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समाधानः- .. जैसे होना होगा वैसे होगा, वह बाहरका तो ठीक है, परन्तु अंतरमें यदि अंतरमें वह स्वयं पुरुषार्थका बल प्रगट न करे तो ऐसी क्रमबद्धकी पर्याय भवकी ओर जाती है। यदि स्वयं बल प्रगट करे तो क्रमबद्धकी पर्याय अपनी ओर, भवके अभावकी ओर जाती है। बल तो स्वयंको ही प्रगट करना है। पलटना तो स्वयंको ही है। अपनी ताकात स्वयंको ही प्रगट करनी है। पूरा जीवन अपनी ताकत पर है। लेकिन वह कोई कर नहीं देता, स्वयंको ही करना है।
बल आना होगा तब आयेगा, ऐसे बल नहीं आता है। अपने अंतरमें ऐसा हो कि आनेवाला होगा... वह बल स्वयं है और वह बल स्वयंको ही प्रगट करना है, उसे कोई कर नहीं देता। क्रमबद्ध यानी कोई निमित्त उसे कर दे, या कोई दूसरा कर देता है, ऐसा नहीं है। वह बल स्वयंको ही प्रगट करना पडता है। और क्रमबद्धको गढना सब अपने हाथमें ही है। वह कोई नहीं कर देता।
जिसके मनमें ऐसा हो कि जैसे होना होगा वह होगा। लेकिन यदि तुझे ऐसी श्रद्धा है तो तेरा सुलटा क्रमबद्ध होगा ही नहीं। और भगवानने ऐसा ही देखा है, तू पुरुषार्थ नहीं करता है तो तेरा क्रमबद्ध ऐसा है। क्रमबद्धको पुरुषार्थके बलके साथ सम्बन्ध है। पुरुषार्थका बल नहीं प्रगट करता है तो तेरा क्रमबद्ध (वैसा है)। जो पुरुषार्थ करके ज्ञायकदशा प्रगट करता है, तो उसका क्रमबद्ध सुलटा है।
मुमुक्षुः- पूज्य बहिनश्री! एक प्रश्न है कि धर्मका मूल सम्यग्दर्शन है या चारित्र या सर्वज्ञदेव या अपना त्रिकाली स्वभाव?
समाधानः- धर्मका मूल सम्यग्दर्शन है। धर्मका मूल तो सम्यग्दर्शन है। धर्म सबको कहते हैं। चारित्र धर्म है, सम्यग्दर्शन धर्मका मूल है। सम्यग्दर्शनमें धर्मका आश्रय है त्रिकाली स्वभावका। परन्तु सम्यग्दर्शनको धर्मका मूल कहनेमें आता है। क्योंकि गुरुदेवने सम्यग्दर्शनका स्वरूप अपूर्व रीतसे बताया है। सम्यग्दर्शन अनादि कालसे जीवको प्राप्त नहीं हुआ है। और सम्यग्दर्शन ही जगतमें सर्वोत्कृष्ट है, उससे ही भवका अभाव होता है।
गुरुदेवने अत्यंत स्पष्टता करके सूक्ष्म-सूक्ष्म रीतसे सम्यग्दर्शनका स्वरूप बहुत बताया है। गुरुदेवका परम उपकार है। धर्मका मूल सम्यग्दर्शन है। अनादि कालसे जीवने सम्यग्दर्शन
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प्राप्त नहीं किया है। वह सम्यग्दर्शन प्राप्त करना जगतमें बहुत दुर्लभ है। जीव अनादि कालसे बाह्य क्रियामें और बाहरमें अटका है। परन्तु अंतरमें सम्यग्दर्शन किसे कहते हैं? भवका अभाव कैसे हो? यह उसे मालूम नहीं है। धर्मका मूल सम्यग्दर्शन है। त्रिकाली स्वभाव अनादिअनन्त है-ज्ञायक स्वभाव। ज्ञायक स्वभाव अनादिअनन्त है, परन्तु सम्यग्दर्शन जब प्राप्त होता है, तभी भवका अभाव होता है।
