Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 39.

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ट्रेक-०३९ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- ...

समाधानः- स्वभावको सीमा नहीं होती, स्वभाव तो अनन्त होता है, विभावको सीमा होती है। विभाव अनन्त नहीं है। स्वभाव अनन्त.. अनन्त.. अनन्त स्वभाव (है)। स्वभाव परिणति प्रगट हो तो अनन्त काल पर्यंत परिणमन चलता है। अनन्त काल पर्यंत। स्वभावमें अनन्तता भरी है। विभावमें अनन्ता नहीं है। अपना स्वभाव नहीं है तो कहाँ- से अनन्तता आवे? सीमावाला है। विभावकी मर्यादा हो जाती है। अध्यवसान असंख्यात होते हैं, उसमें अनन्तता नहीं होती। स्वभाव अनन्त होता है।

पर्याय अपेक्षासे द्रव्यमें हानि-वृद्धि है, द्रव्य अपेक्षासे नहीं है। पर्याय अपेक्षासे ऐसा कहते हैं कि केवलज्ञान प्रगट हुआ, लोकालोकका ज्ञान प्रगट हुआ, केवलज्ञान शक्तिरूप हो गया, ऐसा सब पर्याय अपेक्षासे (कहनेमें आता है)। केवलज्ञान प्रगट नहीं है, केवलज्ञान शक्तिमें है, ऐसा सब कहनेमें आता है। द्रव्य अपेक्षासे वस्तु जैसी है वैसी है। उसमें वास्तविकरूपसे कुछ कम नहीं हुआ है, कुछ बढा भी नहीं है। परन्तु पर्यायकी अपेक्षासे- परिणतिकी अपेक्षासे ऐसा कहा जाय कि उसमें केवलज्ञानकी पर्याय प्रगट हुई, केवलज्ञानका विकास हुआ। निगोदमें जाये तब थोडा क्षयोपशम रहता है, ऐसा कहा जाय। वह सब पर्याय अपेक्षासे कहनेमें आता है। द्रव्य अपेक्षासे हानि-वृद्धि नहीं होती, परन्तु पर्याय अपेक्षासे है। पर्याय अपेक्षासे परिणति शुद्ध हो तो उसमें अगुरुलघु पर्यायकी तारतम्यता हानि-वृद्धि (होती है)। ऐसा वस्तुका स्वभाव तो रहता है। अनन्तगुण वृद्धि और अनन्तगुण हानि। उस प्रकारसे द्रव्य स्वतः परिणमता है। ऐसा द्रव्यका स्वभाव है। पर्यायमें वैसा होता है। वह पर्याय द्रव्यकी ही है। द्रव्यकी पर्यायमें भी ऐसी तारतम्यतारूप द्रव्य परिणमता है। पर्यायकी ओरसे, परिणतिकी ओरसे देखें तो उसमें हानि-वृद्धि उस प्रकारसे लागू होती है। परन्तु द्रव्य अपेक्षासे लागू नहीं पडती।

जो अगुरुलघु है उसकी वास्तविक हानि-वृद्धि नहीं होती कि केवलज्ञान हुआ तो ज्ञान बढ गया और ज्ञान कम हो गया, ऐसा नहीं है। उसकी पर्यायमें तारतम्यतारूप परिणमता है। ये तो ज्ञान शक्तिमें केवलज्ञान हो गया, फिर केवलज्ञान प्रगट होता है। वह तो उसके विकासकी अपेक्षासे है। स्वभावका आश्रय ले, द्रव्यका आश्रय ले तो


