Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 49.

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ट्रेक-०४९ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- सब प्रकारसे रुचि छूटकर, आपने कहा कि सब प्रकारसे रुचि छूटी नहीं। सब प्रकारसे रुचि नहीं छूटी है, उसमें क्या समझना?

समाधानः- अन्दर शुभरागमें रुचि रह गयी है। शुभभावमें गहराईमें उसे रुचि है।

मुमुक्षुः- बोलता तो ऐसा है कि शुभराग विकार है, दोष है।

समाधानः- हाँ, वह सब बोले। लेकिन अंतरमें उसकी परिणतिमें अकेला अन्दर निवृत्तमय आत्मा ही सुखरूप है, आत्मामें ही सब है, ऐसा बोले, लेकिन अंतरमें शुभराग इतना तो होता है न, चाहे जैसे भी उसे गहराईमें रह जाता है। क्या रह जाता है? शास्त्रमें आता है कि वह केवलज्ञानी जाने। परन्तु गहराईमें उसे रुचि रह जाती है। पर पदार्थकी ओर गहराईमें रुचि रह जाती है।

मुमुक्षुः- प्रवृत्तिकी रुचि रह जाय।

समाधानः- अन्दर प्रवृत्तिकी गहरी रुचि है। पराश्रयवाली अन्दर रुचि है। परकी ओर। शुभरागमें कुछ ठीक है, शुभराग मैंने बहुत किया इसलिये मैंने बहुत किया है, मैंने बहुत धर्म किया है, सब त्याग किया है, देव-गुरुकी भक्ति और यह सब बहुत किया है, सब शास्त्रोंका अभ्यास किया है। द्रव्य-गुण-पर्याय मैं तो सब जानता हूँ। यह सब ठीक है, ऐसा अंतरमें मैंने बहुत कर लिया है, अंतरमें संतुष्ट हो गया है और बाहरकी रुचि अन्दर पडी है। अंतरमें संतोष आ गया है। इस विकल्पसे भी मेरा स्वरूप भिन्न है। ऊच्चतम विकल्पसे भी मैं भिन्न हूँ, अन्दरमें जो इसकी रुचि होनी चाहिये, वह रुचि अंतरमेंसे उसे होती नहीं।

मुमुक्षुः- माताजी! बहुत कठिन काम है।

समाधानः- अपना स्वभाव है इसलिये आसान है। और अनादिका अभ्यास है इसलिये कठिन है। छूटता है उसे एक क्षणमें छूट जाता है, अंतर्मुहूर्तमें छूट जाता है और जिसे नहीं छूटता है उसे लाखों क्रोडो भव पर्यंत क्रियाएँ करता रहे तो भी छूटता नहीं। अज्ञानी जो कर्म लाख-क्रोड भवमें क्षय करता है, वह ज्ञानी एक श्वासमात्रमें क्षय करता है। स्वयंका स्वभाव है इसलिये सहज है, सरल है और सुगम है। लेकिन बाहरमकी रुचि लगे तो उसे छोडना मुश्किल है। आत्माका स्वभाव ही नहीं है, परमें


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रुकना वह आत्माका स्वभाव ही नहीं। पर ओर जाना, उसमें उसे सुख ही नहीं लगे। वह उसका स्वभाव ही नहीं है। जिसे यथार्थ आत्मार्थीता हो उसे बाहरमें, अंतरमें गहराईमें आत्माके अलावा कहीं सुख लगे ही नहीं, क्योंकि वह उसका स्वभाव ही नहीं। सच्चे आत्मार्थीको अन्दर सब दुःख और आकुलता ही लगती है। सच्चे आत्मार्थीको। क्योंकि वह उसका स्वभाव नहीं है, इसलिये उसे उसमें अटकना पोसाता नहीं। परन्तु जिसे गहराईमें उतना आत्माका प्रयोजन नहीं है तो वह उसमें रुक जाता है। कहीं- कहीं अटक जाता है।

