Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 40.

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ट्रेक-०४० (audio) (View topics)

समाधानः- ... तो है नहीं। द्रव्यस्वरूपसे देखे तो मेरेमें यह नहीं है, मैं तो ज्ञायक शुद्धात्मा हूँ। यह जो विभाविक वस्तु तो सब ऊपरसे आयी हुई, ऊपर-ऊपरकी है, मूल अंतरमें नहीं है। इसलिये मेरे मूलमें नहीं है। वह आयी है, अब वह टले कैसे? इसलिये उसे टालनेका प्रयत्न और अपना शुद्ध स्वरूप प्रगट करनेका उसका प्रयत्न चलता है।

मुमुक्षुः- इस प्रयोजनसे वह इस प्रकारसे विचार करता है? ज्ञानमें ऐसा जाननेके बावजूद, रुचिमें मैं ज्ञायक हूँ, इस प्रयोजनपूर्वक?

समाधानः- हाँ। मेरे स्वभावमें तो नहीं है। उसे रुचि तो ऐसी है। रुचि, प्रतीतमें ऐसा है कि यह मेरे स्वभावमें नहीं है। परन्तु वह है तो सही। वह है तो टले कैसे? मूल वस्तुमें नहीं है, लेकिन पर्यायमें यह ऊपर-ऊपरसे आया है। अब वह टले कैसे? मूल वस्तुमें नहीं है, परन्तु यह पर्यायमें ऊपर-ऊपरसे आया है, वह टले कैसे? उसे टालनेका प्रयत्न (करता है)। मेरेमें नहीं है, इसलिये अब टालनेका प्रयत्न कैसे हो, उसका उपाय खोजकर स्वयं टालनेका प्रयत्न करके, मेरे स्वभावमें नहीं है, मैं उसका कर्ता नहीं हूँ, मैं अनादि अनन्त ज्ञायक ही हूँ। दोनोंमें विरोध नहीं होता। यदि अंतरमें दोनोंकी अपेक्षा समझे। मूलमें नहीं है तो वह टल जाता है। मूलमें हो तो टले कैसे? मूलमें नहीं है इसीलिये वह टलता है। मूलमें हो तो-तो उसका स्वभाव हो जाये। तो टले नहीं। और वह दुःखरूप है। अपना स्वभाव तो दुःखरूप होता नहीं। इसलिये यह सब ऊपरसे आया हुआ है, वह परिणति चली जाये और मेरा स्वभाव है वह प्रगट हो जाये। इसप्रकार उसकी रुचि अपने स्वभावकी ओर रहती है कि मैं ज्ञायक हूँ और यह टले कैसे? यह सब उसे रुचिमें रहता है।

मुमुक्षुः- बहुत सुन्दर! माताजी! अपने पीछली बार स्पष्टीकरण किया था उसमें आज भी अधिक स्पष्टीकरण हुआ। ... रुचिमें ऐसे लेना कि मैं तो ज्ञायक ही हूँ और राग-द्वेष मेरेमें मेरेसे अत्यंत भिन्न है। मेरेमें होते ही नहीं। मैं..

समाधानः- भिन्न हूँ। भिन्न हूँ तो प्रगटरूपसे भिन्न पडनेका उसे प्रयत्न चलता है कि प्रगटरूपसे भिन्न कैसे होऊँ? ज्ञानमें उसे दोनों आते हैं कि यह मेरेमें होता


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है, मेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है, लेकिन वह मेरा स्वभाव नहीं है। इसप्रकार ज्ञानमें सब जानता है। और उसमें (-रुचिमें) मैं जाननेवाला एक ज्ञायक हूँ। मेरेमें नहीं है। प्रतीतमें-रुचिमें ऐसे रहता है।

मुमुक्षुः- रुचि अर्थात श्रद्धानमें उसे ऐसा रहता है कि मेरे द्रव्यमें-स्वभावमें तो राग है नहीं।

समाधानः- हाँ, श्रद्धा। श्रद्धा कहो, प्रतीत कहो, रुचि कहो।

मुमुक्षुः- श्रद्धा अनुसार वर्तन (क्यों नहीं होता)? श्रद्धा-विश्वास पका हुआ, फिक्षर चारित्रमें क्यों देर लगती हो?