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द्रव्यकी ओरकी जो शुद्ध पर्यायें प्रगट होती है। इसलिये पर्याय बिनाका द्रव्य नहीं है। द्रव्यमें पर्याय है, पर्यायें होती है, परिणति होती है। और पर्यायकी अपेक्षासे हानि- वृद्धि लागू पडती है। पर्याय अपेक्षासे। द्रव्य अपेक्षासे लागू नहीं पडती। पर्याय अपेक्षासे साधनाकी पर्याय प्रगट हुयी। सम्यग्दर्शन, छठ्ठा-सातवाँ गुणस्थान, आगे बढा, पर्यायमें शुद्धि बढती गयी, श्रेणी लगायी, सब पर्याय अपेक्षासे कहा जाता है। केवलज्ञान प्रगट हुआ, सब पर्याय अपेक्षासे है। और वह पर्याय द्रव्यकी ही है। इसलिये द्रव्य और पर्यायको अभेद करके कहें तो द्रव्य शुद्धरूप परिणमित हुआ, द्रव्यमें केवलज्ञान हुआ, द्रव्य अपेक्षासे ऐसा कहा जाये। द्रव्य और पर्याय, दोनोंको अभेद करके कहें तो।

और पर्याय और द्रव्य, ऐसे भेद करके कहो तो द्रव्यमें कुछ नहीं है, द्रव्य तो अनादिअनन्त जैसा है वैसा ही शुद्ध है। बाकी पर्यायमें सब (फेरफार होता है)। और पर्याय कहीं पडी है और द्रव्य कहीं पडा है, द्रव्य कुछ अलग ही वेदन करता है और पर्यायमें कुछ और ही वेदन है, ऐसे दो भाग नहीं है। वह सब वेदन स्वयंको ही होता है। (पर्यायका) वेदन कोई और करे और (द्रव्यका) वेदन कोई और करे, ऐसा नहीं है। जो पर्यायमें होता है उसका उसे ज्ञान होता है कि यह पर्यायका वेदन है, यह द्रव्य है, यह पर्याय है, ज्ञानमें सब ख्यालमें होता है। क्योंकि द्रव्य और पर्याय सब अभेद है। वैसे दो टूकडे नहीं है कि बिलकूल दो द्रव्य हो, ऐसे दो टूकडे नहीं है। भेद अपेक्षा है (उसमें) द्रव्यका स्वरूप और पर्यायका स्वरूप एक क्षण मात्र है और वह अनादिअनन्त है, शाश्वत है। इस अपेक्षासे उसका स्वरूपभेद है, परन्तु वस्तुभेद नहीं है।

मुमुक्षुः- माताजी! आत्मानुभूतिके पहले प्रमाण, नय, निपेक्षसे आत्माका कैसा निर्णय करना?

समाधानः- जानना चाहिये। आत्माका द्रव्य अपेक्षासे क्या स्वरूप है, पर्याय अपेक्षासे क्या स्वरूप है। प्रमाण अपेक्षासे द्रव्य और पर्याय दोनोंका स्वरूप समझे। द्रव्यदृष्टिको मुख्य रखे। दृष्टिमें मुख्य द्रव्य होता है, पर्याय गौण होती है। नय और प्रमाणसे ऐसा विचार करे।

मुमुक्षुः- और निक्षेपसे?

समाधानः- खास तो मुख्य नय और प्रमाण होता है। निक्षेप तो बीचमें आता है कोई आक्षेप करनेको। यह वस्तु है, भगवानकी प्रतिमा है तो भगवान है, निक्षेप ऐसे होता है। कोई भविष्यमें केवलज्ञानी होनेवाला है तो उसे वर्तमानमें केवलज्ञानी है, ऐसा कहना वह निक्षेप है। आगे होनेवाले हैं, भूतकालमें हो गये हैं, उसे वर्तमानमें कहना-आक्षेप करना वह निक्षेपमें होता है। ऐसा नयमें भी होता है, निक्षेपमें भी होता


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है। स्थापना करता है। स्थापना निक्षेप, द्रव्य निक्षेप, भाव निक्षेप। आक्षेप करता है, भूतका, वर्तमान, भविष्यका। साधनामें नय और प्रमाण दोनों साथमें रहते हैं। निक्षेप तो बीचमें आता है।

मुमुक्षुः- द्रव्य-गुण-पर्यायसे विचारमें आत्माका निर्णय करना और प्रमाण-नयसे निर्णय करना एक ही बात है या दोनोंमें कुछ अंतर है?

