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समाधानः- ... ज्ञानस्वभावका निर्णय करके, फिर उसमें आता है न? मति- श्रुतका उपयोग जो बाहर जाता है उसे अन्दरमें समेटना। ज्ञानस्वभाव, आत्मा ज्ञानस्वभाव ही है। ऐसा पहले विकल्पसे निर्णय करे। अन्दर स्वयं अपना स्वभाव पहचानकर अंतरसे निर्णय करना चाहिये कि यह ज्ञानस्वभाव है वही मैं हूँ, इसके अतिरिक्त दूसरा कुछ मैं नहीं हूँ। यह सब विकल्प जो आते हैं, उस विकल्पसे भी मेरा स्वभाव भिन्न है। विकल्प है उससे मैं ज्ञानस्वभाव आत्मा भिन्न हूँ। यह एकत्वबुद्धिकी धारा अनादि कालसे चल रही है कि विकल्प सो मैं और मैं सो विकल्प, ऐसी जो एकत्वबुद्धि है, शरीर तो जड है, कुछ जानता नहीं, उसके साथ एकत्वबुद्धि है, विकल्पके साथ एकत्वबुद्धि है। उससे भिन्न मैं ज्ञानस्वभाव हूँ।
ज्ञान यानी गुण नहीं, परन्तु पूर्ण ज्ञायक हूँ। उस ज्ञायकको ग्रहण करके ज्ञायक ही मैं हूँ, सब शुभाशुभ विकल्प जो आते हैं उससे मैं भिन्न हूँ। ऐसा निर्णय अंतरमें करके बराबर दृढ करके वह प्रतीत अंतरसे आनी चाहिये। विकल्पसे विचार करके निर्णय करे परन्तु अंतरमेंसे निर्णय आना चाहिये कि यह ज्ञायक है वही मैं हूँ। बराबर ज्ञायकका स्वभाव पहचानकर, उसे ग्रहण करके, निर्णय करके फिर मति-श्रुतका उपयोग जो बाहर जाता है, जो विचार करे, भले ऊँचेसे ऊँचे विचार आये, फिर भी मेरा स्वभाव तो निर्विकल्प है। ऐसे विचार तो शुभभाव मिश्रित हैं। उसमें शुभभाव साथमें है। उससे भी (भिन्न) मैं निर्विकल्प स्वभाव हूँ। उससे भी मैं तो भिन्न हूँ। शुभभाव मिश्रित है इसलिये वह मैं नहीं। सबसे भिन्न करके स्वयं अपने स्वरूपमें लीन हा जाय, उसमें स्थिर हो जाय, ऐसा स्थिर हो जाय, उससे विरक्त होकर स्थिर हो जाय तो उसके विकल्प छूट जाय। तो उसका ज्ञायक स्वभाव है (उसकी) स्वानुभूतिकी दशा प्रगट हो। बाहर जाता है वह सब आकुलता है।
मतिका उपयोग, श्रुतका उपयोग सब बाहर जाता है। अंतरमें समेटकर अंतर ज्ञायकमें लीन जाय, ज्ञायकमें ऐसा लीन हो जाय कि बाहरका उसे कुछ ध्यान ही नहीं हो, ऐसा ज्ञायकमें लीन हो जाय, तो विकल्प छूट जाय। उसमें वह आता है। अंतरमें ऐसा आत्मा ज्ञायक, उसकी स्वानुभूति प्रगट होती है। वह सब आता है। स्वयं सबसे भिन्न
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ज्ञायक स्वभाव ऊपर तैरता निर्विकल्प स्वभाव, ऐसा ज्ञायक आत्मा भगवान प्रगट होता है। ज्ञायक भगवान। लेकिन अंतरमेंसे भिन्न पडना चाहिये।
भेदज्ञानकी धारा प्रगट होनी चाहिये। फिर बाहर आये तो-तो भेदज्ञानकी धारा उसे चालू रहती है। सहज भेदज्ञानकी धारा। जिस क्षण विकल्प उत्पन्न हो, उसी क्षण उसे ज्ञायक स्वभाव भिन्न ही भासता है। दोनों धारा भिन्न चलती है। अंतरमें लीन हो जाय तो बाहरका कुछ ध्यान नहीं रहता। अंतरमें अकेला ज्ञायक स्वभाव, एक ज्ञायकमें ही स्वयं ऐसा लीन हो जाता है, उसमें स्वानुभूतिकी दशा प्रगट होती है। ऐसी लीनता प्रगट होनी चाहिये।
