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समाधानः- .. वह ग्रहण करके तैयारी करे। गुरुदेव जो कहे वह बराबर है। ऐसा अर्पणताका भाव अन्दर आये और स्वयं विचारूपर्वक नक्की करे, वही मार्ग ग्रहण करने जैसा है। स्वयं अपनेआप मार्ग नहीं जान सकता है। गुरुदेवने बताया तो विचार करके नक्की करे और वह स्वयं नक्की कर सकता है। आत्मा स्वयं अनन्त शक्तिवान है। स्वयं नक्की करे इस मार्ग पर जा सकता है।
मुमुक्षुः- तो फिर उसे शंका ही न हो।
समाधानः- ... आगे नहीं जा सकता, मुख्य तो प्रतीत है।
मुमुक्षुः- यह ऐसा ही है, ऐसा नक्की तो हो गया, परन्तु अनुभवमें नहीं आता।
समाधानः- यह ऐसा ही है, वह भी अभी अन्दर-से स्वभाव-से नक्की हो कि यह ज्ञानस्वभाव ही है, ऐसी अंतरमें-से प्रतीति जब आवे तब अंतरकी परिणति प्रगट हो। अन्दर गहराई-से स्वभाव ग्रहण करके प्रतीत करे। विश्वास किया, गुरुदेवने कहा उस पर विश्वास किया, विचार किया, विचार-से नक्की किया। नक्की किया लेकिन अंतरमें जो स्वभाव ग्रहण करके नक्की करना चाहिये के यह आत्मा और यह विभाव, ऐसे नक्की करे, उस जातकी प्रतीति करे तो आगे बढा जाता है। अभी अन्दर गहराईमें नक्की करना बाकी रह जाता है। अन्दर गहराईमें सूक्ष्म उपयोग धीरा होकर नक्की करे। अंतरमें-से भेदज्ञान करना चाहिये वह बाकी रह जाता है।
मुमुक्षुः- भेदज्ञानकी कोई रीत है?
समाधानः- अंतर भेदज्ञानकी रीत, भेदज्ञान यानी भेदज्ञान स्वयं भिन्न पडता है। जो क्षण-क्षण एकत्वबुद्धि चल रही है, शरीरादि, विभावके साथ, सबके साथ एकत्वबुद्धि हो रही है, वह एकत्वबुद्धि अंतरमें ऊतरकर तोडे, ज्ञानस्वभावको ग्रहण करे तो एकत्वबुद्धि टूटे, तो भेदज्ञान हो। सबका एक ही उपाय है कि ज्ञायकको ग्रहण करे तो भेदज्ञान हो। ज्ञायकको ग्रहण करने-से सच्ची प्रतीत, ज्ञान सब ज्ञायकको ग्रहण करने-से हो। सबका एक ही उपाय है। चारों और अनेक मार्ग नहीं होते, मार्ग एक ही है। ज्ञायकको ग्रहण करना। फिर किसी भी प्रकार-से ज्ञायकको ग्रहण करना। विचार करके नक्की करे, शास्त्र-से, गुरुदेवके आशय-से सर्व प्रकार-से एक ज्ञायकको ग्रहण करना, एक ही मार्ग
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है, दूसरा कोई मार्ग नहीं है। ज्ञायकको ग्रहण करके अन्दर लीनता करे तो प्रगट होता है।
मुमुक्षुः- ज्ञायकको ग्रहण करना, एक ही उपाय।
समाधानः- एक ही उपाय है। ज्ञायकको स्वभावमें-से ग्रहण करे तो भेदज्ञान हो। मूल वस्तुको ग्रहण करनी।
मुमुक्षुः- इसमें याद रखने जितना कितना? याह रहता नहीं है..
समाधानः- ज्ञायकको याद रखना। ज्ञायक वस्तु... फिर विचार करनेके सब पहलू आये। अनन्त गुण है, अनन्त पर्याय है, द्रव्य-गुण-पर्याय सब विचार करनेके लिये सब सब पहलू है। उत्पाद-व्यय-ध्रुव, द्रव्य-गुण-पर्याय, साधक, साध्य ज्ञाता, ज्ञेय विचार करनेके लिये सब है। याद रखना एक ज्ञायक।
मुमुक्षुः- ध्येय।
समाधानः- ध्येय एक ज्ञायकका। विचार करनेके लिय सब पहलू। सब विचार करके नक्की करे। शास्त्रों-से, गुरुदेवके आश्रय-से विचार करके नक्की करनेके बहुत पहलू हैं। मूल तत्त्वका विचार करना। याद एक ज्ञायकको रखना।
मुमुक्षुः- मेरु पर्वतमें भी रत्नके हैं?
