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समाधानः- ... रुचि यानी गुरुदेवके प्रवचन सुनने जाते थे। उन्होंने अपने आप ही नक्की किया कि यह कोई अलग पुरुष हैं। हिम्मतभाईको उन्होंने बादमें लिखा। मैं तो छोटी थी, इसलिये मुझे तो उसके बाद मिले, गुरुदेवके दर्शन हुए। सर्व प्रथम उन्होंने नक्की किया। बौद्धिक स्तर माताजी! बहुत ऊँचा। किसीको पहचाननेकी शक्ति पहलेसे थी। पोषा आदि करे ऐसा स्थानकवासीमें होता है। ऐसे कोई दिन हो तो वैसा करते थे। बिछानेका होता है न?
... सत्य यह है। अनन्त कालसे सम्यग्दर्शन नहीं हुआ है और यह व्रतादि, साधुपना लिया.... गुरुदेव कहते थे उसमेंसे ग्रहण (करते थे)। हिम्मतभाईको लंबा-लंबा पत्र लिखा था।
मुमुक्षुः- बार-बार पत्र लिखते थे।
समाधानः- .. वही करना है, दूसरा क्या है? ऐसा बोलते थे। वही सत्य है न।
मुमुक्षुः- बोलते कम थे, लेकिन विचारशक्ति बहुत थी।
समाधानः- सौ प्रतिशत कैसे कहुँ? अन्दर करता हूँ। (दूसरा) क्या करना है? ऐसा बोलते थे।
मुमुक्षुः- ऐसे ललकारके बोलते थे।
समाधानः- बहुत आनन्द आया, ऐसा बोले। गुरुदेवने न्याल कर दिया। इस ओर घुमने जाना या उस ओर जाना, ऐसे...
हर जगह देखकर आते थे, कहाँ कैसा मानस्तंभ है, सब देख आते। सब कैसे हैं? अजमेरमें देखा, यहाँ देखा,...
गुरुदेवने कहा कि, मिट्टी आदिका कर लो, ऐसा कहते थे। फिर ऐसा किया। फिर भी सब देखकर करते थे। रंगबेरंगी कितना सुन्दर लगता है।
मुमुक्षुः- समवसरण स्तुति ... आदिपुराणमें आता है।
समाधानः- वीरसेनस्वामीने ऐसा कहा है, इन्होंने ऐसा कहा है, फलानी जगह ऐसा आता है। बहुत ध्यान रखकर पढते थे।
... गुरुदेव तो लोकोत्तर पुरुष थे। अभी कहते थे। उन्होंने तो कितना किया है!
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वे तो लोकोत्तर पुरुष थे। आत्मा एक शाश्वत (है), सब पर्यायें पलटती है। ऐसे तो कितने भव जीवने किये हैं, अनन्त। उसमें इस भवमें गुरुदेव मिले वह महाभाग्यकी बात है।
मुमुक्षुः- इतने प्रसंग प्रत्यक्ष देखते हैं, फिर भी इस जीवको वैराग्य कहाँ आता है। अभी दो दिन पहले तो हम लोगोंके साथ बातें करते थे। और आज कहाँ पहुँच गये।
समाधानः- ऐसे फेरफार कैसे होते हैं। अभी इस पूर्णिमा तक तो हमारे घर आये थे। आठ-नौ दिन पहले। फोडे हुए थे, परन्तु कमजोरी होने पर भी आते थे।
मुमुक्षुः- कहते थे, मुझे कहीं चैन नहीं पडती है। वहाँ जाता हूँ तो ताजगी आ गयी। माताजीके पास...
समाधानः- .. वह करना है। कितने बरसों तक यहाँ वाणी बरसायी। वह आता है न? गुरुदेवने जो उपदेश दिया है उसके आगे कोई विशेष नहीं है। तीन लोकका राज भी नहीं, वह भी तुच्छ है। इन्द्रकी पदवी भी विशेष नहीं है। इस पृथ्वीका राज या तीन लोकका राज, पद्मनंदीमें आता है, आलोचना पाठमें आता है। गुरुदेवने जो उपदेश दिया है और अन्दर जो जमाया है, उसके आगे सब (तुच्छ है)। वही ग्रहण करना है।
इस पंचमकालमें ऐसा मिले कहाँसे? गुरुदेवका यहाँ अवतार हो.. तीर्थंकर द्रव्यका यहाँ अवतार हो, और सब मुमुक्षुओंके बीच वाणी बरसाये, बीचमें ऐसा काल आ गया, इस पंचमकालके अन्दर कि उनका सान्निध्य बरसों तक मिला।
मुमुक्षुः- .. उसके जैसा हो गया।
समाधानः- हाँ, ऐसा हो गया।
मुमुक्षुः- बहुत पुण्य हो तब..
