Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 43.

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ट्रेक-०४३ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- उत्पाद-व्यय-ध्रुवका ज्ञान भी यथार्थ ही होना चाहिये है न?

समाधानः- यथार्थ होना चाहिये। उत्पाद-व्यय-ध्रुवका ज्ञान जैसा है वैसा होना चाहिये। सब अपेक्षाओंसे होना चाहिये।

मुमुक्षुः- इस यथार्थ ज्ञानमें ध्रुवका आलंबन अभिप्रायमें आ जाता है।

समाधानः- यथार्थ ज्ञानमें ध्रवका आलंबन, यथार्थ ज्ञान-सम्यकज्ञान हो तो उसमें सम्यकदृष्टि साथमें ही होती है। सम्यकदृष्टि हो उसे सम्यकज्ञान साथमें होता ही है। उत्पाद-व्यय-ध्रुवकी सब अपेक्षाएँ आनी चाहिये। कुछ है ही नहीं, अकेला द्रव्य ही है, ऐसे समजनेसे आगे नहीं बढा जाता। बिलकूल निकाल देनेसे आगे नहीं बढा जाता।

उत्पाद-व्यय-ध्रुववाला द्रव्य है उसमें नहीं आता। नय और प्रमाण। नय-प्रमाण साथमें होते हैं। प्रमाण जूठा नहीं है। प्रमाण शास्त्रमें क्यों कहनेमें आता है? जैस नय यथार्थ है, द्रव्य पर दृष्टि करनेवाली नय यथार्थ है, वैसे प्रमाण भी यथार्थ है। एक दूसरेको साथ देनेवाले हैं। राजा और प्रधान सब साथमें होता है। वह तो दोनों भिन्न-भिन्न हैं।

मुमुक्षुः- एक राजा है, प्रधान है, वह सब..

समाधानः- सब पहलू जानने हैं।

मुमुक्षुः- एकमें अहंपना करना..

समाधानः- यह द्रव्य है वह मैं हूँ, ऐसे दृष्टिको थँभानी चाहिये। यही मैं हूँ, दूसरा कुछ मेरा स्वरूप नहीं है, यह द्रव्य है वही मैं हूँ। ऐसा ज्ञायक, चेतनतासे भरा जो द्रव्य है, वह मैं हूँ। फिर उसमें क्या परिणमन होता है और कौन-सी पर्यायें होती हैं, वह सब ज्ञानमें आता है। पहलेमें एक ग्रहण कर लिया, ध्येय ग्रहण किया। फिर उसमें क्या है, वह सब (ज्ञानमें जानता है)।

यह एक नगर है, ऐसा नक्की किया, उसमें ध्येय बाँधा। फिर उसमें क्या-क्या है उसे ज्ञान जानता है। यह चैतन्य हूँ। ऐसे दृष्टिको स्थिर की, प्रतीतको उस पर दृढ की। यह वस्तु है, मैं चैतन्य हूँ, ऐसा ग्रहण किया। ग्रहण किया, फिर उसमें क्या है? यह मुझे मालूम नहीं है। एक अस्तित्व ग्रहण किया। बाकी सब तो ज्ञानमें आता है, मैं कुछ नहीं जानता। एक अस्तित्व (ग्रहण किया)। नगर है। उसमें क्या है, यह


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मालूम नहीं। ऐसा उसका अर्थ हुआ।

मुमुक्षुः- साथमें ज्ञान तो होना चाहिये।

समाधानः- साथमें ज्ञान होना चाहिये। तब उसकी यथार्थ साधना होती है। शुद्धात्मा है लेकिन उसका पर्यायमें वेदन नहीं है। आत्माका स्वरूप जो.. स्वानुभूतिका वेदन नहीं है, उसके गुणोंकी स्वरूपकी ओरकी निर्मल पर्यायेंं प्रगट नहीं हुई है। विभावका वेदन है और नक्की ऐसा किया कि मैं शुद्धात्मा हूँ। परंतु वेदन तो यह है। स्वरूपका वेदन कैसे हो? वह तो उसे आना चाहिये। वेदन कैसे हो?