समाधानः- अंजनगिरी, दधिगिरी सब रत्के पहाड और रत्नकी प्रतिमाएँ हैं।
मुमुक्षुः- अंजनगिरी भी पूरा रत्नका पहाड?
समाधानः- हाँ, रत्नका। वह सब रत्नके पहाड हैं।
मुमुक्षुः- आप देवस्वरूपमें जाकर आये? या सम्यग्दृष्टि ही जा सकते हैं? कोई भी जा सकता है?
समाधानः- सब देव जा सकते हैं। देवलोकमें जाय, वहाँ-से नंदीश्वरमें सब देव (जा सकते हैं), इन्द्र तो जाते हैं, परन्तु इन्द्र सबको साथ लेकर जाता है। जाय, परन्तु सब बार भाव-से नहीं गया हो। अनन्त बार देवलोकमें गया है। ऋद्धि थी तो जाकर आ गया कि हम देवोंका जानेका नियम है इसलिये जाते हैं। उस प्रकार जाकर आया। भाव-से जाये उसकी बात अलग होती है। इन्द्र हमें आज्ञा करते हैं इसलिये हमें जाना पडे, ऐसा करके जाय। उत्सव करनेके लिये इन्द्र लेकर जाय तो इन्द्रोंके साथ जाय कि हमें आज्ञा है तो हम जाते हैं। भावना-से जाय उसकी बात अलग है। कोई देव भाव-से भी जाते हैं।
मनुष्य जा नहीं सकते। .. हम नहीं जा सकते, देव ही जा सकते हैं। पाँचसौ- पाँचसौ धनुषके भगवान जैसे समवसरणमें विराजते हों, ऐसे भगवान (होते हैं)। अंजनगिरी श्याम कलरके रत्नके पहाडे हैं। दधिगिरी सफेद है और रतिकर लाल है, ऐसा आता है। ऐसे रत्नके पहाड हैं।
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मुमुक्षुः- रतिकर, दधिगिरी, अंजगिरी सबमें पाँचसौ धनुषके होते हैं?
समाधानः- पहाड नहीं, प्रतिमाजी पाँचसौ धनुषके।
मुमुक्षुः- तीन पर्वतोंमें दधिगिरी, रतिकर और अंजनगिरी तीनोंमें पाँचसौ धनुषके?
समाधानः- ऐसा आता है। उसके माप अलग-अलग आते हैं। कोई जगह मध्यम है, कोई जगह .. है, कोई जगह पाँचसौ धनुषके हैं।
मुमुक्षुः- पाँच मेरुमें तो अस्सी प्रतिमाएँ है, ऐसा पहले सामान्यतया ख्यालमें था। फिर पूजा जब होने लगी तो तब ऐसा लगा कि एक-एक मेरुमें तो कितनी प्रतिमाएँ हैं! सब मिलाकर ३९२ होती है न?
