मुझे आत्माकी ही करना है। आत्मामें सर्वस्व है, बाकी कहीं नहीं है। आत्मा ही महिमावंत है। जगतमें सर्वश्रेष्ठ हो तो आत्मा है। बाहरकी वस्तु कोई विशेष नहीं है। एक आत्मा सर्वोत्कृष्ट है, ऐसी जिसे भावना, महिमा, लगनी लगे तो भेदज्ञान करनेका प्रयत्न करे।
अन्दर स्वयं गुरुके उपदेश-से और विचार करके नक्की करे। गुरुने बहुत समझाया है। तू भिन्न और ये शरीर भिन्न, विभावस्वभाव भी तेरा नहीं है। उससे भेदज्ञान कर। गुरुदेव बारंबार समझा रहे हैं। परन्तु स्वयं पुरुषार्थ करके अन्दर-से नक्की करे कि जो चैतन्यतत्त्व शाश्वत अनादिअनन्त है, जिसमें अनन्त काल गया, अनन्त जन्म-मरण किये तो भी वह द्रव्य ज्योंका त्यों शाश्वत है। उस शाश्वत द्रव्यको ग्रहण करनेके लिये प्रयत्न करना। उसमें कोई गुणके भेद-से भेदवाला, वास्तविक रूप-से भेदवाला (नहीं है)। चैतन्य तत्त्व तो अखण्ड ही है।
छः द्रव्यमें एक जीवतत्त्वको ग्रहण करना। नौ तत्त्वमें भी एक जीवतत्त्वको ग्रहण करना। भावोंमें भी एक पारिणामिकभावस्वरूप आत्माको ग्रहण करना। आत्मा जो अखण्ड अभेद तत्त्व अनादिअनन्त सहज तत्त्व है, उसे ग्रहण करना। उसे ग्रहण करके उसका भेदज्ञान करके, ये शरीर, विभाव आदि सब स्वभाव मेरा नहीं है। मैं उससे भिन्न हूँ। ऐसे चैतन्यतत्त्वको ग्रहण करके बारंबार उसका पुरुषार्थ करे।
कुछ अन्य वो मेरा तनिक परमाणुमात्र नहीं अरे!।।३८।।
मैं एक शुद्ध स्वरूप आत्मा हूँ। मैं शुद्धात्मा ज्ञान-दर्शनसे भरा हुआ, ज्ञान-दर्शनसे
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विशेष, सब परपदाथा-से भिन्न, छः द्रव्य-से भिन्न मैं एक चैतन्यतत्त्व ज्ञान-दर्शन-से पूर्ण हूँ। ऐसे आत्मतत्त्वको अंतरमें ग्रहण करे। मैं सर्वसे भिन्न ऐसा प्रतापवंत हूँ। मेरी प्रताप संपदा सबसे भिन्न है। ऐसे चैतन्यतत्त्वको स्वानुभूतिमें ग्रहण करे।
पहले उसे द्रव्यदृष्टिमें ग्रहण करे, फिर उसका भेदज्ञानका बारंबार प्रयत्न करे। बारंबार, मैं यह चैतन्य ही हूँ, अन्य कुछ नहीं हूँ। और ज्ञानमें गुणोंके भेद, पर्यायके भेद ज्ञानमें ग्रहण करे। दृष्टि एक द्रव्य पर ही रखे। बाकी सब ज्ञानमें ग्रहण करके पुरुषार्थ करे। मैं द्रव्यदृष्टि-से पूर्ण हूँ, परन्तु पर्यायमें जो अधूरापन है उसकी साधना करे। उसकी साधना करके ज्ञाताधाराकी बारंबार उग्रता करे। भेदज्ञान करके उसकी उग्रता करे तो वह चैतन्यतत्त्व प्रगट हुए बिना नहीं रहता। क्योंकि स्वयं ही है, कोई अन्य नहीं है कि प्रगट न हो। स्वयं ही है। परन्तु स्वयं ऐसी ज्ञाताधाराकी उग्रता करे तो प्रगट हो।