मुमुक्षुः- उसका तो प्रयोजन है।

समाधानः- प्रयोजनभूत है। वेदन नहीं है। शुद्धात्मा नक्की किया कि यह अस्तित्व मैं हूँ। मेरेमें कोई परपदार्थ प्रतिका विभाव नहीं है, मैं चैतन्य हूँ। लेकिन यह विभावका वेदन है, उसका कारण क्या? और स्वभावका वेदन कैसे हो? उसे जानना चाहिये और उस ओरका पुरुषार्थ उसे हुए बिना रहता नहीं। ज्ञान तो साथ ही साथ है, वह अलग नहीं हो जाता। एक द्रव्यके जो गुण हैं, वह दोनों गुण अलग (नहीं हो जाते)। दोनों परस्पर एकदूसरेको साथ देनेवाले हैं। एक गुण दूसरे गुणसे विरुद्ध कार्य नहीं करते। एक द्रव्यमें रहे हुए गुण एकदूसरेको साथ देनेवाले हैं। एककी दिशा जिस ओर जाय, उस ओर सभीकी दिशा होती है।

सर्व गुणांश सो सम्यग्दर्शन। एक ओर दृष्टि गई, उसके साथ ज्ञान भी उस दिशामें जाता है। सब उस दिशामें जाता है। एकदूसरेको साथ देनेवाले हैं। उससे भिन्न नहीं हो जाते कि एक कुछ कार्य करता है और दूसरा कुछ उससे अलग विपरीत कार्य करता है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। उसकी लीनता भी उस ओर जाती है, सब उस ओर जाता है। एक दृष्टिने आत्माको ग्रहण किया, फिर पर्याय रही वह दूसरा कुछ करती है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। द्रव्यको भी ज्ञान जानता है, ज्ञान पर्यायको जाने, ज्ञान सब जानता है। और दृष्टि स्वयं द्रव्य पर स्थिर रहती है कि मैं शुद्धात्मा हूँ। पर्यायमें ज्ञान सब कार्य करता है, पुरुषार्थ होता है, लीनता होती है, सब उस ओर होता है।

मुमुक्षुः- दृष्टि निश्चितरूपसे बैठनेसे पुरुषार्थको वेग मिलता है, ऐसा है?

समाधानः- हाँ, पुरुषार्थको वेग मिलता है। दृष्टि निश्चय है कि यही मैं शुद्धात्मा हूँ, तो पुरुषार्थको वेग मिलता है। लेकिन ऐसा माने कि कुछ करना नहीं है, तो वेग नहीं मिलता। परंतु दृष्टि स्थिर होकर, अभी पर्यायमें कुछ (बाकी) है, ऐसा ज्ञानमें हो तो वेग मिलता है। तो दृष्टिमें सम्यकता आती है। ज्ञानमें ऐसा हो कि अभी विभाव है। ऐसा ज्ञानमें होना चाहिये। दृष्टि एक स्थिर हुई, लेकिन पर्यायमें विभाव है, ऐसा


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ज्ञानमें हो, दोनों साथमें हो तो वेग मिलता है।

मुमुक्षुः- जितनी ज्ञानमें कचास ख्यालमें आये तो कोई बात नहीं, दृष्टिसे वह सब निकल जायेगा। ज्ञानमें कुछ कचास ख्यालमें आये तो ही दृष्टिमें वेग मिले न कि अभी इतना बाकी है।

समाधानः- तो दृष्टिको वेग मिले। दोनों परस्पर हैं। दृष्टिको वेग मिलता है ज्ञानसे और दृष्टिसे ज्ञानको वेग मिलता है। लीनता आदि सब परस्पर एकसाथ रहे हैं। विरूद्ध कार्य नहीं करते।

मुमुक्षुः- सर्व पदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक हैं। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्क होनसे स्वयं ही टिकता है और स्वयं ही परिणमता है। दोनों वस्तुके अपने स्वभाव हैं। तो फिर जो ऐसा कहनेमें आता है कि पर्याय द्रव्यमेंसे आती है। गुण तो एकरूप रहते हैं, फिर पर्याय द्रव्यमेंसे आती है और दूसरे समय द्रव्यमें विलीन होकर द्रव्यमें चली जाती है, उसका आशय क्या है?