समाधानः- दोनों एक है। एकमें आ जाता है। द्रव्य-गुण-पर्याय वास्तविक समझमें आये तो उसमें नय और प्रमाण आ जाता है। द्रव्यका स्वरूप समझे, पर्यायका समझे, द्रव्य मुख्य, पर्याय गौण, अशुद्ध किस अपेक्षासे है, शुद्ध किस अपेक्षासे है यह सब समझे। अपेक्षाकी बात समझनी चाहिये। द्रव्य-गुण-पर्याय कैसे हैं, उसमें कौन-सी अपेक्षा लागू पडती है। उसमें जो अपेक्षाकी बात आती है उसमें नय और प्रमाण आ जाते हैं। द्रव्य-गुण-पर्यायका स्वरूप समझे तो गुण किस अपेक्षासे है और पर्याय किस अपेक्षासे है, द्रव्य किस अपेक्षासे है, उसमें अपेक्षा समझे तो उसमें नय और प्रमाण दोनों आ जाते हैं। द्रव्य-गुण-पर्याय समझे उसमें साथमें अपेक्षा समझे तो नय और प्रमाण साथमें आ जाते हैं। पर्यायको समझे उसमें साथमें अपेक्षा समझनी चाहिये, तो उसमें नय और प्रमाण आ जाते हैं।

मुख्य करे, गौण करे, द्रव्य-गुण-पर्यायका स्वरूप समझे। उसमें मुख्य कौन, गौण कौन, उसका क्या स्वरूप, वह सब समझना चाहिये। नय और प्रमाणसे समझना चाहिये। गुणका यह स्वरूप, पर्यायका यह स्वरूप, द्रव्यका यह स्वरूप, उसमें अपेक्षासे समझे उसमेें नय-प्रमाण आता है।

मुमुक्षुः- द्रव्यत्वभाव शक्तिरूप है और शक्तिके सामने दृष्टि रखनेसे अथवा दृष्टिमें शक्ति पर वजन देनेसे पर्यायमें शुद्धता होती है। तो शक्तिमेंसे तो कोई... शक्ति तो उतनी की उतनी संपूर्ण ही रहती है। तो सिर्फ दृष्टि देनेसे ही शुद्धता आ जाती है?

समाधानः- शक्ति तो उतनी की उतनी रहती है, वह सब द्रव्य अपेक्षासे कहनेमें आता है। लेकिन प्रगट होती है, वह पर्याय अपेक्षासे प्रगट भी होती है। शक्ति जैसी है वैसी, उतनी की उतनी रहती है। उसमें कुछ बढता नहीं, उसमें कुछ घटता नहीं, वह सब द्रव्य अपेक्षासे है। परन्तु पर्याय अपेक्षासे एसा कहनेमें आये कि द्रव्यके आश्रयसे शुद्ध पर्याय प्रगट हुई, द्रव्यमेंसे पर्याय प्रगट हुई, सम्यग्दर्शन प्रगट हुआ, छठ्ठा-सातवाँ गुणस्थान प्रगट हुआ, वह सब कहनेमें आये वह सब पर्याय अपेक्षासे प्रगट भी होता है। शक्ति अपेक्षासे द्रव्य जैसा है वैसा है। परन्तु प्रगट भी होता है, ऐसी एक अपेक्षा पर्यायकी है। कुछ प्रगट ही नहीं होता ऐसा नहीं है। केवलज्ञान प्रगट हुआ, वीतरागदशा प्रगट हुई, चारित्र प्रगट हुआ, चारित्र शक्ति में अनादिअनन्त वैसाका वैसा, जैसा है


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वैसा है, वह द्रव्य अपेक्षासे कहनेमें आता है। परन्तु चारित्रमें मिथ्याचारित्र हो गया, दृष्टि बाहर गयी है, स्वरूपाचरण चारित्र प्रगट हुआ, वह सब पर्याय अपेक्षासे प्रगट होता है। इसप्रकार कुछ प्रगट नहीं होता है, द्रव्यमेंसे कुछ प्रगट ही नहीं होता है, ऐसा नहीं है। पर्याय अपेक्षासे प्रगट होता है, द्रव्य अपेक्षासे जैसा है वैसा है।

मुमुक्षुः- ऐसा ही द्रव्यका अदभुत सामर्थ्य है।

समाधानः- वह अदभुत सामर्थ्य है।

मुमुक्षुः- द्रव्यत्व वैसाका वैसा रखकर, पर्यायमें..