यथार्थ ज्ञान-निर्णय करके फिर ऐसी लीनता अंतरमें प्रगट होनी चाहिये। उससे भिन्न होकर। ज्ञान, श्रद्धा और अमुक अंशमें लीनता। विशेष लीनता मुनिओंको होती है, परन्तु स्वानुभूतिकी दशामें भी लीनता ही होती है। सम्यग्दर्शनकी भूमिकामें भी लीनता (है), जो आंशिक स्वरूपाचरण चारित्र प्रगट होता है।
... महिमा आकर, ज्ञायक स्वभावको पहचानकर ज्ञायकमें ही सबकुछ है, बाहर कुछ नहीं है, उतनी ज्ञायककी महिमा आनी चाहिये, स्वभावको बराबर पहचानना चाहिये और विभावसे विरक्त होनी चाहिये। स्वभावमें ही सब है, विभावमें कहीं रस नहीं आये, अकेले चेतन्यका रस बढ जाय, ज्ञायकका रस, ज्ञायककी महिमा, बारंबार ज्ञायक..ज्ञायक, ऐसी ज्ञायकदेवकी महिमा आये, उसे अंतरमेंसे ग्रहण करे और उसमें लीन हो तो विकल्प छूट जाय।
उसका क्रम वह है कि पहले बराबर ज्ञानस्वभावका निर्णय होना चाहिये। उसके बाद यथार्थ ज्ञान हो तो फिर यथार्थ ध्यान हो। ज्ञान और ध्यान इस प्रकार यथार्थपने होते हैं।
मुुमुक्षुः- निर्णय तो ऐसे बहुत बार होता है। चैन नहीं पडता। रातको जागते हैं, रतजगा नहीं लगे। कुछ लगे, लेकिन वह सब व्यवहारिक बात है। लेकिन जो वस्तु होनी चाहिये..
समाधानः- अंतरमेंसे ग्रहण होना चाहिये। अंतरमेंसे ग्रहण होना चाहिये। बारंबार उसका अभ्यास करते रहना, बारंबार। भले स्वाध्याय करे, विचार करे, सब करे, भले जब तक नहीं होता तब तक तो स्वाध्याय, विचार आदि ही करना होता है, परन्तु बारंबार उसका अभ्यास बारंबार करे। भेदज्ञानका अभ्यास बारंबार (करे)।
द्रव्य पर दृष्टि करके बारंबार मैं इससे भिन्न हूँ, इस प्रकार बारंबार उसकी महिमापूर्वक करता रहे तो होता है। बारंबार विचार करके अमुक निर्णय विकल्पसे करके फिर छूट जाय, भावना रहे कि मैं भिन्न.. भिन्न (हूँ), परन्तु बारंबार उसका अभ्यास करे तो
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होता है। बारंबार करे। बारंबार अभ्यास करते-करते अंतरमेंसे यथार्थ निर्णय आये तो होता है। बारंबार अभ्यास करनेसे थकना नहीं, कंटालना नहीं, बारंबार अभ्यास करते रहना।
मुमुक्षुः- ... लेकिन बादमें ... शान्ति भी लगे, लेकिन उसके बाद क्या?
समाधानः- यह जाननेवाला मैं हूँ, जाननेवालेमें सर्वस्व है। जाननेवालेको यथार्थ ग्रहण करके उसमें लीन हो जाय। बाहर जाते उपयोगको, बाहर जाता उपयोग अंतरमें आ जाय तो होता है। बाहर जाते उपयोगको अंतरमें झुकाये तो होता है। प्रथम सुदृष्टि करे, प्रथम इस शरीरसे भिन्न किया, इस विकल्पसे भिन्न, ... सबसे भिन्न करके अंतरमें लीन हो जाय। ऐसा क्रम नहीं है, लेकिन ऐसा क्रम लिया है। जो एकसे भिन्न हुआ, वह सबसे भिन्न हो जाता है। स्थूलसे भिन्न, अन्दर सूक्ष्म विकल्पसे भिन्न, अशुभसे भिन्न, शुभसे भिन्न, ... सबसे भिन्न होकर अंतरमें लीन हो जाय। अशुभभावसे बचनेको शुभभाव बीचमें आये। द्रव्य-गुण-पर्यायके विचार आये, सब आये, लेकिन वह सब आकुलतारूप बुद्धिको अंतरमें समाकर सबसे छूट जाय। ऊपर तैरता ऐसा ज्ञायक भगवान तुझे प्रगट होगा। सब शब्द (आते हैं)।
मुमुक्षुः- लालच होनी चाहिये।