समाधानः- द्रव्य स्वयं परिणमता है। उसके गुण जो स्वभाव है, वह गुण कार्य करते हैं। ज्ञान ज्ञानरूप, दर्शन दर्शनरूप। जो अनन्त गुण हैं, सर्व अपने-अपने कार्य करते हैं। और कार्य विलीन होता है। पर्यायका स्वभाव ही ऐसा है कि वह कार्य करे और दूसरे क्षण व्यय होता है। एक समयमें उत्पाद-व्यय-ध्रुव एकसाथ रहते हैं, और दूसरे समय (भी वैसा ही रहता है)। उत्पाद-व्यय और ध्रुव सब साथमें ही रहते हैं। दूसरा-दूसरा उत्पाद होता जाता है, पहलेका व्यय होता जाता है। व्यय होता जाता है। द्रव्यमें उसकी योग्यता होती है।

मुमुक्षुः- समय-समयमें गुण परिणमते रहते हैं। गुण तो नित्य रहते हैं। तो सामान्यमेंसे विशेष आता है, ऐसा जो कहनेमें आता है, उसके पीछे क्या रहस्य है?

समाधानः- सामान्यमेंसे विशेष। सामान्यका ऐसा स्वभाव ही है। सामान्य उसे कहते हैं कि कोई कार्य करे। ज्ञानगुण-जानना स्वभाव है, आत्माका ज्ञायक स्वभाव है। ज्ञायक है, वह ज्ञायक जाननेरूप कार्य करता हो तो ही वह जानना कहें कैसे? उसका कुछ जाननेका कार्य ही न हो तो जानना कैसे कहा जाय? आनन्द आनन्दका कार्य न करे तो आनन्द कहा जाय? सामान्यका अर्थ ही ऐसा है कि सामान्य हो वहाँ विशेष होता ही है। विशेष बिनाका सामान्य होता ही नहीं। विशेष बिनाका सामान्य नहीं होता और जो सामान्य है उसमेंसे विशेष होता ही है। विशेष सामान्यके आश्रयसे होता है। और सामान्य हो वह विशेषरूप परिणमित हुए बिना रहे ही नहीं। वह सामान्य कैसा? उसका कार्य न करे (तो) ज्ञान कैसे कहा जाय? ज्ञान ज्ञानरूप परिणमे नहीं तो ज्ञान कैसा? आनन्द आनन्दरूप परिणमित न हो तो आनन्द कैसे कहा जाय? आनन्दका


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वेदन न आये तो आनन्द कैसे कहा जाय? ऐसे अनन्त गुण यदि स्वयं अपने रूप यदि कार्य न करे तो वह गुण कैसे कहा जाय? सामान्य है वह अनादिअनन्त एकरूप रहता है और उसके सब कार्य बदलते जाते हैं। सामान्य हो वहाँ विशेष होता ही है। उत्पाद-व्यय और ध्रुव रूप ही द्रव्य हो तो ही वह द्रव्य कहा जाय।

मुमुक्षुः- यदि गुणमेंसे कार्य आता हो तो विकारी कार्य, जो विकारी विभाव उत्पन्न होते हैं वह भी गुणमेंसे आता है?

समाधानः- आत्मामें ऐसी विभाविक शक्ति है। विभाविक शक्ति है इसलिये विभावपर्याय होती है। उसका वह निमित्त है। उसकी वैसी कोई योग्यता ही नहीं है, ऐसा नहीं है। आत्मामें एक ऐसी विभाविक शक्ति है। ऐसी योग्यता है कि जो विभावरूप परिणमती है। निमित्त कुछ करवाता नहीं, निमित्त है, लेकिन ऐसी उसकी योग्यता है कि उस रूप परिणमता है। स्फटिक निर्मलरूप उसका स्वभाव है। लेकिन निमित्त आये तो लालरूप परिणमित हो तो निमित्त लाल नहीं करता। लेकिन स्फटिककी योग्यता है कि उस रूप परिणमित हो।

