Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 82.

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ट्रेक-८२ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- पहले द्रव्यदृष्टि करनी या पहले व्यवहार करना?

समाधानः- यथार्थ द्रव्यदृष्टि हो वहाँ यथार्थ व्यवहार आ जाता है। पहले व्यवहार तो अनादिका है। द्रव्यदृष्टिके साथ व्यवहार साथमें रहा है। द्रव्यदृष्टि यथार्थ किसे कहते हैं? कि उसके साथ व्यवहार होता है। यदि सब छूट जाये तो वह दृष्टि ही सम्यक नहीं है। सम्यग्दृष्टि हो, यथार्थ दृष्टि हो तो उसके साथ ज्ञान होता है और यथार्थ स्वरूप रमणता होती है। ऐसी निश्चय-व्यवहारकी सन्धि है। दृष्टि ज्ञायक पर गयी इसलिये पूर्ण मुक्ति अर्थात पूर्ण वेदन नहीं हो जाता। अभी न्यूनता है, तब तक पुरुषार्थ है।

मुमुक्षुकी दशामें वह नक्की करे कि मैं स्वभावसे निर्मल है। उसके भेदज्ञानका प्रयास करे कि मैं भिन्न हूँ। यह सब एकत्वबुद्धि तोडनेका प्रयत्न करे। प्रयत्न और दृष्टि आदि सब साथमें रहते हैं। उसकी भावनामें भी वैसा होना चाहिये। ... नाश नहीं हुआ है। स्वभावको स्वयं ग्रहण करे। जैसा स्वभाव है वैसा ही ग्रहण करे। फिर पर्यायमें न्यूनता है, अशुद्धता है, सबको टालकर शुद्धताका प्रयास करे।

मुमुक्षुः- .. दृष्टिका बल बढ जाता होगा?

समाधानः- पर्याय है ही नहीं, ऐसा करनेसे दृष्टिका बल बढ जाता है, ऐसा नहीं है। जैसा है वैसा यथार्थ जाने तो दृष्टिका बल बढता है। पर्याय है। है ही नहीं, ऐसा मानना ऐसा दृष्टिका विषय नहीं है। उसकी दृष्टिके विषयमें नहीं है। परन्तु पर्याय वस्तु ही नहीं है और द्रव्यको पर्याय है ही नहीं, यह यथार्थ ज्ञान नहीं है। दृष्टिके विषयमें नहीं है। दृष्टिके विषयमें पर्याय आती नहीं। उसका ध्येय एक द्रव्य पर है। इसलिये पर्याय उसकी दृष्टिमें नहीं है, इसलिये पर्याय है ही नहीं, ऐसा नहीं है।

मुमुक्षुः- ... रागको जानना और उस प्रकारके स्वयंका स्वभावकी ओरके पुरुषार्थको जानना, तो इन तीनोंको जाननेमें कोई अंतर है?

समाधानः- जानना वह तो जानना ही है। रागको जाने या परको जाने या पुरुषार्थको जाने, परन्तु उसका स्वरूप जाने कि राग वह विभावपर्याय है। शरीरादि परद्रव्य है और यह पुरुषार्थ है, वह स्वरूपकी ओरका पुरुषार्थ है। उसका स्वरूप जैसा है वैसा जाना। जानना तो जानना है, परन्तु उसका स्वरूप कैसा है? ज्ञेयोंका स्वभाव भिन्न-भिन्न है,


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ऐसा जाने। जानना ही है।

मुमुक्षुः- ज्ञेयोंका स्वभाव भिन्न-भिन्न है, तो जैसे परपदार्थके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, वैसे....?

