Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 287.

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ट्रेक-२८७ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- द्रव्यकर्म, नोकर्म और भावकर्म, तीनों-से एकसाथ भिन्न पडना। तो उन दोनोंमें क्या अंतर है?

समाधानः- अंतरमें जहाँ एकत्वबुद्धि रहे, विभावके साथ एकत्वबुद्धि है वहाँ सब परपदार्थके साथ एकत्वबुद्धि है। स्थूलरूप-से एकत्व नहीं मानता है, परन्तु उसमें एकत्वबुद्धि (है)। एक भी परपदार्थके (साथ एकत्वबुद्ध है), तबतक सर्वके साथ एकत्वबुद्धि है। वह भिन्न नहीं पडा। क्योंकि राग है वह अपना स्वभाव नहीं है। द्रव्यकर्मके निमित्त- से भावकर्मरूप वह स्वयं परिणमता है, परन्तु वह अपना स्वभाव नहीं है।

द्रव्यदृष्टि-से देखो तो वह विभाव भी अपने-से भिन्न है। इसलिये उसके साथ जहाँ एकत्वबुद्धि है, एक तरफ जहाँ खडा है, पर तरफ दृष्टि करके, उसे ऐसा लगे कि मैं सबसे भिन्न पड गया और विभावके साथ एकत्वबुद्धि है, उतना ही बाकी है। परन्तु उसका उपयोग जहाँ एक जगह एकत्वबुद्धि कर रहा है, तो हर जगह वह एकत्वबुद्धि खडी ही है, ऐसा आ जाता है। और जब छूटा तब सब-से छूटा ही है। विभाव- से छूटे इसलिये सबसे छूट जाता है।

परन्तु स्थूलरूप-से शरीरादि-से, बाह्य परद्रव्यों-से उसे भिन्न पडा है ऐसा लगता है, परन्तु वह वास्तविकरूप-से भिन्न नहीं पडा है। क्योंकि दृष्टि जहाँ पर तरफ है, एक भी परपदार्थके साथ जहाँ एकत्वबुद्धि है, वहाँ सर्व पर उसमें आ ही जाते हैं।

मुमुक्षुः- आपका कहना ऐसा है कि विभावमें जहाँ दृष्टि है, वहाँ सब परमें दृष्टि है ही।

समाधानः- पर तरफ दृष्टि है ही। उसकी दृष्टिकी दिशा ही पर तरफ है। दृष्टिकी दिशा स्व तरफ नहीं आयी है, स्वको ग्रहण नहीं किया है, उसकी दृष्टिकी दिशा बदली नहीं है और यदि दृष्टिकी दिशा पर तरफ है तो उसमें सर्व पर आ ही जाते हैं।

समाधानः- वास्तवमें नहीं है।

मुमुक्षुः- भेदज्ञान होनेपर अन्दर विभाव-से भी भेदज्ञान हो जाता है।

समाधानः- अन्दर भेदज्ञान हुआ उसे सबसे (एकत्व) छूट जाता है। दृष्टिने जहाँ


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दिशा बदली, अपना स्वपदार्थका आश्रय ग्रहण किया, वहाँ दिशा बदल गयी तो उसे सबसे दिशा बदल जाती है। एक तरफ-पर तरफ उसकी दिशा खडी है तो उसमें सब पर आ जाते हैं।

मुमुक्षुः- विभाव पर जबतक दृष्टि है, तबतक पर ऊपर उसे दृष्टि है।

समाधानः- हाँ, पर ऊपर दृष्टि है।

मुमुक्षुः- वह ज्ञान स्थूल है, इसलिये उसे ख्यालमें नहीं आता है।

समाधानः- ख्याल नहीं आता है। वैराग्य करे कि परपदार्थ मेरे नहीं है। ये सब घर, मकान, कुटुम्ब आदि मेरा नहीं है। ऐसा वैराग्य तो जीव अनेक बार करता है। ये शरीरादि परपदार्थ शरीर भी मेरा नहीं है। वह भी पर है। ऐसा विचार करे, विचार- से भिन्न पडे, परन्तु उसकी परिणति है वह एकत्व कर रही है। तबतक एकत्व है ही। विभाव-विकल्पके साथ एकत्वबुद्धि है तो सबके साथ है ही।