आचार्यदेव कहते हैं कि जितना ज्ञान है उतना ही तू है। वही सत्यार्थ कल्याणरूप है। वही परमार्थ है और वही अनुभव करनेयोग्य है। उसीमें तुझे तृप्ति होगी और संतोष होगा। सब उसीमें भरा है। इसलिये उस ज्ञानमें अनन्त-अनन्त भरा है। अनन्त शक्तिओंका भरा हुआ अनन्त महिमावंत आत्माको ग्रहण करे तो वह प्रगट हुए बिना नहीं रहता।
बारंबार उसके विकल्पके नयपक्षेमें अटके कि मैं शुद्ध हूँ या अशुद्ध हूँ, वह सब विकल्पात्मक (नयपक्ष है)। पहले विचारसे निर्णय करे कि ज्ञानस्वभाव मैं हूँ। किस अपेक्षा-से शुद्धता, किस अपेक्षा-से अशुद्धता? सब नक्की करके फिर उसका जो उपयोग बाहर जाता है, उस उपयोगको अपनी ओर मोडे। और निर्विकल्प तत्त्व है, उसे बारंबार उसकी साधना करके ज्ञाताधाराकी उग्रता करे। विकल्प-से उसे थकान लगे और चैतन्यतत्त्वमें सर्वस्व लगे तो विकल्प छूटकर निर्विकल्प तत्त्व प्रगट हुए बिना नहीं रहता।
वह सहज तत्त्व है। सहज तत्त्व पारिणामिकभावरूप परिणमता हुआ अपने आनन्द स्वभावरूप, ज्ञानस्वभावरूप अनन्त स्वभावरूप परिणमता हुआ वह तत्त्व उसे प्रगट होता है। शक्तिमें तो अनन्तता तो भरी है, परन्तु उसे प्रगट परिणमता हुआ प्रगट होता है। विकल्प तरफ-से उपयोग छूटकर, उसका भेदज्ञान करके, अपना अस्तित्व यदि वह ग्रहण करे तो वह प्रगट हुए बिना रहता ही नहीं। ऐसी स्वभावकी महिमा गुरुदेवने बतायी है। और वह करने जैसा है। वह न हो तबतक उसकी भावना, बारंबार प्रयास करना। शुभभावमें देव-गुरु-शास्त्रका आश्रय रखे। अंतरमें शुद्धात्माका आश्रय करे।
शुद्धात्माका आश्रय प्रगट करनेके लिये देव-गुुरु-शास्त्र क्या कहते हैं, उसके आश्रय- से चैतन्यतत्त्वका आश्रय ग्रहण करे। उपादान अपना तैयार करे तो निमित्त निमित्तरूप हुए बिना नहीं रहता। ऐसा गुरुदेवने बारंबार बताया है। और करने जैसा वही है।
जो ज्ञानस्वभाव दिख रहा है, कि जो क्षयोपशमके भेदमें भी भले अखण्डको ग्रहण
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करना। आचार्यदेव कहते हैं न, प्रकाशका पुँज बादलमें है। लेकिन वह किरण कहाँ- से आया है, उसके मूलको ग्रहण करना। वैसे यह ज्ञानस्वभाव भेदवाला दिखे, परन्तु उसका मूल कहाँ है? उसकी डोर कहाँ है? उसका मूल कहाँ है? उस मूलको ग्रहण करे। अर्थात पर्यायको ग्रहण नहीं करके मूल तत्त्व क्या है, उस तत्त्वको ग्रहण करके, मूल ग्रहण करके मूलका आश्रय करे। और बारंबार उसका भेदज्ञानका प्रयास करे कि ये विकल्पादि मैं नहीं हूँ, उससे मैं भिन्न हूँ और मैं ज्ञायक हूँ। मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ऐसा विकल्परूप नहीं परन्तु ऐसी सहज परिणति। उसे सहज परिणति रूप जीवन ऐसा हो जाय, ज्ञायकरूप जीवन हो जाता है। तो उसे विकल्प छूटे बिना रहते ही नहीं।
