Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 59.

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ट्रेक-०५९ (audio) (View topics)

समाधानः- .. तू देख, उसके लिये प्रयास कर, भेदज्ञानका अभ्यास कर। छः महिने तक अभ्यास कर। फिर होता है कि नहीं, तू देख। ऐसा शास्त्रमें आता है। आचार्यदेव कहते हैं, अरे..! भाई! तू देख। पडोसी होकर देख। अन्दर ज्ञायकदेव विराजता है। यह शरीर भिन्न, यह विभावस्वभाव तेरा नहीं है। तू उससे भिन्न (है)। यह शुभाशुभ भाव सब आकुलतारूप (है), उससे तू भिन्न है। ज्ञायककी श्रद्धा कर, उसमें लीनता कर, उसकी प्रतीति कर तो अंतरमें होता है कि नहीं तू देख।

जो अनादिका एकत्वताका अभ्यास है, स्वमें एकत्व और परसे विभक्त ऐसी श्रद्धा करके परिणति प्रगट कर तो फिर होता है कि नहीं तू देख। तू प्रसन्न हो। पुरुषार्थ कर तो हे सके ऐसा है। न हो ऐसा नहीं है।

मुमुक्षुः- आचार्यदेव कहते हैं कि एकबार तू कुतूहल कर।

समाधानः- कुतूहल कर, उसमें आश्चर्य कर, तू देख अन्दर होता है या नहीं। तो तुझे हुए बिना रहेगा नहीं। तू स्वयं ही है। दूसरा कोई नहीं है कि वह स्वयंको गुप्त रखे। तू स्वयं ही है। अनन्त शक्तियोंसे (भरपूर) अनंत महिमावंत आत्मा तू ही है। उसे तू पहचान और उसका पुरुषार्थ कर। सावधान होकर पुरुषार्थ करके तू देख तो हुए बिना रहेगा नहीं।

काल कोई भी हो, काल उसे बाधा नहीं करता। आगे प्राप्त किया, निगोदमेंसे निकलकर ... भरतके घर पुत्र हुए और थोडी देरमें भगवानका उपदेश सुना और सम्यग्दर्शन एवं मुनिदशा आ गयी। तो आत्मा करे तो क्षणमात्रमें हो सके ऐसा है। एक अंतर्मुहूर्तमें भी हो सकता है। और अभ्यास करे तो लंबे समयके बाद हो सकता है। आचार्यदेव उग्र पुरुषार्थ करे उसे छः महिनेमें तू देख होता है या नहीं, ऐसा आचार्यदेव कहते हैं। ऐसा तू उग्र पुरुषार्थ कर। तू बाहरमें पडा है, तेरी रुचि बाहर है। अंतरमें रुचि कर, अंतरकी श्रद्धा कर। तू उसमें जाकर देख। तुझे होगा ही, वही तेरा स्वभाव है, दूसरा कोई तेरा स्वभाव ही नहीं है।

मुमुक्षुः- कोई ऐसा कहता है कि ॐ कार भजनेसे निर्विकल्प दशा आ जाती है?


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समाधानः- ॐ कार भजनेसे निर्विकल्पतामें आ सकता है, ऐसा हीं है। वह तो ध्यान-शुभध्यान है। ज्ञायकके अवलम्बनसे निर्विकल्पता होती है। ॐके ध्यानसे निर्विकल्पता नहीं होती। ऐसा नहीं है। ॐ तो भगवानकी वाणी है। ॐका ध्यान वह वाणीका ध्यान है। अन्दर साथमें ज्ञायकका ध्यान होना चाहिये। शुद्धात्माके ध्यानसे अन्दर जा सकता है, ॐके ध्यानसे नहीं जा सकते। वह तो वाणी है, भगवानकी वाणी है, ठीक है, शुभभाव है। ॐको याद करना शुभभाव है, परन्तु अन्दर शुद्धात्मामें जानेके लिये ज्ञायकका आश्रय (चाहिये)।

मुमुक्षुः- भाव और परिणाम किस प्रकारके होते हैं? भाव और परिणाम, जब आत्माको निर्विकल्प दशा होती है, उससे पहले।

समाधानः- वह तो उस सम्बन्धित ही होते हैं। उसे नाम क्या दे, भाव और परिणामको। ज्ञायककी ओर परिणति, ज्ञायकका अवलम्बन, ज्ञायककी श्रद्धा, ज्ञान, लीनता सब ज्ञायककी ओर है।

मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शन होता है तब किस प्रकारका आनन्द आता है?