समाधानः- वह तो जैसी वस्तु है वैसा जानता है। परद्रव्य मेरा स्वरूप नहीं है, मैं परद्रव्यसे भिन्न हूँ, यह विभावपर्याय मेरा स्वभाव नहीं है। और यह मैं साधना करता हूँ, यह जो पर्याय है वह अंश है। पूर्ण अंशी जो पूरा है, वह पूर्ण है वह स्वरूप भिन्न है और यह अंश है। जैसे हैं वैसे सब प्रकार जानता है। स्वयं यथार्थ जानता है। यह सब जाननेके प्रकार हैं। ज्ञान तो सब जानता है। यथार्थ जाने और फिर पुरुषार्थ करने योग्य हो उस ओरका पुरुषार्थ है। हेयको हेय जाने, उपादेयको उपादेय जानता है। जैसा है वैसा जानता है। (द्रव्य) पर दृष्टि रखता है। दृष्टिका विषय ग्रहण करके सब कायामें जुडता है।

एक स्फटिक वस्तुको ग्रहण किया कि यह स्फटिक है। सफेद है और चमकवाला है, वह सब उसके भेद हुए। परन्तु एक ग्रहण किया कि मैं चैतन्य हूँ। अस्तित्वको ग्रहण करके फिर सब जानता है। अस्तित्वको अस्तित्व जाने, पर्यायको पर्याय जाने, मलिनताको मलिनता जाने, ऐसे जानता है। उसे भिन्न करता है कि यह मैं नहीं हूँ। यह परद्रव्य है, यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। पुरुषार्थसे ज्ञायककी धाराको उग्र करता है। जानकर विवेक करता है। उस प्रकार उसका पुरुषार्थ चलता है।

मुमुक्षुः- अपने अस्तित्वकी पक्कड रखकर जो भाव जिस स्वरूप है, उस रूप उसे वह जानता है।

समाधानः- बराबर जानता है। उस प्रकार उसे जो लाभरूप हो उस कार्यमें जुडता है। जो अपना नहीं है, उससे भिन्न पडता है।

मुमुक्षुः- यानी जो लाभरूप जाननेमें आता है उस ओर सहज ही उसका जोर चलता है और जो हानिकारक है उस ओरसे...

समाधानः- वहाँसे छूटनेका प्रयत्न करता है। घर सँभालकर सब कायामें जुडता है। चैतन्यके घर पर दृष्टि रखे तो दूसरा छूट जाये, और वह करे तो यह छूट जाये, ऐसा नहीं होता। उससे भिन्न पडता है। पुरुषार्थ करके निर्मलता (प्रगट करता है)। उसे निर्मलताका वेदन है। मलिनताका मलिनतारूप है।

मुमुक्षुः- आप कहते हो कि सुलभ है, परन्तु हमें तो उससे अधिक दुर्लभ बाकी कुछ नहीं दिखता।

समाधानः- अंतरमें ही करना है, परन्तु वह कठिन हो गया है। स्वयं ज्ञायकको पहचाने तो सरल ही है। ज्ञायकको भिन्न जान। शरीरसे भिन्न, विभावसे अपना स्वभाव


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भिन्न है। सब भिन्न है। आसान ही है, परन्तु करे तो। न करे तो दुर्लभ है। ऐसे ही अनन्त काल चला गया। अनन्त कालसे प्राप्त नहीं हुआ है, इसलिये दुर्लभ है, परन्तु करे तो आसान है।

.. कितने साल बीत गये, आगे बढना है। बहुत साल बीत गये इसलिये अब क्या आये? वह तो कहनेकी बात है। उसमें ऐसा नहीं है, यह कोई लौकिक बात नहीं है, यह तो आत्माकी बात है। प्रतिज्ञा ली वह तो अच्छी बात है। परन्तु मेरी तबियत ऐसी है न, इसलिये। .. उसका लाभ मिला और प्रतिज्ञाका प्रसंग बना। अन्दर आत्माका हेतु है... जो जिज्ञासु है उसे निष्फल नहीं जानेवाला है, फलेगा। निज आत्माके हेतुसे प्रतिज्ञा ली है।

मुमुक्षुः- ऐसा होता है, बाहरमें अकेले शुभभावमें..