उसने मोक्ष किसे मान लिया है? मैंने सब छोड दिया है। मुनिकी जो क्रियाएँ हैं, वह सब मैं पालता हूँ। छकायकी रक्षा, पंच महाव्रत पालता हूँ, बराबर शास्त्रका अभ्यास करता हूँ और बराबर जैसा है वैसा पालता हूँ। उसकी सब आवश्यक क्रियाएँ करता हूँ। मेरा मोक्ष होनेवाला ही है। मोक्ष यहीं है। मैं अंतरसे भिन्न हो जाउँ, यह सब क्रियाके विकल्पसे भिन्न हो जाऊँ, ऐसी रुचि अंतरमें होती नहीं। मोक्षके लिये ही करता है। मोक्षका स्वरूप यहीं है, ऐसा अंतरमें उसे गहराईमें यह लगना चाहिये। मैं मोक्षस्वरूप ही हूँ और विभाव परिणतिमें रुका हूँ, इसलिये बंधन है। इसलिये मुझे विभावसे छूटना है। अंतरमें उसे आना चाहिये, तो सच्चा मोक्ष हो। ... अशुभ परिणाम गौण होकर, अशुभ परिणामसे मोक्ष होगा। शुभमें अटका है।

मुमुक्षुः- अशुभसे मोक्ष होगा।

समाधानः- अशुभसे मोक्ष होगा।

मुमुक्षुः- अंतरमें भिन्न हूँ और भिन्न होना है, दोनों बात उसे...

समाधानः- अंतरमें लगना चाहिये, मैं भिन्न ही हूँ। द्रव्य मेरा भिन्न ही है, विभावमें अटका है वहाँसे छूटना है। ऐसा अंतरमें लगना चाहिये। लेकिन जो एकसे नहीं छूटा शुभसे, वह वास्तविकरूपसे अशुभसे नहीं छूटा है।

मुमुक्षुः- सब पलट जायेगा।

समाधानः- पलट जायेगा। ... (मालूम) पडे, स्वयंको मालूम पडे लेकिन उसे अन्दर खोजनेकी वृत्ति, खोजनेकी लगी हो तो (मालूम) पडे न। संतुष्ट हो गया हो तो कहाँसे पडे? संतुष्ट हो गया हो उसे कहाँसे मिले? मैंने तो सब कर लिया है, ऐसे संतोष आ गया हो तो कहाँसे ढूँढे। जिसे संतोष नहीं है, शास्त्रमें यह सब आता है कि मुनिपना पाला तो भी द्रव्यलिंगी मुनि अनन्त बार ग्रैवेयक उपजायो, तो भी मोक्ष नहीं हुआ, वह क्या होगा? इस प्रकार स्वयंको विचार करनेका, स्वयंको अपनी परिणतिको खोजनेकी पडी हो तो स्वयं ढूँढ सकता है। परन्तु स्वयंको अपनी पडी नहीं, संतोष आ गया हो तो कहाँसे ढूँढे? (संतोष) हो ही गया है।


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बहुत लोग भेस लेकर नहीं कहते हैं? अपने तो सम्यग्दर्शन होता ही है। सम्यग्दर्शन नहीं है? जैन धर्मको मानते हैं, इतना त्याग लिया तो सम्यग्दर्शन है ही, ऐसा बहुत लोग मान लेते हैं।

मुमुक्षुः- ... मैं सम्यग्दृष्टिको वंदन करता हूँ। मुनिराज वैसे तो सम्यग्दृष्टिको वंदन करे नहीं, परंतु सम्यग्दर्शनकी महिमा बतायी...