समाधानः- स्वयं पुरुषार्थ करे, ज्ञायककी उग्रताका। स्वयंको पुरुषार्थकी ओर ही ध्यान होता है। ज्ञायककी उग्रताका पुरुषार्थ (होता है)। उसका नियम नहीं बाँध सकते। पुरुषार्त कब उठे? स्वयंको ऐसा होता है कि ज्ञायक करीब है। बाकी उसका नियम नहीं बाँध सकते।

मुमुक्षुः- ऐसा होता है क्या कि ज्ञायक समीप है?

समाधानः- समीप है, परन्तु स्वयंको विश्वास लाना... स्वयं तो पुरुषार्थकी धून, उसकी परिणतिमें जाता है। ज्ञायककी उग्रता, ज्ञायकके सिवा कोई रस नहीं है, ज्ञायककी ही महिमा, ज्ञायक.. ज्ञायक.. ज्ञायकदेव है। दिव्य महिमाधारी। सब रस उड जाता है। अन्दर चैतन्यमें जिसको रस लग जाय, सबसे विरक्त होकर अंतरमें चला जाता है। कहीं उसे रस नहीं लगता, कोई विकल्पमें टिक नहीं सकता। ज्ञायककी धून लगे। ज्ञायकमें ... परन्तु ज्ञायककी ओर उग्रता (होती है)।

.. फिर १९८९की सालमें गुरुदेवके साथ चातुर्मास करने गयी थी। फिर तो १९९०की सालमें, और उसके बाद तो १९९१में यहाँ सोनगढमें आ गये। गुरुदेवने परिवर्तन किया उसके बाद यहाँ आ गये। पहले वांकानेरमें थे। लाठीना उतारामें थे। १९९१ से १९९३।

.. गुरुदेवकी वाणी ही ऐसी अपूर्व थी। गुरुदेव इस पंचमकालमें जन्मे, महाभाग्य! गुरुदेव तीर्थंकरका द्रव्य स्वयं यहाँ पधारे वह महाभाग्यकी बात है। उनकी ऐसी वाणी सबको सुनने मिली। बरसों तक वाणी बरसायी है। ऐसा इस कालमें बनना मुश्किल। ४५-४५ साल तक सब मुमुक्षुओंको उनकी वाणी मिली। उनका सान्निध्य मिला, महाभाग्य


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है। गुरुदेव तीर्थंकरका द्रव्य तो कोई अलग ही था।

मुमुक्षुः- आपश्रीने प्रकाशित किया।

समाधानः- उनको ऐसा लगता था कि, मैं तीर्थंकर हूँ। तीर्थंकरके स्वप्न आते थे कि मैं तीर्थंकर हूँ। तीर्थंकरके स्वप्न गुरुदेवको आते थे। उनको तो पहले आता था। मुझे तो बादमें आया, परन्तु उनको तो पहले आता था।

मुमुक्षुः- गुरुदेवने उस वक्त तो कुछ बाहर नहीं कहा था।

समाधानः- वह बात किसीको नहीं कहती हूँ, यह गुरुदेवकी बात ही कहती हूँ कि यह गुरुदेव भविष्यमें तीर्थंकर होनेवाले हैं। यहाँ पधारे, वह महाभाग्यकी बात है।

मुमुक्षुः- गुरुदेव यह शब्द बोले न, त्रिलोकीनाथने टीका लगाया।

समाधानः- स्वंयने कहा कि त्रिलोकीनाथने टीका लगाया, अब तुझे क्या चाहिये? विदेहक्षेत्रमें सीमंधर भगवानने कहा कि यह राजकुमार भविष्यमें तीर्थंकर होनेवाले हैं। वह बात गुरुदेवने सुनी। इसलिये कहा कि त्रिलोकीनाथने टीका लगाया, अब क्या चाहिये? ऐसा गुरुदेवने कहा।