समाधानः- ... पुरुषार्थ होता हो तो करना, अच्छी बात है। नहीं तो गहरे संस्कार डले वह लाभका कारण है। हो सके तो करना, नहीं तो श्रद्धा तो जरूर करना, ऐसा शास्त्रमें आता है। हो सके तो ध्यानमय प्रतिक्रमण करना। न हो सके तो कर्तव्य है-श्रद्धा ही कर्तव्य है। श्रद्धामें फेरफार (नहीं होना चाहिये)। श्रद्धा कर्तव्य है। तो आगे बढा जायेगा। श्रद्धाका बल बराबर रखना चाहिये।

ज्ञायकके मार्गके सिवा दूसरा कोई मार्ग नहीं है। बाहरके कोई क्रियाकाण्डमें मार्ग नहीं है, यह तो अंतरका मार्ग है। ज्ञायककी श्रद्धा करके भेदज्ञान करना, द्रव्य पर दृष्टि करना, शरीरसे आत्मा भिन्न, विकल्पसे अपना स्वभाव भिन्न, सबसे भिन्न एक ज्ञायकको भिन्न करना, दूसरा कोई मार्ग नहीं है। सर्वस्व सब विभावसे भिन्न स्वयं है। विभाव अपना स्वभाव नहीं है। उसका भेदज्ञान, उसकी निरंतर धारा, वह सब करने जैसा है। उसकी श्रद्धा बराबर करना, बन सके तो। ध्यानमय ज्ञायककी परिणति करना, न हो सके तो श्रद्धा करना।

देव-गुरुने जो बताया, देव-गुरुकी श्रद्धा और आत्माकी श्रद्धा-दो बताया, वह करना है। देव-गुरुका सान्निध्य महाभाग्यकी बात है। उनकी महिमा करनी, बाकी ज्ञायककी महिमा करनी। ज्ञायक महिमावंत है, वही पहचानने योग्य है। उसके गहरे संस्कार डालना। बन सके तो परिणति प्रगट हो तो अच्छी बात है, नहीं तो श्रद्धा कर्तव्य है।

... छः, चौदह कितने-कितने... आत्माका कल्याण करनेके लिये सब तैयार हो गये, गुरुदेवके सान्निध्यमें। सबके प्रसंग बार-बार आये वह तो एक आनन्दकी बात है। मेरी तबियत ऐसी है। इतने साल सबको आनन्दसे... कितने वषा तक वाणी सुनी। कितना आनन्द... प्रतिज्ञा ली थी, तब सब कितने छोटे-छोटे थे। इस भवमें सब तैयारी कर लेनी। पुरुषार्थ हो सके तो करना, नहीं तो सब तैयारी कर लेनी। देशनालब्धि,


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गुरुदेवकी देशनालब्धि प्राप्त हुयी। एकदम गहरे बीज ऐसे डाले हो कि तुरन्त खील जाय। ऐसे गहरे संस्कार डालने।

... कोई बहुत हुए हैं, कोई कम हुए हैं, ऐसे हुआ है। सब अलग-अलग आते हैं न, दर्शन हो तब सब बीच-बीचमें आ जाते हैं, सब अलग-अलग आते हैं। ऐसा प्रसंग है, महाभाग्य...! यह सब ... प्राप्त हुआ वह महाभाग्यकी बात है। उसमें आत्मा स्वयं तैयार हो, तैयार हो तो हो सके ऐसा है। गुरुदेव मिले और यह सब मिला।

... आत्मा भिन्न, आत्माका स्वभाव भिन्न, अन्दर विकल्प आये उससे अपना स्वभाव भिन्न, सब भिन्न है। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, अंतर आत्माकी महिमा, ज्ञायकका ध्यान रखना, वह सब करना है। बहुत सुना है, उसका अन्दर रटन करना है।

