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समाधानः- .. मनफूलाबहन है न? आश्रममें सब जगह तोरण बाँधे थे। एक मनफूला है और दूसरे पर्णफूला है। गोगीदेवीके नामसे था न। ... कौन जाने क्या हुआ? कुछ याद नहीं है। तोरण बाँधे थे। सब कमरेमें आमके तोरण बाँधे थे। यहाँ हमारे घर आमके तोरण बाँधे थे। कुछ नया ही लगता था।
"मारे आंगणिये रूडा राम रमे...' अन्यमतमें एक गाना आता है न? मेरे आंगनमें चारों ओर भगवान दिखते हैं। वैसे यहाँ गाना गाते थे, "मारे आंगणिये रूडा राम रमे...' (चारों ओर) भगवान दिखते हैं, ऐसा लगता था। यहाँ है न? भगवान दिखते हैं न? चारों ओर मानस्तंभ। जहाँ देखो वहाँ भगवान दिखते हैं, ऐसा होते थे। ऐसे गुरुदेवके सान्निध्यमें आश्रममें रहना वह तो कितना मुश्किल। बहुत जगह आश्रम होेंगे, परंतु ऐसे गुरुदेवकी वाणी मिलती हो, ऐसे आश्रम तो मिलने मुश्किल है।
.. ध्येय रखना। जीवनमें एक ध्येय रखना। ध्येय-आत्मा कैसे पहचानमें आये? ज्ञायक आत्मा। जीवनमें जो निर्णय किया है, उस निर्णयकी दृढतासे आगे बढना। अन्दर पुरुषार्थ हो वह पुरुषार्थ करना, भेदज्ञानका अभ्यास करना। शुभभावमें देव-गुरु-शास्त्रकी आराधना और अन्दर ज्ञायकदेवकी आराधना और महिमा। बस! बाकी सब विभावभावोंको गौण कर देना और ज्ञायकदेवको मुख्य करके जीवन व्यतीत हो। बस! यह एकी ध्येय। इसी ध्येयकी दृढता। जो नक्की किया कि इस प्रकार जीवन व्यतीत करना है। उसी ध्येयकी दृढतासे आगे बढना है।
शास्त्र स्वाध्याय, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा और अन्दर शुद्धात्मा कैसे पहचानमें आये? मैं तो बहुत बार यह एक ही कहती हूँ और यह एक ही करना है। एक आत्माको पहचाने, बस, उसमें सब आ जाता है। उसे पहचाननेकी भावनामें यह सब कार्य- देव-गुरु-शास्त्रके सान्निध्यमें रहकर उनकी आराधना और आत्माकी आराधाना, बस! यह करनेका है।
लौकिकके जीवन देखो तो कैसे जाते हैं। यह जीवन, यह जीवन जो आत्माके लिये व्यतीत किया वह जीवन ही जीवन है। बाकीके जीवन, सब संसारके जीवन व्यर्थ है। लौकिक जीवनमें पूरा दिना खाना, पीना, यह, वह, व्यवहार रखो, यह रखो, वह
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रखो, ऐसा जीवन वह जीवन नहीं है। इस मनुष्य जीवनमें आकर ज्ञायकका ध्येय और देव-गुरु-शास्त्रका सान्निध्य मिले, उसमें ही जीवन व्यतीत हो वही जीवन है। बाकी तो सब जीवन निष्फल जीवन, सूखा जीवन है, सब तुच्छ जीवन है। वह जीवन आदरने योग्य नहीं है। एक शुद्धात्मा आदरने योग्य है। वह सब जीवन व्यर्थ है। जिस जीवनमें कुछ किया नहीं, शुद्धात्माका ध्येय रखा नहीं, आराधना की नहीं, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा नहीं की, वह जीवन व्यर्थ है।