समाधानः- सम्यग्दृष्टिको वंदन करता हूँ अर्थात वंदन करता हूँ, ऐसी भावना करे, परन्तु वंदन-नमस्कार नहीं होता। ऐसा व्यवहार नहीं करते। जिसने कारण तत्त्व जाना, आत्माको जाना, उस कारण पर दृष्टि रखनेसे जिसमें कार्य आता है, ऐसा कारण तत्त्व जिसने ग्रहण किया, जिसने भेदज्ञान और स्वानुभूति प्रगट की, उसे मैं वंदन करता हूँ। जगतमें सर्वोत्कृष्ट हो तो आत्मा चैतन्य द्रव्य है, उसे जिसने लक्ष्यमें लिया उसे वंदन करता हूँ। ऐसा कहकर स्वयंको महिमा आती है। बाकी उसे नमस्कारका व्यवहार मुनि नहीं करते।

मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शनकी महिमा दर्शाते हैं।

समाधानः- सम्यग्दर्शनकी महिमा दर्शाते हैं। मोक्षमार्ग जो प्रगट होता है, उसके अंशसे लेकर पूर्णता पर्यंत सब आदर करने योग्य है, ऐसा कहना चाहते हैं। चैतन्यतत्त्व महिमावंत है, उसका एक अंश भी प्रगट हो, अंशसे लेकर मुनिदशा पर्यंत सब आदरने योग्य, सब महिमावंत, सब नमस्कार करने योग्य है, ऐसा कहना चाहते हैं।

णमो अरिहंताणं आदि आता है न? पंच परमेष्ठी नमस्कार। उसमें सब आचार्य, उपाध्याय, मुनिराज जो बडे मुनि होते हैं, छोटे मुनि सब आ जाते हैं, उन सबको मैं नमस्कार करता हूँ। ऐसे नवकार बोले उसमें सब आ जाता है। लेकिन नमस्कारका व्यवहार नहीं करते। णमो लोए सव्व साहूणं, सब मुनिको नमस्कार करता हूँ। नवकार बोले इसलिये उसमें सब मुनि आ जाते हैं। लेकिन बडे मुनि हों, वे छोटे मुनिको नमस्कारको व्यवहार नहीं करते।

मुमुक्षुः- हमें अधिकसे अधिक कितने भवमें सम्यग्दर्शन प्राप्त हो सकता है? या वर्तमान भवमें भी हो सकता है?

समाधानः- कितने भवमें हो सकता है? वर्तमान भवमें भी हो सकता है, पुरुषार्थ करे तो इस भवमें भी हो सकता है। और दूसरे भवमें भी हो सकता है। जब पुरुषार्थ करे तब हो सकता है। उसे कहीं काल नहीं लागू पडता। जो पुरुषार्थ करे, अपनी योग्यता तैयार करे और चैतन्यतत्त्वको ग्रहण करे तो इस भवमें भी कर सकता है और दूसरे भवमें भी कर सकता है। जब तैयारी करे तब हो सकता है।

मुमुक्षुः- समयकी मर्यादा नहीं है?


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समाधानः- समयकी मर्यादा नहीं है। गुरुदेवने ऐसा मार्ग बताया, उसे स्वयं ग्रहण करके पुरुषार्थ करे, एक ज्ञायक तत्त्व ही ग्रहण करने जैसा है। उसकी परिणति अभी भी प्रगट कर सकते हैं और भविष्यमें भी कर सकते हैं। अभी करते-करते उतना पुरुषार्थ नहीं चले तो बारंबार उसका अभ्यास करे, बारंबार जिज्ञासा करे, भावना करे कि ज्ञायक ही आदरणीय है, गुरुदेवने कहा वही मार्ग आदरने योग्य है। चैतन्यका द्रव्य- गुण-पर्याय क्या है, उसे पहचाननेका प्रयत्न करे। यह विभाव क्या है? स्वभाव क्या है? सबको पहचाननेका प्रयत्न करे। एक चैतन्य ही आदरणीय है, दूसरा कुछ आदरणीय नहीं है। ऐसी बारंबार भावना करे। ऐसा करते-करते उसमें गहरे संस्कार पडे तो दूसरे भवमें भी कर सकता है। उसे कालकी मर्यादा नहीं है। अपनी मन्दताके कारण अटकता है। स्वयं पुरुषार्थ करे तो होता है। ऐसा अनजाना मार्ग मिलना मुश्किल, गुरुदेवने बताया। वह मार्ग कोई अपूर्व मार्ग है। उसकी महिमा आये, आत्माका स्वरूप कोई अपूर्व है, अनुपम है, वह कैसे प्राप्त हो, गहरी रुचि करे तो हो सकता है।