सम्यग्दर्शन है उसमें ज्ञायक स्वभावका आश्रय होता है, द्रव्य पर दृष्टि जाती है और सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। इसलिये सम्यग्दर्शन धर्मका मूल है। सर्वज्ञ स्वभाव। भगवान धर्ममें निमित्त बनते हैं। परन्तु अन्दरका उपादान स्वभाव तो अपना है। स्वयं प्राप्त करे तो हो सके ऐसा है। इसलिये सम्यग्दर्शन धर्मका मूल है। बाहरका निमित्त है वह मूल निमित्त नहीं कहलाता। मूल कारण तो सम्यग्दर्शन है। धर्म उसे कहते हैं। सम्यग्दर्शन अनादि कालसे प्राप्त नहीं किया है। और वह सम्यग्दर्शन प्राप्त करनेके लिये ज्ञायक स्वभावका आश्रय है। ज्ञायक स्वभावका आश्रय लिया और सम्यग्दर्शन प्राप्त हो, फिर त्रिकाली स्वभावके आश्रयसे चारित्र भी उसके आश्रयसे प्रगट होता है। चारित्र भी धर्म है।
दंसण मूलो धम्मो और चारित्र खलू धम्मो। चारित्र धर्म है और सम्यग्दर्शन भी धर्म है। दोनों धर्म हैं। धर्मका मूल सम्यग्दर्शन है। इसलिये सम्यग्दर्शन ही जगतमें सर्वोत्कृष्ट है। परन्तु वह सम्यग्दर्शन आत्माका आश्रय ले तो प्राप्त होता है। "जे शुद्ध जाणे आत्मने ते शुद्ध आत्म ज मेळवे।' आत्माको शुद्ध जाने। यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है, मैं तो शुद्ध स्वभाव आत्मा हूँ। उसमें गुणभेद, पर्यायभेद सबको गौण करके, एक चैतन्य पर दृष्टि रखे तो सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। चैतन्य स्वभावका अस्तित्व ग्रहण करके, ज्ञायक स्वभावका अस्तित्व ग्रहण करके पर-ओरके भेदभाव, विभावभाव, सब परसे दृष्टि उठाकर एक चैतन्य पर दृष्टि रखे और भेदज्ञानका अभ्यास करे। बारंबार-बारंबार। उसमें उपयोगको स्थिर करे तो उसमें स्वानुभूति होती है। वही धर्मका मूल है।
सम्यग्दर्शन ही धर्म है और वही धर्मका मूल है। चारित्र भी धर्म है। अभी सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ, परन्तु चारित्र प्राप्त नहीं होता तबतक पूरा धर्म प्राप्त नहीं हुआ है। अभी कमी है। इसलिये चारित्र भी धर्म है। स्वानुभूति प्रगट होते-होते, आगे बढने पर स्वरूपकी लीनता बढती जाती है, उसमें चारित्र प्रगट होता है। बाहरके शुभभाव पंच महाव्रत, अणुव्रत शुभभाव है, लेकिन उसके साथ स्वरूपमें लीनता बढती जाय वह चारित्र है। वह चारित्र भी धर्म है। धर्म तो ऐसे प्रगट होता है। बाहरसे प्रगट नहीं होता। आत्माके आश्रयसे प्रगट होता है। इसलिये वही प्रगट करने जैसा है। सुखका धाम जो आत्मा, शांतिका धाम जो आत्मा, ज्ञायकका आश्रय करनेसे सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है और वही जगतमें सर्वोत्कृष्ट है।
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मुमुक्षुः- वास्तविक मूल तो त्रिकाली स्वभाव लगता है। बाकी सब तो उपचारिक लगता है।
समाधानः- त्रिकाली स्वभाव सम्यग्दर्शनका आश्रय है। अनादि कालसे त्रिकाली स्वभाव है, परन्तु यदि उसे वह ग्रहण नहीं करता है तो अनन्त काल निकल जाता है। ग्रहण उसे करना है-त्रिकाली स्वभावको। त्रिकाल स्वभावको जाने। अनादिअनन्त मैं शाश्वत हूँ, ऐसा जाने। उसमें अनन्त गुण हैं, सब ज्ञानमें जाने। दृष्टि एक चैतन्य पर रखे। त्रिकाली स्वभाव.. सम्यग्दर्शनका आश्रय त्रिकाली स्वभाव है। इसलिये ग्रहण उसे करना है। तो ही सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। त्रिकाली स्वभावको ग्रहण करे तो। लेकिन धर्म तो सम्यग्दर्शनको कहनेमें आता है।
