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समाधानः- ... मैं तो जाननेवाला ज्ञायक हूँ। परद्रव्य स्वतः स्वतंत्र परिणमते हैं। उसके द्रव्य-गुण-पर्याय स्वतंत्र और मेरे द्रव्य-गुण-पर्याय स्वतंत्र हैं। मैं उसे कहीं बदल नहीं सकता। जो बदल सकता तो कोई बार इच्छा अनुसार होता है और कोई बार इच्छा अनुसार होता भी नहीं है। स्वयंने नक्की किया हो कि ऐसा कर दूँ और बदल दूँ, तो भी नहीं होता। वह तो जैसे होना होता है वैसे ही होता है। उसमें कोई कछ बदल नहीं सकता।
उसे कार्यमें तो अपनी श्रद्धा बदलनी है। अन्दर आकुलता हो, यह क्यों नहीं हुआ, इच्छा अनुसार क्यों नहीं हुआ? परन्तु वह होता ही नहीं है। स्वयंको अन्दर श्रद्धा बदलकर कर्ताबुद्धि अंतरसे छोड देनी कि मैं नहीं कर सकता। वह रह नहीं सकता, रागके कारण सब कार्य हो, स्वयं राग करता है, इसलिये रह नहीं सकता। उसकी श्रद्धा पलट दे कि मैं तो जाननेवाला ज्ञायक उदासीन हूँ। उदासीन ज्ञाता हो जाय। श्रद्धा बदल दे।
मुमुक्षुः- वह उसका चरितार्थपना है।
समाधानः- वह चरितार्थपना। श्रद्धा बदलकर अन्दर उदासीन हो जा। सच्चा उदासीन और सच्चा ज्ञायकपना तो यथार्थ ज्ञायककी परिणति होती है तब होता है। लेकिन उसके पहले उसकी श्रद्धा और भावना कर सकता है। एकत्वबुद्धि वास्तविक टूटी नहीं हो तो भी मैं ज्ञायक हूँ, मैं तो जाननेवाला हूँ। इस प्रकार उसकी भावना, उसकी श्रद्धा, ऐसी प्रतीति बुद्धिपूर्वक भी ऐसा कर सकता है। उसे जो अतिशय राग-द्वेष, एकत्वबुद्धि होती थी उससे भिन्न रह सके। वास्तविक भिन्न तो बादमें होता है। परन्तु पहले इतना वह कर सकता है। उससे उदासीन हो, भिन्न हो, प्रतीत करे। यथार्थ उदीसनता, भिन्नता तो ज्ञायककी परिणति हो तब कहनेमें आता है। परन्तु उसके पहले भी उसकी भावनामें यह सब कर सकता है।
मुमुक्षुः- वास्तवमें तो श्रद्धा ही नहीं पलटी है।
समाधानः- श्रद्धा पलटी नहीं। एकत्वबुद्धि होती रहती है। श्रद्धाको बदलना। पहले तो श्रद्धा पलटनेकी जरूरत है। जो होनेवाला है वह होता रहता है। स्वयं अन्दर राग-
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द्वेषमें जुडता है। दूसरा बाहरका तो कुछ नहीं कर सकता है।
मुमुक्षुः- वही उसका प्रयोग है।
समाधानः- वही उसका प्रयोग है-श्रद्धा बदलनी। मैं कुछ नहीं कर सकता। रागसे छूट नहीं सकता हूँ, इसलिये रागमें जुडता हूँ। बाकी राग-द्वेष भी मेरा स्वभाव नहीं है। लेकिन रागमें जुडता हूँ, इतना मर्यादा आती है। बाकी बाहर जडका तो कुछ नहीं कर सकता। दूसरे चैतन्य और दूसरे पुदगलका कुछ नहीं (कर सकता)। इस शरीरका भी कुछ नहीं कर सकता। किसीका कुछ नहीं कर सकता। व्यापार-धंधेका भी कुछ नहीं कर सकता। बाहरका कोई कार्य मैं नहीं कर सकता हूँ। प्रशस्त भाव और अप्रशस्त भाव जो होते हैं, शुभाशुभ भाव होते हैं, वहाँ तक है, इससे आगे बाहर और कुछ नहीं होता है।
मुमुक्षुः- फिर वहाँसे अन्दर राग और ज्ञान क्या होता है, उसे..
