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मुमुक्षुः- आत्मा कैसा है?
समाधानः- आत्मा अनन्त गुणसे भरा कोई अपूर्व तत्त्व है, वह अनुपम तत्त्व है। जिसे जगतमें किसीकी उपमा लागू नहीं पडती। कोई जड तत्त्व या कोई बाहरका देवलोक या चक्रवर्तीका पद या और किसीकी उपमा लागू नहीं पडती, ऐसा चैतन्यतत्त्व वह चमत्कारी अनुपम तत्त्व है। उसका आनन्द कोई अलग है, उसका ज्ञान अलग है, वह महिमावंत पदार्थ है। शाश्वत है। वह आत्मा कोई अलग ही तत्त्व है, अपूर्व तत्त्व है। जगतसे कोई अलग है। दुनिया जो जगतमें दिखता है उससे कोई अलग ही तत्त्व है। उसकी स्वानुभूति करे तो ही वह पहचाननेमें आये ऐसा है।
पहले विचारसे नक्की करे कि आत्मा कैसा है? उसका स्वभाव ज्ञान लक्षणसे पहचाननेमें आता है। उसका ज्ञानलक्षण मुख्य है। बाकी अनन्त गुणसे भरा अगाध तत्त्व है। उस तत्त्वकी प्रतीति करके, विचार करके, अन्दर स्वानुभूतिमें उसका अनुभव हो ऐसा कोई अपूर्व अनुपम पदार्थ है। उसकी महिमा करे तो ही वह आगे जा सकता है।
चक्रवर्तीके पद आदि सब बाहरके पद उसके आगे फिके हैं। एक आत्मपद ही श्रेष्ठ और सारभूत है। वही रसमय है। बाकी सब जगतकी वस्तु उसके पास नीरस और फिकी है। ऐसा वह अनुपम तत्त्व है। आाचर्यदेव कहते हैं, हम अंतरमें जाते हैं। आत्माके अलावा हमें बाहरका सब तुच्छ और फीका लगता है। एक आत्मा ही सर्वोपरी तत्त्व, ऊर्ध्व एक ही तत्त्व सर्वस्व है। हम जिसका निरंतर अनुभव करते हैं, वही तत्त्व सर्वसे श्रेष्ठ है, ऐसा अनुपम तत्त्व है।
मुमुक्षुः- ... क्रमबद्धमें कैसे घटित करें? वर्तमानका पुरुषार्थ भाविके क्रमबद्धमें उस परिणामरूप तो नहीं हो सकता न कि वहाँ-से ... ले जाय अथवा ऐसे कोई संयोग आये कि जो वर्तमानमें इस ओरका पुरुषार्थ है, उससे विपरीत क्रमबद्ध हो, ऐसा तो होता ही नहीं।
समाधानः- जिस प्रकारका पुरुषार्थ होता है, उसी प्रकारका उसका क्रमबद्ध होता है। उसी प्रकारकी उसकी वर्तमान रुचि है। आत्माकी ओर जिसकी रुचि है, जिसे ज्ञायककी प्रीति है, ज्ञायक ही चाहिये, दूसरा कुछ नहीं चाहिये। यह शरीर भिन्न, आत्मा भिन्न।
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भेदज्ञान करनेकी जिसकी भावना है, विभाव परसे जिसकी रुचि छूट गयी है, लौकिक सब कार्य परसे जिसकी रुचि छूटकर एक आत्मा, लोकोत्तर जो आत्मा अलौकिक है, उस पर जिसकी रुचि लगी है, वही मुझे चाहिये, दूसरा कुछ नहीं चाहिये। एक ज्ञायक, उस ज्ञायकमें ही जिसे सर्वस्व लगा है। ऐसा भेदज्ञान करनेका प्रयास करनेकी जिसे रुचि, जिज्ञासा है, ऐसा जो वर्तमानमें पुरुषार्थ करता है, उसका क्रमबद्ध उसके अनुकूल ही होता है। उसका क्रमबद्ध विपरीत हो ही नहीं सकता। पुरुषार्थ ज्ञायककी ओरका करे और उसका क्रमबद्ध संसारकी ओरका हो, ऐसा हो ही नहीं सकता।
