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मुमुक्षुः- नय, निक्षेप और प्रमाण जो अस्त हो जाते हैं अनुभूतिके कालमें, अनुभूतिके कालमें नय, निक्षेप, प्रमाण अस्त हो जाते हैं, वह विकल्परूपसे अस्त हो जाते हैं, परन्तु निर्विकल्परूपसे तो तब होते हैं न?
समाधानः- निर्विकल्परूपसे उसे शुद्ध परिणति है। द्रव्य पर जो दृष्टि है वह दृष्टि निर्विकल्परूपसे है और ज्ञान स्वयंको जानता है, ज्ञान अपने अनन्त गुणोंको जानता है, ज्ञान पर्यायको भी जानता है। ज्ञान अपनी परिणतिको जानता है, ज्ञान गुणोंको जानता है। वह उसकी जाननेकी परिणति और दृष्टि एक शुद्धात्मा पर, उस जातकी उसकी परिणति चालू है। नय और प्रमाण चालू है।
मुमुक्षुः- निर्विकल्परूपसे?
समाधानः- निर्विकल्परूपसे निर्विकल्प नय, प्रमाण। वह अपेक्षासे कह सकते हैं। बाकी जो शास्त्रमें आता है विकल्पात्मक नय, प्रमाण, उस प्रकारसे नहीं होते हैं। आध्यात्मिक दृष्टिकोणसे उस जातकी परिणति है। एक द्रव्यका आलम्बन है, इसलिये विकल्पात्मक नहीं है। और ज्ञान सब जानता है। ज्ञान स्वयं एक स्वरूपको जाने, एक अभेदको जाने, ज्ञान भेदको जाने, सब जाने। आनन्दकी दशाका वेदन हो उसे ज्ञान जाने। आत्मामें अनन्त-अनन्त गुणोंकी गंभीरतासे भरा अनंत आश्चर्यकारी द्रव्य है, उसकी अदभुत पर्यायें, उसके अदभुत गुणोंकी जो गहनता है, वह सब जाने। उसकी अदभुतताको ज्ञान जानता है।
मुमुक्षुः- सत्संग बिना ध्यान तरंगरूप हो जाता है। तो ज्ञानीकी निश्रामें रहकर ध्यान करनेमें कोई दिक्कत है?
समाधानः- सत्संग बिना ध्यान तरंगरूप होता है। गुरुके आश्रयमें गुरुने जो मार्ग बताया है, वह मार्ग ग्रहण करके ध्यान करे तो उसमें कोई दिक्कत नहीं है। गुरुने जो मार्ग बताया है कि तू ज्ञायकको ग्रहण कर। पहले सच्चा ज्ञान कर, फिर सच्चा ध्यान होता है। सच्चा ज्ञान जो गुरुने बताया, गुरुदेवने महान उपकार किया है। भवका अभाव हो ऐसा मार्ग बताया। चैतन्यकी अदभुतता, चैतन्यके द्रव्य-गुण-पर्याय, स्वद्रव्य-परद्रव्य, उसकी भिन्नता, स्वतंत्रता, अनेक प्रकारसे गुरुदेवने महान-महान उपकार करके जो बताया
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है, गुरुका आशय समझकरे गुरुदेवने जो मार्ग बताया है, उस मार्ग पर स्वयं जाय तो उसमें दिक्कत नहीं है।
गुरुका आश्रय करे। गुरुका आश्रय किया कब कहनेमें आये? कि उनका आशय ग्रहण करके जो उन्होंने कहा है, उस अनुसार स्वयं करे तो पहले सच्चा ज्ञान होता है, फिर सच्चा ध्यान होता है। पहले जो बिना ज्ञानके ध्यान होता है, तो कहाँ खडा रहेगा? क्योंकि ध्यानकी एकाग्रता किसके आश्रयसे करेगा? जो अस्तित्व आत्माका है, उस आत्माका अस्तित्व ग्रहण किये बिना कहाँ स्थिर खडा रहेगा? कहाँ वह स्थिरता करेगा?