समाधानः- मूल मेर पर्वतमें तो ऐसे है। एक मेरुमें चार-चार जिनालय हैं। ऐसा है। उसके बगलमें शाल्मलि वृक्ष और जम्बू वृक्ष है। उसके अगलबगलके जो पहाड और वृक्ष हैं, उसकी प्रतिमाएँ हैं वह सब। उसकी .. पर्वतोंकी निकली है। उसके पर मन्दिर हैं। उसके ऊपर तो एक-एकमें सोलह जिनालय है। मेरु पर्वतमें। फिर उसके बगलमें वृक्ष हैं। उसमें है। ऐसा तो आता है न? अगलबगलमें विजयार्ध और वैताल आदि सब अगलबगलमें हैं, उसके ऊपर मन्दिर है। उसका पूरा परिवार बगलके पहाडका है। मूल मेरुमें तो सोलह जिनालय है।
उसमें-से उसका कुछ भाग निकला है उसमें है। देव जा सकते हैं। मन्दिर पर और सब पर बहुत भाव था। पाँचसौ धनुषकी (प्रतिमा) है इसलिये पहाड तो उससे भी बडे होते हैं। ज्यादा ऊँचे होते हैं।
... शास्त्रमें आता है। वह सुवर्ण रत्नमिश्रित है। अमुक भाग रत्नका और अमुका सुवर्णका है। मेरु पर्वत पूरा वैसे है। सुवर्णका भाग और रत्नका भाग। मेरु पर्वत तो कितना ऊँचा है। यहाँ-से सुधर्म देवलोककी जो धजा है, पाण्डुक वनके मन्दिरकी, उसमें बालाग्र जितना ही अंतर है। बस, उतना ही अंतर है। पहला सुधर्म देवलोक है, वहाँ तक ऊँचा है। बीचमें एक बालाग्र जितना अंतर है। पाण्डुक वनमें आकर भगवानका जन्माभिषेक करते हैं। सुधर्म इन्द्र, शक्रेन्द्र, सब देव वहाँ आते हैं।
समाधानः- ... जितना ज्ञान है वही मैं हूँ। ज्ञान यानी उसमें पूरा ज्ञायक आ जाता है। जितना ज्ञान है, उतना ही मैं हूँ। ज्ञायकको ग्रहण करे और विकल्प-से भिन्न पडे, उसका भेदज्ञान करे, वह एक ही मार्ग है।
मैं शाश्वत द्रव्य हूँ, उस द्रव्य पर दृष्टि करे और विकल्प-से भिन्न पडे, वह एक ही मार्ग है। परन्तु उसके लिये उसे उतनी गहरी लगनी नहीं है, इसलिये वह ग्रहण नहीं करता है। मार्ग तो एक ही है और गुरुदेव वह बताते थे। मार्ग तो एक ही है कि आत्माको ज्ञानलक्षण-से पहिचानकर द्रव्यको ग्रहण करे कि यह द्रव्य है सो
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मैं हूँ और यह विभाव है वह मैं नहीं हूँ। उसके बाद पुरुषार्थकी गति-से भेदज्ञानकी धारा प्रगट करे तो वह भेदज्ञानकी धारा सहज होते-होते उसे विकल्प छूटे बिना नहीं रहता। परन्तु उतनी स्वयंको अन्दरसे अपनी परिणति जागे तो होता है। भावना हो, परन्तु उस जातकी पुरुषार्थकी गति स्वयं प्रगट करे तो होता है।
मुमुक्षुः- .. तो ही विकल्प टूटे या इन्द्रिय ज्ञान-से विकल्प टूटता है?
समाधानः- अतीन्द्रिय ज्ञान अर्थात मैं ज्ञायक हूँ। ज्ञायक ही स्वयं अतीन्द्रिय ज्ञान है। ज्ञायकको ग्रहण करे। बाहर-से इससे जाना, यह जाना, वह जाना, जाना वह ज्ञान ऐसे नहीं। परन्तु मैं ज्ञायक स्वभाव हूँ, ज्ञायकरूप परिणमित ज्ञायक, परिणमित अर्थात प्रगट परिणमित नहीं हुआ है, ज्ञानस्वभावी है, उस स्वभावको ग्रहण करे तो प्रगट हो। यह ज्ञान, यह ज्ञान ऐसे भेद नहीं, परन्तु ज्ञानस्वभाव ही जो वस्तुका है, उसे ग्रहण करे तो होता है।
मुमुक्षुः- वचनामृतमें ज्ञायक-ज्ञायक शब्द जगह-जगह आता है। तो ज्ञायकके आश्रय- से ही सब प्राप्त हो जानेवाला है या दूसरा कुछ करनेका है?