समाधानः- हाँ। द्रव्य-गुणमें वैसाका वैसा रखकर, पर्यायमें हानि-वृद्धि (हो), पर्याय प्रगट हो, पर्याय विभावरूप हुयी, पर्याय स्वभावरूप हुयी, वही पर्याय विशेष प्रगट हुयी, वह सब होता है।

मुमुक्षुः- उसे भी द्रव्यका सामर्थ्य कहनेमें आता है?

समाधानः- वह द्रव्यका सामर्थ्य है।

मुमुक्षुः- द्रव्यकी ही अदभुतता है।

समाधानः- द्रव्यकी अदभुतता है। एक अपेक्षासे द्रव्यमेंसे कुछ प्रगट नहीं होता। पर्यायमेंसे पर्याय (प्रगट होती है), ऐसा कहनेमें आता है। परन्तु द्रव्यमेंसे पर्याय प्रगट हुयी, द्रव्यमेंसे प्रगट होती है, ऐसा भी एक अपेक्षासे है।

जाननेवाला ज्ञान द्रव्यमेंसे प्रगट हुआ, कोई निराधार प्रगट नहीं हुआ है। लोकालोकको जाननेवाला जो ज्ञान था, वीतरागदशा, निर्मलता द्रव्यमें प्रगट हुयी। द्रव्यमें यानी वीतरागी परिणति द्रव्यकी प्रगट हुयी, द्रव्यमें केवलज्ञान प्रगट हुआ। ज्ञान लोकालोककी निर्मलतारूप द्रव्य परिणमित हुआ, ऐसा है।

मुमुक्षुः- ... शक्ति भी रखता है और पूर्णता भी द्रव्य ही प्रगट करता है।

समाधानः- हाँ, द्रव्य ही पूर्णता प्रगट करता है और द्रव्यकी शक्तिमें कुछ हानि- वृद्धि नहीं होती। पूर्ण आनन्द हुआ। उसे सब प्रगट हो गया, फिर दूसरे समयमें क्या परिणमन आयेगा? ऐसा नहीं है। उतना प्रगट हो गया है फिर भी अनन्त-अनन्त है। दूसरे समये उतना का उतना प्रगट होता है। इतना सब द्रव्यमें भरा था, वह सब पूर्ण सामर्थ्य, पूर्ण वीतरागदशा और पूर्ण केवलज्ञान एक समयमें सबमें पहुँच जाये, तीन काल तीन लोक सबमें एक समयमें पहुँच गया, वह तो पूर्ण प्रगट हो गया, अब द्रव्यको क्या करना बाकी रहा? दूसरे समयमें वैसा ही अनन्त (प्रगट होता है)। दूसरे समय उसकी परिणति वैसी ही खडी रहती है। अनन्त काल पर्यंत परिणमे तो भी द्रव्यमेंसे कुछ कम नहीं होता। उतना प्रगट हो गया तो भी।

मुमुक्षुः- अक्षय घडा है।


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समाधानः- अक्षय घडा है। उतनाका उतना है। जितना प्रगट हुआ, विकसित हुआ तो भी उतना ही है। शक्तिमें था तो भी उतना ही था। शक्तिमें था उतना वेदनमें नहीं आता था, अब वेदनमें पूर्ण हो गया तो भी दूसरे समय उतनाका उतना है। द्रव्यका ऐसा ही कोई अचिंत्य सामर्थ्य है।