धर्म उसे कहनेमें आता है, अनादिअनन्त त्रिकाली स्वभावको भी (धर्म कहनेमें आता है), परन्तु वास्तवमें जो प्रगट होता है उसीको धर्म कहनेमें आता है। सम्यग्दर्शन ही धर्म है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः। मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन रत्नत्रय प्रगट हो, तब मोक्षमार्ग प्रगट होता है।
मुमुक्षुः- तो चारित्र खलू धम्मो, चारित्रको भी खलू शब्द लगाया।
समाधानः- चारित्र है वह धर्म है, वह स्वरूपमें लीनता बढती है इसलिये। सम्यग्दर्शनको भी धर्म कहनेमें आता है। सम्यग्दर्शन धर्मका मूल है, मूल वह है। और चारित्र धर्म है। वह आत्माका स्वभाव है। चारित्र, लीनता करनी वह चारित्र धर्म है। भले निश्चयसे चारित्र (धर्म है), परन्तु उसका मूल तो सम्यग्दर्शन है। चारित्रका मूल सम्यग्दर्शन है। चारित्रका मूल यानी यथार्थ सम्यग्दर्शन प्रगट हो तो चारित्र प्रगट होता है।
मुमुक्षुः- इस चारमेंसे बात यहाँ आयी कि धर्मका मूल सम्यग्दर्शन है। दूसरे सब दूसरी-दूसरी अपेक्षासे।
समाधानः- हाँ, धर्मका मूल सम्यग्दर्शन है। अनादि कालसे जीवने सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं किया है। धर्मका मूल सम्यग्दर्शन है। बाकी बाहरका बहुत किया, शुभभाव किये, सब किया, लेकिन वह धर्मका मूल नहीं है। पुण्य बँधता है। बाकी सम्यग्दर्शन शुद्धात्माको पहचानकर उसमें लीनता प्राप्त करे, स्वानुभूति प्राप्त करे वही धर्मका मूल है। धर्म वही है।
चारित्रको भी धर्म कहनेमें आता है। चारित्र धर्म है, धर्म है वह साम्य है। सम्यग्दर्शनका फल चारित्र आता है। स्वानुभूतिका फल है। फिर लीनता बढती है। सर्वज्ञ स्वभाव कहा न? दूसरा उसका क्या निमित्त कहा?
मुमुक्षुः- हाँजी, सम्यग्दर्शन, चारित्र, सर्वज्ञदेव और त्रिकाली स्वभाव।
समाधानः- अनादि कालसे सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हुआ है, इसलिये प्रथम जब
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सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है, वहाँ सर्वज्ञदेव उसमें निमित्त होते हैं। गुरु अथवा सर्वज्ञदेव निमित्त होते हैं, परन्तु उपादान अपना होता है। मूल कारण तो स्वयं होता है। परन्तु निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है कि निमित्त होता है। गुरुने इतना उपदेश दिया। गुरु और देव सब निमित्त हैं।
अनादि कालसे अनजाना मार्ग, उसमें ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। एक बार साक्षात गुरु अथवा देव मिले, तब जीवकी परिणति अपनी ओर होती है। होती है अपनेसे। दूसरा कोई कर नहीं देता, अपने पुरुषार्थसे होता है।
मुमुक्षुः- दूसरा एक प्रश्न है, बहिनश्री! आस्रवभाव झहर जैसा है। उसमेंसे उसकी मारनेकी शक्ति निकाल देनेमें सम्यग्दृष्टि जीव समर्थ है, वे कौनसी विद्याके बलसे वैसा कर सकते हैं?