समाधानः- उसके प्रयत्नकी कचास है। श्रद्धाका जोर है कि ऐसे ही है। तो आंशिक तो उसे हो जाता है। अमुक अंश तो प्रगट हो जाता है। जहाँ श्रद्धा यथार्थ होती है वहाँ ज्ञायककी परिणित अमुक प्रकारसे तो प्रगट हो जाती है। उससे भिन्न पड जाता है। उसे स्वानुभूति होती है, उससे भिन्न पडे, लेकिन उसे थोडा बाकी रहता है। वह उसके प्रयत्नकी क्षति है। लेकिन श्रद्धामें इतना बल है कि प्रयत्न करके भी अवश्य प्रगट होता है। पार हो जायेगा। प्रयत्न उसका चालू ही रहता है। उसका प्रयत्न छूट नहीं जाता। प्रयत्न चालू ही रहता है।

क्षण-क्षणमें जो विभाव परिणति उत्पन्न होती है, उसके सामने उसका प्रयत्न उतना जोरदार खडा रहता है। श्रद्धाका बल और ज्ञायककी परिणति स्वयं अपनी ओर, अपनी परिणतिको खीँचता हुआ स्वयं प्रतिक्षण खडा रहता है। उसके प्रयत्नमें जितना हो उतना उसे सहजरूपसे रहता है। बाकी थोडी देर लगती है, प्रयत्नकी कचास है इसलिये।

ज्ञायकधारा प्रतिक्षण मौजूद रहती है। उसमें (-विभावमें) तन्मय नहीं हो जाता। उतना प्रयत्न उसका प्रगट हुआ है। श्रद्धाके बलके साथ उतना प्रयत्न तो उसे जोरदार रहता है कि एकत्व होता ही नहीं। उसके साथ जो अनादिसे एकत्व था, अब एकत्व नहीं होता। भिन्न ही भिन्न, प्रत्येक कार्यमें भिन्न ही रहता है। स्वानुभूतिकी दशा प्रगट हुयी। (विभावके) साथ एकत्व तो होता ही नहीं। किसी भी क्षणमें एकत्व नहीं होता। उसके प्रयत्नसे एकत्व (नहीं होता)। सहज ऐसा उसका प्रयत्न चलता है। कोई कार्यमें, विभाव सम्बन्धित कोई विकल्पमें, शुभाशुभके किसी भी विकल्पमें एकत्व नहीं होता। शुभ विकल्प ऊँचेसे ऊँचा हो तो भी एकत्व तो होता ही नहीं। किसी भी क्षणमें एकत्व नहीं होता। इतना प्रयत्न उसका चालू रहता है। फिर विशेष प्रयत्न चारित्रदशामें देर लगती है। किसीको तुरन्त होता है, किसीको देर लगती है।

मुमुक्षुः- ... धीरा होकर ज्ञायकको मुख्य लक्षण द्वारा पहचानकर वहाँ स्थिर रहे अथवा तो उसका अवलम्बन ले तो.. ज्ञान लक्षण अर्थात जानता है.. जानता है..


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वह मैं हूँ। यह जानपना होता है..

समाधानः- बाहरका जानपना नहीं। जो जाननेवाला स्वभाव है वह मैं हूँ। जानन लक्षण है वह मैं हूँ।

मुमुक्षुः- बाहरका जानपना नहीं। बाहरका जानपने द्वारा यह जाननेवाला है वह मैं हूँ।

समाधानः- हाँ, मैं जाननेवाला हूँ। विभावका वेग इतना चल रहा है, उस वेगपूर्वक बहता है उसमें धीरा होकर देखे तो स्वयंको ग्रहण कर सकता है। उसका विभावका वेग अनादिका (चल रहा है)। उसके विभावकी, विकल्पकी जाल चल ही रही है, उसमें धीरा होकर देखे तो स्वयंको ग्रहण करता है।

मुमुक्षुः- ... भविष्य, आलोक, परलोक..

समाधानः- सबकी शक्ति... मैं यह चैतन्य हूँ, यह मैं नहीं हूँ। इस परिणामके ऐसे फल होते हैं, सब उसे नक्की हो जाता है। उसकी श्रद्धामें नक्की हो जाता है।

... स्वयंको ग्रहण करे। ज्ञायक ज्ञान तो जाननेवाला स्वयं खडा ही है। चाहे जो भी विभाव हो, उसमें जाननेवाला स्वयं तो खडा है। परन्तु स्वयंको जाननेके लिये स्वयंको प्रयत्न करना चाहिये। शरीर भिन्न दिखाई देता है, वह जानता नहीं। अन्दर विभावस्वभाव तो आकूलतारूप है। उस आकूलतामेंसे जो जाननेवाला भिन्न है उसे ग्रहण करे। जो स्वतः जाननेवाला है, बाहरका जानता है इसलिये जाननेवाला है, ऐसे नहीं, लेकिन स्वतः जाननेवाला ही है। उस जाननेवालेको ग्रहण करना अपने हाथकी बात है। जानन ज्ञायकमें सब भरा है, अनन्त महिमा भरी है। लेकिन उसकी महिमा आये तो स्वयं ग्रहण करे। उसका लक्षण पहचानकर स्वयं ग्रहण करे तो हो सके ऐसा है। स्वयं ग्रहण करे तो हो सकता है।