उसे शरीरमें कुछ हो तो उसे एकत्वबुद्धि विकल्पके साथ है। विचार करे कि मैं शरीर-से भिन्न हूँ, परन्तु जो सहज भेदज्ञान रहना चाहिये वह उसे नहीं रहता है। इसलिये वह विचार-से भिन्न पडता है, इसलिये सहज परिणति नहीं है। इसलिये उसे वास्तविक भेदज्ञानकी परिणति नहीं है।

मुुमुक्षुः- दूसरी तरह-से कहें तो ठगाता है। समाधानः- दूसरी भाषामें कहें तो। परन्तु भावनामें वह नहीं कर सकता है इसलिये स्थूलरूप-से मैं शरीर-से भिन्न हूँ, ऐसे उसकी भावना करता रहे। विकल्प-से भिन्न हूँ, ऐसी भावना करता है। परन्तु परिणति भिन्न नहीं हुयी है।

मुुमुक्षुः- इस ओर-से विचार करे तो बार-बार सुनते हैं कि अनन्त शक्तिका पिण्ड है। और एक गुण भी जिसे कहे कि एक ज्ञानगुण है, तो ज्ञानत्व क्या है, वह भी ख्यालमें नहीं आता है। तो ऐसी परिस्थितिमें उसे काम कैसे करना?

समाधानः- ज्ञानगुण लक्ष्यमें नहीं आता है। वह उसे यथार्थरूप-से देखता नहीं है, इसलिये नहीं आता है। उसकी शक्ति अनन्त है। अपनेको ग्रहण कर सके ऐसा है। परन्तु उसे नहीं ग्रहण करनेका कारण, उसकी दृष्टि और उपयोग पर तरफ है। इसलिये वह ग्रहण नहीं कर पाता है। नहीं तो ग्रहण करनेकी अनन्त शक्ति उसमें है। स्वयं अपनेको ग्रहण करे और स्वयं अपनेमें परिणमे तो वह अपने रूप हो जाय, ऐसी उसमें अनन्त शक्ति है।

पहले आंशिक रूपसे होता है, फिर पूर्ण होता है। ऐसी शक्ति, उतना बल उसमें हैै। स्वयं अपनी तरफ पलट सके ऐसा है। अनन्त बल, अनन्त शक्ति आत्मामें है, आत्मामें अनन्त गुण है। एक चैतन्यको ग्रहण किया उसमें उसे स्वभावरूप-से सब परिणमन


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होने लगता है। सभी गुण अपनी ओर परिणमते हैं।

मुमुक्षुः- वचनामृतमें एक वचन आता है कि परपदार्थको जानते हुए मानों उसको जानता हूँ, ऐसा वेदन कर लेता है। अब, यहाँ विचार ऐसा है कि ज्ञान मेरेमें-से होता है, वह बात उसे उत्पन्न करनी है, अपने वेदनेमें उस बातको आगे लानी है। तो उसे कैसा प्रयत्न वहाँ करना चाहिये?

समाधानः- परपदार्थको जाने, परन्तु वह जाननेवाला है कौन? पदार्थको जाना वह जाननेवाला कौन है? उसका मूल कहाँ है? उस मूलको ग्रहण करने तरफ उसकी शक्ति ग्रहण करने तरफ, उसकी खोज (चले कि) उसका मूल कहाँ है? परपदार्थको जाना वह तो ज्ञेय है। तो उस ज्ञेयको जाननेवाला कौन है? आता है न? जो प्रकाश है, प्रकाशके किरण। परन्तु वह किरण किसके है? कहाँ-से आये हैैं?

जो ज्ञान है वह जानता है। सब ज्ञात होता है वह खण्ड-खण्ड जानता है। परन्तु वह जाननेवाला कौन है? उसका मूल कहाँ है? मूल तरफ दृष्टि उसकी दृष्टि जानी चाहिये। उसका मूल कहाँ है? उसका तल कहाँ है कि जिसमें-से ये ज्ञानकी पर्याय परिणमती है? उसके मूल तरफ उसकी दृष्टि जानी चाहिये। ज्ञानको मैंने जाना, ऐसे जान लिया परन्तु जाननेवाला है कौन? ये ज्ञान आता है कहाँ-से? ज्ञेय ऐसा नहीं कहता है कि तू मुझे जान, ऐसा वह नहीं कहता है। स्वयं जानता है। तो वह जाननेवाला है कौन? उसका मूल कहाँ है?