समाधानः- ज्ञायकके आश्रय-से ही सब प्रगट होनेवाला है। परन्तु ज्ञायकका आश्रय लेनेके लिये उसकी पहिचान करनी पडे। ज्ञायक कौन है? ज्ञायकका स्वभाव क्या है? ये विभाव कौन? उसका लक्षण पहिचानना पडे। और ज्ञायकको ग्रहण करनेके लिये गुरुदेव क्या कहते हैं? गुरुदेवने क्या मार्ग बताया है? वह प्रगट न हो तबतक, देव- गुरु-शास्त्रकी महिमा आये, गुरुदेवने क्या कहा है उस तत्त्वका विचार करे, वह सब आये, परन्तु ग्रहण एक ज्ञायकको करना है।
ज्ञायकको ग्रहण करने-से सब ग्रहण होता है। ज्ञायक अर्थात स्वयं। स्वयंका अस्तित्व ज्ञायक ग्रहण किया तो विभाव-से भिन्न पडता है और भेदज्ञान होता है। और उस भेदज्ञानकी उग्रता, ज्ञायककी उग्रता होते-होते उसीमें लीनता बढाता हुआ, उसकी प्रतीति, उसका ज्ञान और उसमें लीनता, वह करते-करते उसीमें आगे जाता है। ज्ञायक ग्रहण करनेका एक ही मार्ग है। उसके लिये तत्त्व विचार, उतनी गहरी रुचि, गुरुदेव क्या कहते हैं उसका आशय ग्रहण करना, वह सब रहता है। ध्येय एक ज्ञायकको ग्रहण करनेका होना चाहिये।
मुमुक्षुः- आपको जब अनुभूति हुयी तब आप पण्डितजीको बारंबार लिखते थे कि अब इतना बाकी है, इतना बाकी है, इतना बाकी है, किसके आधार-से? ज्ञायकके आधार-से आप कहते थे?
समाधानः- अन्दर-से मुझे ऐसा लगता था। अन्दर ऐसा लगता था। यह ज्ञान कोई अलग है, अन्दर कोई अलग आत्मा है। आत्मा भिन्न है, ऐसा हुआ करता
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था। आत्मा भिन्न है, भिन्न है, ऐसा ज्यादा-ज्याता भिन्न लगता जाय, इसलिये इतना- इतना ऐसा कहती थी। आत्मा भिन्न है, यह सब भिन्न है, आत्मा भिन्न है। ज्यादा- ज्यादा भिन्नता लगने लगती थी इसलिये इतना है, इतना है, ऐसा कहती थी। ऐसा कुछ मालूम नहीं पडता है कि इतने समयमें हो जायगा। उतना बल अन्दर-से आता था। ये भिन्न है तो भिन्न ही पड जायगा, ऐसा होता था।
मुमुक्षुः- माताजी! निश्चय-व्यवहारकी सन्धि आयी न? आपने कहा, ज्ञायकका रटन करना, देव-गुरु-शास्त्रमें यथार्थ श्रद्धा रखना। वह तो व्यवहार आया। तो निश्चय- व्यवहार दोनोंकी सन्धि साथमें ही है?
समाधानः- दोनों साथमें है। दोनों साथमें है। निमित्त और उपादान। पुरुषार्थ करनेका उपादान अपना और उसमें निमित्त देव-गुरु-शास्त्र होते हैं। वह शुभभाव-से भिन्न होने पर भी निमित्त-उपादानकी सन्धि होती ही है। अनन्त काल-से जो सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हुआ है, प्रथम बार हो तो उसमें देशनालब्धि होती है। कोई साक्षात गुरु या साक्षात देव हो तभी उसे देशनालब्धि होती है, ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। ज्ञायकको ग्रहण करनेका है, तो भी उसमें निमित्त देव-गुरुका होता है। प्रत्यक्ष देव- गुरु हो तो अन्दर-से प्रगट होता है। ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। ऐसी निश्चय- व्यवहारकी सन्धि है।
मुमुक्षुः- ज्ञानी धर्मात्मा बाहरमें भक्ति आदि कायामें जुडते हों ऐसा दिखता है, .. ऐसा लगता है। आप कहते हो कि वह बाह्य काया-से अलिप्त है। ज्ञानीकी अन्दरमें जो परिणति चलती है उसे तू देख, परन्तु अन्दरमें देखनेकी दृष्टि तो हमें मिली नहीं है, तो हमें उस दृष्टिको प्राप्त करनेके लिये क्या करना, यह कृपा करके समझाईये।