जिसकी रुचि ज्ञायककी ओर है, उसके क्रमबद्धमें ज्ञायककी ही परिणति होती है। उससे अलग क्रमबद्ध हो ही नहीं सकता। कोई ऐसा विचार करे कि ज्ञायककी तो रुचि है, लेकिन क्रमबद्ध दूसरा होगा तो? ऐसा बन सकता नहीं। इसलिये ज्ञायककी रुचि, ज्ञायकका पुरुषार्थ तू कर तो तेरा क्रमबद्ध उसी प्रकार परिणमित हुआ रहता है। इसलिये क्रमबद्धकी चिंता नहीं करनी, स्वयं पुरुषार्थ करना। पुरुषार्थ करे उसका भाविका क्रमबद्ध ज्ञायककी ओरका ही होता है।
मुमुक्षुः- वर्तमान सत है, ऐसा कहनेमें आता है।
समाधानः- जो वर्तमानमें ज्ञायककी ओरका पुरुषार्थ करता है, उसका क्रमबद्ध उसी प्रकारसे परिणमित हुआ रहता है। वर्तमान सत है वह तो ज्ञायक स्वयं सत ही है। लेकिन वर्तमानमें स्वयं ज्ञायककी ओर पुरुषार्थ करे तो उसका क्रमबद्ध वैसा ही होता है। जैसा पुरुषार्थ, वैसा ही उसका क्रमबद्ध होता है। जो ऐसा कहे कि क्या करें, क्रमबद्धमें जो होनेवाला होगा वह होगा। वह बात जूठी है। जैसा पुरुषार्थ, वैसा उसका क्रमबद्ध।
क्रमबद्धको देखने नहीं जाना पडता, क्रमद्धकी चिंता नहीं करनी पडती कि क्रमबद्ध कैसा होगा? और क्या होगा? भविष्यकी चिंता नहीं करनी पडती। क्रमबद्धको कहीं देखने नहीं जाना पडता। क्रमबद्धको पूछने नहीं जाना पडता। स्वयं ज्ञायककी ओर पुरुषार्थ करे तो उसका क्रमबद्ध वैसा ही होता है। उसे (वैसा ही) सम्बन्ध होता है।
... जो आत्माको-शुद्धात्माको पहचाने उसे शुद्ध पर्यायें प्रगट होती है। जो आत्माको अशुद्ध एकत्वबुद्धि... जिसे एकत्वबुद्धिकी ओर रस है, एकमेक मानता है, उसे अशुद्ध आत्माकी प्राप्ति होती है। अशुद्ध पर्यायें होती है। जिसे ज्ञायककी ओर, शुद्धात्माकी ओर (रुचि है), उसे शुद्ध पर्यायें परिणमती हैैं। स्वयं धीरजसे विचार करके पुरुषार्थ करे, जिज्ञासासे भावनासे जो ज्ञायककी ओर पुरुषार्थ करे तो उसे क्रमबद्धकी चिंता करनेकी जरूरत नहीं है।
क्रमबद्ध (अर्थात) बाहरमें पुण्य-पापका जो उदय आनेवाला है वह आता है। उसे
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वह बदल नहीं सकता। बाहरका पुण्यका उदय आनेवाला हो तो पुण्यका आये, पापका (हो तो पापका आये)। शरीरका रोग-निरोग, धन, निर्धन वह सब पुण्य-पापके कारण आता है। उसमें स्वयं फेरफार नहीं कर सकता। ज्ञायककी ओर रुचि करनी, पुरुषार्थ करना, वह चैतन्यकी परिणतिके हाथमें है। फिर कितना पुरुषार्थ चले वह उसकी जैसी परिणतिकी गति हो वैसा होता है। बाकी क्रमबद्धकी चिंता करनेकी आवश्यकता नहीं है।
