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समाधानः- ... न्याल कर दिये हैं, ऐसा बोलते थे। मुझे कोई इच्छा नहीं है, मुझे किसीका लगाव नहीं है, मुझे कोई आकुलता नहीं है। यह एक ही करना है, दूसरा क्या करना है? करना क्या है? ऐसा जोरसे बोलते थे। ...
मुमुक्षुः- और युवान होकर।
समाधानः- हाँ, एकदम। अभी यहाँ सब (होता) हो, वहाँ तो पुष्पशैयामें उत्पन्न होता है। पूरा शरीर बदल जाता है। यहाँ याद आये।
मुमुक्षुः- यहाँके संस्कारमें बन्ध भी वैसा हुआ हो, वैसे ही संयोग देव-गुरु- शास्त्रका (योग हो), वैसा ही बन्ध उसे होता होगा न?
समाधानः- हाँ, उस प्रकारका। वैसी रुचिके संस्कार अन्दरसे उत्पन्न होते हैं। भगवानका मन्दिर, सीमंधर भगवानकी वाणी सुननेका, ऐसे ही संस्कार अन्दरसे उत्पन्न होते हैं। उसे ऐसी ही विचार आते हैं। यहाँ तो मन्दिर आदि कितना.. हर जगह सलाह-सूचना (देते थे)।
मुमुक्षुः- बहुत उत्साहसे देते थे। आ गया, ऐसे नहीं।
समाधानः- वहाँ तो जो अपने संस्कार हो वही उत्पन्न होते हैं। वहाँ शाश्वत मन्दिर होते हैं, भगवान हैं। सीमंधर भगवान विदेहक्षेत्रमें विराजते हैं। वह सब प्रत्यक्ष दिखाई दे, इसलिये वहाँ जानेका मन करे।
गुरुदेवने वषा तक वाणी बरसायी है। अन्दरमें जो घट्ट हो जाये, वही करनेका है। पद्मनंदी आचार्य कहते हैं न कि मेरे गुरुने जो वाणी, जो उपदेश जमाया है, उसके आगे मुझे कुछ नहीं चाहिये। यह तीन लोकका राज भी मुझे प्रिय नहीं है, इन्द्रपद भी मुझे नहीं चाहिये। बरसों तक वाणी बरसायी है। वह जो बरसों तक जमाया है, वह संस्कार लेकर जाये वह संस्कार ही अन्दरसे उत्पन्न होते हैं।
आता है, सौ इन्द्रकी उपस्थितिमें लाखों-क्रोडो देवोंकी उपस्थितिमें भगवानने कहा है कि तू परमात्मा है। ऐसी टेप यहाँ बजती है। तू परमात्मा है। अरे..! भगवान! आप परमात्मा हो, यह तो नक्की करने दो। ऐसा आता है। यहाँ टेप बजती है न। ऐसे प्रसंग होते हैं तब ऐसी टेप यहाँ जोरसे रखते हैं और बजती है। वह टेप रखी
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थी।
मुमुक्षुः- तू परमात्मा है, तू परमात्मा है, तू परमात्मा है। अरे..! भगवान! आप परमात्मा हो, इतना तो नक्की करने दो। ... वह रखी थी। वहाँसे गये न तब। ... मैं परमात्मा हूँ। उसे बहुत अच्छी लगती थी।
समाधानः- सौ इन्द्रकी उपस्थितिके समवसरणमें लाखों-क्रोडो देवोंकी मौजूदगीमें भगवानने कहा है कि तू परमात्मा है। अरे..! भगवान! आप परमात्मा हो, इतना तो नक्की करने दो। तू परमात्मा है, ऐसा भगवान कहते हैं। परमागम मन्दिर पर बजती है, तब सब जगह सुनायी देता है।
मुमुक्षुः- ऐसा गुँजता है न कि मानो गुरुदेव ललकारते हो। गाँवके लोग सब कहते थे। तू परमात्मावला बजाओ न! वह बहुत अच्छा लगता है।
समाधानः- प्रवचनमेंसे उतना अलग किया है।
मुमुक्षुः- खोजकर निकाला।
समाधानः- मैंने क्या महेनत की? टेपमें था। कहा, यह अच्छा है, इतना अच्छा है। ... भाव परसे कह सकते हैं कि देव भव ही होगा, दूसरा नहीं। संसारमेंर जन्म- मरणका चक्र चलता ही रहता है। वैराग्य करने जैसा है। चतुर्थ काल था तब देव आते थे। अभी देव नहीं आते हैं। मेढक हाथीके पैर तले कूचल गया। उसे भगवानकी पूजा करनी थी। देव होकर पूजा करने आता है। वह चतुर्थ काल था।
मुमुक्षुः- विचार करें लेकिन जो बननेवाला हो वही बनता है।
समाधानः- वैसा ही बनता है। जिस क्षेत्रमें, जिस प्रकार, जैसे होनेवाला हो उसी प्रकारसे आयुष्य पूरा होता है। ... ठीक हो जाये ऐसी सबकी भावना होती है।
मुमुक्षुः- .. निर्विकल्परूपसे होता है?