ज्ञायकरूप जीवन। ये शरीररूप जीवन नहीं, विकल्परूप, विकल्पकी जालरूप एकत्वबुद्धिरूप जीवन नहीं, परन्तु बारंबार ज्ञायकरूप उसका जीवन हो तो ज्ञायक ज्ञायकरूप परिणमन किये बिना नहीं रहता। ऐसी सहज वस्तुका स्वभाव ही ऐसा है।
मुमुक्षुः- आपने कहा उसमें तो बहुत-बहुत आ जाता है, ऐसे तो सब आ जाता है, परन्तु अभी भी सुनते ही रहे ऐसा लगता है। अंतरमें आत्माको कैसे प्रत्यक्ष करना वह जरा विशेष समझाईये।
समाधानः- उसके ज्ञानलक्षण-से प्रत्यक्ष हो ऐसा है। उसे जो ज्ञानलक्षण ज्ञात हो रहा है, वह कोई तत्त्व है। ज्ञान है वह निराधार नहीं है। कोई तत्त्व है। वह तत्त्व ही ज्ञानस्वरूप है। जैसे यह जड तत्त्व दिखता है, वैसे एक ज्ञानतत्त्व है। जो सहज है।
जो आनन्द सागरसे भरा हुआ, ज्ञानसागरसे भरा हुआ एक चैतन्यतत्त्व है। उसे स्वयं प्रतीत-से नक्की करे कि ये ज्ञान स्वभाव है वही मैं हूँ। फिर उसकी प्रगट प्रसिद्धिके लिये आचार्यदेव कहते हैं कि तेरा उपयोग जो बाहर जा रहा है, मति-श्रुतज्ञान, विकल्प जो तेरा उपयोग बाहर जाता है, उस उपयोगमें समा दे तो उसकी प्रगट प्रसिद्ध होती है।
पहले उसे प्रतीत-से उसका लक्षण पहिचानकर नक्की कर कि ये जो ज्ञानस्वभाव है वह ज्ञानतत्त्व है। ज्ञायकतत्त्व चैतन्यतत्त्व है, जो आनन्दसागर और ज्ञानसागर-से भरा हुआ एक तत्त्व है। उस तत्त्वकी तू प्रतीत करके फिर मति-श्रुतका उपयोग जो बाहर जाता है, उस उपयोगको तू अंतरमें समा दे। उपयोग अन्दर चैतन्यमें लीन कर दे तो उसकी प्रगट प्रसिद्धि स्वानुभूतिरूप होती है। वह जगतसे भिन्न विश्व पर तैरता हुआ भिन्न आत्मा उसे प्रगट होता है। परन्तु उसकी प्रतीति करे तो उसकी प्रगट प्रसिद्धि होती है।
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वह प्रतीति, उसकी प्रतीति ऐसी होती है कि प्रत्यक्ष जैसी। भले प्रत्यक्ष प्रगट नहीं हुआ है, परन्तु वह प्रत्यक्ष जैसी प्रतीति, ऐसा दृढ निर्णय करके चैतन्यतत्त्वका आश्रयसे उसके बलसे आगे जाता है कि यही है, अन्य कुछ नहीं है। यही मार्ग है और इसी मार्ग पर जाना है। ऐसे ज्ञानस्वभावको, ज्ञायकतत्त्वको ग्रहण करके उसकी ओर मति- श्रुतका उपयोग मोडता है और बारंबार उसकी दृढता करता है। तो उसकी प्रगट प्रसिद्धि हुए बिना नहीं रहती।
समाधानः- ... स्वतंत्र है। देव-गुरु-शास्त्र उसमें निमित्त होते हैं। परन्तु अपना पदार्थ .... निमित्त तो प्रबल होता है, गुरुका और देवका, परन्तु अन्दर-से... स्वयं अपने अपराधसे अनादि काल-से परिभ्रमण किया, विभाव परिणतिमें रुका, उसके कारण जन्म-मरण हुए। वह स्वयं अपने-से ही अटका है। उसमें कर्म तो मात्र निमित्त है। कर्म कोई जबरजस्ती जबरन करवाता नहीं, स्वयं स्वतंत्र है। वैसे पुरुषार्थ करनेमें भी स्वयं स्वतंत्र है। स्वयं अपने पुरुषार्थ-से पलटे, उसे गुरुन जो बताया है, उसे ग्रहण करके यदि स्वयं पलटे तो हो सके ऐसा है।