जो स्वयं ज्ञायकको पुरुषार्थसे पहचाने, पुरुषार्थसे भेदज्ञान करे, मैं ज्ञायक हूँ, भेदज्ञानकी धारा पुरुषार्थसे प्रगट हो, आगे बढे पुरुषार्थसे, स्वानुभूतिकी परिणति पुरुषार्थसे, लीनता होती है पुरुषार्थसे, सबकुछ उससे होता है। केवलज्ञान तक पुरुषार्थकी परिणति होती है और उस अनुसार उसकी पर्यायें परिणमती हैं। उसके पुरुषार्थकी गति, उसका बल जो काम करे, उस प्रकारकी उसकी पर्यायेंं परिणमती हैं। उसके अनुकूल। ...उतना धीरे होता है, जितनी तीव्रता उतना जल्दी होता है। मंद-तीव्र सब चैतन्यकी परिणतिके हाथमें है। .. वह कर्ताबुद्धि छुडानेके लिये है। मैं परका कर सकता हूँ और मेरेसे सब होता है, ऐसी जो उसकी बुद्धि है, उसे छुडानेके लिये। परपदार्थमें कोई फेरफार स्वयं कर नहीं सकता, जैसा होना होता है वैसा होता है। मैं दूसरेका अच्छा या बूरा, शरीरके फेरफार या बाहरका फेरफार कुछ नहीं कर सकता। स्वयंकी चैतन्यकी परिणतिमें अपने स्वभावकी ओर पुरुषार्थकी गति हो, उसमें ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य जो उसके योग्य पर्यायें प्रगट होनी होती है, वह स्वतः प्रगट होती है, उसे मैं प्रगट करुँ...
सर्व गुणांश सो सम्यग्दर्शन। स्वयं स्वयंकी ओर पुरुषार्थसे झुका, उसमें सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि पर्यायें प्रगट होती है, वह स्वयं परिणमती है। अमुक निर्मलता विशेष स्वयं परिणमती है। स्वयं अपने विकल्पसे उसे परिणमित नहीं करता। पुरुषार्थकी गति स्वयंकी ओर हो वह सब स्वयं परिणमता है। इसलिये अपनी कर्तृत्वबुद्धि छुडानेके लिये क्रमबद्ध है।
स्वयं ज्ञायक है। उसमें पुरुषार्थ छुडानेके लिये क्रमबद्ध नहीं है। पुरुषार्थ करनेके लिये है और उसमें कर्ताबुद्धि तोडनेके लिये, ज्ञायक होनेके लिये है। तू ज्ञायक है, देखता रह। तेरा करनेसे कुछ होता नहीं। तू ज्ञायक है। ज्ञाता होनेके लिये है। .. ऐसा कहते थे, ज्ञायक हो जा। बस, ऐसा ही है। ज्ञाता होना है।
मुुमुक्षुः- आचार्यदेवने शिर्षकमें वही लिखा है, अकर्ता होनेके लिये बात है। समाधानः- अकर्ता होनेके लिये है। (पुरुषार्थकी) पुष्टि करनेके लिये, पुरुषार्थको मन्दर करनेके लिये नहीं। जैसा होना होगा वैसा होगा, तू समझा ही नहीं, ऐसा कहे। जिसे ज्ञायक प्रगट हुआ उसे ही क्रमबद्ध है, ऐसा कहते थे। ज्ञायक प्रगट हो, उसे ही क्रमबद्ध है, दूसरेको नहीं है, ऐसा कहते थे। जो ज्ञाता हुआ, उसे क्रमबद्ध है।
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दूसरेको नहीं है, ऐसा ही कहते थे।
मुमुक्षुः- निर्णय करता है कि मैं तो जाननेवाला हूँ, जाननमात्र हूँ, और कुछ भी मैं नहीं, विकल्प भी मैं नहीं हूँ।
समाधानः- विकल्प मैं नहीं हूँ, ऐसा निर्णय करना। निर्णय करे लेकिन ज्ञायक सहज रहना। विकल्पसे निर्णय हुआ कि मैं विकल्प भी नहीं हूँ। निर्णय हुआ लेकिन निर्णयरूप परिणमन होना चाहिये। निर्णय होता है।