उसी प्रकार आत्मामें एक विभाविक शक्ति है कि जो विभावरूप परिणमती है। लेकिन जब वह स्वभावरूप परिणमित होता है तो विभाविक योग्यता वैसे रह जाती है, बस। लेकिन वह गुण ऐसा नहीं है कि गुण पलटकर... ये गुण तो ऐसे हैं, ज्ञायक- ज्ञान, आनन्द आदि गुण तो ऐसे हैं कि आत्माके साथ ऐसे जुडे हैं कि उसका कार्य आये। उसीका नाम गुण कहलाता है। कार्य न आये तो गुण ही नहीं कहा जाता। ऐसे वह विशेष गुण हैं आत्मामें। ज्ञान, आनन्द और दूसरी सब शक्तियाँ हैं, धर्म हैं। वह कार्य करता है। उसमें भले कमी-बेसी नहीं होती। ज्ञान ज्ञानरूप जाननेका कार्य करता ही रहता है। कमी-बैसे वस्तु स्वरूपसे नहीं होती। मूलमें कमी-पेसी नहीं होती। पर्यायमें कमी-बेसी दिखती है। मूल वस्तुमें कमी-बसी होती नहीं।

वह तो कोई आत्माका अचिंत्य स्वभाव है, गुणोंका अचिंत्य, पर्यायका अचिंत्य वह सब स्वभाव युक्तिसे अमुक प्रकारसे उसका सिद्धांत स्वयं बिठा सकता है। बाकी आनन्द गुण अनन्त काल सिद्ध भगवानमें परिणमता रहता है तो आनन्द खत्म ही नहीं होता। चाहे जितना परिणमे तो भी खत्म ही नहीं होता। उसमें कोई कमी नहीं हो जाती। वह बढकर बाहर नहीं चला जाता। अपनी मर्यादा नहीं छोडता है। आत्मामें ऐसी कोई अदभूत शक्ति है। उसे अगुरुलघु कहते हैं। बढे और कम हो, हानि-वृद्धि। हानि-वृद्धि वास्तवरूपसे अन्दर कुछ होती ही नहीं। षटगुणहानिवृद्धि तारतम्यता होती है। वस्तु स्वरूपमें कुछ होता नहीं। फिर भी कमी-बेसी होती है। पर्यायमें अलग, गुणमें अलग ऐसा कोई आत्माका अचिंत्य स्वभाव है। उसकी अपेक्षासे समझना चाहिये।


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द्रव्य अनादिअनन्त, उसके गुण अनादिअनन्त, पर्यायमें फेरफार हो। विभाविक शक्तिके कारण विभाव होता है, वह तो वेदनमें आता है, फिर भी शुद्धात्मा द्रव्य वैसा का वैसा रहता है। वह सब उसके स्वभावको मिलान करके समझना चाहिये। शास्त्रमें आता है, उसके अनुसार बराबर मेल करके समझना पडे। जो नित्य है, गुणोंमें कोई फेरफार (होता नहीं), अनादिअनन्त नित्य है, तो फिर उसमें पर्यायकी अनित्यता कहाँ-से आयी? उसका स्वभाव है, वह पर्यायमें परिणमता रहे। ज्ञान ज्ञानका कार्य करता रहता है।

अनादि अनन्त पारिणामिकभावस्वरूप द्रव्य है। उसमें प्रगटमें विभाव पर्याय होती है और जब सम्यग्दर्शन होता है, तब भेदज्ञान होता है। वहाँ अमुक अंशमें साधक दशा होती है, तो थोडी निर्मल पर्याय और थोडी विभाव परिणति रहती है। जितने अंशमें, बाकी विभाव खडा रहता है। द्रव्यदृष्टिसे पूर्ण द्रव्य लक्ष्यमें आया इसलिये उसी वक्त पूर्ण नहीं हो जाता। द्रव्य अनादिअनन्त पूर्ण है ऐसी दृष्टि हुयी, तो भी पर्यायमें अभी विभाव आदि है। सम्यग्दर्शनकी दशा होती है, लेकिन अभी चारित्रमें बाकी रह जाता है। स्वभावसे पूर्ण लेकिन पर्यायमें अधूरा। लेकिन वह पर्याय किसकी? पर्यायमें अधूरा है वह द्रव्यकी ही पर्याय है। पर्याय निराधार लटकती नहीं है। पर्यायका वेदन कोई दूसरेको नहीं होता, स्वयंको ही होता है। उसका मेल करके समझना चाहिये। अंतरमें अंतःतत्त्व एकमेक रूपसे गुण और द्रव्य है, परंतु पर्यायमें फेरफार है। इन सबका मेल करके समझना चाहिये। दृष्टि एक सामान्यको ग्रहण करे, परन्तु फिर विशेषमें क्या है? ज्ञानमें बराबर यथार्थ जानना पडे तो उसे साधकदशा चलती है।

