Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 61.

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ट्रेक-०६१ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- .. यथार्थ ज्ञान तो उसके साथ होता ही है। परन्तु इसके अतिरिक्त यह हितरूप और अहितरूप, अर्थात सुख और दुःख, आश्रयकी अपेक्षासे जो हितरूप है वह मैं हूँ, जो हितरूप नहीं है वह सब मुझसे भिन्न है। अर्थात उत्पाद-व्यय भी इस अपेक्षासे .. क्योंकि उसका आश्रय करने जाय तो वहाँ भी उसे विकल्प उत्पन्न होता है, दुःख उत्पन्न होता है। ज्ञायकका आश्रय करे तो उसे जो प्रयोजन प्राप्त करना है, सुख और शांति प्राप्त होते हैं। इस प्रकार जो श्रद्धामें बल आता है, ज्ञानमें तो..

समाधानः- विचार करनेमें तो कोई दिक्कत नहीं है। एक द्रव्यका ही आश्रय लिया, एक द्रव्य ही आश्रयभूत है। पर्याय तो आश्रयभूत नहीं है। परन्तु उसे ज्ञानमें भले ख्यालमें है कि द्रव्य और पर्याय दोनों द्रव्यका ही रूप है। द्रव्य ही है। परन्तु जो शाश्वत टिकनेवाला है वह आश्रयरूप है। और वह हितरूप इस प्रकार है कि उसका आश्रय लेनेसे पर्यायमें निर्मलता आती है। परन्तु जो उत्पाद होता है, वह सर्वथा अहितरूप नहीं है। उसे ज्ञानमें उतना ख्याल होना चाहिये कि वह सर्वथा अहितरूप नहीं है। उत्पाद तो निर्मल पर्यायका भी होता है। और वह निर्मल पर्याय सुखरूप भी है। क्योंकि जो प्रगट होती है वह सुखका कारण होती है। आनन्दका वेदन पर्यायमें आता है। इसलिये वह सुखका कारण है। अर्थात सर्वथा अहितरूप नहीं है। अमुक अपेक्षासे है।

मुमुक्षुः- आश्रयकी अपेक्षासे अथवा उसका लक्ष्य करनेसे विकल्प उत्पन्न होता है, ऐसी समझनपूर्वक अहितरूप है।

समाधानः- लक्ष्य करना या उसका आश्रय करना वह हितरूप नहीं है, परन्तु द्रव्यका आश्रय करना वही कल्याणका कारण है। वही आश्रयरूप है। उसके आश्रयसे ही सब प्रगट होता है। उसमें कोई भी भाषा (आये), हित-अहित, लेकिन उसे ख्याल रहे कि यह पर्याय, निर्मल पर्याय चैतन्यमें प्रगट होती है। इतना उसे ख्याल होना चाहिये।

भेदज्ञान करे कि यह विभावपर्याय मैं नहीं हूँ, वह तो मेरा स्वभाव ही नहीं है। और उस भेदज्ञानका जो जोर है कि यह द्रव्य और यह विभावपर्याय, इन दोनोंका स्वभावभेद (है)। उसका जो बल है वह बल तो एकदम (होता है)। फिर यह निर्मल पर्याय (होती है), वह कोई अपेक्षासे, मैं शाश्वत हूँ उसका भेदज्ञान, उससे जो भिन्न


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पडे उसके जोरमें और विभावसे भिन्न पडे उसके जोरमें, उस जोरमें उसे ख्याल होता है, उस जोरमें उसे फर्क पडता है। पहलेवाला जोर तो अत्यंत भिन्न हूँ, ऐसा जोर आता है। और निर्मल पर्यायमें अत्यंत भिन्न हूँ, ऐसा नहीं आता है। परन्तु अपेक्षासे अंश है और मैं यह त्रिकाली हूँ। ऐसे होता है। उसमें हित-अहित जो भी हो... परन्तु आश्रय चैतन्यका है। यह आश्रय लेने योग्य नहीं है। आश्रय हितका कारण नहीं है।

मुमुक्षुः- माताजी! इतनी भिन्नता पहले जब तक नहीं आती है, तब तक ऐसा लगता है कि कुछ न कुछ पर्यायकी अपेक्षा रह जाती है।