मुमुक्षुः- बाहरके विषयमें इतने एकमेक हो जाते हैं कि इसमें रुचि स्थिर होनेमें बहुत .. लगता है।

समाधानः- देर लगती है। उसमेंसे भी बारंबार प्रयत्न करता रहे। वहाँसे रुचि स्वयंकी ओर लानेका बारंबार प्रयत्न करता रहे। करने जैसा यही है, ऐसा निर्णय करे, श्रद्धा करे, बारंबार प्रयत्न करके पलटे। पलटे बिना छूटकारा नहीं है। वह एक उपाय है। स्वयं पलटे बिना शान्तिका दूसरा कोई उपाय नहीं है। शान्तिका उपाय स्वयंको ही पलटना है। कोई नहीं कर देता, स्वयंको ही पलटना है। गुरुदेवने मार्ग दर्शाया। देव-गुरु-शास्त्र सब निमित्त बनते हैैं। करना स्वयंको ही है। सर्व द्रव्यकी स्वतंत्रता बतायी है। तू कर तो हो सके ऐसा है। तुझे कोई रोकता नहीं। कर्मका उदय तुजे जबरजस्ती रोकता नहीं। तू कर तो हो सके ऐसा है।

मुमुक्षुः- कर्मका बहाना निकाले वह भी गलत है।

समाधानः- गलत है। कर्म रोकता नहीं, कर्म तो निमित्त है। स्वयं पुरुषार्थ करे तो कर्म उसे आडे नहीं आते। कर्म भी बदल जाते हैं, स्वयं पुरुषार्थ करे तो।

मुमुक्षुः- क्रमबद्धका बहुत शिक्षण दिया है। ... बहुत परिचय था न, इसलिये क्रमबद्धके पुस्तकके आधारसे .. है।

समाधानः- क्रमबद्धको पुरुषार्थके साथ सम्बन्ध है। पुरुषार्थ बिनाका क्रमबद्ध होता नहीं। स्वयं रुचि पलटे, पुरुषार्थ करे, अपनी ओर आये, उसका क्रमबद्ध उस प्रकारका होता है। लेकिन स्वयं पलटता नहीं और बाहरमें रुचि करके बैठा है, तो उसका क्रमबद्ध उस प्रकारका होता है। जिसे बाहरकी रुचि है उसका क्रमबद्ध उस प्रकारका है। अपनी


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ओर रुचि करे उसे उस प्रकारका क्रमबद्ध होता है। अपनी रुचिको कोई क्रमबद्ध रोकता नहीं।

जिज्ञासु, जिसे अंतरमें लगी है, अंतरमें मुझे कहीं चैन नहीं पडती, मुझे आत्मा ही चाहिये, ऐसी जिसे अंतरमेंसे लगी हो, उसे ऐसा (नहीं) होता कि मैं क्या करुँ, मुझे अंतरमें तो जाना है, लेकिन यह क्रमबद्ध मुझे रोक रहा है। उसे अन्दर भावना होती ही नहीं। मैं ऐसा पुरुषार्थ करु कि मेरा क्रमबद्ध ऐसा ही हो। मेरा पुरुषार्थके कारण,... मुझे यह चाहिये ही नहीं, क्रमबद्ध जो भी हो, परंतु मुझे तो पलटना ही है। अपनी रुचि इस ओर जागृत हुयी तो उसका क्रमबद्ध उस प्रकारका हा ही होता है। पुरुषार्थके साथ क्रमबद्धका सम्बन्ध जुडा है।