मुमुक्षुः- तर्क-से तो ख्यालमें आता है कि पर पदार्थ है वह बाहर है, वेदन है वह यहाँ हो रहा है, जानना यहाँ हो रहा है। ऐसा तो ख्यालमें आता है। वह जो जानना यहाँ हो रहा है, तो यहाँ हो रहा है वह मुझे मेरा जानना हो रहा है, परपदार्थ द्वारा नहीं होता है, अपितु मेरे द्वारा वह जानना होता है, ऐसा उसके भावमें पकडाना चाहिये, उसके लिये उसका कैसा प्रयत्न होना चाहिये?

समाधानः- बारंबार गहराईमें ऊतरकर अपने स्वभावको ग्रहण करना चाहिये कि ये स्वभाव मेरा है और ये स्वभाव मेरा नहीं है। इस तरह गहराईमें ऊतरकर बारंबार क्षण-क्षणमें उसकी लगनी एवं महिमा लगाकर बारंबार उसको ग्रहण करना चाहिये। सब सर्वस्व मेरेमें ही है, बाहर कहीं नहीं है। उतनी अन्दर प्रतीति लाकर, उतनी महिमा लाकर उसकी जरूरत लगे तो वह अन्दर गहराईमें जाय। जरूरत इसीकी है, बाकी कुछ जरूरत नहीं है। इसलिये मैं मेरा स्वभाव है उसीको ग्रहण करुँ। उतना गहराईमें जाकर स्वभाव कहाँ है और किसके आश्रय-से रहा है, उसे ग्रहण करनेका प्रयत्न करे।

मुमुक्षुः- उसकी सच्ची जरूरत लगे।


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समाधानः- जरूरत अन्दर-से लगनी चाहिये। जरूरत इसीकी है, दूसरी कुछ जरूरत नहीं है। ये सब बाहरकी जरूरत वह वास्तविक जरूरत नहीं है। वह सब साररूप नहीं है। जरूरत स्वरूप वस्तु जो आदरने योग्य है और जो ग्रहण करने योग्य है, वह यही है। जो कल्याणस्वरूप और आत्माको आनन्दस्वरूप एवं सुखस्वरूप है वह यही है। उसे ज्ञानमें ज्ञायकमें सब भरा है, उतना विश्वास और उतनी महिमा आनी चाहिये। दिखता है ज्ञान, वह ज्ञान रुखा नहीं है, ज्ञान पूरा भरचक भरा हुआ, महिमा-से भरपूर है। उतनी उसे अन्दर-से महिमा आनी चाहिये।

मुमुक्षुः- अपनी जरूरत लगे और परकी भी जरूरत लगे तो वह वास्तवमें जरूरत नहीं लगी है।

समाधानः- अपनी जरूरत लगनी चाहिये। मुझे इसीकी जरूरत है। मेरे आत्म स्वभावकी ही जरूरत है।

मुमुक्षुः- पहले-से चली आ रही अन्य पदार्थकी जरूरत भासी है, उसके सामने अपना जो ज्ञानतत्त्व है, उसकी एकमात्र जरूरत उसे है और दूसरी कोई जरूरत नहीं है, ऐसा तुलनात्मकबुद्धिमें उसे..

समाधानः- ऐसा निर्णय होना चाहिये। कोई जरूरत नहीं है। ये सब बाहरके ज्ञेय पदार्थ हैं, वह कोई महिमारूप नहीं है, वह जरूरतवाले नहीं है। जरूरत एक आत्माकी, आत्म स्वभावकी ही है। और वह स्वभाव महिमावंत है। उतना उसे अंतरमें लगना चाहिये। उतनी उसे अनुपमता लगनी चाहिये। ये सब ज्ञेयोंका ठाठ दिखे, वह ज्ञेय उसे महिमारूप नहीं लगते। उसे महिमा एक आत्माकी ही लगती है। एक आत्मामें ही सब सर्वस्व है, कहीं ओर सर्वस्व नहीं है।

मुमुक्षुः- ऐसा विश्वास भी आता है कि मेरी वस्तुके आधार-से मुझे संतोष, शान्ति, विश्राम वेदनमें आयेगा वह मुझे नित्य अनुभवमें आयेगा। और वहाँ-से मुझे कभी वापस नहीं मुडना पडेगा। ऐसी उसे..