मुमुक्षुः- बहुत जबरजस्त बात है।

समाधानः- विदेहक्षेत्रमें भगवान विराजते हैं। गुरुदेवके स्वप्न आते थे। स्वयं राजकुमार हैं। तीर्थंकरत्वके स्वप्न उन्हें आते थे। उनको यह सब स्फुरणा होती थी। सीमंधर भगवान साक्षात विदेहक्षेत्रमें विराजते हैं। उनकी वाणीमें आया कि यह राजकुमार भविष्यमें तीर्थंकर होनेवाला है। गुरुदेवने सुना, इसलिये कहा, त्रिलोकीनाथने टीका लगाया, अब क्या चाहिये?

मुमुक्षुः- .. चलती थी और स्वयंको..

समाधानः- गुरुदेवने बादमें कहा कि मुझे तीर्थंकरके स्वप्न आते हैं। मुझे तो मालूम भी नहीं था कि गुरुदेवको तीर्थंकरके स्वप्न आते हैं। यहाँ तो कुदरती सहज आया।

मुमुक्षुः- गुरुदेवको ॐ ध्वनि भी वांकानेरमें ही आया न।

समाधानः- हाँ।

मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शनके पहले भी १२ साल पहले।

समाधानः- हाँ। ॐ ध्वनि, (संवत) १९७७की सालमें। ॐ ध्वनि पहली बार वांकानेरमें, दूसरी बार उमरालामें, तीसरी बार विंछीयामें। तीन बार (आया)। विंछीयामें थोडा ज्यादा आया, परन्तु शुरुआत वांकानेरसे हुयी। १९७७.

मुमुक्षुः- ऐसे तीर्थंकर भगवान जब ॐ कार फरमाये, तब वाणी झेलनेवाले भी.. मुमुक्षुः- बहिनश्री प्रमुख श्रोता थे। हमें तो उनके हिसाबसे सब लाभ मिला।


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समाधानः- गुरुदेवने तो अपूर्व वाणी बरसायी है। महापुरुष जन्म ले, उनके पीछे कितने ही होते हैं। गुरुदेवके पीछे। गुरुदेवको अनेक प्रकारके स्वप्न तीर्थंकरत्व सम्बन्धित आते थे। तीन लोकको गुरुदेव आह्वान करते हैं, यहाँ आओ, हितके लिये। तीन लोक। मात्र भरत क्षेत्रको ही नहीं, तीन लोकको आह्वान कौन करे? स्वयं तीन लोकसे उत्कृष्ट हो तो मारे न। स्वयं सर्वोत्कृष्ट तीर्थंकरका द्रव्य हो उसे ही ऐसा आये। तीन लोकको आह्वान करे कि हितके लिये यहाँ आओ। ऐसे स्वप्न गुरुदेवको तीर्थंकरत्व सम्बन्धित स्वप्न बहुत आते थे।

मुमुक्षुः- स्वाध्याय मन्दिरमें .. आप बैठे हो और समवसरणमें जा रहे हो, वह दृश्य तो इतने सुन्दर लगते हैं...

समाधानः- गुरुदेवके पास बहुत सुना है। भगवान विराजते हैं, मुनिओंका झुंड विचरता है, दिगंबर मुनिओंका। मार्ग चालू है, चतुर्थ काल वर्तता है। यहाँ पंचम कालमें मुनिओंके दर्शन तो दुर्लभ है। यह महाभाग्य, गुरुदेव पधारे वह महाभाग्यकी बात है।

मुमुक्षुः- सीमंधर भगवान उस वक्त क्या करते थे? कैसे थे?

समाधानः- क्या करते हो? समवसरणें बैठे हो। उनको करना तो कुछ नहीं है। कृतकृत्य हो गये हैं, वीतराग हो गये हैं। उन्हें कुछ करना नहीं होता। दिव्यध्वनिका काल हो उस वक्त दिव्यध्वनि छूटती है। बाकी वे तो आत्मामें विराजते हैं। उन्हें बाहरका कुछ नहीं है। शरीरमात्र है। बाकी आत्मामें विराजते हैं। उनके देहका दिदार भी अलग, सब अलग। कैसे लगते हैं? उसे क्या कहे?