समाधानः- परपदार्थकी लालच और तुझे लालसा होती है कि यह मुझे चाहिये, यह ठीक है, यह अच्छा है, ऐसी परपदार्थकी ओर जो लालसा होती है, वैसे तुझे यहाँ ज्ञायक अच्छा है, मुझे ज्ञायक कैसे मिले, मुझे ज्ञायक कैसे प्रगट हो, वैसे उसे लालसा होनी चाहिये। लालसा यानी भावना होनी चाहिये, उसकी इच्छा होनी चाहिये। यह ज्ञायक भगवान वही सर्वस्व है, यह कुछ सर्वस्व नहीं है, यह बाहरकी वस्तुओंमें कुछ नहीं है। इस ज्ञायकमें ही सर्वस्व है। शुभभाव साथमें हैं, लेकिन शुभभावकी दिशा पलटती है। बीचमें आये बिना रहते नहीं।
यह ज्ञायक भगवान मुझे कैसे मिले, ऐसे भावना होनी चाहिये। यह ज्ञायक भगवान वही सर्वश्रेष्ठ है। अनन्त कालमें सबकुछ मिल गया है, कुछ भी नया नहीं है। देवलोककी ऋद्धियाँ अनन्त बार प्राप्त हुयी है। उसमें कोई विशेषता नहीं है। अनन्त कालमें नहीं मिला है तो एक आत्मा (और) सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति नहीं हुयी है। वही सर्वस्व है। उसकी तुझे भावना, उसकी महिमा, उसका आश्चर्य लगना चाहिये। उसका आश्चर्य कर तो तुझे वह प्रगट होगा। तुझे उसका आश्चर्य नहीं लगता है और बाहरका आश्चर्य लगता है। बाहरकी कोई वस्तु आश्चर्यकारी नहीं है। वह तो तुझे बहुत बार प्राप्त हुयी है, अनन्त कालमें। देवलोकके रत्न और ये सब ढेर प्राप्त हुए हैं। कोई राजाकी पदवी प्राप्त हुयी है, उसमें कोई विशेषता नहीं है। विशेषता आश्चर्यकारी वस्तु हो तो आत्मा
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है। उसका आश्चर्य कर। उसकी भावना ही नहीं करता है, उसका आश्चर्य लगता नहीं।
मुमुक्षुः- बहुत खुशी बताते थे कि कैसी सुन्दर रचना हुयी है नंदिश्वरकी।
समाधानः- पंचमेरु नंदिश्वर शाश्वत जिनालय है। कुदरतमें शाश्वत है। यहाँ तो प्रतिष्ठा की है। रत्नके शाश्वत भगवान। कुदरत भगवानरूप परिणमित हो गयी है। कुदरतके सब रजकण, पुदगलके स्कंध भगवानरूप और मन्दिररूप होते हैं। यह ऐसा सूचित करता है कि जगतमें सर्वोत्कृष्ट कोई हो तो तीर्थंकर देव भगवान हैं। मन्दिर आदि जगतमें सर्वोत्कृष्ट है।
वह सर्वोत्कृष्ट है, आत्म भगवान भी सर्वोत्कृष्ट है। सब प्रतिमाएँ आत्माको दर्शाती है। तीर्थंकरदेव उनकी वाणी द्वारा आत्माका स्वरूप समझमें आता है। इन सबका आश्चर्य करनेवाला चैतन्य रत्नाकर सबसे ऊँचा है। बाहरमें सर्वोत्कृष्ट भगवान तीर्थंकर देव और अंतरमें सर्वोत्कृष्ट आत्मा है। कुदरत भगवानको सर्वोत्कृष्ट बता रही है कि हम रजकण भी भगवानरूप परिणमित हो जाते हैं। मेरु नंदिश्वरके ऊपर भगवान आदिका दिखाव किया है।
मुमुक्षुः- ... कुछ तो मिल ही जाता है।
समाधानः- प्रयोग तो स्वंयको करना है। गुरुदेवने स्पष्ट कर-करके बहुत समझाया है। ऐसा स्पष्ट कर दिया है कि किसीको शंका न रहे। इतना तैयार करके दिया। अब प्रयोग करना तो स्वयंको बाकी रहता है। ऐसा तैयार करके दे दिया है, सब तैयार करके (दिया), लेकिन गलेके नीचे तो स्वयंको उतारना पडता है। सब करना तो स्वयंको है। रोटीका निवाला तैयार करके, एकदम स्पष्ट कर-करके, आसान कर-करके जो कठिन समझमें नहीं आता था, उसे एकदम सरल कर-करके समझाया। शास्त्रका रहस्य कोई खोल नहीं सकता था। एकदम स्पष्ट कर दिया। अब करना स्वयंको है, स्वयंको प्रयोग करना बाकी रहता है।