समाधानः- ख्यालमें सब है। ख्यालमें होता है इसलिये उसके जोरमें अमुक है। परन्तु द्रव्य पर दृष्टिमें जोर (रहता है कि), यह मैं, यह चैतन्यद्रव्य वही मैं हूँ, उसमें सब पर्यायें स्वयं समा जाती है। दृष्टिका जोर एक द्रव्य पर ही रहता है। पर्याय पर अनादिका है इसलिये पर्यायकी भांजगड करता रहता है। यह परिणाम, यह परिणाम... ऐसे।

गुरुदेव ऐसा ही कहते थे कि द्रव्य पर दृष्टि करे। इसलिये उसका बल धारावाही रहे। परिणामकी भांजगडमें खडा नहीं रहे। मैं एक ज्ञायक ही हूँ। फिर उसे ऐसा आये कि यह मेरा स्वरूप नहीं है। यह मेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है। ऐसा साथ-साथ होता है। द्रव्यके जोरके साथ-साथ ज्ञान काम करता रहता है।

मुमुक्षुः- आपकी कृपासे मैं हृदयसे कहता हूँ, श्रद्धाके साथ ज्ञान साथ-साथ रहता है, यह जो आपने बिठाया है, वह तो ऐसा बैठ गया है कि श्रद्धाकी जो भी बात चलती हो, फिर भी ज्ञानका विषय और ज्ञानका कार्य, दोनों ..

समाधानः- .. एक द्रव्य पर दृष्टि करे तो सब गुत्थी सुलझ जाती है। मैं यह एक शाश्वत द्रव्य हूँ। उसका जोर आवे तो वह सब गुत्थी गौण हो जाती है। एकको लक्ष्यमें लेनेसे सब भ्रमजाल छूट जाती है।

.. उसमें कोई नुकसानका कारण नहीं है। दृष्टि अनादिसे नहीं की है। द्रव्यदृष्टिके बल बिना आगे नहीं बढ सकता। इसलिये गुरुदेव एकदम द्रव्यदृष्टिके जोरसे, उसकी पूरी दृष्टि पलट जाय ऐसे जोरसे उपदेशमें कहते थे और वस्तु स्वरूप द्रव्यदृष्टिके जोरमें ही आगे बढता है। इसलिये द्रव्यदृष्टिके जोरके साथ ज्ञानमें यह ख्याल होना चाहिये। कितनोंको एकान्त हो जाता है, इसलिये नुकसानका कारण होता है। द्रव्यदृष्टि जोर तो मुख्य है, परन्तु उसके साथ यह होना चाहिये। वह तो मुख्य है, द्रव्यदृष्टिका जोर।

.. सब मुंबईका था। ऊपरमें। सब दरवाजे पर ऊपरके भागमें उस प्रकारसे सजावट की थी। पहले हुआ नहीं था, सब पहली बार था इसलिये...

मुमुक्षुः- ..


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समाधानः- हाँ। उदघाटन किया था।

मुमुक्षुः- उन्होंने तीन हजार दिये थे। स्वाध्याय मन्दिरके कम्पाउन्डमें। तीन हजार तो उन्होंने लिखाया था। तीन हजार तो उन दिनोंमें तीन लाखसे भी ज्यादा लगते थे। इसलिये उनके हाथोंसे उदघाटन करवाया था। ..

समाधानः- पूर्व दिशामें। पूर्व दिशाका जो दरवाजा था न...

मुमुक्षुः-

समाधानः- शीतलप्रसादजी।

मुमुक्षुः- हीराभाईके बंगलेसे गुरुदेव पधारे तो घूमघामसे पधारे थे।

समाधानः- हाँ, धूमधामसे पधारे थे।

मुमुक्षुः- लाठीना उतारेसे वहाँसे चांदीके थालमें पुस्तक लेकर (आये थे)।

मुमुक्षुः- हमें तो कुछ मालूम ही नहीं है।

समाधानः- उस वक्तका तो याद ही होता है न। पहली बार था। सब पहलेसे स्वाध्याय मन्दिरमें जाकर गीत गाते थे। सब भक्ति करते थे। थोडी बहनें (जाती थी)।

मुमुक्षुः- उस वक्त तो आपकी उम्र भी छोटी थी।

समाधानः- २४ वर्ष। हिंमतभाई और दूसरे सब वहाँसे "धर्मध्वज फरके छे मोरे मंदिरिये...' वह सब गाते-गाते आते थे।

मुमुक्षुः- संख्या कितनी होगी?