अन्दर महिमावंत आत्मामें सब भरा है। उसका लक्षण पहचानकर अन्दर ग्रहण करना चाहिये। जाननेवाला स्वयं खडा ही है, शाश्वत खडा है। जाननेवाला स्वयं अपना लक्षण बता रहा है कि ये रहा मैं। लेकिन स्वयं उसे जाननेका प्रयत्न करे तो जाननेमें आये न। जाननेवाला है वह सब जान ही रहा है। जो अन्दर विभाव होते हैं, जो राग होता है, जो शुभ, अशुभ सब भावोंको जाननेवाला अन्दर खडा है। लेकिन स्वयं एकत्वबुद्धि करके उसे भिन्न नहीं करता है कि यह जाननेवाला है तो फिर भिन्न क्यों नहीं (जाननेमें आता)? स्वयं भिन्न करे, जोरदार प्रयत्न करे तो भिन्न पडता है। स्वयं जोरदार प्रयत्न करता नहीं। उतनी रुचि, महिमा, अपना लक्षण पहचाननेके लिये विचार करके, धीरा होकर उसे ग्रहण करे तो हो सकता है। बाकी तो अपने हाथकी बात है।


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मुमुक्षुः- माताजी! प्रारंभ ही कठिन है या पूरे मार्गमें पुरुषार्थ चाहिये?

समाधानः- प्रथम भूमिका विकट होती है। श्रीमदमें आता है न? प्रथम भूमिका विकट होती है। प्रथम भूमिका... अनादिसे उसे एकत्वबुद्धि गाढ हो रही है, उसमेंसे उसे निकलना विकट है। फिर तो मार्ग सहज है और सुगम है। अपना स्वभाव है। ऐसे सहज स्वभावको उसने पहचाना और उसे प्रगट हुआ, उसके बाद मार्ग सहज और सुगम है। प्रथम भूमिका जितनी विकट होती है, उतनी उसकी प्रत्येक भूमिका विकट नहीं होती। पुरुषार्थकी धारा तो सबमें चालू ही रखनी पडती है। पुरुषार्थकी धारा तो। लेकिन प्रथम भूमिक विकट होती है।

मुमुक्षुः- उसे टिकाये रखना विकट है।

समाधानः- प्राप्त करना विकट है। टिकाये रखनेमें भी पुरुषार्थ चाहिये। प्राप्त किया है उसे टिकाये रखना वह अपने पुरुषार्थसे (होता है), परन्तु प्राप्त करना अधिक विकट है। प्राप्त करनेके बाद टिकाना विकट है, लेकिन जिसे पुरुषार्थ चलता हो उसे विकट नहीं है। जिसका पुरुषार्थ छूट जाता हो उसे विकट है। पुरुषार्थ छूटे तो। जिसे पुरुषार्थ चलता हो उसे विकट नहीं है, पुरुषार्थ नहीं चलता हो उसके लिये विकट है, उसे टिकाना विकट है। जो अप्रतिहत धारासे चला हो, चारों पहलूसे (यथार्थ प्रकारसे) शुरूआत की हो, उसे टिकाना विकट नहीं है। लेकिन जो चारों पहलूसे नहीं चला हो तो उसके लिये विकट है। लेकिन प्रथम भूमिका अधिक विकट है।

... विकल्प टूट जाये तो आती है। लेकिन पहले विचार करके निर्णय करे तो उसमें भी उसे महिमा आती है। परन्तु यथार्थ महिमा तो उसमें वह लीन हो, स्वानुभूतिकी दशा प्रगट हो तो उसे यथार्थ महिमा आती है। स्वयं विचार करके नक्की करता है, वह विचार करके नक्की करता है, तो भी उसे महिमा आती है। अनन्त जीव मोक्षमें गये हैं, अपना स्वभाव है इसलिये। अनन्तने भेदज्ञानको प्रगट किया, चारित्रदशा प्रगट की, अनन्त जीव मोक्षमें गये हैं, अपना स्वभाव है इसलिये। पहले विकट लगता है। विकट होनेपर भी नहीं हो सके ऐसा नहीं है। कल वह सब आये थे न? (कहते थे), बहुत विकट है। विकट है लेकिन नहीं हो सके ऐसा नहीं है। स्वयं पुरुषार्थ करे तो हो सके ऐसा है।