मुमुक्षुः- आपके और गुरुदेवके प्रतापसे समाधान करते हैं, तो भी बहुत दुःख होता है।

समाधानः- बारंबार प्रयास करना।

मुमुक्षुः- अच्छा नहीं लगता है, परन्तु दूसरा कोई चारा नहीं है।

समाधानः- शरीर काम नहीं करे, उसमें क्या हो सकता है? क्या हो सकता है, जाना पडे।

.. ज्ञायक कैसे पहचानमें आये, जीवनमें वही करने जैसा है। गुरुदेवने मार्ग बताया वही करना है। जैन धर्मका रहस्य किसीको जानना हो तो उसमें आ जाता है। अध्यात्मका रहस्य। अन्यमें छोटी गीता आदि आता है। अपनेमें यह छोटा शास्त्र (है)। सब (शास्त्र) साथमें नहीं रख सके तो इतने छोटेमें आ जाता है। बालकोंको काम आवे, बडोंको काम आवे, सबको काम आवे। और सिद्धान्त प्रवेशिका जिसे समझनी हो उसके लिये वह भी है और यह है। ... यह सब शास्त्र तो है, यह छोटेमें सब आ जाता है। विवरण किया है, थोडा-थोडा वह अन्दर (आता है)। छः द्रव्य, नौ तत्त्व उसका थोडा अन्दर (आता है)। यह लोक स्वतःसिद्ध है, आदि सब लिया है। सबको काम आवे ऐसा है। सिद्धान्त प्रवेशिकामें संक्षेपमें कोई समझे नहीं तो फिर कहे, अब क्या करना? अब क्या? सब कंठस्थ हो गया। यह एक स्वाध्याय करने जैसा और कंठस्थ करने जैसा, सब प्रकारसे ऐसा है। समयसारमें सब पढे वह तो अच्छी बात है, लेकिन नहीं पढ सके तो संक्षेपमें आ जाता है।

मुमुक्षुः- मूल गाथाएँ सब आ गयी।

समाधानः- मूल गाथाएँ आ जाये। फिर प्रवचनसारमें द्रव्य-गुण-पर्यायका आ जाये, इसमें छः द्रव्य आदि। नियमसारमें पारिणामिकभाव आदिका संक्षेपमें आ जाता है। कलशमें स्वानुभूति आदि, सबमें तत्त्व आ जाता है। .. क्या आता है, यह जानना चाहे तो


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इसमें सब आ जाता है।

.. अंतरमें आया, जिसे गुण प्रगट हुए, मुक्तिका मार्ग जिसे प्रगट हुआ, अंतरमें जिसे दर्शन, ज्ञान, चारित्र प्रगट हुआ, ऐसे गुरुकी भक्ति शिष्योंको आये बिना रहती ही नहीं। आचार्य भी शास्त्र लिखते हैं, तब सिद्ध भगवानको, अरिहंत भगवानको नमस्कार करके ही लिखते हैं। बडोंको आगे रखकर ही शास्त्र लिखते हैं। आचार्यको भी ऐसा होता है। मात्र लिखनेके खातिर नहीं, भावसे लिखते हैं।

कुन्दकुन्दाचार्य भी कहते हैं कि मुझे जो आत्म-वैभव प्राप्त हुआ, वह मेरे गुरुसे प्राप्त हुआ है। देवाधिदेव अरिहंतदेव भगवानकी परंपरा और मेरे गुरुने जो मुझे आत्माका वैभव दर्शाया, उससे मुझे प्रगट हुआ है। ऐसा कहते हैं। गुरुकी भक्ति तो आये बिना नहीं रहती। जिसे आत्माकी साधना करनी है, उसे गुरुकी भक्ति तो साथमें होती ही है। गुरुने जो ध्येय बताया कि तू ज्ञायकको ग्रहण कर, उस ज्ञायककमें-उस शुद्धात्मामें कोई विकल्प नहीं है। शुद्धात्मा सब विकल्पसे भिन्न है। शुभाशुभ भावोंसे उसका स्वभाव भिन्न है। ऐसा गुरु दर्शाते हैं। ग्रहण उसे करना है। गुरुने जो स्वभाव दर्शाया, उस स्वभावको पहचानकर अंतरमें ग्रहण करना स्वयंको है। लेकिन बीचमें गुरुकी भक्ति आये बिना नहीं रहती। पंच परमेष्ठीकी भक्ति, गुरुकी भक्ति, जिन्होंने मार्ग बताया, उनकी भक्ति उसे साथ-साथ होती ही है।