समाधानः- उस वक्त यहाँ तो संख्या कम थी। परन्तु बाहरगाँवसे सब मुमुक्षु आये थे। बाहरगाँवके आये थे। लगभग स्वाध्याय मन्दिर पूरा भर गया था। कम नहीं थी।

मुमुक्षुः- गर्दी हो गयी थी।

समाधानः- हाँ, गर्दी हो गयी थी। खिडकी पर और दूसरी जगह खडे थे।

मुमुक्षुः- शीतलप्रसादजी... समयसार विराजमान किया। उस वक्त गर्दी थी।

समाधानः- हाँ, गर्दी थी। खिडकीमें सब लोग खडे थे। शीतलप्रसादजी उस दिन कुदरती यहाँ आये थे, यहाँ थे ही। फिर कोई मन्त्र बोले थे। कुछ भी बोले होंगे।

मुमुक्षुः- उन दिनोंमें कहाँ..

समाधानः- गुरुदेव उदघाटन करते हैं, वह फोटो नहीं आया है। वह नहीं है। खोलते हैं, वह सब नहीं है। संप्रदाय गुरुदेवने छोडा था, नहीं तो गुरुदेव प्रतिष्ठा करते। लेकिन गुरुदेव अभी उन सबमें नहीं थे, इसलिये गुरुदेवने ऐसा कहा।

मुमुक्षुः- आज ही गुरुदेव भगवतीस्वरूप बोले थे। स्वाध्याय मन्दिरमें.. उत्साहका पार नहीं था। ...

समाधानः- स्वाध्याय मन्दिरमें गुरुेदव पधारे, प्रभावना बहुत होनेवाली थी इसलिये


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वह शोभी भी अलग थी। गुरुदेव, ऐसे मंगलकारी मंगलमूर्ति गुरुदेव पधारे इसलिये प्रभावना बहुत जोरदार होनेवाली थी, इसलिये उस वक्त सबको उत्साह भी बहुत था और वह शोभा इतनी लगती थी। सबको हर्षका पार नहीं था। ऐसा लगता था।

मुमुक्षुः- पूरे गाँवमें..

समाधानः- उतना हर्ष..

मुमुक्षुः- मैं .. ओफिसमें आया, मैंने आकर देखा तो यह क्या है? ... इसलिये पूछा कि यह क्या है? ऐसा तो कुछ था नहीं। उसने कहा, एक साधु आये हैं। मैंने कहा, साधु आये हो उसमें ऐसा कहाँसे? इसलिये मैं देखने आया। गुरुदेव आहारके बाद चक्कर लगाते थे। गुरुदेवको देखा.. ???

समाधानः- ऐसा लगता था कि मानो तैरता हुआ जहाज हो। बहुत लोग ऐसा कहते थे। ऐसा कहते थे। उस दिन तो भक्तिमें पहलेसे आदत ऐसी कि धजा लेकर घुमे तो भी सबको उत्साह आता था। धजा ले-लेकर फिरते थे। वहाँ जाकर ताली बजाये, भक्ति करे। इतना उत्साह आता था कि मानो अपने कितना करते हैं।

मुमुक्षुः- प्रतिष्ठासे पहले आठ-दस दिनसे..

समाधानः- मंगल.. मंगल..। गुरुदेव प्रतापी पुरुष। चारों ओर प्रभावना होनेवाली थी इसलिये मानो इतना मंगलकारी और बहुत लगता था, सबको बहुत भावना थी। इतना उत्साह था। मंगलमूर्ति गुरुदेव उसमें पधारे इसलिये शोभा भी उतनी। यहाँ रहनेवाले लोग कम थे, परन्तु बाहरसे जो मुमुक्षु थे वह सब आये थे। स्वाध्यायका बहुत था, इसलिये गुरुदेवने स्वाध्याय मन्दिर कहा। स्वाध्याय मन्दिर (नाम) रखिये।

मुमुक्षुः- पोपटभाईने..