मुमुक्षुः- उसे प्रयत्न चालू रखना चाहिये।

समाधानः- प्रयत्न चालू रखना चाहिये। .. जो चारों पहलूसे नहीं चला हो, कोई कारणसे शुरूआत की हो तो उसे पुरुषार्थ मन्द होनेका कारण बनता है। चारों पहलूसे चला हो उसे पुरुषार्थकी धारा चलती है। तो भी पुरुषार्थ तो उसे आखिर तक अप्रतिहत धारासे पुरुषार्थ तो करना ही पडता


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है। ... लेकिन उसे सहज है, हठपूर्वक नहीं है। शुरूआत होनेमें फर्क होता है।

मुमुक्षुः- किसीकी शुरूआत ऐसी हो कि सम्यग्दर्शन हो और वापस..

समाधानः- पुरुषार्थ कम हो जाये, ऐसा होता है। शुरूआत करनेमें फर्क होता है।

मुमुक्षुः- धर्म सम्बन्धी शंका हो कैसे? गुरुदेव इतना ठोस बोलते हैं।

समाधानः- अन्दर स्वरूप को देखा और स्वानुभूति हुई, उसे निःशंकता क्यों नहीं आये? गुरुदेव कितने निःशंकतासे उनकी वाणीमें (कहते थे)।

मुमुक्षुः- आपने यह कहा कि स्वयंसे ही होता है। उसमें आपका बोलनेमें बहुत जोर था। उस वक्त मुझे ऐसा लगा कि वाकईमें जोर है। आपने कहा कि, कोई नहीं कर देता।

समाधानः- स्वयं ही है, कोई कर नहीं देता। देव-गुरु-शास्त्र उसमें निमित्त होते हैं, परन्तु उपादान तो स्वयंको ही करना है, तैयारी तो स्वयंको करनी पडती है। देव- गुरु-शास्त्र निमित्त होते हैं। अनादिकालसे देव और गुरु मिले तब अन्दर देशनालब्धि होती है। ऐसा सम्बन्ध है। परन्तु तैयारी तो स्वयंको करनी पडती है, पुरुषार्थ तो स्वयंको ही करना पडता है।

मुमुक्षुः- उतनी रुचि कम है?

समाधानः- उतनी रुचि, उतना प्रयत्न सबकी कमी है। कारण पूरा दे तो कार्य हुए बिना नहीं रहता। कारणमें कचास है इसलिये कार्य नहीं होता।

मुमुक्षुः- ... उस वक्त अनादिका जो अभ्यास है, उसमें जुडनेके बाद आपने जो हमें ज्ञान दिया है, आपने और गुरुदेवने, उससे ज्ञानको वापस मोडते हैं, परन्तु पहले तो जुड जाते हैं।

समाधानः- उसमें जुड जाता है। फिर उसे विचार आये कि यह मेरा स्वभाव नहीं है। परन्तु पहले जुड जाता है। एकत्वबुद्धि है, अनादिका अभ्यास है, उसमें जुड जाता है। परन्तु जिसे भेदज्ञान यथार्थ हो, वह स्वयं जुडता ही नहीं, भिन्न ही रहता है। उसकी ज्ञानकी धारा, ज्ञायककी ज्ञानधारा भिन्न ही रहती है और यह एकत्वबुद्धिके कारण पहले जुड जाता है और बादमें उसे भावना, जिज्ञासा है इसलिये विचार आता है।

विचार और भावना करते-करते, स्वयं प्रयत्न करते-करते भिन्न पडे। प्रयत्न करते- करते (भिन्नता करे)। पहले तो अनादिकी एकत्वबुद्धि है इसलिये जुड जाता है। परन्तु उसकी भावना, जिज्ञासा, पुरुषार्थ बारंबार भिन्न पडनेका, बारंबार-बारंबार प्रयत्न करे, उससे थके नहीं। उसे रुखा नहीं लगे, उसे ज्ञायककी महिमा लगे। उसे रुखा नहीं लगे


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तो बारंबार प्रयत्न करते। बारंबार उसका निरंतर चालू रखे। अनादिसे एकत्वबुद्धिका अभ्यास है वह निरंतर चौबीसों घण्टे चलता है। इसका थोडा अभ्यास करे तो (हो नहीं जाता)। नहीं तो अपना स्वभाव है, सहज है, लेकिन विभावके अभ्यासके कारण विकट हो गया है।

मुमुक्षुः- ... पुरुषार्थकी जागृति हो और भेदज्ञानका मंत्र.. आत्माकी वृद्धि हो, शान्ति हो और हमारी ज्ञायककी ज्योत...