जिज्ञासुको क्रमबद्धका बहाना और बचाव आता ही नहीं। जिसे लगी है कि मुझे मेरा ही करना है, कहीं नहीं अटकना है, उसे क्रमबद्धका विचार नहीं आता। मेरा क्रमबद्ध ऐसा है कि मैं अपनी ओर झुकु। मुझे क्रमबद्ध नहीं रोकता। क्या करुँ, कैसे करुँ, मुझसे होता नहीं, ऐसा क्रमबद्ध होगा तो मैं क्या करुँगा? गुरुदेवने स्वतंत्रता कही है।

क्रमबद्ध तो कर्ताबुद्धि छुडानेके लिये है। तू ज्ञायक हो जा, ऐसा गुरुदेव कहते हैं। तू कुछ नहीं कर सकता, तू ज्ञायक हो जा। ज्ञायक हो जा। कर्ताबुद्धि छोड दे, ज्ञातापना प्रगट कर। फिर जैसे होना होगा वैसे होता है। ज्ञायक हो जा। ज्ञायकमें सब आ जाता है। ज्ञायक हो जा, उसमें अपना पुरुषार्थ आ गया। ज्ञायक होनेवालेको अपना पुरुषार्थ आ जाता है।

मुमुक्षुः- केवली भगवानने अनन्त भव देखे होंगे वैसा होगा, ऐसे नहीं देखता।

समाधानः- भगवानने अनन्त भव देखे होंगे तो? तू पुरुषार्थ कर तो भगवानने तेरे भव देखे ही नहीं। तू पुरुषार्थ करता नहीं, तुझे करना नहीं है तो तेरा ऐसा ही देखा है। तू पुरुषार्थ कर तो भगवान ऐसा ही देखे की पुरुषार्थ करनेवालेको भव होते ही नहीं। तू करता नहीं इसलिये भगवानके ज्ञानमें ऐसा आता है, तू कर तो भगवानके ज्ञानमें ऐसा ही आये कि तेरा मोक्ष है। तुझे ही करना है।

मुमुक्षुः- अनन्त भव देखे होंगे तो क्या एक भी कम होगा? आपके देखे होंगे, मेरे नहीं देखे हैं। ऐसी श्रद्धा? मुझे आपके साथ नहीं रहना है। भाग गये। फिर श्रावक ले आये, महाराज! चलिये! ऐसी श्रद्धावालोंके साथ मुझे रहना ही नहीं है।

समाधानः- गुरुदेवका क्रमबद्ध कहनेका आशय अलग ही था। गुरुदेव, जैसा होना होगा वैसा होगा, ऐसा कुछ मानते ही नहीं थे कि भगवानने देखा होगा वैसा होगा। भगवानने ऐसे भव देखे होंगे तो? पुरुषार्थ करे उसके भव ऐसे देखे नहीं है भगवानने।


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गुरुदेवको क्रमबद्धमें ऐसा नहीं कहना था। उनका कर्ताबुद्धि छुडानेका अभिप्राय था। तू ज्ञायक हो जा, ऐसा कहना था।

तू परद्रव्यका कुछ बदल नहीं सकता। तू कर्ताबुद्धि छोड दे, ज्ञायक हो जा, ऐसा कहना था। सहज परिणति तेरी अपनी प्रगट कर ले। कर्तृत्वबुद्धि छोड दे, ऐसा कहना था। क्रमबद्धको पुरुषार्थके साथ सम्बन्ध है। अकेला क्रमबद्ध नहीं होता। उसमें स्वभाव, काल इत्यादि सब साथमें है। अकेला क्रमबद्ध नहीं होता। पुरुषार्थके साथ सम्बन्ध रखता है। जैसा जिसका पुरुषार्थ वैसा उसका क्रमबद्ध। पुरुषार्थकी गति कैसी है? स्वयं पुरुषार्थ करनेवालेको मैं करुँ, ऐसा आता है। जैसा होना होगा वैसा होगा। ऐसा उसे संतोष ही नहीं होता। जिसे आत्माकी लगी है, उसमें वह संतोष मान ही नहीं सकता। जिसे आत्माकी लगी हो, वह ऐसा नहीं मानता है कि क्रमबद्ध होगा तो कैसे होगा? उसे संतोष ही नहीं होता।