समाधानः- प्रतीत होनी चाहिये। वही सत्यार्थ कल्याणरूहप है, वही अनुभव करने योग्य है, वही तृप्ति, उसीमें उसे तृप्ति होगी, उसीमें उसे आनन्द होगा। उसमें प्रीतिवंत बन, उसमें संतुष्ट हो, उसमें तृप्त हो।

इसमें सदा रतिवंत बन, इसमें सदा संतुष्ट रे। इससे ही बन तू तृप्त, उत्तम सौख्य हो जिससे तुझे।।२०६।। उसमें तुझे तृप्ति होगी, उसमें-से तुझे बाहर जानेका मन नहीं होगा। ऐसा तृप्तस्वरूप, संतोषस्वरूप आत्मा है, उसे ग्रहण कर।

मुमुक्षुः- अन्दर सब भरा है और खोजता है बाहर।


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समाधानः- बाहर खोजता है, सब बाहर खोजता है। तुझे कहीं बाहर आनन्दका या ज्ञानका व्यर्थ प्रयत्न नहीं करना पडेगा, तुझे अन्दरमें-से ही सब प्रगट होगा। तुझे आनन्द और ज्ञान अपनेआप परिणमने लगेंगे। जिसमें थकान नहीं है या जिसमें कोई कष्ट नहीं है, ऐसा जो आत्मा सहज परिणामी है, वह सहज प्रगटपने परिणमेगा। परन्तु उस शुरूआतकी भूमिकामें पलटना कठिन लगता है। अपनी भावना है...

मुमुक्षुः- वचनामृतमें एक जगह आता है कि परसन्मुख जाने-से ज्ञान दब जाता है और अंतर्मुख होने-से ज्ञान खील उठता है, वहाँ क्या कहना है?

समाधानः- ज्ञान परसन्मुख जाता है तो एक ज्ञेयमें अटक जाता है। एक ज्ञेयकी उतनी मर्यादा आ जाती है। जो उपयोग जहाँ अटका, उतना ही उसे ज्ञात होता है। और अपने सन्मुख, स्वसन्मुख होता है, वहाँ ज्ञानकी निर्मलता विशेष होती है। वह एक जगह अटकता नहीं। ज्ञान सहज परिणमता है। वह ज्ञान खीलता है। अंतरमें जाता है वहाँ स्वभावरूप परिणमता है। जैसे-जैसे वीतराग दशा बढती जाय, वैसे ज्ञान निर्मल होता जाता है। ज्ञानका विकास होता है। वह एक जगह अटक जाता है। ज्ञानकी अनन्त शक्ति है वह एक ज्ञेयमें अटक जाती है।

मुमुक्षुः- अटक जाता है कहो कि बँध जाती है ऐसा कहो। उसमें मुक्त हो जाता है।

समाधानः- ज्ञेय-से भिन्न पडता है, वहाँ स्वयं परिणमता है। ज्ञान ज्ञानरूप परिणमता है। ज्ञान स्वयंको जाननेकी क्रियारूप परिणमता है। जैसा है वैसा परिणमता है। गुरुदेवने पूरा मुक्तिका मार्ग, स्वानुभूतिका मार्ग एकदम स्पष्ट किया है। करनेका स्वयंको बाकी रहता है। अन्दर-से जिसे लगी हो, तो पुरुषार्थकी दिशा बदलती है। गुरुदेवने तो एकदम स्पष्ट कर दिया है।