समाधानः- स्वयं पुरुषार्थ करता नहीं। जबतक नहीं होता तबतक उसकी पुष्टि रहे। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, वांचन, तत्त्वके विचार आदि करता रहे। अशुभमेंसे छूटकर शुभमें आये, लेकिन शुद्धात्मा तो भिन्न है। उस शुद्धात्माको पहचाननेका, भेदज्ञान करनेका प्रयत्न करना। वह नहीं हो, तबतक शुभभाव तो बीचमें आये बिना नहीं रहते। सम्यग्दर्शन हो, भेदज्ञान हो परन्तु बीचमें विभाव परिणाम (आते हैं), फिर भी उसे लीनताका पुरुषार्थ चलता है।

प्रथम भूमिका तो विकट है। विकट भूमिकामें स्वयं बारंबार उसका प्रयास करता रहे। अनादिकी दृष्टि पर ओर है, दृष्टि अपनी ओर नहीं है। सब बाहरका देखता रहता है, अंतर आत्माको नहीं देखता। जो सहज है और सुगम है, उसे देखता नहीं। इसलिये दुर्लभ हो गया है।

मुमुक्षुः- आत्मा प्राप्त करनेके लिये तीव्र पुरुषार्थकी जरूरत है।

समाधानः- हाँ, तीव्र पुरुषार्थकी जरूरत है। जिसे होता है उसे अंतर्मुहूर्तमें होता है। स्वयं ही है। लेकिन नहीं हो उसके लिये तीव्र पुरुषार्थ करनेकी जरूरत है। करे तो हो सकता है, नहीं हो ऐसा नहीं है, लेकिन स्वयं करता नहीं। अनन्त जीव पुरुषार्थ करके मोक्षमें गये हैं। लेकिन स्वयं करे तो होता है। एकत्वबुद्धि दिन-रात चलती है, उसमेंसे भिन्न होकर इसका अभ्यास तो कुछ समय करता है। उसका अभ्यास यदि निरंतर (करे).... लेकिन वह कब हो सकता है? उतनी लगनी लगे तो होता है, नहीं तो कैसे हो।

मुमुक्षुः- हठ या जल्दबाजी काम नहीं आती।

समाधानः- हाँ, जल्दबाजी काम नहीं आती, हठ करे तो काम नहीं आती। अन्दरसे स्वयंको सहज लगना चाहिये, तो होता है। नहीं हो रहा है इसलि३े जल्दी करे या हठ करे या आकूलता करे या उलझनमें आ जाये तो कुछ नहीं होता है। भावना हो। उसे भावनाके कारण मार्ग नहीं सूझता इसलिये उसकी उलझन ऐसी नहीं होनी चाहिये कि स्वयं निराश हो जाये। ऐसा नहीं होना चाहिये।

मुमुक्षुः- जब हाथमें नहीं आता है, उस वक्त प्रेरक बल कौन-सा कार्य करता


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है?

समाधानः- आत्मा हाथमें नहीं आये तो भी उसका बारंबार प्रयास करते रहना। मैं तो भिन्न ही हूँ। उसके विचार करता रहे, उसकी प्रेरणाके लिए। करना तो यह एक ही है। दूसरा तो कुछ नहीं है। महिमा नहीं आती हो तो महिमा लाये। उसका स्वभाव पहचाननेका प्रयत्न करे। देव-गुरु-शास्त्र, गुरु क्या कहते हैं, जिनेन्द्रदेवने क्या कहा है? गुरुदेवने उपदेशमें बहुत कहा है। गुरुदेवका उपदेश याद करे कि गुरुदेवने क्या कहा है? गुरुदेवने तो पुरुषार्थ हो ऐसी बहुत प्रेरणा दी है। गुरुदेवका उपदेश याद करना। शास्त्र स्वाध्याय करे, विचार करे। लेकिन करना तो अंतरमें है। बाहर थोडा शास्त्र स्वाध्याय करके यह सब विचार, वांचन करके मान ले कि मैंने बहुत किया है, ऐसा माने तो नहीं होता। करनेका अंतरमें है।

गुरुदेवका उपदेश प्रेरणा दे रहा है। गुरुदेवका उपदेश इतना जोरदार था कि दूसरेका पुरुषार्थ चालू हो जाये, ऐसा उनका प्रेरणादायक (उपदेश) था। तू कर। जोरदार सिंहकी दहाड लगाते थे। लेकिन स्वयं करता नहीं। उपादान तो बलवान था, लेकिन स्वयंने ही नहीं किया है। स्वयंके प्रमादके कारण चैतन्यको (जाना नहीं)। "निज नयननी आळसे रे निरख्या न हरिने जरी।' स्वयंके प्रमादके कारण स्वयं देखता नहीं।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!