ऐसे तो बहुत लोग करते हैं। कोई-कोई मन्त्रोंमें विकल्प कम करे, ऐसा सब करते हैं। विकल्प कम हो जाय इसलिये उसे ऐसा लगता है कि मानो ध्यान हो गया। मन्द विकल्पको पकड नहीं सकता है। कोई प्रकाश दिखे, कुछ दिखे तो मानो आत्मा मिल गया, ऐसा मान लेते हैं। ऐसी कल्पना हो जाती है। आत्माको पहचाने बिना, आत्माका आश्रय लिये बिना (ध्यान होता नहीं)।
गुरुदेवने जो मार्ग कहा है, उस मार्गको ग्रहण करके गुरुदेवके आश्रयसे ध्यान करे, उसमें यथार्थ करे तो दिक्कत नहीं है। आशय ग्रहण करके (करे)। ध्यान होता है। सच्चा ज्ञान (पहले) होता है। मैं यह ज्ञायक ही हूँ, ऐसी श्रद्धा करे, उसका ज्ञान करे, भेदज्ञान करे कि यह शरीर मैं नहीं हूँ, यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है, यह सब शुभाशुभ भाव आकुलतारूप है, उससे मैं भिन्न हूँ। ऐसे बराबर ज्ञायकको ग्रहण करके उसमें एकाग्रता करे।
ध्यान अर्थात एकाग्रता। ऐसी एकाग्रता करे तो यथार्थ होता है। बाकी तो अनेक बार "यम नियम संयम आप कियो, पुनि त्याग विराग अथाग लियो'। मुनि हुआ, वनवासमें रहा, मुख मौन रहा, आसन-पद्मानस लगाकर ध्यान किया। तो भी मार्ग नहीं प्राप्त होता है। आत्माको ग्रहण किये बिना, ज्ञायकको ग्रहण किये बिना ध्यान नहीं हो सकता है। परन्तु गुरुका आश्रय यथार्थ करे तो वह मार्ग मिलता है। गुरुने जो कहा है, उसी अनुसार करे तो मार्ग प्राप्त हुए बिना रहता नहीं। तो सच्चा ध्यान होता है।
ध्यान होता है, मार्गमें एकाग्रता होती है। ज्ञायकको ग्रहण करे, श्रद्धाके बलपूर्वक आत्मामें एकाग्रता हो, ऐसी ध्यानकी दशा हो तो विकल्प टूटकर आत्माकी स्वानुभूति हो, वह मार्ग है। परन्तु आत्माको ग्रहण करके हो तो यथार्थ होता है। बाकी मुनिओंको तो ध्यानकी दशा होती है। सम्यग्दर्शन होनेके बाद सहज ध्यानकी दशा होती है। ऐसी ध्यानकी दशा होती है कि अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें निर्विकल्प दशामें चले जाते हैं। अंतर्मुहूर्तमें बाहर आते हैं। ऐसी सहज ध्यानकी दशा, ऐसी एकाग्रताकी परिणति मुनिओंको सहज
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होती है। ऐसी ध्यानकी दशा तो पूर्णता तक होती है।
फिर मुनिको ध्यान बहुत उग्र हो जाय तो उसमेंसे श्रेणि लगाकर केवलज्ञान प्राप्त करते हैं। ऐसी ध्यानकी दशा मुनिओंको प्रगट होती है। गृहस्थाश्रममें ध्यान होता है, परन्तु ज्ञायकको ग्रहण करके (होता है)। (ज्ञायकको) ग्रहण करके मैं ज्ञायक हूँ, ऐसी ज्ञायककी परिणति दृढ करके, उसका आश्रय लेकर उसका ध्यान करे तो उसमें निर्विकल्प स्वानुभूति (होती है)। स्वयं अपने स्वरूपमें लीन हो, वह हो सकता है। परन्तु गुरुदेवने जो कहा है, वह आशय ग्रहण करके, वह मार्ग ग्रहण करके जो करे तो यथार्थ होता है। नहीं तो बाहरसे शुभभावरूपसे जीवने अनेक बार किया है। परन्तु वह शुभभावरूप होता है, पुण्यबन्ध होता है, लेकिन भवका अभाव नहीं हो सकता। इसलिये गुरुका आशय, आशय ग्रहण करके करे तो यथार्थ होता है।