मुमुक्षुः- विभाव जो होता है वह विभाविक शक्तिके कारण होता है? चारित्रगुणमें जो विकार हुआ, उसका कारण विभाविक शक्ति लेनी?

समाधानः- ऐसी विभाविक शक्ति है आत्मामें और अपने पुरुषार्थकी मन्दता है और निमित्तकी ओर स्वयं जुडता है, अपने चारित्रगुणमें उतना अधूरापन है और विभाविक शक्ति है। विभाविक शक्ति करवाती नहीं, लेकिन स्वयं अपने पुरुषार्थकी मंदतासे उसमें जुडता है। कुछ विशेषगुण, कुछ सामान्यगुण, विशेषगुण आदि अनेक प्रकारके धर्म उसमें हैं।

मुमुक्षुः- विशेष आता है उसका अर्थ इतना हुआ कि गुण गुणरूप रहकर परिणमते हैं।

सामान्यः- नहीं तो विशेष आये कहाँ-से? विशेष ज्ञानका जाननेका कार्य है, वह किसीके आश्रयसे है। क्षणभर परिणमन करके बदल जाता है वह किसीके आश्रयसे है, आश्रयके बिना नहीं है। सामान्यके आश्रयसे विशेष परिणमता है।

मुमुक्षुः- अर्थात कोई पर्याय परद्रव्यमेंसे नहीं आती।


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समाधानः- .. (स्वद्रव्यमेंसे) पर्याय आती है। और गुण द्रव्यके (आश्रयसे रहे हैं)। द्रव्य और गुण दोनों एकमेक है। पर्याय क्षणिक है, अनादि अनन्त नहीं है, बदलती है। अग्नि उष्ण है, उस उष्णताका कार्य उसे होता रहता है। पानी ठण्डा है, उस ठंडकका कार्य वह उसके स्वयंके शीतलगुणके स्वभावके कारण होता है। लेकिन यदि सामान्य अपना कार्य न करे तो सामान्य ही नहीं रहता। अग्नि (क्यों कहलाती है)? क्योंकि उष्ण है। पानी ठण्डा क्यों कहलाता है? क्योंकि वह शीतल है। वह सब उसका स्वभाव है। सामान्यरूप है, लेकिन उसका कार्य करता है-ठष्णेरूप, उष्णरूप।

मुमुक्षुः- विभाविक शक्ति है, वह त्रिकाल है या कैसे है?

समाधानः- त्रिकाल है, लेकिन उसकी पर्याय विभावकी ओर जाती है तो विभावरूप परिणमती है। स्वभावमें जाय तो उसकी परिणति पलट जाती है। निमित्तके आश्रयकी ओर जाती है तो विभावरूप परिणमती है। निमित्तका आश्रय छोडकर स्वयं स्वभावमें जाय तो पलट जाती है, उसकी पर्याय-परिणति पलट जाती है।

.. जलमें समाता है इसलिये पानी पानीरूप है, तरंगरूप नहीं रहते, पानीरूप रहता है। तरंग होकर जो जलरूप होते हैं, वह तरंगरूप नहीं रहते। पानीके अन्दर तरंगरूप नहीं होते। पानीरूप यानी उसके द्रव्यरूप-वस्तु जो पानी है उस रूप हो जाते हैं। तरंग उसमें समाते हैं अर्थात उसके उस जातिके जो ज्ञान, दर्शन, चारित्रग गुण हैं, उस रूप है। उसमें तरंगरूप नहीं रहते।

मुमुक्षुः- आपका ऐसा कहना है कि..