समाधानः- तब ऐसा योग बनता है। आचार्य तो पहले बहुत हो गये हैं। परन्तु उनका योग मिलना बहुत (मुश्किल है)। ये तो साक्षात मुमुक्षुओंके बीच रहकर वाणी बरसायी, निरंतर वाणी बरसती थी। वह जो मिला और जो उनका सान्निध्य मिला एवं वाणी मिली, उससे पूरा जीवन सफल होता है। फिर जो कह गये हैं, देव-गुरु-शास्त्रकी प्रभावना, वह उनके प्रतापसे सब होता रहता है। महापुरुष थे इसलिये उनके प्रतापसे, उनके पीछे सब भक्तों... उनके प्रतापसे ही सब देव-गुरु-शास्त्रकी प्रभावना होनेवाली है और होती रहती है।
... गुरुदेव और सोनगढ इतना करीब, यह तीर्थक्षेत्र जैसा बन गया है। बहुत तीर्थक्षेत्र होते हैं वह जंगलमें होता है। वहाँ जाना सबको मुश्किल पडे ऐसा होता है। उसके
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बजाय, ऐसा... सोनगढ आना सबको आसान हो जाये, ऐसा यह बहुत जंगल भी नहीं है और ... शांतिवाला... बीचमें आ गया है। कयी तीर्थक्षेत्र जंगलमें होते हैं, वहाँ महामुश्किलसे पहुँच सकते हैं। यहाँ तो सीधा आ सकते हैं। यह सब बादमें हुआ, गुरुदेवके प्रतापसे। एक हीराभाईकी दुकान थी। खुशाल अतिथी गृह आदि सब बादमें हुआ। गुरुदेवके प्रतापसे कितना बढता गया। यहाँ तो जंगल लगता था। स्वाध्याय मन्दिर कितना दूर लगता था। कहाँ जंगलमें, वहाँसे यहाँ आना। वहाँसे आये तो रातको वहाँ मन्दिरमें बैठना हो तो बैठ नहीं सकते थे। आरती ऊतारकर तुरन्त जाना पडे। बीचमें सब खाली जगह थी।
मुमुक्षुः- माताजी! गुरुदेवका विरह तो सचमुच आपके प्रतापसे हमें अभी दिखता नहीं, ऐसा लगता है।
समाधानः- गुरुदेव तो गुरुदेव ही थे। स्वाध्याय मन्दिरमें बिना माईकके कितनी दूर तक सुनाई देता था, ऐसी तो उनकी वाणी थी। प्राणभाईके मकानमें हम वहाँ रहते थे, वहाँ सुनाई देता था। है, नहीं आदि बीचवाले कुछ शब्द वहाँ तक सुनाई देते थे। इस रास्ते पर गाडियाँ चलनेवाली है, ऐसा किसी-किसीको स्वप्न आता था। यह रास्ता जंगल जैसा लगता है, वहाँ सब गाडियाँ चलनेवाली है, यहाँ ऐसा होनेवाला है, ऐसे स्वप्न आते थे।
मुमुक्षुः- स्वप्न सच हुआ।
समाधानः- सब मन्दिरोंके कारण एक तीर्थक्षेत्र जैसा हो गया है। एक जन बाहरसे शीखर देखकर, यहाँ यह है, यहाँ यह है, शीखर दिखायी देता है, यहाँ मन्दिर होना चाहिये। इस तरह कोई आया था। कोई कहता था, शिखर देखकर आते हैं।
मुमुक्षुः- ... तो कर्ताबुद्धि हो जाती है, नहीं करते हैं तो पर्यायमें इष्टपना कैसे मिटाना? पर्यायका इष्टपना करते हैं तो त्रिकाली दृष्टिकी बात जो कही, तो दृष्टि तो ... अनन्त भवमें कुछ किया नहीं, ऐसा लगता है।
समाधानः- दृष्टिको लक्ष्यमें रखनी। ज्ञायकको ग्रहण करना। उसके साथ-साथ सब होता है। एक करे और एक छूट जाये ऐसा नहीं होता। साधनामें ऐसा होता है। एक दृष्टिको लक्ष्यमें रखा तो फिर साधन छूट जाता है और साधनको लक्ष्यमें रखे तो दृष्टि छूट जाती है, ऐसा नहीं है। एकान्त ग्रहण करे तो छूट जाये, बाकी छूट जाये ऐसा नहीं है। इस प्रकार ज्ञायकको ग्रहण करके ज्ञानमें उसे होता है कि यह पर्याय है, पर्याय साधनामें होती है। साधनामें सब साधन अन्दर पुरुषार्थ आदि होता है। छूट नहीं जाता। उसकी सन्धि है।
एक ज्ञायकको ग्रहण किया और दृष्टि वहाँ स्थापित कर दी तो सब छूट जाये