वह आता है न? यह गृहस्थाश्रम किस कामका कि जिस गृहस्थाश्रममें गुरुके पावन चरण नहीं है, जिसमें गुरुका आहारदान नहीं है, जिसमें जिनेन्द्रदेवके दर्शन नहीं है, जिसमें शास्त्रका स्वाध्याय नहीं है, उस गृहस्थाश्रमको आचार्यदेव कहते हैं, पानीमें डूबो देना। गृहस्थोंको ऐसा कहते हैं। वह गृहस्थाश्रम तो आदरणीय है ही नहीं, यह आत्मा आदरणीय है। देव-गुरु-शास्त्रका सान्निध्य आदरणीय है, शुद्धात्माके ध्येयपूर्वक। अन्दर मुख्य तो आत्मा आराधनीय है। उसके साथ देव-गुरु-शास्त्रकी आराधना।
मुमुक्षुः- आपके आश्रयसे हमारा जीवन सफल हो, वही भावना।
समाधानः- ... यह सब यहाँ आते हैं, क्या करना? .. कर्ताबुद्धि, एकत्वबुद्धि टूट गयी और ज्ञाताधारा प्रगट हो गयी। मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा विकल्पसे निर्णय करता है वह अलग, ज्ञानीको सहज रहता है। ज्ञाताधारा चालु ही है। दो धारा साथमें चलती है। फिर विचार नहीं करना पडता कि यह विकल्प आ गया, मैं तो ज्ञायक हूँ। यह एकत्व हो गया, ऐसा विचार नहीं करना पडता। विकल्पकी धारा और ज्ञाताकी धारा दो धारा साथमें चलती है। शुभाशुभ कोई भी विकल्प हो, ऊँचेसे ऊँचा विकल्प हो, तो भी उसकी दोनों धारा चालू है, प्रतिक्षण चालू है। देव-गुरु-शास्त्रके शुभ विकल्प हो तो भी उसे ज्ञाताधार तो चालू ही है। उसमें एकत्व नहीं होता। उसे बहुत भाव आये, बहुत भक्ति आये इसलिये उसकी धारा टूट जाय और एकत्व हो जाय, ऐसा उसे नहीं होता। उसकी ज्ञाताधारा तो चालू ही रहती है। भाव आये, उत्साह आये, चाहे जैसे शुभ विकल्प हो तो भी उसकी ज्ञाताधारा तो चालू ही है।
मुमुक्षुः- शुद्ध परिणतिके अनुकूल ऐसा शुभराग आने पर भी उसमें एकत्व होता नहीं।
समाधानः- एकत्व नहीं होता। कर्तृत्व तो ही छूटेगा, ज्ञायकका बल बढनेसे। मैं तो ज्ञायक हूँ, उदासीन ज्ञायक, बस। किसीका कुछ नहीं कर सकता, मैं तो ज्ञायक हूँ। जुड जाता हूँ, लेकिन मैं ज्ञायक हूँ, यह मेरा स्वभाव नहीं है, मैं तो जाननेवाला हूँ। ज्ञाता रहनेका, ज्ञायक स्वभावकी जिसे दृढता हो कि मैं तो ज्ञायक ही हूँ, ऐसे
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उदासीन रहनेकी, उदासीनतामें जिसे रस हो, जिसे ज्ञाताका रस हो, वह रह सकता है।
जीवको अनादिसे कर्ताबुद्धिका इतना रस लगा है कि मैं करुँ, यह किया, मैंने किया, मैंने किया उसके रसमें, ज्ञाता होकर निवृत्त रहना कि मैं कुछ नहीं कर सकता, वह उसे मुश्किल लगता है। जिसे ज्ञायकका रस हो, जिसे ज्ञायककी महिमा हो, वह अन्दरसे महिमासे निर्णय करे, श्रद्धा करे और परिणति प्रगट कर सके। विकल्पमें भी जिसे अन्दर ज्ञायक रहनेका उतना रस हो या जिसे अन्दर ज्ञायककी निवृत्त दशा रुचती हो वह रह सके। जिसे कर्तृत्वबुद्धि रुचती हो वह नहीं रह सकता।
अन्दरसे महिमा लगनी चाहिये। उसने विचारसे नक्की तो किया कि मैं कर्ता नहीं हूँ, ज्ञाता हूँ। लेकिन उसे ज्ञायकका महिमा और रस हो तो उसे ज्ञायककी बारंबार भावना और जिज्ञासा हो, तो उसे परिणति प्रगट होती है। कुछ करना नहीं है, ऐसी निवृत्त दशा जिसे सुहाती हो, रुचती हो वह अन्दर रह सकता है।
मुमुक्षुः- कुछ किये बिना रह सके, ऐसा?