समाधानः- हाँ, निर्विकल्परूपसे है। द्रव्य पर दृष्टि निर्विकल्पपने (है)। शुद्धनय कहते हैं न? शुद्धनय। बस, वह निर्विकल्पपने है और प्रमाण भी निर्विकल्पपने है। दोनों निर्विकल्पपने है। बाकी तो प्रमाण अस्त हो जाता है, नयोंकी लक्ष्मी कहाँ चली जाती है, विकल्पात्मक तो सब छूट गया है। प्रमाण अस्त हो जाता है, प्रमाणका कोई विकल्प नहीं है, नयोंकी लक्ष्मी सब छूट जाता है। अकेला स्वरूप है। उसमें द्रव्यकी मुख्यता और पर्याय साथमें है। द्रव्य और पर्याय दोनोंकी जो अनुभूति है वह प्रमाण है। द्रव्यकी मुख्यतासे वह नय है, बस। बाकी विकल्परूपसे कुछ नहीं है।
मुमुक्षुः- मुख्यता आश्रयके हिसाबसे या जाननेके हिसाबसे?
समाधानः- नहीं, आश्रयके हिसाबसे। आश्रय है, निर्विकल्पपने आश्रय है, निर्विकल्पपने। अनादिकी वस्तु है, उसमें कोई आश्रय नहीं था। आश्रय उसे स्वयंने ग्रहण
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किया है। वह आश्रय वैसे ही परिणतिरूप रह जाता है, निर्विकल्पपने।
मुमुक्षुः- उसे ज्ञानमें ख्याल है कि यह राग है?
समाधानः- अबुद्धिपूर्वक ज्ञानमें कुछ पकडमें नहीं आता। अबुद्धिपूर्वक है इसलिये ज्ञानमें (पकडमें नहीं आता)। केवलज्ञान नहीं है इसलिये वह अबुद्धिमें है। बाकी उसके वेदनमें कुछ नहीं है। उसके वेदनमें मात्र स्वरूपकी अनुभूति ही है, दूसरा कुछ नहीं है। नहीं विकल्पका ख्याल, नहीं है कोई राग, अबुद्धिपूर्वक-बुद्धिपूर्वक कुछ नहीं है। मात्र स्वरूपकी परिणति, शुद्धात्म स्वरूप परिणति है। अकेला आत्मा ही है, दूसरा कुछ नहीं है।
द्रव्य, गुण और पर्याय उसकी परिणति। आनन्दकी अनुभूति है। अनन्त गुण-पर्यायसे भरितावस्थ आत्मा, वह प्रगटरूपसे शुद्ध परिणतिरूपसे परिणमता है। अबुद्धिमें है उसका कोई ख्याल नहीं है। वह तो स्वानुभूतिका अंश प्रगट हुआ, पूर्णता नहीं है। इसलिये वह बताता है कि अभी अबुद्धिमें है। उसके वेदनमें नहीं है। उसके ज्ञानमें भी नहीं है।
मुमुक्षुः- आश्रय निर्विकल्प परिणतिरूप होता है। जैसे अपना नाम अभी रटना नहीं पडता और ... निर्विकल्प परिणतिरूपसे ज्ञायक..