शास्त्रमें सब आता है, गुरुदेवने बहुत स्पष्ट करके कहा है कि भेदज्ञान कर। लेकिन करना तो स्वयंको हो। द्रव्यदृष्टि कर, भेदज्ञान कर। भेदज्ञानका प्रयोग तो स्वयंको करना है। कैसे अंतरमें भेदज्ञानकी परिणित प्रगट करनी? और ज्ञायकको ग्रहण करना, द्रव्य पर दृष्टि करके भेदज्ञान करना, उसे प्रयोगमें रखना वह तो स्वयंको करना है। मार्ग बता दिया है कि बाहरमें कहीं भी मिथ्या प्रयत्न मत कर। अंतरमें द्रव्य पर दृष्टि कर, भेदज्ञान कर। भेदज्ञानका प्रयोग करना है, द्रव्य पर दृष्टि करनी है, परन्तु करना तो स्वयंको है।
अभी बाहर कितने ही ध्यानमें चढ गये हैं, लेकिन सच्चे ज्ञान बिनाका ध्यान मार्ग कैसे प्राप्त हो? अन्दरसे प्रयोजनभूत ज्ञान तो होना चाहिये कि यह ज्ञायक है। उसे
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ग्रहण करे, अपना अस्तित्व ग्रहण करे तो उसमें ध्यान हो। अस्तित्वको ग्रहण किये बिना कहाँ एकाग्र होकर खडा रहेगा? एकाग्रता किस पर करनी? ज्ञायकके ग्रहण करे तो उसमें एकाग्रता होती है। नहीं तो विकल्पकी एकाग्रता हो जायेगी। अमुक प्रकारके विकल्प हो जायेंगे तो उसे ऐसा लगेगा कि मैं एकाग्र हो गया। सूक्ष्म विकल्प है। ज्ञायकको ग्रहण करे तो एकाग्रता हो। ज्ञायकके ग्रहण किये बिना एकाग्रता होती नहीं।
सच्चे ज्ञान बिना सच्ची श्रद्धा होती नहीं। इसलिये ज्ञान और श्रद्धा दोनों साथमें रहे हैं। मुक्तिके मार्गमें श्रद्धान मुख्य है, लेकिन श्रद्धाके साथ ज्ञान तो काम करता ही रहता है। यथार्थ ज्ञान साथमें होना चाहिये। अज्ञान भी बाधक है। कुछ जानता नहीं, मैं कौन हूँ? यह विभाव क्या? स्वभाव क्या? द्रव्य-गुण-पर्याय कुछ जानता नहीं। वह अज्ञान भी बाधक है।
श्रद्धा-स्वरूपकी श्रद्धा नहीं है तो भी बाधक है। जाना कि यह वस्तु ऐसी है। द्रव्य, गुण (है)। प्रतीत डगमगाती है। श्रद्धान नहीं है तो वह भी बाधक है। दोनों बाधक हैं।
मुमुक्षुः- श्रद्धा स्वयं सम्यक होती है। ज्ञानका विकास तो धीरे-धीरे होता जाता है। ...
समाधानः- श्रद्धा तो जब यथार्थ होती है तभी उसे सच्ची श्रद्धा कहते हैं। बाकी विकल्पपूर्वककी श्रद्धा, उसको यथार्थ श्रद्धाका नाम नहीं दिया जाता। श्रद्धा धीरे-धीरे बढती जाय ऐसा नहीं, सच्ची श्रद्धा तो जिस क्षण होती है उसी क्षण होती है। ज्ञान धीरे-धीरे बढता जाय, वह तो प्रयोजनभूत ज्ञान तो साथमें होता है। श्रद्धाके साथ प्रयोजनभूत ज्ञान कि मैं ज्ञायक हूँ और यह विभाव है, स्व-परका भेदविज्ञान, बस, यह प्रयोजनभूत ज्ञान और श्रद्धा दोनों साथमें ही होते हैं। फिर ज्ञानका विस्तार हो वह अलग बात है। विस्तार धीरे-धीरे हो, वह अलग बात है। प्रयोजनभूत ज्ञान और श्रद्धा दोनों साथमें ही रहे हैं।
मुमुक्षुः- जिस समय श्रद्धा सम्यक होती है..