समाधानः- हाँ। मैं कुछ नहीं कर सकता। मैं तो जाननेवाला हूँ। ऐसी उदासीनता और ऐसी ज्ञायककी महिमा जिसे लगे, वह स्वयं श्रद्धा करके वैसी परिणति कर सकता है, तो उसकी सहज दशा होती है। ... निकम्मा हो जाय, मैं कुछ नहीं कर सकता? शून्य हो जाय? निष्क्रिय हो जाय? ऐसा अन्दर लगता हो वह नहीं रह सकता।
मुमुक्षुः- इसमें सब उपाधि खत्म हो जाती है, बोजा खत्म हो जाता है।
समाधानः- अन्दर रस लगना चाहिये। श्रद्धा तो करे। फिर छूटे तो बादमें। पहले ऐसी श्रद्धा तो करे। अन्दर ऐसी महिमा, श्रद्धा करे। परिणति बादमें प्रगट होती है। परिणति प्रगट होनेके बाद अल्प अस्थिरता रहती है। लेकिन उसे अन्दर एकत्वबुद्धि तोडनी मुश्किल पडती है। सिद्ध भगवानको कुछ नहीं करनेका है? प्रवृत्तिका उतना रस होता है, इसलिये ऐसा लगता है कि कुछ नहीं करनेका? यह सब छूट जायगा तो शून्य हो जायेंगे तो? ऐसा हो जाता है। परन्तु अन्दर स्वभावमें सब भरा है, ऐसी महिमा अन्दरसे आनी चाहिये, उतनी श्रद्धा अन्दरसे आनी चाहिये।
मुमुक्षुः- ज्ञानधारा भी निर्विकल्पपने काम कर रही है?
समाधानः- जैसे श्रद्धा कार्य करती है, वैसे ज्ञानधारा भी सहज काम करती है। उसे विकल्प नहीं उठाना पडता। ज्ञानधारा भी निर्विकल्पपने काम करती है और श्रद्धा भी वैसे ही काम करती है। निर्विकल्प यानी स्वानुभूतिकी निर्विकल्पता नहीं। उसकी परिणति उस जातकी है, परिणति उस जातकी है। उसे रागका विकल्प कर-करके रहना पडता है, ऐसा नहीं है। सहज परिणति (चलती) है।
जैसे एकत्वबुद्धिकी परिणति सहज है, उसे विकल्प करके रखनी नहीं पडती, वह
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तो अनादिसे सहज हो गयी है। एकत्व (परिणतिको) विकल्प करके रखनी नहीं पडती। विकल्प जुडे हुए हैं, वैसे ही रहती है।
वैसे ज्ञानधारा भी उसकी ऐसी सहज हो जाती है कि उसे विकल्प करके रखनी नहीं पडती। अपना स्वभाव है इसलिये वह तो सहज ही है। लेकिन स्वयं उस रूप सहज परिणमता नहीं, इसलिये वह सहज नहीं होती। कर्तृत्वबुद्धिका रस लगा है। इसलिये स्वयं सहज नहीं परिणमता। उसकी ज्ञानधारा सहज ही है। जैसे एकत्वधारा (चलती थी), उसमेंसे भेदज्ञानकी धारा हुयी तो उदयधारा और ज्ञानधारा, दोनों उसे चालू हो जाती है।
मुमुक्षुः- उस प्रकारका रस होना चाहिये।
समाधानः- उस प्रकारका ज्ञाताधाराका रस अन्दरसे लगना चाहिये।
मुमुक्षुः- मुझे दीक्षा ही लेनी है, ऐसा बचपनसे (लगता था)। दुकान पर बैठते थे तब शास्त्र ही पढते थे। छोटे थे (उस वक्त) यदि कोई भक्ति करे, भजन करे उनके पास जाते थे। ऐसा उनको बचपनसे वैराग्य था। बादमें पालेज गये। उनका जन्म उमरालामें हुआ, थोडे साल वहाँ रहे, बादमें पालेज गये। वहाँ दुकान पर बैठते। उनके भाई ... स्वयं स्वाध्याय करते थे। २२-२३ सालकी उम्रमें गुरु ढूँढनेके लिये हिन्दुस्तानमें फिरे कि कोई अच्छे गुरु मिले। बोटाद संप्रदायके हिराजी महाराज स्थानकवासी संप्रदायमें दीक्षा ली।