समाधानः- ज्ञानको रटना नहीं पडता, वह दूसरी बात है। उसके वेदनमें वह कुछ नहीं है। उसे तो आश्रय है, द्रव्यका आश्रय है। वह अलग है, यह अलग है। द्रव्यका आश्रय है, अमुक वेदनकी परिणति है।
... फिर तो यात्राकी बात करे, मन्दिरकी बात करे, गुरुदेवकी बात करे, सब पुरानी बातें करते रहे। ... उसके साथ उन्हें संस्थाका उतना रस था। संस्थाका ध्यान रखनेका उन्हें बहुत था। आप सब ध्यान तो रखते हो, सब रखते हो। देव-गुरु-शास्त्रका करनेका सबको है। उन्हें बहुत विकल्प था।
मुमुक्षुः- जो दूरदर्शिता थी, उसमें..
समाधानः- आत्माका करने जैसा है। संसारमें ऐसा ही होता है। गुरुदेवने कहा वह मार्ग ग्रहण कर लेने जैसा है। अन्दर जो संस्कार होते हैं, वह सब साथमें आते हैं। पंचमकालमें गुरुदेव मिले और उनका सान्निध्य मिला वह महाभाग्यकी बात है। देव- गुरु-शास्त्रकी महिमा और शुद्धात्माका ध्येय, शुद्धात्मा कैसे प्रगट हो? वह करने जैसा है। भेदज्ञान कैसे हो? यह पंचमकाल है, उसमें गुरुदेव पधारे वह महाभाग्य। चतुर्थ काल गुरुदेव पधारे इसलिये हो गया था। और अभी भी गुरुदेवके मार्ग पर ही चलना है। किस प्रकार आनन्दसे ... सब बोले। ... रातको करते थे, वही फिर सुबह करते थे, ऐसा करते थे। वहाँ ले जानेके सिवा कोई उपाय नहीं था।
... प्रभावनामें पुण्य हो उस प्रकारसे कार्य बनता है। भावना हो तो। परन्तु तेरे
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पिताजी करते थे, कौन जाने उस वक्त काल ऐसा था कि सब सीधा-सीधा हो जाता था। गुरुदेवका प्रभाव है न इसलिये। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा और अन्दर आत्माको पहचानना, वह करना है। चतुर्थ कालमें तो मुनि बनकर चल देते थे। जंगलमें जाकर आत्माकी आराधना करते थे और ध्यान करते थे। छोटे-छोटे बच्चे दीक्षा लेने जाते हैं। हे माता! हे जनेता! मुझे आज्ञा दे। यह संसार ऐसा है।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- मैं ऐसी माता पुनः नहीं करुँगा।
मुमुक्षुः- कोलकरार करता हूँ।
समाधानः- हाँ, कोलकरार करता है। अब तुझे नहीं रुलाऊँगा, अब मैं जा रहा हूँ। हम आत्माकी आराधना करेंगे। इस जीवको अनन्त कालमें क्या नहीं प्राप्त हुआ है? सब प्राप्त हो गया है। माता कहती है, भाई! तू छोटा है। तुझे काँटे और कंकर लगेंगे, तेरा ... तुझे क्या नहीं प्राप्त हुआ? जगतमें सब प्राप्त हुआ है। अब तो मैं आत्माकी आराधना करने जाता हूँ। तेरा शरीर ऐसा है, तुझे उपसर्ग-परिषह आयेंगे, गर्मी-सर्दी लगेगी। तो कहता है कि, क्या नहीं प्राप्त हुआ है? देवलोक मिला और सब प्राप्त हुआ है। अनन्त बार सब सामग्री प्राप्त हुयी है। परन्तु यह एक नहीं प्राप्त हुआ। हमें आत्माके स्वरूपकी आराधना करनी है, अब यह भव नहीं चाहिये। भवका अभाव कैसे हो, यह करनेके लिये मैं जाता हूँ। आत्माकी साधना करनेके लिये मुनिदशा अंगीकार करता हूँ। अब फिरसे माता नहीं करुँगा। जन्म-मरणका अभाव करने जाता हूँ।