समाधानः- आस्रवभाव झहर है, परन्तु उसे ज्ञायक स्वभाव, ज्ञान-वैराग्यकी ऐसी शक्ति प्रगट होती है, सम्यग्दृष्टिको। यह विभाव है, मेरा स्वभाव नहीं है। उससे भिन्न होकर उसे अंतरमेंसे ऐसी ज्ञान-वैराग्यकी शक्ति प्रगट होती है। इसलिये उसका जो झहर है वह निकल जाता है। एकत्वबुद्धिका जो रस था, विभावके साथ एकत्वबुद्धिका रस टूट जाता है। अनन्त रस जो अनंतानुबन्धीका था वह रस टूट जाता है। इसलिये उसका जो झहर-एकत्वबुद्धिका और अनंतानुबन्धीका रस था वह झहर टूट जाता है और स्वरूपकी ओर उसे अनन्त रस लग जाता है। ऐसा अनन्त रस ज्ञायक स्वभावको रस ग्रहण करके वह रस ऐसा लगता है कि वह विभावसे भिन्न ही रहता है। उसे विभावका रस- विभावका झहर उसे लगता नहीं। उसे ऐसी ज्ञायककी विद्या, ज्ञायकका मंत्र प्रगट हुआ है कि जिस कारणसे आस्रवका झहर उसे चढता नहीं।
उसने जाना कि यह आस्रव है वह विपरीत स्वभाव है, आकुलतावाले हैं, मेरा सुख इसमें नहीं है, सुख मेरेमें है, ऐसा अन्दर निश्चय हुआ। मेरा ज्ञायक स्वभाव ही सुखस्वरूप है। सब कुछ मेरे ज्ञायक स्वभावमें ही है, बाहरमें नहीं है। ऐसा उसे निश्चय हुआ और ज्ञायकका रस लगा। वह रस चढा, वह रस उसे उतरता नहीं इसलिये उसे झहर लगता नहीं। भिन्न ही (रहता है), प्रतिक्षण न्यारा ही रहता है, उससे भिन्न ही रहता है।
आत्माका रस ऐसा लगा। कहते हैं न, भगवान! मुझे ज्ञायकदेवका ऐसा रस लगा है कि उसके आगे मुझे सब तुच्छ लगता है। जैसे जिनेन्द्र भगवानका, आचार्यदेव कहते हैं न, आपका प्रभावशाली मन्त्र यदि मेरे हृदयमें है अथवा आपके स्मरणरूप मन्त्र है तो मुझे इस जगतमें मेरी चिंतीत वस्तु है, उसमें कोई विघ्न नहीं आता है। ऐसे ज्ञायकका जिसे रस लगा, ज्ञायकदेवकी विद्या प्रगट हुयी, जहाँ हो वहाँ ज्ञायककी अखण्ड
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परिणति प्रगट है। प्रतिक्षण उसे ज्ञायककी परिणति मौजूद ही है। ज्ञायकके प्रभावके कारण ज्ञायकदेवका ऐसा मन्त्र उसके पास है कि उसे विभावका रस नहीं लगता है। उससे वह भिन्न ही रहता है।
ज्ञायकमें सबकुछ है। ज्ञायक चिंतामणि रत्न कहो अथवा कल्पवृक्ष कहो या जो भी कहो, सब ज्ञायकमें ही भरा है, बाहरमें कहीं नहीं है। इतना उसे ज्ञायकदेवका रस लगा है कि विभावका रस उसे टूट गया है। इसलिये वह उससे भिन्न ही रहता है। उसने मोक्षमार्गमें प्रयाण किया है। ज्ञायकका रस ऐसा लगा कि उसे दूसरे रस लगते नहीं और आस्रवका झहर उसे चढता नहीं।
मुमुक्षुः- देव-गुरुकी भक्तिको भी झहर कहना?