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ऐसा नहीं होता। एक ओर लक्ष्य करे और एक ओर ही स्वयं एकान्त कर ले तो छूट जाये। नहीं तो छूटता नहीं। उसकी सन्धि हो सकती है। एकको मुख्य रखे और दूसरा गौण रखे तो हो सकता है। ज्ञायकको मुख्यरूपसे ग्रहण करे और पर्यायका लक्ष्य रखकर पुरुषार्थ करे तो होता है। उसका लक्ष्य रखनेका है कि मैं तो अनादिअनन्त शुद्ध हूँ। शुद्धतामें कोई अशुद्धताका अन्दर प्रवेश नहीं हुआ है। तो भी पर्यायमें अशुद्धता है, द्रव्यमें नहीं है। पर्यायमें अशुद्धता है, इसलिये मैं अपने स्वरूपकी ओर स्वरूपकी परिणति प्रगट करनेसे अशुद्धता टलती है।
इसलिये एक ग्रहण करे तो एक छूट जाये ऐसा नहीं है। एक द्रव्य है और एक पर्याय है। दो द्रव्य हो तो छूट जाये। (यहाँ तो) एक द्रव्य है, एक पर्याय है। एकको गौण करना है, एक मुख्य है। कभी उपयोगमें विचारमें आये तो पर्यायके विचार आये, इस तरह पर्याय ज्ञानमें मुख्य होती है, परन्तु दृष्टि तो मुख्य है द्रव्य पर और पर्याय गौण है।
मुमुक्षुः- पुरुषार्थ होता हो उसे जाने या पर्यायमें पुरुषार्थ करे?
समाधानः- मात्र जाने उतना ही नहीं, परन्तु पुरुषार्थ करता है। मात्र जाने, जाने तो पुरुषार्थ होता है। ऐसा जाने कि मैं ज्ञाता हूँ, ज्ञाताकी उग्रता करे तो ज्ञानमें पुरुषार्थ आ गया। परन्तु मात्र जाने, जाननेके लिये जाने तो वैसे ज्ञानमें पुरुषार्थ नहीं होता। ज्ञायककी उग्रतामें पुरुषार्थ आ गया। परन्तु ज्ञाता अर्थात जाना कि पर्याय है। ऐसा जाना इसलिये पुरुषार्थ आ गया, ऐसा नहीं है। ज्ञाताधाराकी तीक्ष्णता करे तो उसमें पुरुषार्थ आ जाता है। मैं ज्ञायक हूँ और ज्ञाताधाराकी उग्रता करे और उसमें लीनता करे तो उसमें पुरुषार्थ आ जाता है।
मैं द्रव्य ज्ञायक हूँ। उस ज्ञायकको ज्ञायकरूप रहनेके लिये, ज्ञायककी परिणतिको दृढ करनेके लिये, उसकी ज्ञाताधाराकी उग्रताके लिये पुरुषार्थ करता है। बाहर जा रहा उपयोग और विभावकी जो परिणति है, उस विभाव परिणतिसे स्वयं भिन्न होकर अंतरमें स्वरूपकी ओर लीनता करनेका प्रयत्न करता है। जानना अर्थात मात्र जान लेना, ऐसा नहीं। परन्तु पुरुषार्थपूर्वक जानना है। ज्ञाताधाराकी उग्रता करता है।
मुमुक्षुः- द्रव्य और पर्याय, दोनोंके बीचका खेल ही समझमें नहीं आता। ऐसा करने जाते हैं तो निश्चयाभासी हो जाते हैं और वहाँ जाते हैं तो व्यवहाराभासी हो जाते हैं।
समाधानः- वह सब विकल्पात्मक है, इसलिये ऐसा होता है। सहज हो तो नहीं होता। विकल्पात्मक है। द्रव्य पर दृष्टि रखूँ, ऐसा विकल्पसे होता है। वह सब विकल्पसे करने जाता है, इसलिये एक विकल्प छूट जाता है और एक विकल्प होता
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है, एक विकल्प छूटता है, ऐसा होता है। सहजरूपसे हो तो ऐसा नहीं होता। ज्ञायक पर परिणति, सहज ज्ञायककी परिणति सहज हो तो एक ग्रहण करे और दूसरा छूट जाये ऐसा नहीं होता। द्रव्यका ग्रहण रहता है, पर्यायमें पुरुषार्थ रहता है, सब होता है। विकल्पात्मक हो रहा है इसलिये एक करे तो दूसरा छूट जाता है। ऐसा होता है। उसकी सन्धि यथार्थ विचार करके नक्की करना चाहिये। द्रव्यदृष्टि और पर्यायमें पुरुषार्थ, इन दोनोंकी सन्धि करने जैसी है। एकको ग्रहण करे और दूसरा छूट जाये तो अकेला निश्चय हो जाता है और अकेला व्यवहार अनादिका है, तो यदि द्रव्यदृष्टि नहीं हो तो-तो मोक्षका मार्ग ही प्रगट नहीं होता।