जो आत्माकी साधना कर रहे हैं, उसे भी गुरुकी भक्ति होती है। तो जिज्ञासुको तो साथमें होती ही है। जिसे दर्शन, ज्ञान, चारित्र प्रगट हुआ, ऐसे आचार्य भी गुरुकी भक्ति (करके) गुरुको आगे रखते हैं। पद्मनंदी आचार्य भी जब शास्त्र लिखते हैं, तब जिनेन्द्र देवकी कैसी भक्ति करते हैं! आपके दर्शनसे, भगवान! मेरा सब टल जाता है। भगवान! बादलके जो यह टूकडे हुए, जब मेरु पर्वत पर अभिषेक हुआ, उस वक्त इन्द्रने भूजाओंको फैलाया तब बादलके टूकडे हो गये। कैसी भक्ति की है, आचार्यने भी! जो आत्माकी आराधना करते हैं, छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें झुलते हैं, निर्विकल्प तत्त्वमें बारंबार निर्विकल्पस्वरूप परिणमित हो जाते हैं। बाहर आये तब शास्त्र लिखते हैं। तत्त्वके, भक्ति आदिके लिखते हैं। आचायाको भी (भक्ति) होती है।

सम्यग्दृष्टि जो गृहस्थाश्रममें होते हैं, उन्हें भी गुरुकी भक्ति होती है। तो जिज्ञासुको गुरुकी भक्ति (हो, उसमें कहाँ प्रश्न है?) स्वयं कुछ जानता नहीं और जो मार्ग दर्शाते हैं, उनकी भक्ति आये बिना नहीं रहती। तत्त्वविचार, देव-गुरु-शास्त्रकी भक्ति आदि सब बीचमें आता है। अंतरमें वैराग्य, विरक्ति, शुभाशुभ भावोंसे-विभावसे विरक्ति और गुरुकी भक्ति, स्वभावकी महिमा आदि जिज्ञासुकी भूमिकामें होता है।

... दूसरोंको कर नहीं सकता, गुरु कहे, इसलिये वह कर नहीं सकता है, ...


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परन्तु उसे भावनामें शुभभावमें स्वयंको आगे बढना है, उसमें शुभभाव आये बिना नहीं रहते। गुरुके आगे एकदम विनयवान (हो जाता है) और भक्ति आये बिना नहीं रहती।

द्रव्यदृष्टिसे स्वयं प्रभु जैसा है, पर्यायमें स्वयं पामर है। प्रभु, भगवान, गुरुदेव! मैं तो पामर हूँ। ऐसी भावना उसे होती है। उसमें भी आता है, स्वयं द्रव्यदृष्टिसे प्रभु जैसा है, परन्तु पर्यायमें पामरता है। सब मेरेमें है, ऐसी दृष्टि हो तब तक आगे नहीं बढ सकता। गुरुने ही सब समझाया है और गुरु ही सर्वस्व है। ऐसा उसके हृदयमें हो तो वह आगे बढ सकता है।

आगे बढना है, द्रव्य पर दृष्टि करनी है, भेदज्ञान करना है, दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट करना है, बहुत करनेका बाकी है। स्वभावमें सब है, परन्तु साधनामें सब प्रगट करना है। इसलिये शुभभावमें देव-गुरु-शास्त्रकी भक्ति आये बिना नहीं रहती।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!
 