शास्त्रमें आता है न कि पानी मलिन हो, उसे कतकफल, कोई औषधि-से निर्मल करनेमें आता है, वह अपने पुरुषार्थ-से (करता है)। वैसे आत्मा भी स्वयं पुरुषार्थ करके अंतरमें, औषधि अर्थात स्वयं अपने ज्ञान-से, ज्ञानरूप औषधिको अपने पुरुषार्थ- से जो निर्मल, आत्मा स्वभाव-से तो निर्मल ही है, परन्तु ज्ञानसे उसकी बराबर पहिचान करके ये ज्ञान भिन्न है और विभाव भिन्न है, उसे अपने पुरुषार्थ-से भिन्न करे तो भिन्न हो सके ऐसा है। स्वभाव-से तो निर्मल है, परन्तु प्रगट पर्यायमें निर्मल अपने पुरुषार्थ-से होता है।
वह स्वयं ही उससे भिन्न पडता है, भेदज्ञान करता है, स्वानुभूति करता है, वह सब वही करता है। अपनेको जरूरत लगे तो पलटता है। मुझे आत्मा ही चाहिये, आत्माकी स्वानुभूति और आत्माका स्वभाव जो ज्ञान, आनन्दादि अनन्त गुणों-से भरपूर है, वही मुझे चाहिये। ऐसी यदि अपनेको जरूरत लगे तो वह स्वयं ही पलट जाता है। तो वह बाहरमें अटक नहीं सकता। उसको खुदको जरूरत लगे तो स्वयं ही पलटता है और वह अपने पुरुषार्थ-से ही हो सके ऐसा है। कोई उसे जबरन करवाता नहीं। स्वयं करे तो हो सके ऐसा है।
मुमुक्षुः- वह कैसा पुरुषार्थ चाहिये? ऐसी जागृति उसे कैसे आये?
समाधानः- अन्दरमें ऐसी जागृति हो कि मैं यह चैतन्य हूँ और यह नहीं हूँ। अपना चैतन्यतत्त्व है उसे ग्रहण करे, ये शरीरादि पर ऊपर अपनी बुद्धि है, बाहरमें मैं-मैं हो रहा है, उसमें-से अहंपना छोडकर चैतन्य सो मैं हूँ, यह मैं नहीं हूँ, ऐसे
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स्वयं चैतन्य तरफ ऐसी दृष्टि करे, अपना सहज अस्तित्व ग्रहण करे, ऐसा पुरुषार्थ करे तो हो। उसे ग्रहण करके भी उसे बारंबार, क्षण-क्षणमें भेदज्ञानकी धारा पुरुषार्थ-से प्रगट करे तो हो। प्रतीत-से निर्णय करे कि यह ज्ञानस्वभाव है वही मैं हूँ। फिर उसका बारंबार भेदज्ञान करके उग्रता करके भिन्न पडे तो अपने-से हो ऐसा है।
गुरुदेवने तो बहुत बताया है। किसी भी जगह अटके बिना, पूर्णरूप-से, कहीं भी रुचि न रहे, एक आत्मामें ही रुचि सर्व प्रकार-से रहे तो होता है। हर जगह-से रुचि छूट जाय। कहीं रस न रहे, हर जगह-से रुचि छूट जाय। एक चैतन्य तरफ ही रुचि, चैतन्य ही ग्रहण हो, चैतन्य ही आदरणीय रखे, कहीं रुके नहीं, कहीं उसे रुचि लगे नहीं, सर्वांग सर्व प्रकार-से रुचि छूट जाय और चैतन्यकी ही रुचि लगे तो हो। फिर विभावमें खडा हो, परन्तु उसे सब रुचि छूट जाती है।