द्रव्यकी अपेक्षा, पर्यायकी अपेक्षा, इन दोनोंकी संधि करके समझना, वह द्रव्यका स्वरूप कोई अदभुत है। मात्र द्रव्य अपेक्षाको अलग करे और पर्यायमें कुछ नहीं है, पर्याय निराधार रह गयी, ऐसा नहीं है। द्रव्यका सामर्थ्य ऐसा है। पर्यायका स्वरूप है वह द्रव्यका ही स्वरूप है। पर्याय कोई अचिंत्यस्वरूप है। अनादिअनन्त रहे और वर्तमान परिणति करे। अनादिअनन्त द्रव्य परिणमता नहीं कोई अपेक्षासे कहनेमें आये, फिर कोई अपेक्षासे (ऐसा कहे कि) द्रव्य परिणमता है। द्रव्यमें तो कोई हानि-वृद्धि होती ही नहीं। द्रव्य तो वैसाका वैसा कूटस्थ कहनेमें आता है। पुनः द्रव्य पारिणामिक है। वह कैसी विरोधी बात है। कूटस्थ है और पारिणामिक है। पारिणामिक है तो परिणमता रहता है। ऐसा कहनेमें आता है कि पर्याय परिणमती है। लेकिन पर्याय कहाँ परिणमती है? द्रव्यमें परिणमती है कि पर्याय बाहर परिणमती है? पर्याय कोई अलग द्रव्यकी भाँति नहीं परिणमती। द्रव्य स्वयं, पारिणामिकभावसे द्रव्य स्वयं परिणमता है। ऐसा द्रव्यका अदभुत स्वरूप है।

मुमुक्षुः- दोनोंकी संधिपूर्वक पूरी बात विचारनी चाहिये।

समाधानः- संधिपूर्वक दोनोंको समझना चाहिये। .. आनन्द आ गया, अब दूसरे समयमें दूसरा आनन्द कहाँ-से आयेगा? एक समयमें गुण पूरा हो गया। अब खत्म हो गया, अब दूसरा कहाँ-से आयेगा? यह कोई ऐसा धन नहीं है। धन घरमें इकट्ठा हुआ, पूरा धन खर्च कर दिया, अब क्या? ऐसा नहीं है। पूरा कहनेमें आता है, फिर भी वह तो वैसे ही द्रव्यमेंसे आते ही रहता है। उसमें खत्म होता ही नहीं। अब द्रव्यकी शक्ति कम हो गयी, अब द्रव्यमें कुछ नहीं है, ऐसा माने तो भी गलत है। द्रव्यमें अनन्त शक्ति है। शक्ति है, निगोदमें जाये तो भी उतनी की उतनी शक्ति है, पूर्ण सामर्थ्य है और प्रगट हो तो भी (उतना ही है)।

प्रगट होनेवाला भी स्वयं है। शक्ति नहीं है ऐसा लगे तो ऐसा नहीं है। प्रगट हो तो भी वैसा का वैसा है।

मुमुक्षुः- ... द्रव्यकी है।

समाधानः- दोनों द्रव्यकी है। क्षणिकरूप परिणमित होनेवाला द्रव्य भी द्रव्यका स्वरूप है। लेकिन उसका स्वरूप समझना कि द्रव्यमें एक भाग ऐसा है कि क्षण- क्षणमें परिणति होती है। दूसरी-दूसरी पर्याय आती है। और उसका एक भाग अनादिअनन्त


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वैसाका वैसा रहता है। द्रव्य अनादिअनन्त और पर्यायमें (ऐसा है), दोनोंको समझना। उसके दो भाग कर दे (ऐसा नहीं होना चाहिये)।

मुमुक्षुः- शब्दमें तो ऐसा आये कि एक भाग, फिर भी...

समाधानः- नहीं, दो भाग नहीं है। द्रव्यके दो भाग है, वैसे दो भाग नहीं है। अपेक्षासे भाग है। ... संख्या आदिसे भेद है। उसका स्वरूप भिन्न-भिन्न है। स्वरूपभेदसे भेद है, वस्तुभेदसे भेद नहीं है।

मुमुक्षुः-.... और भगवान घरमें विराजमान किये हैं...

