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समाधानः- ... हो गया, अब क्या है, ऐसा यदि करे.... कोई नहीं कर देता, स्वयंको करना पडता है। स्वाधीन है। स्वयं ध्यान नहीं रखता और प्रमाद करे तो गिरता है। पुरुषार्थ तो करना पडता है। स्वभावमें भरा है उसमेंसे आता है, कहीं लेना नहीं जाना पडता। स्वभावमें सब पडा है, उसमें पुरुषार्थ करनेसे सहज प्रगट होता है। लेकिन पुरुषार्थके बिना नहीं होता।
नंदीश्वरका पूजाकी पुस्तकमें कितना वर्णन आता है। उसका तो बहुत वर्णन आता है। अपने तो उसका आंशिक किया है। लेकिन उसका दिखाव अच्छा हो गया है। पाँचसौ-पाँचसौ धनुषके बडे-बडे प्रतिमाजी हैं और विशाल मन्दिर हैं। मेरु पर्वत कितना बडा है! एक लाख योजनका मेरु है। उसमें पाँचसौ धनुषके प्रतिमाएँ हैं। वह मन्दिर कितने बडे! चारों ओर वन है। उन वनके अन्दर चार दिशामें चार मन्दिर हैं। चारों दिशामें चार मन्दिर और बीचमें सब वन हैं। पाँचसौ धनुषकी बडी प्रतिमाएँ! कुदरती सब (रचना है)। जगतमें भगवान सर्वोत्कृष्ट हैं तो यह कुदरत किसीके द्वारा बनाये बिना भगवानरूप परिणमित हो गयी है। सब रत्न भगवानरूप परिणमित हो गये हैं।
मुमुक्षुः- हमारे तो साक्षात भगवान आ गये हैं। माताजी! आपके प्रतापसे भगवान ही हैं।
समाधानः- रत्नकी प्रतिमाएँ। भगवानरूप, सब रत्न भगवानरूप परिणमित हो गये हैं। जम्बू द्वीपमें मेरु है। इस जम्बू द्वीपमें एक सुदर्शन मेरु है, दूसरा घातकी खष्डमें दो मेरु है। दो मेरु-पूर्व दिशामें और पश्चिम दिशामें। दोनों मेरु घातकी खण्डमें है। सुनायी देता है न? और पुष्कर द्वीपमें दो मेरु हैं।
मुमुक्षुः- दो मेरु घातकी खण्डमें आमने-सामने हैं।
समाधानः- हाँ, आमने-सामने पूर्व-पश्चिममें। जम्बू द्वीपमें बीचमें है। और पुष्कर द्वीपमें दो है। अंतिम द्वीप है न? अर्ध पुष्कर, उसमें दो मेरु है। इस तरह पाँच मेरु है।
मुमुक्षुः- आपने प्रत्यक्ष देखे हैं?
समाधानः- सब वर्णन आता है। शास्त्रमें सब वर्णन आता है।
मुमुक्षुः- परन्तु प्रत्यक्ष देखते हों ऐसा लगता है। आपके प्रतापसे तो यहीं मण्डलकी
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रचना हो गयी है, माताजी! कल्पना नहीं हो पाती कि मन्दिर कितने बडे होंगे!
समाधानः- उसका भी नाप आता है। सौ योजन और पचास योजन आदि कुछ आता है। सौ योजन या ऐसा कुछ आता है। मध्यम जिनालय, जघन्य जिनालय ऐसा सब आता है। सब देव तो अष्टाह्निकामें जाते हैं। जो होते हैं, उसके नियत देव होते हैं। जिन्हें साथमें जाना हो वह सब जाते हैं।
जिन प्रतिमा जिन सारखी। सम्यग्दर्शनके कारणमें जिन प्रतिमा भी कही गयी है। एक बार साक्षात भगवानके और गुरुके दर्शन, वाणी सुने, बादमें तो जिनप्रतिमा आदि सम्यग्दर्शनके कितने ही कारण आते हैं। प्रत्यक्ष वाणी एक बार मिलनी चाहिये। प्रत्यक्ष वाणी देशनालब्धिके लिये.... आत्माका स्वरूप दर्शाते हैं। चैतन्य भगवानको दर्शाते हैं।
... सागरोपमके आयुष्य पूरे हो जाते हैं तो इस मनुष्य जीवनका आयुष्य क्या हिसाबमें है? हे माता! हे जनेता! मुजे आज्ञा दे। मैंने तो अनन्त माताएँ की। अब तो मुझे अंतरमें जो अनादि जननी है, उसके पास जाता हूँ। मुझे आज्ञा दे। प्रवचनसारमें भी आता है। आत्माका स्वरूप सत्य है। वही माता और वही पिता, सब अंतरमें है। अरे..! संसारमें क्या है जो मिला नहीं। कुछ नया नहीं है। इस जीवने अनन्त जन्म-मरण किये। ऐसे संसार-दुःखसे हमें कहीं रुचता नहीं। हमें तो दीक्षा लेनी है। ऐसा कहकर चल देते हैं।