मुमुक्षुः- महाविदेहके राजकुमार और वर्तमानके गुरुदेव, इन दोनोंके बाह्य आकारमें तो बहुत फर्क होता है न? राजकुमार है इसलिये झरीयुक्त वस्त्र पहने हो और वर्तमानमें गुरुदेव बाल ब्रह्मचारी, तो कैसे मालूम पडे?

समाधानः- वह जातिस्मरणका ही विषय है। मति निर्मलमें जातिस्मरणमें जाननेमें आता है। शास्त्रोंमें नहीं आता है? कि मैंने इसे इतने भव पहले देखा है। ऐसा शास्त्रोंमें आता है। शास्त्र विरूद्ध कुछ नहीं है।

मुमुक्षुः- आपने उस दिन कहा था न कि गुरुदेवका विहार हो तब ऐसा होता था कि इनको पहले देखा है।

समाधानः- हाँ। गुरुदेवको कहीं देखा है, ऐसा होता था। पहले मैं कहती थी, सूरतमें कहती थी, हिंमतभाईको कहती थी। गुरुदेवको कहीं देखा है। जातिस्मरण.. यह है, उनको मैंने (देखा है)। पूर्वमें थे, आहार देते हैं, सब आता है। जातिस्मणरके एसे बहुत दृष्टांत आते हैं।

मुमुक्षुः- स्वयंने जो देखा हो वह जातिस्मरणमें स्पष्ट दिखाई दे।


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समाधानः- स्पष्ट आता है। वह कुछ ज्यादा नहीं कहना है। समय हो गया है।

मुमुक्षुः- शुद्धात्माका आलंबन अभिप्रायमें होता है? ज्ञानमें रहता है कि ध्यानके कालमें होता है? आलम्बन लेना माने क्या?

समाधानः- गुरुदेवने मार्ग बताया है। ज्ञायकका आश्रय लेना। आलम्बन लेना अर्थात ज्ञायकको ग्रहण करना। अभिप्राय श्रद्धामें होता है, ज्ञानमें होता है और ध्यानके कालमें भी होता है। हर समय ज्ञायकका आश्रय होता है। ज्ञायक बिनाकी परिणति होती ही नहीं, ज्ञायकके आश्रय बिनाकी। ध्यानकाले उसे विशेष लीनता होती है, इसलिये विशेष लीनता होती है। अधिक आश्रय लेता है। बाकी आश्रय तो सबमें होता है। श्रद्धामें होता है, ज्ञानमें होता है और ध्यानकालमें भी होता है। कोई बार आलम्बन न हो तो उसे साधकदशा ही नहीं कहते। जिसमें ज्ञायक नहीं है, जिसमें ज्ञायकका आश्रय नहीं है, ज्ञायककी परिणति यदि मौजूद नहीं है, भले बाहरमें हो या अंतरमें हो, निर्विकल्प हो या सविकल्प हो, परन्तु यदि ज्ञायककी परिणति मौजूद नहीं है तो वह साधकदशा ही नहीं है।

उपयोग बाहर आये तो उसे एकत्व नहीं होता, भिन्न ही भिन्न रहता है, ज्ञायक ज्ञायक ही रहता है। श्रद्धामें, ज्ञानमें, सबमें उसे ज्ञायकका ही अवलम्बन होता है। मेरे दर्शनमें भी आत्मा, मेरे ज्ञानमें भी आत्मा, सबमें आता है। "मुझ ज्ञानमां आत्मा खरे, दर्शन, चरितमां आत्मा, पच्चखाणमां आत्मा, संवर योगमां पण आत्मा'। सबमें आत्माकी ही परिणति है, ज्ञायककी। मैं तो जहाँ देखुँ वहाँ ज्ञायकको ही देखता हूँ। ज्ञायकके सिवा मुझे कुछ दिखाई नहीं देता। जहाँ देखूँ वहाँ भगवान जिनेन्द्र देवको देखुँ, ऐसे जहाँ देखुँ वहाँ मैं ज्ञायकदेवको देखुँ। मेरी साधकदशामें ज्ञानकी आराधनामें, दर्शनकी आराधना और चारित्रकी आराधनामें, ध्यानकालमें मेरा ज्ञायक ही होता है।