समाधानः- गुरुदेवकी वाणी शरण है। गुरुदेवने सबको बहुत उपदेश दिया है। करना वही है। दिखाई देता है कि संसार ऐसा है। ऐसा समय आये तब किसीके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। जब आयुष्य पूर्ण होता है तब ... कोई उसे रोक नहीं सकता। संसार ऐसा ही है। यह शरीर और आत्मा भिन्न है, प्रत्यक्ष दिखता है। आत्मा स्वयं चला जाता है। कोई रोकी नहीं सकता। इसलिये अन्दर जो संस्कार होते हैं वही साथ आते हैं।

ऐसे जन्म-मरण अनन्त हुए, उसमें स्वयं अकेला जन्मता है, अकेला मरे, अकेला ही भावना करे, स्वयं अकेला स्वर्गमें, अकेला मोक्षमें, हर जगह अकेला ही जाता है। संसारके सब सम्बन्ध ऐसे ही है, सब क्षणिक है। अनन्त जन्म-मरण करते-करते गुरुदेव मिले और यह मार्ग दर्शाया, वह एक आश्रयभूत है। शरण तो वही है। जीवने कितने जन्म-मरण किये है। उसमें यह मनुष्यभव मिला। अनन्त जन्म-मरण, अनन्त जन्म- मरण जीवने किये।

इस लोकमें जितने पुदगल द्रव्य हैं, उसे जीवने शरीर पर धारण करके, ग्रहण करके छोडे हैं। आकाशके एक-एक प्रदेशमें जन्म-मरण किया है। असंख्यात अध्यवसाय किये हैं। अनन्त काल रखडा है। अनन्त बार देवमें गया, अनन्त बार नर्कमें गया, अनन्त तिर्यंचके भव किये, अनन्त भव मनुष्यके किये। उसमें जिस भवमें यह धर्म हो और आत्माका शरण (प्राप्त हो), ज्ञायकका शरण और देव-गुरु-शास्त्रका शरण वह सच्चा है। जगतमें जीवको सब प्राप्त हुआ है, एक आत्मा नहीं प्राप्त हुआ। गुरुदेव कहते थे, एक सम्यग्दर्शन अपूर्व है, वह प्राप्त नहीं हुआ है। भगवान नहीं मिले हैं। भगवान मिले तो स्वयंने पहचाना नहीं। इसलिये वही ग्रहण करने जैसा है। वह कैसे प्राप्त हो, वही करने जैसा है। देवलोकके देवोंका सागरोपमका आयुष्य होता है तो वह आयुष्य भी पूर्ण हो जाते हैं। उसे ऐसा लगता है कि मानो यह तो अमर है। देवलोकको अमरापुरी कहते हैं, तो भी वे अमर नहीं रहते। सागरोपमके आयुष्य पूरे हो जाते हैं। फिर उसका माला मुरझाती है तो उसे मालूम पडता है कि आयुष्य पूरा हो रहा है।


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देवलोकके आयुष्य पूरे हो जाते हैं तो फिर यह मनुष्यका आयुष्य तो कितना है। एकदम थोडा है। उस थोडेमें आत्माका कर लेने जैसा है।

गुरुदेव कहते थे न कि बिजलीकी चमकमें मोती पीरो ले। एक बिजलीकी चमककी भाँति मनुष्यका भव है। उसमें आत्माको ग्रहण कर लेने जैसा है। तीर्थंकरो, चक्रवर्तीओ आदि सब इस संसारका ऐसा स्वरूपको देखकर क्षणमात्रमें वैराग्यको प्राप्त होकर मुनि होकर चले जाते थे। इस संसारका स्वरूप ऐसा है। मुनि होकर जंगलमें आत्माका ध्यान करके केवलज्ञान प्राप्त करते हैं। ओसका पानीका बिन्दु क्षणमात्रमें ऊड जाता है। तीर्थंकर भगवान जैसे बादलके बिखरता हुआ देखकर, पानीका बिन्दु और ओसका बिन्दु देखकर वैराग्यको प्राप्त होकर जंगलमें चले जाते थे, आत्माका ध्यान करते थे।