राग छोडकर, जंगलमें मुनि होकर चले जाते हैं। सीधी तरह चले जाते हैं। गुरुदेव कहते थे न? कोई उसे ले जाये, उसके बजाय मैं ही वनमें-जंगलमें, स्मशानमें चला जाता हूँ। माता-पिताका राग छोडकर, स्वयंको भव ही नहीं करने पडे, ऐसी साधना करनेके लिये जाते हैं। वही सुखदायक है। बाकी तो जीवने सब किया है, यह कुछ नया नहीं है। यह संसार तो ऐसी है है। जन्म-मरण, जन्म-मरण होते ही रहते हैं। सबने बहुत सुना है।
आत्माकी तैयारी करनेके लिये गुरुदेवका ऐसा सान्निध्य मिला, ऐसा योग मिला और ऐसी वाणी मिली, वह ग्रहण करने जैसा है। अकेले जाना है, अकेला जन्म- मरण करता है, मोक्षमें भी अकेला जानेवाला है। उसमें बीचमें किसीका साथ नहीं होता। पुरुषार्थ करे, मोक्षमें भी अकेला (जाता है)।
... इस भवसागरमेंसे भवका अभाव कैसे हो? आत्मा उससे छूट जाये, वह मार्ग ग्रहण करने जैसा है, गुरुदेवने बताया वह। इस भवसागरमें ऐसे भव तो जीवने कितनी बार किये हैं। सब भूलता आया है। अभी वर्तमानमें हो इसलिये ऐसा लगता है कि ऐसा हुआ। बाकी भूतकालमें भव-भवमें कितने प्रसंग बनते हैं। कहाँ तिर्यंचमें गया, पशुमें गया, मनुष्यमें गया, कितने दुःख सहन करता आया है। इस भवमें आत्माका
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कल्याण होनेका योग बना। इस पंचमकालमें ऐसे गुरुदेव मिले, ऐसा मार्ग मिला तो आत्माका (हित कर लेने जैसा है)।
... वाणी छूटी तो सर्व प्रथम बार वाणी छूटी (तो) जय जयकार हो गया। वाणीका धोध बहा। आषाढ कृष्णा एकम कहते हैं और शास्त्रमें सावन कृष्णा एकम कहते हैं। .. पहाड पर राजगृही नगरीमें पाँच कहते हैं न? विपुलाचल पर्वत पर भगवानकी वाणी छूटी। महावीर भगवानकी।
... हुआ, साथ-साथ छठ्ठा-सातवाँ गुणस्थान हो गया। छठ्ठे-सातवेमें निर्विकल्प दशा तो हुयी। अन्य मतको मानते थे, उसमेंसे सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हुयी, भेदज्ञान हुआ। एक ही द्रव्य मानते थे, उसमेंसे मैं आत्मा भिन्न, यह शरीर भिन्न, विभाव मेरा स्वभाव नहीं है, ज्ञायकको भेदज्ञान करके पहचाना। और अंतरमें निर्विकल्प दशा स्वानुभूति तो हुयी, आगे बढे, चारित्रदशा भी साथमें हुयी। छठ्ठा-सातवाँ गुणस्थान। अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें निर्विकल्प दशामें झुले ऐसी दशा हो गयी। छठ्ठा-सातवाँ गुणस्थान तो हुआ, उसके साथ ज्ञान प्रगट हो गया। मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय आदि सब ज्ञान (प्रगट हुए)। छद्मस्थ अवस्थामें जितनी पराकाष्टा हो, वह सब उन्हें हो गयी। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान।
मुमुक्षुः- ब्राह्मणमेंसे..
समाधानः- पूर्णरूपसे पलट गये। भगवानकी वाणी छूटी। सब तैयारी एकसाथ हो गयी। यहाँ इनकी तैयारी और वहाँ वाणी छूटी। सब साथमें हो गया। वाणी छूटी और अन्दर गये, एकसाथ हो गया। आत्माकी तैयारी। कैसी पात्रता होती है और निमित्त- उपादानका कैसा सम्बन्ध होता है!!