मुमुक्षुः- उनका ऐसा कहना कि वह तो यथार्थ परिस्थिति है।
समाधानः- मैं ज्ञायक हूँ, मैं ज्ञायक-जाननेवाला हूँ, मैं ज्ञाता हूँ। जो-जो विकल्प आये (उसी समय) मैं तो जाननेवाला हूँ, मैं जाननेवाला हूँ। बारंबार भीतरसे भावनासे जिज्ञासासे शरीर मैं नहीं हूँ, विकल्प मैं नहीं हूँ, शुभाशुभ जो-जो विकल्प आवे, सब मैं नहीं हूँ, मैं तो जाननेवाला हूँ। बारंबार उसका अभ्यास करना चाहिये। वह .. है। बारंबार भीतरसे मैं ज्ञायक हूँ, मैं जाननेवाला हूँ। ज्ञायक कोई अपूर्व है, मैं वस्तु हूँ, मैं ज्ञायक हूँ। बारंबार-बारंबार इसका अभ्यास करे। रटनरूप नहीं, परंतु भीतरसे महिमारूपसे मैं ज्ञायक हूँ। मैं ज्ञायकदेव हूँ। ज्ञायककी महिमापूर्वक मैं ज्ञायक ही हूँ। उसकी महिमा होनी चाहिये।
मुमुक्षुः- ज्ञेयोंकी महिमा छूट जायेगी और इसकी महिमा आयेगी।
समाधानः- हाँ, बस। बाहरकी संयोगकी महिमा छूट जाय और आत्माकी महिमा- ज्ञायककी महिमा आनी चाहिये। आत्मार्थी जीवको तो ऐसा ही होता है न। आत्माका प्रयोजन हो वहाँ उसका व्यवहार भी वैसा होता है।
मुमुक्षुः- सुखधाम अनंत सुसंत चही, दिन-रात रहे तद ध्यान मही, उसका अर्थ क्या है?
समाधानः- सुखधाम अनंत सुसंत चही। जो सुखका धाम है, जो अनंत सुखका धाम है, ऐसा जो अपना स्वरूप। सुखधाम अनंत सुसंत चही। संत जिसे चाहते हैं, संत उस रूप हो रहे हैं। जो अनंत सुखका धाम है। सुखधाम अनंत सुसंत चही, दिन रात रहे तद ध्यान महीं। दिन और रात जिसके ध्यानमें रहते हैं, ऐसे संत जो दिन और रात, अनंत सुखका धाम है, उसके ध्यानमें दिन और रात रहते हैं। ऐसा जो सुखका धाम, आत्माका स्वरूप सुखधाम है।
आत्मा कैसा है? सुखका धाम है, अनंत सुखका धाम है। उसमें दिन रात रहे। ससंत उसमें दिन-रात, मुनिओं क्षण-क्षणमें उसमें बारंबार-बारंबार दिन रात रहे तद ध्यान महीं, प्रशांति अनंत सुधामय जे। प्रशांति-एसी प्रशांति-विशेष शांति उसमें बरस रही है। प्रशांति अनंत सुधामय जे। अनंत सुधामय, अनंत अमृत स्वरूप है। सुधामय जे प्रणमुं
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पद ते वरते जयते। वह पद नमन करने योग्य है, प्रधान है और जयते-वह जय स्वरूप है। ऐसा ही वह सुखका धाम है।
वह सम्यग्दर्शनमें प्रगट होता है, मुनिओंको प्रगट होता है। दिन और रात जिसके ध्यानमें मुनि बस रहे हैं। उस अनंत सुखके धाममें। दूसरा सुखका धाम बाहर कहीं नहीं है। आत्मामें सुखका धाम है। अनंत सुखका धाम है। अनंत आनन्द भरा है, अनुपम आनन्द भरा है। उसमें शांति, उसमें शांति बरस रही है। प्रशांति अनंत सुधामय। अनंत सुधा। जगतमें कहीं अमृत नहीं है, आत्मामें ही अमृत है। अनंत सुधास्वरूप है। ऐसे पदको मैं नमस्कार करता हूँ। वह प्रधान स्वरूप है, जय स्वरूप है, ऐसे आत्माके स्वरूपको मैं नमन करता हूँ। जो जय स्वरूप वर्तता है अथवा जो प्रधान है।