यह जन्म-मरण संसारमें होते हैं, वह जीवको एक वैराग्यका कारण है। जन्म- मरण (होते हैं तो भी) जीवको वैराग्य नहीं आता है। जन्म-मरण जीवको वैराग्यका कारण बनता है।
मुमुक्षुः- क्षणभर लगता है। फिर भूल जाते हैं। मैं कल याद करता था, मैं मेरी माँको छोडने आया था, आज मैं पिताजीको छोडने आया हूँ। कल ऐसा विचार आया था। मेरी माँका ... याद आता था,
समाधानः- जन्म-मरण संसारमें ... यह जन्म-मरण नहीं होते तो जीवको वैराग्य नहीं आता। सब शाश्वत मान लेता। परन्तु ऐसा नहीं है। अन्दर भवका अभाव कैसे हो? इसलिये मोक्ष करना वही सत्य है। मोक्ष आत्माकी आराधना... वही सत्य है।
मुमुक्षुः- उस काममें लग जाना।
समाधानः- बस, वही काम करने जैसा है। अरे..! ऐसा संसार अब नहीं चाहिये। भवका अभाव हो वही सच्चा है। अनन्त कालमें सम्बन्ध बान्धता है और छोडता है।
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भवका अभाव हो वही सत्य है। उनका तो भव परिवर्तन हो गया। गति अच्छी ही हुयी है। कैसी भावना उनकी, जीवन पर्यंत कार्य, अंत समय तक कैसे भाव और कैसे ... उनका राग रखकर थोडे रहे थे। वे तो ... करते थे, कोई बुरा बोले, कुछ भी करे।
... शासनका सब अच्छा होगा। गुरुदेवका शासन, वह तो महा तीर्थंकरका द्रव्य था। उनके शासनका पुण्य है। भले भावना न हो तो बहुत मुश्किल लगते कार्य हो गये हैं, शासनका पुण्य है, सब अच्छा होगा। भावना हो या नहीं हो, अच्छा होगा। हसमुखभाईका हो गया न।
... कार्य थे, अभी तो अमुक... मुश्किल कार्य सब हो गये हैं। अब तो सबको आत्माका करना है। देव-गुरु-शास्त्रकी प्रभावना करनी वह है। स्वयं स्वयंका करना, सब सबकी जाने। सब करते रहे, अपने अपना करना। यहाँ सोनगढमें... जिसको जो करना हो वह करता रहे।
मुमुक्षुः- इतना सलामत रहे उतना बस है। समाधानः- बस, यहाँ सोनगढका यह तीर्थक्षेत्र है, गुरुदेवकी भूमि है। बस, बाहरगाँववाले भले जो करना है करता रहे। जो करना है करे। सोनगढ गुरुदेवका तीर्थक्षेत्र है, वह ऐसी ऊँचा रहे। किसीके साथ राग-द्वेष नहीं करना है। एक सोनगढका यह है। सब स्वाधीनरूपसे देव-गुरु-शास्त्रकी पूजा, भक्ति, स्वाध्याय स्वाधीनरूपसे करते हैं, ऐसे ही ... करते हैं, वैसा ही टिके, बस। कोई उसमें दखल करे कि ऐसा करोया ऐसी क्रिया करो, फलाना करो ऐसी दखल यहाँ चलनेवाली नहीं है। क्रिया करो या ऐसा करो, गुरुदेवका ऐसा करो, चरण स्पर्श करते हैं, प्रतिकृतिको, फलानेको ऐसी दखल नहीं हो। कुछ-कुछ ऐसा चलता रहता है। सब बोलते रहे। सबके गाँवका सब सँभाले।