ज्ञायकका अवलम्बन तो छूटता नहीं है। उसकी लीनता ध्यानके कालमें अधिक होती है। बाकी ज्ञायक.. ज्ञायक, उसकी ज्ञायककी परिणति तो सदा काल चालू ही रहती है। जो शुभका आचरण हो, पंच महाव्रतके परिणाम हो, मुनिओंको किसका शरण है? ज्ञायकका शरण है। वह स्वयं अपनेमें-ज्ञान ज्ञानमें आचरण करता हुआ उसमें परिणमन करे। ज्ञायक ज्ञायकमें परिणमन करता है। छठ्ठा हो इसलियेे पूरी दशा, स्वरूपकी संपूर्ण दशा नहीं है, परन्तु अभी अधुरापन है। उपयोग बाहर आये इसलिये नय, प्रमाणके विकल्प आते हैं। दृष्टि तो ज्ञायक पर है। इसलिये उसे शुद्धनय, विकल्प रहित शुद्ध परिणति है। प्रमाणकी अमुक परिणति है। ज्ञायक ज्ञायकरूप परिणमता है। लेकिन उपयोगरूप उसे नय, प्रमाणके विकल्प साथमें आये बिना रहते नहीं।


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श्रुतका विचार करे, नय, प्रमाण, वस्तुका स्वरूप, द्रव्य-गुण-पर्यायके विचार आये, अनेक प्रकारके उसे विचार आते हैं। साधकदशा अधुरी है, अभी पर्याय अधुरी है, अधुरी पर्याय, पूर्ण पर्याय सबके विचार आते हैं। छठ्ठा-सातवाँ गुणस्थान, मुनिकी दशा कैसी हो, केवलज्ञान कैसा हो, उन सबका विचार (आते हैं)। पर्याय अधूरी है, आचार्यदेव कहते हैं, अरे..रे..! अभी पूर्णता नहीं हुयी है, इसलिये हम इस व्यवहारमें खडे हैं। अभी यह पर्याय अधूरी है। खेद है कि उसमें आना पडता है। पर्याय अधूरी है, इसलिये नय, प्रमाणके विचार उसे आते हैं, आये बिना रहते नहीं। पूर्ण दशा नहीं हुयी है।

सुवर्ण सोलह वाल शुद्ध हो गया, उसे कोई जरूरत नहीं है। जो पूर्ण वीतराग हो गये, पर्यायमें पूर्ण वीतराग और वस्तु तो वीतरागस्वरू है। पूर्ण शुद्धात्मा है। परन्तु पर्यायमें भी जो पूर्ण वीतराग हो गये, उन्हें कुछ नहीं होता। परन्तु जिसे अधूरापन है, बीचमें साधकदशा है, अभी लीनता बाकी है, चारित्रदशा बाकी है, इसलिये मुनि हो तो भी, उन्हें भी नय, प्रमाणके विचार आते हैं। शास्त्र लिखे, अनेक जातके देव- गुरु-शास्त्रके विचार होते हैं। पंच महाव्रतके परिणाम होते हैैं। बीचमें नय, प्रमाण वस्तुको जाननेके लिये, नय-प्रमाण आये बिना रहते नहीं, विकल्परूपसे।

दृष्टिमें ज्ञायकको ग्रहण किया वह परिणति तो चालू ही है। मुनिको छठ्ठे गुणस्थान अनुसार चालू है और चौथे गुणस्थानमें उसकी दशा अनुसार उसे चालू है। मुनिकी लीनता ज्यादा है, इसकी अमुक लीनता कम है। परन्तु श्रद्धा और ज्ञान और अमुक स्वरूपाचरण चारित्र है। मुनिको विशेष है। मुनिकी दशा अनुसार, मुनिको भी श्रुतके विचार तो आते हैं।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!
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