आत्माकी महिमा आयी है तो कहते हैं कि दिन-रात जिसमें मुनि बसते हैं, ऐसे पदको मैं नमस्कार करता हूँ। ऐसे पदको चाहते हैं। जगतमें कोई पद इष्ट नहीं है। देवलोकका पद या चक्रवर्तीका पद, कोई पद वह पद नहीं है। इस आत्माका पद ही सर्वोत्कृष्ट है। सुखधाम अनंत, अनंत सुखका धाम है। आत्मामें अनंत शांति प्रगट होती है। प्रशांति। इस संसारमें दुःख दावानलमें जलता हुआ, जिसमें शांतिका एक अंश नहीं है और आत्मामें अनंत शांति (भरी है)। बारंबार उसीमें बस जाय, कब वह प्रगट हो, मुनिदशा, केवलज्ञान, वह पद, उस पदकी ही बारंबार भावना करते हैं। वह पद प्रगट हुआ है, फिर भी बारंबार उसमें बसनेकी, दिन रात उसमें ही बसनेकी भावना भाते हैं।
केवलज्ञान भी नहीं चाहिये। केवलज्ञानकी पर्याय पर भी जिसकी दृष्टि नहीं है। मुझे एक केवलज्ञान चाहिये, ऐसा भी नहीं है। जो केवलज्ञान लोकालोक जाने, वह लोकालोक जाननेकी जिसे पडी नहीं है। लोकालोक जाननेमें आये तो ठीक, ऐसा जाननेकी नहीं पडी है। केवलज्ञान यानी लोकालोकको (जाने), ऐसा अर्थ (है, लेकिन) लोकालोकको जाननेकी नहीं पडी है, परंतु मेरा सुखका धाम जो आत्मा है, वह मुझे प्रगट होओ। पूर्ण प्रगट हो जाओ और उसमें मैं पूर्णरूपसे बस जाऊँ। वह मेरा आत्मपद चाहिये। लेकिन केवलज्ञानकी पर्याय, एक गुण, एक पर्याय मुझे नहीं चाहिये परंतु पूर्ण आत्मा चाहिये। केवलज्ञान लोकालोकको जाननेकी पडी नहीं है, जाननेकी नहीं पडी है, आत्मामें बसनेकी पडी है।
जैनका केवलज्ञान नहीं चाहिये। अर्थात केवलज्ञान पर दृष्टि नहीं है, आत्माकी साधना करनेवालेको केवलज्ञान पर दृष्टि नहीं है। आत्माका पूर्ण वीतरागपद, उस पर दृष्टि है। मुझे वीतरागी पद प्राप्त होओ। एक आत्मा प्रशांत-शांतिमय जो आत्मा, आत्माका वीतरागी
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पद प्राप्त हो। उसमें केवलज्ञान लोक जाननेमें आये या नहीं, उसकी कोई दरकार नहीं है। लोकालोक जाननेमें आये या नहीं जाननेमें आये, उसका कुछ नहीं है। मुझे एक वीतरागी पद पूर्ण आत्मपद प्राप्त होओ। ऐसी उसकी भावना है। केवलज्ञानकी दरकार नहीं है। वीतराग दशा प्रगट चाहिये। आत्मदशा, आत्मामें ही बसनेकी जिसे दरकार है। मैं आत्मामें बस जाऊँ। यह विभाव मेरा स्वरूप नहीं है, विभाव मेरा रहनेका स्थान नहीं है, रहनेका मेरा घर भी नहीं है, मेरा रहनेका स्थान आत्मामें है। यह तो पर है। मेरा अपना स्वघर आत्मा है। मेरे स्वरूपमें मैं बस जाऊँ, मुझसे स्वरूप चाहिये। केवलज्ञान नहीं चाहिये। केवलज्ञान पर उसकी दृष्टि नहीं है। (वीतराग) स्वरूप आत्मा चाहिये। शांतसमुद्र ऐसा आत्मा आनन्दसे भरा है। शांतिमय आत्मा प्रगट हो, उसकी परिणति प्रगट हो।