समाधानः- लेकिन गुरुदेवको स्वयंको था।

मुमुक्षुः- गुरुदेवको स्वाध्यायका तो बहुत था।

समाधानः- बहुत था। प्रतिष्ठाका गुरुदेवने नक्की किया था। समयसार आदिका गुरुदेवने नक्की किया था। यहाँ समयसारकी प्रतिष्ठा करनी। यहाँ हमने आकर उत्थान नहीं किया है। गुरुदेवको शास्त्रका बहुत था न, इसलिये।

मुमुक्षुः- स्थापना करनेका गुरुदेवने आपको ही कहा हो, इसीलिये... नहीं तो..

मुमुक्षुः- आजके दिन जो भी प्रभावना हुयी है उसका .. यहाँ स्वाध्याय मन्दिरमें है।

समाधानः- हाँ, स्वाध्याय मन्दिर है। .. वह बात पूरी अलग थी। अभी सबको... गीत भी ऐसे गाते थे, "सुरेन्द्र आवो गगनना, स्वाध्याय मन्दिरे उतरो, आवो गवैया स्वर्गना, सुवर्णना मेदानमां...' ऐसा सब गाते थे। गगनमेंसे उतरेंगे। सबको ऐसी भावना होती थी। "सुरेन्द्रो आवो गगनना, स्वाध्याय मन्दिरे, कुन्द कुन्दना जय नाद बोलो और


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गुरुदेवना जय नाद बोलो। संगीत स्वर्गमांथी लावजो ने अहीं गाजो.. आवजो ग्रंथाधिपति... गुरुदेवना गुणगानमां आवजो..' गुरुदेवके पधारनेसे पहले वहाँ स्वाध्याय मन्दिरमें जा-जाकर गाते थे।

मुमुक्षुः- माताजी! आपको भक्तिमें तो पहलेसे.. छोटी उम्र थी इसलिये कितना उत्साह होगा और कैसा गवाते होंगे।

समाधानः- सभी बहनें गाती थी।

मुमुक्षुः- पुस्तक भी देखिये न छोटी छपवायी थी।

समाधानः- मन्दिर हुआ न, उसके बाद भक्तिका प्रोग्राम हुआ। रोज भक्ति करवाकर, सब गाये। उसके पहले भक्तिका प्रोग्राम (नहीं था)। मैं गाऊँ और सब गाये, ऐसा प्रोग्राम नहीं था। भाव आये और गाने लगे। कितनी बहने साथमें गाती थी। भगवान पधारे उसके बाद भक्तिका प्रोग्राम हुआ। व्याख्यान सुनने जाते। उसके बाद निवृत्ति। समय हो तब शास्त्र पढती थी, ध्यान करती थी। वह प्रोग्राम। मन्दिर नहीं था, इसलिये दर्शन आदि कुछ नहीं था। इसलिये गुरुदेवका दो वक्तका प्रवचन सुनकर, बादमें ध्यान और ज्ञानमें। बस। उसमें रहना था। वांचन और ध्यान। बहनोंके बीच वांचन करती थी। दूसरे कोई प्रोग्राम नहीं थे।

मुमुक्षुः- वांचन उस समयसे शुरू हो गया था?

समाधानः- बहनोंमे। लेकिन बहने कितनी थी, थोडी बहने थी। वहाँ एक कमरा है उसमें आ जाते थे। लाठीना उतारामें थोडे घर थे और थोडे आगे-पीछे थे। समिति और बाकी सब उसके बाद हुआ। इस ओरके सब घर बादमें हुए। एक लाठीनो उतारो, वडानो उतारो, दोनों जगह थे। कोई-कोई गाँवमें हो। दूसरा कोई नहीं था।

मुमुक्षुः- उसके बाद फिर सीधे स्वाध्याय मन्दिरमें आये।

समाधानः- वहाँसे सीधे स्वाध्याय मन्दिर। बीचमें पूरा जंगल था। सब खेत थे। पूरा जंगल और एक स्वाध्याय मंदिर। उसके पीछे सेनिटोरियम था।

मुमुक्षुः- एकदम अंधेरा.. समाधानः- लालटेन थे। लालटेनमें पढना, करना आदि। लालटेन थे। मुमुक्षुः- वडाना उतारामें... समाधानः- हाँ, वडाना उतारामें रसोईघर था। गुरुदेवका फोटो रखते थे और घरपर भक्तिका प्रोग्राम शुरु किया था। ऐसा किया था। ऐसे किया था। स्वाध्याय मन्दिरके समय वहाँ फोटो, समयसारकी स्थापना। वहाँ जाकर भक्ति करते थे। ऐसे करते थे।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!