समाधानः- राग और ज्ञानको अन्दर भिन्न करना वह दूर रह जाता है। प्रज्ञाछैनीसे ज्ञान भिन्न, राग भिन्न, ऐसे भेदज्ञान करना बाकी रह जाता है।
मुमुक्षुः- ... बारंबार आडे आता है, इच्छा होगी तो ही आयेगा, नहीं तो कैसे आयेगा? ऐसा निमित्त-नैमित्तिक..
समाधानः- इच्छा होगी तो आयेगा, लेकिन ऐसा क्यों स्वयंको करना पडता है? इच्छा होगी तो आयेगा, उसके लिये मुझे इच्छा करनी पडे, ऐसा है? वह तो अन्दर स्वयंको राग हो तो राग आये बिना रहता नहीं। दूसरा कार्य करनेके लिये राग करना पडे ऐसा नहीं है। राग छूट जाता हो तो दूसरेके कार्यके लिये रागमें खडे रहनेकी आवश्यकता नहीं है। अंतरमेंसे छूटकर वीतराग दशा होती हो तो वहाँ खडे रहनेकी जरूरत नहीं है। लेकिन उसकी भूमिका होती है, अशुभभावमेंसे शुभभावमें आनेकी। उसकी अमुक भूमिका होती है।
शुभाशुभ भावोंसे भेदज्ञान करना। दूसरोंके लिये कहीं इच्छा करनेकी जरूरत नहीं है। सब विवेक करना पडता है। मैं दूसरेका कुछ नहीं कर सकता हूँ। लेकिन उसमें अशुभसे बचनेके लिये शुभभाव आये, वहाँ ऐसा कहे कि मैं कुछ नहीं कर सकता हूँ, मैं कुछ नहीं कर सकता, श्रद्धा बराबर है कि बाहरका कुछ (नहीं कर सकता)। शुभभावमें भी बाहरका जो होनेवाला है वह नहीं कर सकता। लेकिन शुभभाव तो स्वयंको आये बिना नहीं रहता।
मुमुक्षुः- वह विवेक स्वयंको करना है।
समाधानः- वह विवेक स्वयंको होना चाहिये न।
मुमुक्षुः- अशुभ है या शुभ है, ऐसे..
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समाधानः- हाँ, उतना करना पडता है। देव-गुरु-शास्त्रके शुभभाव आते हैं। बाहरके कार्य अपने हाथमें नहीं है। बाहरके कार्य होना, शुभभाव आये, गुरु सम्बन्धित, देव सम्बन्धित, शास्त्र सम्बन्धित सब भाव आये। बाहरका कार्य हो वह स्वयं (होता) है। अशुभभावसे बचनेको शुभभावमें आये, परन्तु शुभ भी मेरा स्वरूप नहीं है। ऐसा ध्येय होना चाहिये, ध्येय होना चाहिये।
मुमुक्षुः- उसे कर्तव्य नहीं मानना।
समाधानः- नहीं, कर्तव्य नहीं, यह सर्वस्व है ऐसा नहीं मानना।
मुमुक्षुः- .. एक उलझन रहा करती है कि कोई ऐसा समय नहीं है कि (राग नहीं हो)।
समाधानः- राग होता रहता है, बिना रागके दिखता नहीं। राग रहित आत्मा है, उस ओरकी श्रद्धा परिणतिरूप नहीं है न, इसलिये ऐसा होता है।
मुमुक्षुः- मूलमें तो श्रद्धा ही नहीं पलटी।
समाधानः- श्रद्धा पलटी नहीं। यथार्थ श्रद्धा अंतरमेंसे परिणतिरूप श्रद्धा होनी चाहिये वह श्रद्धा नहीं हुयी। पीछे मुडना, विवेक करना इन सबके लिये स्वयंको विचार करना है।
मुमुक्षुः- .. परन्तु रुचि बाहरमें बहुत जाती है, पलटनी बहुत कठिन लगती है, क्या करना मार्गदर्शन दीजिये?