मुमुक्षुः- हे पूज्य माताजी! आजका दिन महामंगल है। क्योंकि आजके दिन आपने शुद्धात्मस्वरूप भगवान आत्माके साक्षात दर्शन किये, आप विकल्पातीत हुए, पवित्र सम्यग्दर्शन प्रगट किया, तो हमारी विनती है कि विकल्पातीत होनेका उपाय क्या है? यह बताकर आप हमें आशिर्वाद दीजिये।
समाधानः- गुरुदेवने मार्ग स्पष्ट किया है। गुरुदेवका परम-परम उपकार है। गुरुदेवने ही पूरा मार्ग बताया है। स्वयं विचार करे तो समझमें आये ऐसा है। गुरुदेवने इतना स्पष्ट किया है। गुरुदेवने ज्ञायककी पहचान करवायी। सब गुरुदेवका परम-परम उपकार (है)। इस दास पर भी गुरुदेवका परम उपकार है।
गुरुदेवने कहा है और शास्त्रमें भी आता है कि पहले श्रुतज्ञानसे ज्ञानस्वभाव आत्माका निर्णय, यह ज्ञायक है वही मैं हूँ, उसका निश्चय ऐसा दृढ करे कि इन सबसे भिन्न मैं ज्ञायक हूँ। यह शरीर भी मैं नहीं हूँ, यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है, उससे भिन्न ऐसा ज्ञानस्वभाव (है)। ज्ञानमें अर्थात पूर्ण ज्ञायक ऐसा निर्णय करके, ऐसा निश्चय करे कि वह ऐसा निःशंक हो जाय कि कोई चाहे कुछ भी कहे अथवा चौदह ब्रह्माण्ड फिर जाय, तो भी उसकी दृढता फिरे नहीं। ऐसा निःशंक हो जाय। ऐसा ज्ञातामें श्रद्धाका बल लाये। उस बलसे ज्ञायककी दृढता करके, ज्ञायकमें उग्रता करे, विभावसे विरक्ति हो, चैतन्यकी-ज्ञायककी महिमा आये, परसे, विभावसे सबसे महिमा छूट जाय। एक ज्ञायककी महिमा, ज्ञायककी रात और दिन लगनी, जिसे ज्ञायक.. ज्ञायक.. ज्ञायकदेवके सिवा कहीं चैन नहीं पडती।
भेदज्ञानकी धारा उग्र हो, क्षण-क्षणमें, क्षण-क्षणमें ज्ञायककी उग्रता हो। ज्ञायककी उग्रता, ज्ञायकमें एकाग्रता, ज्ञायककी धून और ज्ञायकमें बारंबार ज्ञायक.. ज्ञायक.. करे। जो मति-श्रुतका उपयोग बाहर जाता है, बाहर जो विचार और श्रुतके विचार आते
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हैं, उसे भी स्वयं स्थिर करके स्वरूप सन्मुख जो उपयोगको स्थिर करता है, स्वरूपमें लीन होता है, स्वरूपमें जम जाता है, बाहरमें जिसे कहीं भी चैन नहीं पडती, ज्ञायकमें एकाग्रता, ज्ञाताकी उग्रता और उसीमें स्थिर हो जाय। जो ज्ञायककी डोरको स्वरूपकी ओर, स्वरूप सन्मुख करके ज्ञायकमें स्थिर हो जाता है। बारंबार उपयोगकी डोर, ज्ञायककी डोर स्वरूपमें लीन करता है। वह विकल्पातीत होनेका उपाय है, दूसरा कोई उपाय नहीं है।
बारंबार स्वरूपमें स्थिर हो जाय तो उसके विकल्प छूटे और ज्ञायकदेव उसे प्रगट हो। उस ज्ञायकदेवमें ही सब भरा है। बाहर कहीं नहीं है। आनन्द उसमें, अनन्त गुण उसमें, सब (उसीमें है)। जगतसे भिन्न ऐसा ज्ञायकदेव, जो भवका अभाव हो, अंतरमेंसे अनन्त सुख प्रगट हो, जो अपना स्वभाव है वही सुखरूप है। शास्त्रमें आता है कि उतना ही सत्य परमार्थ है कि जितना यह ज्ञान है। जितना यह ज्ञान है उतना ही तू है। वही सत्य परमार्थ है, उसीमें तू संतुष्ट हो, उसीमें तू रुचि कर। ज्ञानमें सब भरा है। अनन्त महिमावंत ज्ञायक स्वभाव, महिमासे भरा, जगतसे भिन्न ऐसा अनुपम तत्त्व है। ज्ञानस्वभावमें ऐसा निश्चय करके उसमें संतुष्ट हो।