तत्पश्चात शास्त्रका अभ्यास बहुत (किया), सब विचार करके पढा, उसमेंसे उन्हें लगा कि सच्चा मार्ग क्या है। स्थानकवासी, श्वेतांबर शास्त्र और दिगंबर शास्त्र, सब शास्त्र पढे। उसमेंसे उन्हें ऐसा लगा कि मुझे आत्माका करना है। यह शरीर भिन्न, आत्मा भिन्न, अन्दर आत्मा जाननेवाला, यह विकल्पजाल हो रही है वह मेरा स्वभाव नहीं है। बस, एक ज्ञायक आत्मा मुझे समझमें आ गया। समयसार दिगंबर शास्त्र (मिला), उसमेंसे उन्हें वह अन्दरसे समझमें आया और अंतरमें उतर गये। उसमेंसे उन्हें ऐसा लगा कि अब मुझे इस भेसमें नहीं रहना है। इसलिये उन्होंने यहाँ आकर परिवर्तन किया।
स्थानकवासी संप्रदायमें वे बहुत उच्च कोटिके गिने जाते थे। उनकी क्रियाएँ बराबर शास्त्र अनुसार थी। जो आहार ले तो बराबर उनके लिये किया हो तो ऐसा कुछ नहीं लेते थे। थोडा भी ऐसा लगे कि उनके लिया बनाया है तो वापस चले जाते। इतने (कडक थे)। उनके प्रवचनमें हजारों लोग आते थे। सुबह पाँच-पाँच बजेसे सब बिछावन लगा देते थे, जगह रोकनेके लिये। उनका प्रवचन आत्मा पर चलता, सब सुनकर आश्चर्यचकित हो जाते। प्रवचनमें कोई आवाज नहीं करता। कोई वस्तु गिरी हो तो आवाज आये, इतनी शांति उनके प्रवचनमें होती थी। उतने लोग। स्थानकवासीके
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बहुत उच्च कोटिके (गिने जाते थे)। उनकी क्रियाएँ इतनी सख्त थी। शास्त्र अनुसार पालते थे।
शास्त्रमें जो लिखा हो उतने ही कपडे रखे, उसी तरह विहार करे, कोई चीज लेने जाय तो उनके लिये बनायी गयी कोई वस्तु नहीं लेते, तुरन्त वापस चले आते। ऐसी तो उनकी क्रियाएँ थी। उसमेंसे उन्हें लगा कि आत्माकी बात दिगंबर शास्त्रमें है। मैं यह मानता हूँ तो इस भेसमें रहकर क्या करुँ? इसलिये अंतरमें तो उतर गये, फिर परिवर्तन किया। मुहपत्तिका त्याग किया। लोगोंको उन पर अत्यंत भक्ति थी। उन्होंने परिवर्तन किया तो बहुत लोगोंने विरोध भी किया, फिर भी स्वयं अडिग रहे। यहाँ एक मकान है वहाँ परिवर्तन किया। फिर वषा तक शास्त्रका अभ्यास, स्वयं अन्दर बहुत ज्ञान-ध्यान करते थे। फिर लोगोंको धीरे-धीरे लगा कि जो कानजीस्वामी कहते हैं वह सत्य है। उन्होंने परिवर्तन किया (बराबर है)। उनकी छाप लोगोंमें इतनी हो गयी थी। इतनी छाप हो गयी थी तो धीरे-धीरे लोग उनके पीछे फिरसे आने लगे। थोडे तो उनके साथ ही खडे थे।
स्थानकवासी संप्रदायमें इतनी छाप थी कि सब धीरे-धीरे (आ गये)। वे कहते हैं वह सत्य ही है। कानजीस्वामी बिना विचार किये कुछ नहीं करते। सब लोग उनके पास वापस आये। तत्पश्चात उनका विहार आदि शुरू हुआ। बादमें धीरे-धीरे सब भक्त इकट्ठे होने लगे। उन्होंने किसीको कुछ नहीं कहा है। भक्तोंने मिलकर स्वाध्याय मन्दिर, मन्दिर, यह समवसरण, मानस्तंभ सबने मिलकर बनाया। फिर धीरे-धीरे उनका विहार (चालू हुआ)। पहले सौराष्ट्रमें विहार हुआ, फिर धीरे-धीरे गुजरातमें, मुंबईमें हर जगह गये। व्याख्यानें इतने लोग आते थे। उनके प्रवचनमें इतनी आत्माकी बातें आती थी कि लोग आश्चर्यचकित होकर सुनते थे।
फिर तो उन्होेंने यात्रा की। हिन्दुस्तानके कितने ही हिन्दीभाषी मुडने लगे। दिगंबर जो उस ओर हिन्दीभाषी है, वह सब मुडने लगे। यहाँ नानालाल कालीदास देरावासी हैं, वह भी इस ओर मुडे। वे मुख्यरूपसे भाग लेते हैं। स्थानकवासी मुख्यपने, कोई देरावासी, दिगंबर इस ओर मुडे। पूरा जीवन उन्होंने इसी तरह व्यतीत किया। एक आत्माका करना, एक आत्माके लिये सब करते।
मुमुक्षुः- स्वर्गवास हुआ उस वक्त कितनी उम्र थी?
समाधानः- ९१.