जहाँ अपनी तरफ गया तो उसकी निर्मलता स्वयं परिणमती है। इसमें ज्ञेयमें अटक जाता है। ज्ञानकी महिमा आयी। ज्ञान अपने क्षेत्रमें रहकर, उस क्षेत्रमें जाता भी नहीं, पर तरफ उपयोग रखने नहीं जाता है। स्वयं अपने क्षेत्रमें रहकर सब ज्ञेयोंको जाने। ज्ञेय उसे ज्ञात हो जाते हैं, अपने क्षेत्रमें रहकर। वह ज्ञानकी कोई अचिंत्य शक्ति है। स्वयं अपने क्षेत्रमें रहकर, पूरे लोकके जो ज्ञेय हैं, उसके द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव अनन्त अनन्त ज्ञेय, अपने क्षेत्रमें रहकर, अपनेमें रहकर लोकालोकको जान सकता है। उसके पहले, लोकालोकको जाने उसके पहले उसे स्वानुभूतिमें ज्ञानकी निर्मलता होती है। वह बाहरका जाने या न जाने, परन्तु उसे ज्ञानकी निर्मलता होती है।

मुमुक्षुः- सम्यकज्ञानकी निर्मलता स्व अनुभव होने-से हो जाती है।

समाधानः- ज्ञानकी निर्मलता होती है।


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मुमुक्षुः- ... मेरा जीवन था, ऐसा उसे भासित होता था, उसके बदले अब मेरा जीवन मेरे आधार-से ही है।

समाधानः- मेरी ही आधार-से है, किसीके आधार-से नहीं है। पर-से मैं टिकता हूँ और पर-से मेरा जीवन है, उसके बदले स्वयं मेरा अस्तित्व है, मैं स्वयं ज्ञायक हूँ। मैं स्वयं एक पदार्थ हूँ। कोई पदार्थसे मैं टिकू या कोई बाहरके साधनों-से, या शरीरादि पदार्थसे टिकू ऐसा तत्त्व नहीं है। तत्त्व स्वयं स्वतःसिद्ध है। तत्त्व स्वयं अपने- से टिक रहा है। उसे कोई पदार्थके आश्रयकी आवश्यकता नहीं है। स्वयं स्वतःसिद्ध है। परन्तु वह एकत्वबुद्धि करके अटक रहा है।

आता है न? स्वतःसिद्ध तत्त्व, तत्त्व उसे कहे कि जिसे परके आश्रयकी जरूरत न हो। उसका नाम तत्त्व, उसका नाम स्वभाव कहनेमें आता है। जिस स्वभावको परके आश्रयसे वह स्वभाव परिणमे अथवा परके आश्रयके जरूरत पडे, उसे स्वभाव नहीं कहते। जो स्वतःसिद्ध स्वभाव हो, वह स्वयं परिणमता है। और उस स्वभावमें मर्यादा भी नहीं होती कि ये स्वभाव इतना ही हो या इतना ही जाने। ऐसा नहीं होता। वह स्वभाव अमर्यादित होता है।

वैसे ज्ञान, वैसे आनन्द, वैसे अनन्त गुण (हैं)। जो स्वभाव हो उस स्वभावको मर्याेदा नहीं होती। जो स्वतःसिद्ध स्वभाव है, वह अनन्त ही होता है। उसे मर्यादा नहीं होती या उसे इतना ही हो, या उतना ही हो, ऐसा नहीं होता। वह किसीके आश्रय-से परिणमे या कोई आश्रय न हो तो उसकी परिणति कम हो जाय, ऐसा नहीं है।

जो स्वतः परिणामी है, स्वयं ही स्वतःसिद्ध परिणामी है। स्वभावको कोई मर्याेदा नहीं होती। परन्तु उसने सब मान लिया है अज्ञानता-से। उसका नाम३ स्वभाव, उसका नाम तत्त्व कहे कि जो स्वतःसिद्ध हो और जो अनन्त हो। ऐसे अपने स्वतःसिद्ध स्वभावकी उसे महिमा आये तो वह अपनी ओर जाता है।

बाहर-से उसे थकान लगे, विभाव परिणति-से उसे थकान लगे, उसे विकल्पकी जाल-से थकान लगे तो वह अपना चैतन्यका आश्रय ग्रहण करता है। वह थकता नहीं है तो उसे अपना आश्रय लेना कठिन लगता है। उसे थकान लगे कि ये परिणति तो कृत्रिम है, सहज नहीं है। जो-जो कष्टरूप है, दुःखरूप है। तो अपना जो स्वभाव है, उसका आश्रय ग्रहण करनेकी उसे अन्दर-से जिज्ञासा, भावना हुए बिना नहीं रहती।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!