समाधानः- .. पर्याय उस रूप-द्रव्य और गुणरूप सामान्यरूप (हो जाती है)। पहले द्रव्य इस प्रकार परिणमा था, उस जातिकी उसमें शक्ति है कि इस प्रकार द्रव्य परिणमा था। ऐसे। लेकिन तरंग तरंगरूप अन्दर नहीं रहते। तरंग अन्दर सामान्यरूप (हो जाते हैं)। तरंग नहीं रहते, उसमें समाते हैं इसलिये जलके तरंग जलरूप हो जाते हैं अर्थात जलरूप यानी सामान्यरूप हो जाते हैं। वहाँ तरंगका काम नहीं करता। वह तरंगका काम नहीं करता, सामान्यरूप हो जाता है। ये तरंग पानीमें इस प्रकार परिणमे थे, ऐसी उसमें शक्ति रहती है। ऐसे तरंग पानीमें हुए थे। बाकी तरंग तरंगरूप नहीं रहते हैं।

समाधानः- .. आत्माकी जिज्ञासा होनी चाहिये कि मुझे आत्मा कैसे समझमें आय? आत्मामें अनादि कालसे विभाव परिणति हो रही है। दुःख जो अनादिकालका जन्म-मरणका है, जन्म-मरणका दुःख, विभावका दुःख, अन्दर आकुलताका दुःख वह सब कैसे टले और आत्मा कैसे समझमें आये? उसके लिये जिज्ञासा हो और वह जिज्ञासा इतनी गहरी हो और गुरुका उपदेश। गुरु जो उपदेश देते हैं उसमें क्या कहते


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हैं, उसे स्वयं अंतरसे ग्रहण करे। और उसे ऐसी गहरी जिज्ञासा होती है। एक आत्माका प्रयोजन होता है, दूसरा कोई प्रयोजन जिसे नहीं है। कोई बाहरका प्रयोजन अथवा बाहरमें आगे आनेका, ऐसा किसी भी प्रकारका प्रयोजन नहीं है, एक आत्माका ही प्रयोजन नहीं है। एक आत्माका ही प्रयोजन है। उसे अमुक प्रकारका विभावका रस कम (हो जाता है), अमुक प्रकारकी कषायोंकी मन्दता हो जाती है। जो अनन्तानुबंधीके कषाय हैं वह उसे मन्द हो जाते हैैं और अंतरमें एक आत्माका ही प्रयोजन होता है। "कषायकी उपशांतता मात्र मोक्ष अभिलाष'। जिसे मोक्षकी अभिलाषा है। अंतरमें आत्मार्थका एक प्रयोजन है, वह पात्रता है।

कोई भी कार्यमें मुझे आत्मा कैसे समझमें आये? उसे एक ही ध्येय होता है। भेदज्ञान कैसे हो? कैसे पुरुषार्थ करुँ? कैसे करुँ? कैसे मार्ग समझमें आये? आत्मा कौन है? उसका स्वभाव क्या है? विभाव क्या है? सब नक्की करनेके लिये, तत्त्वका निर्णय करनेके लिये विचार, वांचन आदि सब अंतरसे (होता है)। जिसे अंतरसे ऐसी जिज्ञासा हो, वह करता रहे, उसके लिये लगनी लगे। और जब तक वह नहीं हो तब तक बाहरमें देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, जिनेन्द्रदेव, गुरु, शास्त्रमें क्या आता है? गुरुदेवने क्या है? सबका वह अंतरमें विचार करे।

एक शुद्धात्मा कैसे पहचानमें आये? विभाव बिनाका, जिसमें विकल्प नहीं है, जो निर्विकल्प तत्त्व है, वह कैसे पहचानमें आये? उसका भेदज्ञान कैसे हो? वह मार्ग कैसे मिले? स्वानुभूति कैसे हो? क्या वस्तु स्वरूप है? उसका बारंबार विचार करे। बारंबार अंतरसे उसकी जिज्ञासा (करे)। दिन-रात उसका मंथन होता है, वह पात्रताका एक लक्षण है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!
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