समाधानः- सुनना, पढना। यहाँ तो गुरुदेवकी भूमि है न, इसलिये शान्ति (है)। अन्दर समझना।
मुमुक्षुः- बहुत अच्छा लगता है। भावनगर रहते हैं।
समाधानः- कोई उन्हें समझाये तो हो सकता है। करने जैसा तो यही है, मनुष्य जीवनमें। सारभूत तो एक आत्मा ही है। आत्माको पहचानना। बाकी कुछ सारभूत नहीं है। इस मनुष्य जीवनके अन्दर तो सब चलता ही रहता है। व्यापार आदिमें समय जाता है, बाकी सारभूत करना तो यही है। आत्माको पहचानना। उसकी जिज्ञासा, लगनी आदि करने जैसा है।
आत्मा सबसे भिन्न-न्यारा है। शरीरसे, विभावसे भिन्न आत्माका स्वभाव ज्ञायक है, उसे पहचानना। अनन्त गुणोंसे भरपूर है। बारंबार सुनना, पढना। पलनेका स्वयं प्रयत्न करना। विचार करना, करना तो यह एक ही है। सारभूत एक आत्मा ही है। आत्माको पहचानना। बाहरमें रुचि जाती हो, बाहरमें रस आता हो, अंतरमें रुचिको पलटनेका प्रयत्न करना। जैसी रुचि, वैसा प्रयत्न-पुरुषार्थ होता है। रुचि अनुयायी वीर्य। रुचि अनुयायी पुरुषार्थ होगा। जैसी रुचि, वैसा। विचार करके बारंबार प्रयत्न करना। सुख आत्मामें
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है, सुख बाहरमें कहीं नहीं है। बाहरमें सब कायामें, अन्दर विकल्पमें हर जगह दुःख है। प्रत्येक कायामें। अन्दर विकल्पमें दुःख ही है। आकुलतासे भरा यह संसार है। दुःख है। अपना स्वभाव एक ही सुखरूप है। इसलिये सुखरूप स्वभावको ग्रहण करके जाननेवाला आत्मामें आनन्द, सुख सब भरपूर उसमें ही भरा है। उसे पहचाननेका प्रयत्न करना। बाहरका करने जाता है, वह कुछ नहीं कर सकता। वह तो पुण्य-पापके उदय अनुसार होता है। सर्व द्रव्योंका परिणमन स्वतंत्र है। स्वयं कुछ नहीं कर सकता है, मात्र अभिमान करता है कि यह सब मैंने किया। किसीका अच्छा या जो भी हो, अच्छा-बुरा सब कुछ उसके पुण्य-पापके उदय अनुसार होता है, स्वयं कुछ नहीं कर सकता। स्वयं राग-द्वेष करता है। इसलिये अन्दर उस विकल्पसे भी आत्मा भिन्न है, उसका स्वभाव भिन्न है, उसे पहचाननेका प्रयत्न करना। रुचि पलटनी। .. मैंने किया, मैंने किया मात्र अभिमान करता है। परद्रव्यका कर्ता नहीं है, कोई द्रव्यको कोई बदल नहीं सकता। अपने परिणामोंको स्वयं बदल सकता है।
... निर्लेप रहता है। कीचडमें और पानीमें कमल निर्लेप ही रहता है। मुमुक्षुः- झेरना उपयोगथी वैद्यजन मरतो नथी, कर्मोदये ज्ञानी बंधातो नथी। ज्ञानी बँधते नहीं उसका कारण?