समाधानः- उसी क्षण ज्ञान सम्यक होता है। जिस क्षण सम्यक श्रद्धा हुयी, तब ज्ञान भी सम्यक होता है। उसके पहले ज्ञानको सम्यक नाम नहीं दिया जाता और उसके पहले विकल्पपूर्वककी श्रद्धाको भी सम्यक नाम नहीं दिया जाता। उसे व्यवहार कहते हैं, व्यवहार श्रद्धा कहनेमें आती है। देव-गुरु-शास्त्रकी सच्ची श्रद्धा और विचारसे नक्की करे कि मैं भिन्न हूँ, यह मेरा स्वभाव नहीं है, ऐसे विचारसे नक्की करे तो भी सम्यक नाम तो जब भेदविज्ञानकी परिणति हो तभी उसे सम्यक नाम कह सकते हैं।
मुमुक्षुः- ... जब होता होगा, उस वक्त श्रद्धामें साथ-साथ नहीं चलता होगा?
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समाधानः- उसे ग्यारह अंगका ज्ञान हो तो भी श्रद्धा उसकी सम्यक नहीं है। उसे स्व-परका भेदविज्ञान नहीं है, विचार करता रहे, नक्की करता रहे कि मैं भिन्न हूँ, ऐसे शास्त्रके सब पाठ पढ लिये, ग्यारह अंग पढ लिया, वह भी पढनेसे नहीं होता, भले अन्दरसे (आता है), फिर भी वह सब अंतर परिणतिपूर्वक नहीं है। इसलिये उसे श्रद्धा सच्ची नहीं है। ऐसे व्यवहार श्रद्धा कहनेमें आये। व्यवहार श्रद्धा तो ऐसी होती है कि ऊपरसे देव उतरकर डिगाये तो भी डिगे नहीं, ऐसी उसकी श्रद्धा होती है। ऐसा उसका ज्ञान होता है कि कोई डिगाये तो डिगे नहीं। ऐसे श्रद्धा-ज्ञान व्यवहारमें होते हैं। परन्तु अंतरमें शुभराग और मैं भिन्न हैं, शुभरागसे मुझे लाभ नहीं है। शुभरागकी रुचि अंतरमें रह जाती है। शुभराग विभाव है, ऐसा बोले, परंतु अंतरमें शुभरागकी रुचि रह जाती है। वह उसे छूटती नहीं। इसलिये भले ग्यारह अंग पढा, लेकिन श्रद्धा सच्ची नहीं है। श्रद्धा सच्ची नहीं है इसलिये ज्ञानको भी सम्यक नाम नहीं दिया जाता। भले द्रव्य-गुण-पर्यायकी सब बातें करता हो, तो भी।
मुमुक्षुः- ज्ञानमें भावका भासन यथार्थ..
समाधानः- अन्दर यथार्थ भासन नहीं है। जैन धर्म सच्चा, सब सच्चा ऐसा सब निर्णय करता हो, दूसरे मत सच्चे नहीं है, जैन (मत) सच्चा है, ऐसा सब उसने बुद्धिसे नक्की किया होता है। परन्तु अन्दर स्वानुभूतिका पंथ और अन्दर स्वानुभूति कैसे हो, वैसी परिणति उसे प्रगट नहीं हुयी है। अन्दर गहराईमें शुभरागकी रुचि रह जाती है। अन्दरमें शुभरागकी रुचिकी प्रवृत्ति, ऐसी प्रवृत्ति-अन्दर गहरी रुचि रह जाती है। वह रुचि उसे छूटती नहीं। अन्दरकी रुचि आत्माकी ओर हर तरहसे झुक जाय, ऐसी रुचि आत्माकी ओर गहराईसे (नहीं होती)। यह दुःखमय संसार है, यह सब ऐसा है, ऐसा सब उसे होता है। संसारमें बहुत दुःख है, ऐसा होता है। लेकिन अन्दर मेरे आत्मामें सुख है और मेरे आत्माका अस्तित्व क्या, यह अंतरमेंसे उसे रुचिपूर्वक नक्की नहीं करता।
मुमुक्षुः- ऊपर-ऊपरसे... समाधानः- ऊपर-ऊपर सब विचार आते हैं। बोलनेमें उसे सब आता है। बोले, परन्तु अन्दर मैं भिन्न, मुझे भेदज्ञान करना है, मैं इससे भिन्न हूँ, ऐसी अपनी परिणति प्रगट नहीं करता। मैंने सब छोडा है और मुझे तो कोई राग ही नहीं है, मैंने तो सब त्याग कर दिया है। आत्मा आदि सब मुझे हो गया है। ऐसा स्वयंको सर्वस्व मान लेता है।