वैराग्य करके आत्माका स्वरूप और यह आत्मा कैसे पहचाननेमें आये यह भावना बढाने जैसी है। शुभमें देव-गुरु-शास्त्र, जिनेन्द्रदेव, गुरुदेव और शास्त्र, उनकी महिमा, शास्त्रका चिंतवन, शास्त्र स्वाध्याय और आत्माकी रुचि-आत्मा ज्ञायक कैसे पहचानमें आये, भेदज्ञान कैसे हो। यह शरीर भिन्न है। आत्मा तो शाश्वत है, आत्माका नाश नहीं होता। यह सब शरीरके फेरफार है। आत्मा तो जहाँ जाये वहाँ शाश्वत है। आत्मा कैसे ग्रहण हो? आत्मा ज्ञायकदेव महिमावंत है। वही करने जैसा है। (मेरा-मेरा) करता है, लेकिन मेरा कुछ नहीं है। सब परद्रव्य स्वतंत्र द्रव्य है। स्वयं अन्दर तैयारी करके संस्कार डाले हो वही अपना है।

मुमुक्षुः- जिस प्रकार जीव निकल गया, मैंने तो पहली बार ऐसे निकलते हुए देखा, तो ऐसा लगा कि यह सब मोह, माया, बन्धन सबकुछ यहाँ छोडकर क्षणमें निकल जाता है। मैंने प्रत्यक्ष पहली बार देखा। ऐसा लगता है कि यह जीव साथमें क्या लेकर जायेगा? मोह, माया, बन्धन जो मेरा-मेरा करता था, वह तो एक क्षणमां छूट जाता है।

समाधानः- वह तो एक क्षणमें सब छोडकर जाता है।

मुमुक्षुः- साथमें क्या जाता है?

समाधानः- साथमें अन्दर जो स्वयंने अच्छी भावना की हो वह जाती है। आत्माका स्वरूप... लेकिन आत्माको तो पहचाना नहीं, परन्तु अन्दर जो शुभभावना स्वयंने की हो वह साथमें जाती है। दूसरा कुछ साथमें नहीं जाता है। शुभाशुभ भाव जो जीवनमें किया वह सब उसके साथ है, दूसरा कुछ नहीं है।

मुमुक्षुः- ऐसा कैसा हम पुरुषार्थ करें कि जिससे हमें भविष्यमें गुरुदेव एवं आपके सान्निध्यका योग प्राप्त हो?

समाधानः- स्वयं अंतरमेंसे एक आत्मा ही सर्वस्व है, बाकी सबकुछ... अन्य


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पदार्थमें रस कम हो जाये, यह सब निःसार है, कोई सारभूत वस्तु नहीं है। उसकी एकत्वबुद्धि अन्दर तोडनेका प्रयत्न करे कि मैं तो आत्मा शाश्वत हूँ, यह परद्रव्य कुछ भी मेरा नहीं है। परद्रव्य प्रतिका मोह तोड दे कि यह परद्रव्य मेरा नहीं है। व्यर्थमें मेरा-मेरा करता है। यह शरीर भी अपना नहीं है तो बाहरका घर, कुटुम्ब कोई अपना नहीं है। कोई वस्तु, कोई पैसा या कोई वस्तु अपनी नहीं है। सबकुछ यहाँ पडा रहता है। सब सँभालकर रखता हो, सब (छोडकर) एक क्षणमें स्वयं चला जाता है।

उन सब परसे ममता छोडकर और एक चैतन्यकी रुचि और चैतन्यकी महिमा बढाये और देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा (बढाये)। बाकी सब निःसार है, सब परसे मोह टूट जाये, मोह छोडकर एक आत्माकी ओरकी महिमा करे तो आत्मामें जो संस्कार डाले हैं वह साथमें आते हैं। और उसके साथ जो शुभभावना होती है, उससे जो पुण्य बन्धता है उससे अच्छा योग मिले, गुरुदेव मिले, जिनेन्द्रदेव मिले, वह सब शुभभावनासे जो पुण्य बन्धता है, उससे वह प्राप्त होता है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!