समाधानः- शुभभावकी अपेक्षासे कहनेमें आता है। आचार्यदेव कहते हैं, अमृतकुंभ और विषकुंभ जो प्रतिक्रमण (अधिकारमें) आता है। हम तो शुभभाव हैं उसको भी हमने तीसरी भूमिकाकी अपेक्षासे विषकुंभ कहा, तो अशुभभाव तो कहाँसे अमृत हो? हम तो ऊपर चढनेको कहते हैं, नीचे उतरनको नहीं कहते हैं। हम तीसरी भूमिकामें जानेके लिये कहते हैं कि शुभाशुभ भाव दोनों विभाव है। दोनों एक समान है। पर निमित्तसे होनेवाले मेरे स्वभावसे भिन्न हैं। इसलिये दोनों एक ही कोटिके हैं। ऐसा कहते हैं, वह तीसरी भूमिकामें निर्विकल्प दशामें तू जा और तू ऐसी सच्चा श्रद्धा कर कि ये दोनों आकुलतावाले हैं। सच्ची श्रद्धा, सच्ची परिणति अन्दरसे प्रगट कर और अमृतकुंभकी तीसरी भूमिका प्रगट करनेके लिये हम कहते हैं, परन्तु नीचे उतरनेके लिये नहीं कहते हैं। तू शुभ छोडकर अशुभमें जा, तो नीचे गिरनेको नहीं कहते हैं कि यह सब तो शुभ है, अब उसकी कोई आवश्यकता नहीं है, इसलिये अशुभमें क्या हरकत है? तू शुभमें नहीं खडा रहेगा तो तेरी परिणति तो बाहर ही है, अशुभमें तो तेरी गति होनेवाली ही है। इसलिये तू तीसरी भूमिकाकी श्रद्धा रख। परन्तु वह परिणति तुझे प्रगट नहीं हो रही है तो उसकी जिज्ञासा कर, शुभभावको छोडकर तू अशुभमें जा ऐसा ऐसा आचार्यदेवको नहीं कहना है।
देव-गुरु-शास्त्र, जिन्होंने मुक्तिका मार्ग बताया है, जिन्होंने सच्चा धर्म बताया है, जो अनादि कालसे जानता नहीं था, मार्ग सूझता नहीं था, ऐसा गुरुने बताया, ऐसा शास्त्रमें आया, जिनेन्द्र देवने बताया, जो साधना साध रहे हैं, जिन्होंने पूर्णता प्राप्त की है, जो साधना करते हैं, ऐसे गुरु आत्मा कैसा हो, उसे देखनेके लिये एक आदर्श हैं, एक दर्पणरूप है, शुभभावमें स्वयंको उन पर भक्ति आये बिना नहीं रहती। स्वयं अपनेसे जानता नहीं है, परन्तु जो मार्ग दर्शाते हैं, उनकी अपूर्व परिणतिको देखनेके लिये, उसके लिये आदर्श हैं। इसलिये वह शुभभाव बीचमें आये बिना रहते नहीं। इसलिये
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विवेक करके रहने जैसा है। दृष्टिमें ऐसा रखे कि शुद्धभाव सर्वस्व है-शुद्धात्मा। परन्तु वह उसमें पहुँच नहीं सकता है इसलिये आये बिना नहीं रहते। अशुभभावसे बचनेको शुभ आता है।
मुमुक्षुः- विवेक करना है। समाधानः- विवेक रखना चाहिये। ... उसमें नहीं खडा रहेगा तो कहाँ जायेगा? तो अशुभमें गति-परिणतिकी गति तो चालू ही है। ऐसे नहीं होगा तो यहाँ जायेगा। इसलिये तू श्रद्धा बराबर रख कि यह सब मेरे शुद्धात्मासे भिन्न है। मेरा स्वभाव नहीं है, सब आकुलतारूप है। प्रवृत्ति है, आकुलता है, परन्तु उससे छूटकर इस ओर जायेगा तो अशुभमें जाना होगा। सांसारिक लौकिकके लिये तू कितना प्रयत्न करता है। शुभभावमें ऐसी भावना तुझे आये बिना नहीं रहेगी। क्योंकि जो सच्चा मार्ग बतानेवाले, आत्माका जो स्वरूप है उसे देखनेके लिये एक आदर्शरूप है, एक दर्पणरूप है, उनका अनादर करके इसमें जायेगा तो तुझे नुकसानका कारण होगा। व्यवहारसे आत्माकी महिमा लानेके लिये जो निमित्तरूप है, स्वयं विचार करे तो देव-गुरुकी महिमा, मेरा आत्मा कैसा है, वे क्या दर्शाते हैं, तेरे आत्माकी ओर मुडनेका एक कारण होता है। परन्तु श्रद्धा बराबर रख।