उतना ही सत्य कल्याण है कि जितना यह ज्ञान है। अन्यकी महिमा छोडकर ज्ञायकमें लीन हो। उतना ही सत्य परमार्थ, उतना ही कल्याण (है)। उसीमें तू संतुष्ट हो। तेरे अंतरमें उपयोगको ऐसा लीन कर, ऐसा लीन कर कि जिसे बाहर जाना रुचता नहीं। ऐसी लीनता कर। वही विकल्प छूटनेका उपाय है। ऐसा करते-करते अंतरमें ऐसी कोई लगनी लगनेसे, अंतरमें ऐसी विश्रांतिकी परिणति होनेसे ज्ञायककी डोर स्वरूप सन्मुख आनेसे ऐसी विश्रांति और ऐसी शांति उसे प्रगट होती है कि विकल्प छूट जाय और ज्ञायकका कोई अनुपम अनुभव, अनुपम आनन्द, अनुपम स्वाद (आता है)।
ज्ञायकदेव जगतसे भिन्न, ऐसा न्यारा वह ज्ञायकदेव उसे इस प्रकार प्रगट होता है। गुरुदेवने वह मार्ग ऐसा स्पष्ट करके समझाया है, कहीं शंका रहे ऐसा नहीं है। पुरुषार्थ तो स्वयंको ही करना है। गुरुदेवने उसे चारों ओरसे समझाया है। गुरुदेवका परम-परम उपकार है और वही जीवनमें करने जैसा है।
श्रुतज्ञानसे निश्चय करके मति-श्रुतका उपयोग जो बाहर जाता है, उसे अंतरमें लाकर आत्माकी प्रसिद्धि हो, ऐसा पुरुषार्थ कर। तो ज्ञानस्वरूप ज्ञानात्मा, परमात्मा तुझे प्रत्यक्ष अनुभवमें आयेगा और वह तुझे दिखेगा। ऐसा जो आत्मा अलौकिक है, परन्तु उसकी भेदज्ञानकी धाराकी उग्रता कर। द्रव्य पर दृष्टि कर, उसका ज्ञान कर और उस ओर बारंबार स्थिर होनेका प्रयत्न कर तो तुझे वह हुए बिना रहेगा नहीं।
शास्त्रमें आता है कि एक बार तू (शरीरका) पडोसी बनकर देख, तो तुझे अंतरमें
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ऐसा कोई अपूर्व चैतन्यदेव प्रगट होगा कि जो अनुपम है। वही उसका उपाय है। भगवान कैसे मिले? चैतन्यदेव कैसे प्राप्त हो? "कंचन वरणो नाह मुने कोई मिलावो' कहीं अच्छा नहीं लगता। "अंजन रेख न आँख न भावे' कहीं अच्छा नहीं लगता है, किसीके साथ बोलना अच्छा नहीं लगता, खाना अच्छा नहीं लगता, किसीके प्रति राग करना रुचता नहीं, कहीं फिरना अच्छा नहीं लगता, कहीं चैन नहीं पडती है। एक आत्मा, एक आत्मदेव मुझे कोई मिलावो। हे गुरुदेव! मुझे वह मिलावो। वह तो कोई अलग ही था। अन्दर ऐसी भावना, लगनी लगे तो ऐसी भावना होती है। अन्दर वेदनके कारण ऐसा सब गानेमें आता था।
समाधानः- द्रव्य उसकी नाम है कि दूसरे भावकी राह नहीं देखनी पडे। दूसरेकी राह देखनी पडे तो द्रव्य कैसा? द्रव्य ऐसा स्वतंत्र स्वतः स्वरूप होता है कि जिसके कार्यके लिये दूसरे साधनोंकी राह देखनी पडे तो वह द्रव्य स्वयं कमजोर हुआ। वह स्वयं स्वतंत्र अनन्त शक्तिवाला द्रव्य (है)। द्रव्य उसे कहते हैं कि जो स्वतःसिद्ध हो। उसे किसीने बनाया नहीं है। अनन्त शक्ति संपन्न जो चैतन्य द्रव्य है, उसे कार्यकी, जो अपनी परिणति प्रगट करनी है, उसके लिये साधन आये तब यह कार्य हो, साधन नहीं है तो कार्य कैसे हो? ऐसे राह देखनी पडे तो द्रव्य ही नहीं कहलाता। ऐसी राह नहीं देखनी पडती।