आत्मार्थीको अन्दरसे ऐसा होता है कि मैं करुँ, कैसे समझु? कैसे ज्ञायक पहचानमें आये? ऐसी ही भावना उसे होती रहे। क्रमबद्धके सामने देखता ही नहीं। मेरी ऐसी भावना है तो मेरा क्रमबद्ध सुलटा ही है। मोक्षकी ओरका है। ऐसी ही उसे श्रद्धा होती है। क्रमबद्धसे स्वयंको संतोष ही नहीं होता।

मुमुक्षुः- उसे ऐसा होता है कि अभी कर लूँ, जल्दी हो जाय तो करुँ, अभी होता हो तो मुझे थोडी भी राह नहीं देखनी है, ऐसी भावना होती है।

समाधानः- ऐसी भावना अन्दर होनी चाहिये। फिर होवे कितना वह दूसरी बात है, लेकिन भावना ऐसी होनी चाहिये।

मुमुक्षुः- गुरुदेव सौ जहाजका दृष्टांत देते थे। सेठने सुना, सौ जहाज आते थे, उसमेंसे ९९ डूब गये हैं, एक बचा है। वह मेरा ही होगा। उतनी पुण्यमें श्रद्धा।

समाधानः- यहाँ तो पुरुषार्थ है। मुझे आत्मा प्राप्त हुए बिना संतोष नहीं है। ऐसा जिसे हो, उसे ऐसा ही होता है कि मेरा क्रमबद्ध तो मोक्षकी ओर, आत्माकी ओरका है।

बाहरके उदय जैसे होने होते हैं, वैसे होते हैं। उसे स्वयं बदल नहीं सकता। अंतरकी ज्ञायकदशा प्रगट करनी वह अपने पुरुषार्थकी बात है। ज्ञायकदशा, उसकी ज्ञाताधारा होती है। इसलिये विभावकी परिणति अन्दर है उसे उदय कहते हैं, उदयधारा। उसकी कर्ताबुद्धि छूट गयी इसलिये उसका अर्थ ऐसा नहीं है कि वह स्वतः होती है। मेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे होती है। उसे अन्दर ज्ञान है। जैसे होना होगा वैसा होगा, ऐसे ज्ञानीकी ज्ञाताधारामें ऐसा नहीं है। अंतरमेंसे कोई अचिंत्य ज्ञान-वैराग्यकी शक्ति प्रगट हुयी है। इसलिये पुरुषार्थ बिनाका क्रमबद्ध वहाँ भी नहीं लिया जाता। विभावधारामें भी। उसके पुरुषार्थकी मन्दता


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है। पुरुषार्थकी क्षति हर जगह जुडी होती है।

मुमुक्षुः- ज्ञानीको ज्ञाताधारा प्रगट हुयी है, उसका अर्थ ऐसा नहीं है कि उदयमें वह विवेक नहीं करता है। ऐसा आपको कहना है?

समाधानः- हाँ, वह उदयका विवेक नहीं करता है, ऐसा अर्थ नहीं है। मतलब बाहरका क्रमबद्ध और उदयधाराका क्रमबद्ध, उसमें पुरुषार्थका सम्बन्ध है, ऐसा वहाँ अर्थ नहीं है। उसे विवेक है कि मेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे यह होता है।

मुमुक्षुः- वहाँ भी अशुभ छोडकर प्रवर्तता है और उसे भान भी है कि सब क्रमबद्ध है।

समाधानः- .. और पुरुषार्थ उठता हो तो मुझे यह कुछ नहीं चाहिये। मेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे खडा हूँ। उदय है, उदय है, ऐसा नहीं है उसे।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!
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