समाधानः- ज्ञानी कुछ भी करते हो, उसकी भक्ति हो तो भी उसकी भेदज्ञानकी धारामें ज्ञायक भिन्न ही परिणमता है। परन्तु उसे देखनेकी दृष्टि तो स्वयंको प्रगट करनी पडती है। सच्चा मुमुक्षु हो, जिसे सतको ग्रहण करनेका नेत्र खुल गया हो, वह उसके वर्तन पर-से, अमुक (वाणी) पर-से समझ सके। उसे अमुक प्रकार-से समझ सके। बाकी तो अमुक प्रतीत रखे, बाकी उसकी सत ग्रहण करनेकी शक्ति जो सच्चा जिज्ञासु हो उसे प्रगट होती है। ये सब करते हुए भी न्यारे दिखते हैं, ऐसा किसीको ग्रहण हो भी जाता है।
मुमुक्षुः- अर्पणता करनी, ज्ञानी धर्मात्माको पहिचानकर।
समाधानः- पहले अमुक परीक्षा-से नक्की करे। अमुक नक्की करे, फिर सब नक्की करनेकी उसकी शक्ति न हो तो वह अर्पणता करे। अमुक जितनी उसकी शक्ति हो उसे ग्रहण करे। उतना अमुक तो नक्की करे, फिर तो गुरुदेव दृष्टान्त देते थे कि तुझे
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किसीकी दुकान पर माल रखना हो तो वह दुकान कैसी है, ऐसा पहले तू नक्की कर। फिर तू पूरी दुकानकी खातावही देखने जा तो ऐेसे कोई दिखाता नहीं। वह ऐसा कहता है कि तू अमुक लक्षणों-से नक्की कर। गुरुदेव कहते थे कि यह यथार्थ है। ऐसे गुरुदेव एक सत्पुरुष है, ऐसा नक्की करनेके लिये उनकी वाणी, उनकी मुद्रा अमुक प्रकार-से नक्की कर। फिर उनकी दशा क्या है, वह ग्रहण करनेकी तेरी पूरी शक्ति न हो तो अर्पणता करना।
मुमुक्षुः- अंतिम प्रश्न है। सामान्य पर दृष्टि और भेदज्ञानमें क्या अंतर है, यह कृपा करके समझाईये।
समाधानः- जिसकी सामान्य पर दृष्टि गयी कि मैं सामान्य एक वस्तु हूँ। उसमें भेद पर दृष्टि नहीं है। दृष्टि तो अखण्ड एक द्रव्य पर है। अपना अस्तित्व ज्ञायक पर दृष्टि है, परन्तु दृष्टिके साथ भेदज्ञान दोनों साथमें रहते हैं। दृष्टि और ज्ञान दोनों साथ होते हैैं।
एक सामान्य पर दृष्टि और विभाव-से भिन्न पडे। अपने पर जहाँ दृष्टि गयी तो विभाव-से भिन्न पडता है। दोनों साथ ही रहते हैं। स्वयं सामान्यको ग्रहण करे, अस्तित्वको ग्रहण करे उसमें अन्य-से नास्ति उसमें साथ आ जाती है। स्वयंको ग्रहण किया इसलिये मैं विभाव-से भिन्न हूँ, ऐसा साथमें आ जाता है। दृष्टि कहीं भेद नहीं करती, परन्तु ज्ञान सब जानता है। ज्ञानमें सब आ जाता है कि मैं ये विभाव-से भिन्न और ये मेरा चैतन्यका अस्तित्व भिन्न है। ऐसे दृष्टि और ज्ञान साथमें ही रहते हैं। दृष्टि एक सामान्यको ग्रहण करती है, ज्ञान दोनोंको ग्रहण कर लेता है। दोनों साथ-साथ ही होते हैं। जिसकी दृष्टि सम्यक हो, उसका ज्ञान सम्यक होता है। दोनों साथ रहते हैं।
मुमुक्षुः- पहले दृष्टि सम्यक हो, बादमें ज्ञान? समाधानः- दृष्टि और ज्ञान दोनों साथमें ही सम्यक होते हैं। उसमें क्रम नहीं पडता। परन्तु दृष्टि मुख्य है इसलिये दृष्टिको मुख्य कहनेमें आता है। बाकी दृष्टि और ज्ञान दोनों साथमें होते हैं। उसमें क्रम नहीं होता, दोनों साथमें होते हैं।