उसके कार्यकी तैयारी हो तो उसे साधन स्वतः आ जाते हैं। उसे साधनोंकी राह देखनी पडे, साधन नहीं है, अब कैसा आगे जाऊँ? साधनोंकी राह देखनी नहीं पडती। स्वयं परिणति करनेवाला जो द्रव्य है, स्वयं ही उसकी कार्यकी परिणति होती है। अनादिअनन्त स्वतःसिद्ध शुद्धात्मा स्वयं (है)। उसमें दर्शन, ज्ञान, चारित्रकी जो साधना होती है, उसकी कार्यकी परिणति करनेवाला वह स्वयं है। स्वयं स्वतःसिद्ध कार्यकी परिणति करता है। साधनके बिना मैं कैसे आगे जाऊँ? उसे द्रव्य ही नहीं कहते। ऐसा द्रव्य वह द्रव्य नहीं है। ऐसा पराधीन द्रव्य (नहीं है)।
द्रव्य उसे कहें कि उसके कार्यके लिये दूसरेकी राह देखनी पडे, वह द्रव्य ही नहीं कहलाता। ऐसा द्रव्य हो नहीं सकता। कुदरती स्वयं द्रव्य स्वतःसिद्ध है। उसे दूसरे साधन हो तो वह द्रव्य खडा रहे, ऐसा नहीं होता। अनादिसे स्वयं अपनेसे ही शाश्वत टिका है और उसकी कार्यकी परिणतिमें स्वयं अनादिसे स्वतंत्र (है), प्रत्येक कार्यमें स्वतंत्र है। उसे साधनोंकी राह देखनी पडे तो उसे द्रव्य ही नहीं कहते।
अन्दरसे सम्यग्दर्शन प्रगट हो, द्रव्यका आश्रय ले, उस रूप ज्ञानकी परिणति हो, अन्दर लीनता बढे, वह सब स्वयं परिणमन करनेवाला है। अपनी परिणतिकी गति, पुरुषार्थकी गति वह स्वयं करता है। उसमें उसकी परिणति हो, ऐसी परिणति हो और साधन
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आये नहीं, ऐसे उसकी राह नहीं देखनी पडती। वह द्रव्य ही नहीं कहलाता। ऐसा पराधीन द्रव्य हो सकता नहीं। वह द्रव्य ही नहीं कहलाता। कुदरतमें ऐसा द्रव्य होता ही नहीं। पराधीन द्रव्य (नहीं होता)। उसकी कार्यकी परिणति हो तो अपनेआप साधन आ जाते हैं, उसे राह नहीं देखनी पडती। स्वयं अपनेमें परिणति करनेवाला है।
.. पूरा चक्र अपनेसे ही चल रहा है। कर्मके कारण होता नहीं अथवा साधन नहीं मिले हैं, ऐसा नहीं है। स्वयंकी कचासके कारण स्वयं अटका है। स्वयं पुरुषार्थ करे तो स्वयं आगे बढता है। उसके कार्यके लिये किसी भी साधनकी जरूरत पडती नहीं। साधनके लिये रुकना पडे तो वह द्रव्य ही नहीं है। और ऐसा पराधीन द्रव्य हो ही नहीं सकता।
मुमुक्षुः- द्रव्य कमजोर हो गया।
समाधानः- द्रव्य कमजोर हो गया। ऐसा कमजोर द्रव्य होता ही नहीं। ऐसा दूसरेके आधारसे टिकनेवाला द्रव्य, ऐसा द्रव्य शाश्वत रह नहीं सकता, उस द्रव्यका नाश होता है। (अनन्त गुणोंसे) भरपूर द्रव्य स्वयं जब भी परिणति करनी हो तब कर सकता है। अपने स्वभावकी ओर जानेकी तैयारी हो, तो आपोआप सब निमित्त उसे प्राप्त हो जाते हैं।
मुमुक्षुः- .. कमजोर पड जाय, .. समाधानः- द्रव्य कमजोर पड गया। ऐसा कमजोर द्रव्य होता ही नहीं। एक साधनके लिये कमजोर पड गया। साधनके लिये कमजोर होता हो तो कमजोर ही रहेगा। वह कहाँ शक्तिवान हुआ? ऐसा द्रव्य ही नहीं होता, उसे द्रव्य ही नहीं कहते। ऐसा हो सकता नहीं।