... स्वरूपमें उस परिणतिकी गति छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें झुले, ज्ञानकी उतनी निर्मलता, चौदह पूर्वकी लब्धि प्रगट होती है। ऋद्धि-सिद्धि सब प्रगट हो गयी।
मुमुक्षुः- गुरुदेवने यहाँ वाणीका धोध बहाया।
समाधानः- गुरुदेवने बहुत वर्ष वाणी बरसायी। सोनगढमें निरंतर ४५-४५ साल तक अत्रूटक धारासे वाणी बरसायी है, वाणीका धोध बरसाया है। चारों ओर विहार करके यहाँ सोनगढमें निरंतर वाणी बरसायी। चारों पहलूसे स्पष्ट कर-करके द्रव्य-गुण- पर्यायका स्वरूप, स्वानुभूतिका, केवलज्ञानका, मुनिपना, निमित्त-उपादान आदि सब एकदम स्पष्ट करके समझाया है। स्वंयको करना बाकी रह जाता है। वही भवका अभाव और वही सुखका कारण है। बाकी बाहर तो कहीं भी सुख नहीं है। सुख चाहिये, आत्माका स्वभाव प्रगट करना हो तो अंतरमें जाकर ही छूटकारा है। प्रथम भूमिका विकट होती है, परन्तु स्वभावको समझे तो सरल है।
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मुमुक्षुः- पर्यायोंमें रमता हुआ प्रगट होता है। यह "रमता' शब्द तो मुझे इतना आनन्दित और उल्लासित कर दिया है कि वाह रे वाह! धन्य!
मुमुक्षुः- आपने अच्छा .. किया, बहिनश्रीको भी वह बोल बहुत अच्छा लगता है।
समाधानः- अपने स्वभावमें रमता हुआ प्रगट होता है। दृष्टि वस्तु पर है, परन्तु पर्यायमें वह अपने स्वभावमें रमता हुआ प्रगट होता है। अनन्त गुणसागर आत्मा है। वह कोई अलग ही है, अदभुत है, चमत्कारी है। विचार नहीं करना पडता अथवा उसे खोजना नहीं पडता। अपने स्वभावमेंसे ही वह रमता हुआ प्रगट होता है। उसे खोजना नहीं पडता, वह तो उसका स्वभाव ही है। उसका रमता, रम्य स्वभाव ही है। विकल्प छूटने पर वह सहज ही प्रगट हो जाता है। ऐसा ही उसका स्वभाव है। अनन्त गुण-पर्यायमें परिणमना-रमना वह उसका स्वभाव है। मूल वस्तु स्वयं अपने रूप रहती है, फिर भी अपने गुण-पर्यायमें रमता है। उसका स्वभाव ही है।
मुमुक्षुः- हमें आश्चर्य होता है कि भगवान भी खेल रहे हैं! खेल रहे हैं! बहिनश्रीको हम तो भगवानस्वरूप ही देखते हैं। ओहोहो..! उनको यह "रमता' शब्द कहाँसे याद आ गया? मुझे वही आश्चर्य लगा। रमता। भगवान आत्मा रमता हुआ प्रगट होता है।
समाधानः- याद कहाँ-से आये? वह तो सहज है।
मुमुक्षुः- उनको अन्दरकी दशाका ...
मुमुक्षुः- अदभुत! अनन्त गुणसागर आत्मा है। मैं कहूँ वैसा शब्द रखिये। मैं कहूँ वह। थोडा भी आगे-पीछे नहीं।
मुमुक्षुः- निज भगवान तो गुरुदेवने डाला है प्रवचनमें, निज भगवान आत्मा। बहिनश्रीने आत्मा लिखा है। अनन्त गुणसागर आत्मा। गुरुदेवने जो विश्लेषण किया है उसमें निज भगवान आत्मा (कहा है)। इसलिये मुझे अधिक आनन्द हुआ कि निज भगवान। दूसरा कोई आत्मा है, दूसरा कोई परमात्मा नहीं, निज भगवान आत्मा। अपने आनन्दादि चमत्कारिक स्वाभाविक...
समाधानः- चमत्कारिक है, स्वाभाविक है। सब शब्द ऐसे ही नहीं है। सब यथार्थ है।
मुमुक्षुः- सत्य बात है।
समाधानः- ऐसा कहा था कि उसमें जो शब्द है, वही शब्द उसमें लेना।
मुमुक्षुः- बराबर हिफाजतसे रखा है। जिसने-जिसने किया है, सबको अभिनन्दन और वन्दन करना चाहिये। वह शब्द ऐसे ही स्मरणमें नहीं रहते। उस भावमें प्रवेश हो...