मुमुक्षुः- संसार तो उन्होंने भोगा ही नहीं न?
समाधानः- नहीं। बाल ब्रह्मचारी थे। विवाह नहीं किया। सबने आग्रह किया, लेकिन कहा, मुझे दीक्षा लेनी है और मुझे ब्रह्मचारी ही रहना है। दीक्षा ले ली। ४५
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वर्षमें स्थानकवासी संप्रदायका परिवर्तन किया। ४५ वर्षकी उम्रमें।
मुमुक्षुः- उनका व्यवसाय क्या था?
समाधानः- पालेजमें उनके भाई चलाते थे। वे तो निर्लेप (रहते थे)। वे तो २४ वर्षकी उम्रमें निकल गये। किरानेका। पालेजमें व्यापार बहुत अच्छा चलता था।
मुमुक्षुः- आप कितने सालसे..
समाधानः- मैं तो १७ सालकी उम्रसे आती-जाती रहती थी। १९ वर्षकी उम्रसे परिचय (हुआ)। मेरी १९ सालकी उम्र थी।
मुमुक्षुः- तबसे आपको परिचय है। धन्य है आपको! इतनी छोटी उम्रसे आप उनके साथ रहकर..
समाधानः- .. अभी तो देवलोकमें हैं। लेकिन वे तो महापुरुष कोई अपूर्व पुरुष थे। उच्च आत्मा, मोक्षगामी। ... वह सब बाहरका है। बाकी उनकी आत्माकी बात, आत्मा ही अलग था।
मुमुक्षुः- परन्तु इस ओर मुडनेके लिये क्या करना?
समाधानः- आत्माको पहचाननेका प्रयत्न करना चाहिये। पहले तो यह संसार दुःखरूप है, आत्मामें ही सुख है, ऐसे अंतरमेंसे रुचि करनी चाहिये। फिर उसका विचार, वांचन सब (करना)। अन्दरसे जिज्ञासा करनी चाहिये। आत्मा अन्दर एक शाश्वत वस्तु है। उसे पहचाननेके लिये प्रयत्न करना चाहिये। यह शरीर भिन्न, आत्मा भिन्न, अन्दर विकल्प होते हैं वह नहीं, स्वयं सिद्ध भगवान जैसा है। लेकिन वह नक्की कब हो? स्वयं कुछ विचार करे, वांचन करे, सच्ची समझ करे तो समझमें आये ऐसा है।
..क्या है नक्की करना चाहिये, वांचन, विचार करना चाहिये। सत मार्ग क्या है, उसे खोजकर सत्य क्या है, यह नक्की करना। सत्य क्या है? और आत्मा क्या है? सत्य क्या है यह विचारसे नक्की करना चाहिये, तो आगे बढा जाय। उतनी जिज्ञासा होनी चाहिये न कि मुझे आत्माका करना है। आत्माका करना है, ऐसी लगनी लगी हो तो सत्य खोजनेको वैसा सत्संग ढूँढे, वैसे विचार करे, वांचन करे, सत्य कहनेवाले कौन है, उसे खोजनेके लिये कोई सत्यकी बात करते हो वहाँ उनका सत्संग करे तो होता है।
मुमुक्षुः- दिगंबर पंथका आचरण किया...
समाधानः- भेस तो पहनते थे, लेकिन वे स्वयं ब्रह्मचारी भेसमें रहते थे। एक मुहपत्ति छोडी, बाकी कुछ नहीं। कोई मुनि बनकर वस्त्र निकालकर दिगंबर (हो) वह अलग, कोई ब्रह्मचारी रहे, अनेक प्रकारसे रहते हैं, उसकी कोटि होती है। लाखों लोगोंको उन्होंने इस ओर मोडा। उनके भक्त वह उनके शिष्य हैं। बाकी उनके बाद कोई शिष्य
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हो, उस तरहसे शिष्य नहीं। उनके लाखों भक्त हैं। ४५-४५ साल तक वाणी बरसायी। बहुत जीव तैयार हो गये हैं। हर गाँवमें मुमुक्षु मण्डल चता है। सब गाँवमें वांचन चलता है, हर जगह। यहाँ भी वांचन चलता है।
मुमुक्षुः- उनके बाद पदवी लेनेवाला कोई...? समाधानः- ऐसी कोई पदवी आदि नहीं। मुमुक्षुः- ऐसा जीव ऊँचा है न। समाधानः- मार्ग दिखाकर गये, वाणी बरसाकर गये। शिष्य है, ऐसा कुछ उन्होंने रखा नहीं।