समाधानः- जहरके उपयोगसे वैद्य मरता नहीं। वैद्यने जहरमें जो नुकसान करनेवाला है उसे निकाल दिया है। वैसे आत्मामें भी स्वयंने एकत्वबुद्धिको तोड दी है। भिन्न ही रहता है। बाहरके कायामें जुडने पर भी, बाहरमें जुडने पर भी वह न्यारा ही है। विकल्प आये उस विकल्पसे भी न्यारा रहता है, इसलिये वह बँधता नहीं। अन्दर स्वयं वर्तमानमें ही भिन्न रहता है। अपनी परिणति एकत्वबुद्धि होकर वर्तमानमें बँधती नहीं है, इसलिये वह बँधता ही नहीं। इसलिये द्रव्यकर्म भी उस प्रकार नहीं बँधते। अपनी परिणति ही बँधती नहीं। परिणति एकत्वरूपसे जुडती ही नहीं। वर्तमान भिन्न ही भिन्न रहता है। वर्तमानमें बँधता ही नहीं। जो उदय आते हैं उससे भिन्न ही भिन्न रहता है। जुदा ही जुदा रहता है।
द्रव्यदृष्टिसे मेरा ज्ञायक स्वभाव भिन्न ही है। यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। शरीर तो मैं नहीं, बाहरके कायासे, शरीरसे सबसे मैं भिन्न हूँ और अन्दर विभाव परिणामसे भी मैं भिन्न हूँ। ऐसे न्यारा ही न्यारा रहता है, इसलिये वह स्वयं अन्दरसे बँधता ही नहीं, विरक्त रहता है। न्यारा रहता है, इसलिये कर्मसे बँधता नहीं। द्रव्यकर्म भी नहीं बँधते। भावकर्म नहीं बँधते हैं, इसलिये द्रव्यकर्म नहीं बँधते। अन्दरसे न्यारा ही न्यारा, भिन्न ही भिन्न स्वयं रहता है। अनादिसे भिन्न है, लेकिन प्रगटरूपसे भिन्न हो गया है। अल्प अस्थिरता होती है उसे गौण कर दी है। वह अस्थिरता ऐसी है कि वह लम्बे
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समय टिकनेवाली नहीं है। अन्दरसे न्यारा ही न्यारा, भिन्न ही भिन्न रहता है। हर समय। जागते, सोते, स्वप्नमें सबमें वह न्यारा ही न्यारा, ज्ञायक ही रहता है। ऐसी ज्ञान- वैराग्यकी शक्ति उसे प्रगट हुई है।
ज्ञान-वैराग्य शक्ति। ज्ञान-वैराग्यकी ऐसी अदभुत शक्ति प्रगट हुयी है कि उसे लेप ही नहीं लगता। अंतरमें ऐसी कोई उसे शक्ति प्रगट हुयी है। सब प्रकारसे वह भिन्न हो गया है। उसका आदर ही नहीं करता। किसी भी प्रकारसे यह विभाव आदरणीय नहीं है, यह संसार आदरणीय नहीं है, मन-वचन-कायासे, किसी भी प्रकारसे आदरणीय नहीं है। सब प्रकारसे अन्दर भिन्न हो गया है। द्रव्यदृष्टिसे उसकी श्रद्धामें, सब प्रकारसे भिन्न हो गया है, इसलिये वह बँधता नहीं। ऐसी उसकी परिणति ही हो गयी है। मात्र विकल्परूप नहीं या निर्णय करके निर्णय एक ओर पडा रहा है, ऐसा नहीं। उसकी परिणति ही न्यारी रहती है, न्यारी परिणति (हो गयी है)। इसलिये वह बँधता नहीं।
उसे ऐसा होता है कि यह कुछ आदरणीय नहीं है। कब ऐसी वैराग्यकी परिणति हो कि यह सब छूटकर मैं मेरे स्वरूपमें लीन हो जाऊँ और पूर्ण लीन हो जाऊँ। कब मुनि बनुँ, कब यह सब छूट जाय, ऐसा भावना उसे वर्तती है। अन्दरसे भिन्न रहता है। गृहस्थाश्रममें होने पर भी स्वानुभूतिमें लीन होता है। बाहर आये तो भिन्न ही भिन्न रहता है।
आता है न? वृक्षका मूल काटनेके बाद वह वृक्ष पनपता ही नहीं। उसका मूल कट गया है। सुखबुद्धि ही बन्धनका कारण है। जहाँ देखो वहाँ एकत्वबुद्धि। उसने बुद्धिमें निर्णय किया हो कि मैं भिन्न हूँ, तो भी उसकी परिणतिमें हर वक्त एकत्वबुद्धि ही हो रही है। सब परिणतिमें एकत्वबुद्धि (होती है)। उससे भिन्न, उसी क्षण भिन्न भासना चाहिये, उसी क्षण भिन्न नहीं भासता। विचार करे कि मैं भिन्न हूँ, भिन्न हूँ। लेकिन जिस क्षण परिणति होती है, उसी क्षण वह भिन्न नहीं रहता है।
और ज्ञानीकी परिणति सहज ऐसी है कि जिस क्षण विकल्प आता है, उसी क्षण वह भिन्न रहता है। फिर उसे विचार नहीं करना पडता कि मैं भिन्न हूँ, मैं भिन्न हूँ। ऐसा विचार नहीं करना पडता। जिस क्षण विकल्प आता है, उसी क्षण वह भिन्न रहता है। शुभाशुभ प्रत्येक भावमें जिस क्षण विकल्प होता है, उसी क्षण (भिन्न रहता है)।