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मुमुक्षुः- सबको भेंट तो दी है, गुरुदेवने चांदीका... मुमुक्षुः- फिर भी यह अंतरकी भेंट है, वह अदभुत है! मुमुक्षुः- उसकी तो क्या बात करनी! मुमुक्षुः- सचमूच कहता हूँ, वह नहीं आ सके, न लिख सके। उसे ... आसान काम नहीं है।
समाधानः- गुरुदेवने समझाया है। इस भवका अभाव कैसे हो। जन्म-मरण करते- करते यह भव मिला, उसमें गुरुदेव मिले, महाभाग्यकी बात है। भवका अभाव होनेका मार्ग बताया। सत्य तत्त्वका स्वरूप बताया, स्वानुभूति बताया, सब उन्होंने बताया है। महाप्रबल जोरदार निमित्त गुरुदेवका (था), उनकी वाणीका निमित्त ऐसा, उन्होंने स्वयं अकेलेने स्थानकवासीमेंसे विचार करके खोज लिया और स्वयं उस रूप परिणमित होकर मार्ग प्रकाशित किया है, वह सब गुरुदेवका प्रताप है।
स्थानकवासी संप्रदायमें थे तब स्वानुभूति पर उतना जोर देते थे कि स्वानुभूति कोई अलग वस्तु है। सम्यग्दर्शन कोई अलग वस्तु है। देहसे, वचनसे, सबसे विकल्पसे भिन्न आत्मा उस पार विराजता है। ऐसा सब बोलते थे। पूरा मार्ग गुरुदेवने स्पष्ट कर-करके प्रकाशित किया है।
मुमुक्षुः- ऐसे गुरुदेव भी जब "बहिनश्रीके वचनामृत' पर प्रवचन करते हैं, तब ऐसा लिखते हैं कि ओहोहो..! बहिनके शब्द इतने सादे, सादे आसान! मैं तो आश्चर्यचकित हो जाता हूँ कि सादा कहकर क्या कहना चाहते हैं? ऐसे गहन विषयको भी बहिनश्रीने क्या लिखा है! पूरा प्रवचन पढा तब अहोभावके सिवा कुछ नहीं होता, बहिनश्री! आप गुरुदेवका ... हम स्वीकारते हैं। परन्तु गुरुदेवके अंतरमें बहिनश्रीके वचनामृत ऐसे उत्कीर्ण हो गये हैं कि बात ही मत पूछिये। उसमें सादा शब्द निकालो तो छः बार आया है, छः बार। सादे फिर भी गहन। सादे शब्द कहकर उनको सचमुच जो कहना है, वह कहनेके लिये सादे शब्द कहाँ खोजना? ऐसा है। इसलिये तब ऐसा होता है कि गुरुदेव...
समाधानः- गुरुदेवने ही मार्ग बताया है, उसमें क्या कहना?
मुमुक्षुः- मार्ग बताया वह बात सत्य है, परन्तु उनका ही यह कहनेका आशय है, वह क्या?
समाधानः- आशय वह जाने, मैं तो उनका दास हूँ। मुझे तो पुरुषार्थ करके उन्होंने जो मार्ग दर्शाया है, उस मार्ग पर आगे-आगे बढना है। गुरुदेवने स्वानुभूति बतायी, गुरुदेवने स्वरूप रमणता, चारित्र, केवलज्ञान आदि सबका स्वरूप गुरुदेवने ही बताया है।
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मुमुक्षुः- उसमें कोई शंका नहीं है, परन्तु आपकी महत्ता उनके हृदयमें कोई अदभुत थी! यह तो हम देख सके हैं। क्या आदर! क्या प्रेम! क्या वात्सल्य!
मुमुक्षुः- इसलिये उनका पूरा लाभ लेना। .. उन्होंने पूछा था, स्वानुभूति कितनी बार... सर्वश्रेष्ठ श्वेतांबर साधु .. गुरुदेव स्वानुभूतिकी बात करे इसलिये... महाराज! स्वानुभूति मतलब क्या? स्वानुभूति जैसी कोई जैन दर्शनमें नहीं है, ये .. स्वानुभूति जैसी कोई चीज नहीं है, उनके ... शब्द। स्वानुभूति क्या है? उसमें क्या होता है? ऐसा पूछा तो कहा, स्वानुभूति जैसी कोई चीज जैन दर्शनमें नहीं है।
समाधानः- संप्रदायमें यह कोई समझता नहीं था। यह सब गुरुदेवने ही प्रकाशित किया है।
मुमुक्षुः- स्वानुभूतिमें तो सिद्ध भगवानके आनन्दका अंश आता है।
समाधानः- संप्रदायमें व्याख्यानमें ऐसा लेते थे।
मुमुक्षुः- बहिनश्री! पंचाध्यायीमें तो कहा है, यह आनन्द ...
मुमुक्षुः- हमें किसीको शंका नहीं थी। सोनगढमें शान्ति, परम शान्ति है। वजुभाई है न, बस, बात खत्म।
समाधानः- ... इसलिये सबका आना-जाना होता था। एक ज्ञायकके सिवा और क्या है? एक ज्ञायकको ग्रहण करने जैसा है। देव-गुरु-शास्त्र शुभभावमें होते हैं और अंतरमें ज्ञायक। इसके सिवा जगतमें दूसरा कुछ सारभूत नहीं है। सारभूत तो एक ज्ञायक अदभुत अलौकिक है और शुभभावमें देव-गुरु-शास्त्र होते हैं।