Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 78.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 75 of 286

 

PDF/HTML Page 480 of 1906
single page version

ट्रेक-७८ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- ... कोई सरल शास्त्र ऐसा हो, जिसके लिये समय कम हो... सरल शास्त्र कोई?

समाधानः- समयसारमें बहुत आ जाता है। समयसार शास्त्रमें। और गुरुदेवके प्रवचन हैं, उसमें भी बहुत आता है। गुरुदेवने प्रवचनोंमें शास्त्रोंके रहस्य खोले हैं, उसमें बहुत आता है।

मुमुक्षुः- प्रवचन रत्नाकरमें कितना आया है।

समाधानः- बहुत आता है।

मुमुक्षुः- बहुत सरलसे सरल..

समाधानः- सरल हो जाता है। गुरुदेवने बहुत शास्त्रोंके रहस्य खोल-खोलकर सरल कर दिया है सब। मोक्षमार्ग प्रकाशक पढे तो वह भी अच्छा है। गुरुदेवने बहुत वाणी बरसायी है। कोई शंका न रहे उतना स्पष्ट कर-करके बहुत बताया है।

मुमुक्षुः- खोलके रख गये हैं एक-एकको...

समाधानः- एक-एक बातको खोल-खोलकर बताया है, बहुत बताया है।

मुमुक्षुः- माफ करना, प्रश्न जरा ऐसा है कि, मूर्ति वगैरहका प्रकरण बीचमें आ जाता है। इसका थोडा समाधान आपसे हो सके।

समाधानः- क्या कहते हैं?

मुमुक्षुः- यह भावि तीर्थंकरकी जो मूर्ति है यहाँ पर, तो उसका प्रकरण आ जाता है। उस सम्बन्धमें आपसे कुछ... अपनने जो घातकी खण्डकी जो भावि मूर्ति बनायी है.. हम लोगोंको ऐसी कषायवाली बातें आ जाते हैं,... जैसे की हम तीर्थ यात्रामें जाते हैं, तो लोग कहते हैं कि ये लोग अपने नहीं है, इनको मत घूसने दो।

समाधानः- भावि तीर्थंकरकी प्रतिमा विराजमान की है न। भावि तीर्थंकर तो घातकी खण्डमें बहुत होते हैं। घातकी खण्डमें, जम्बू द्वीपमें, पुष्कर द्वीपमें भूत-वर्तमान- भावि सब तीर्थंकरों बहुत होते हैं। जघन्यमें बीस और उत्कृष्टमें तो बहुत होते हैं। हर क्षेत्रमें होते हैं। यहाँ तो भावि तीर्थंकरकी प्रतिष्ठित की है। भावि तीर्थंकर तो सब


PDF/HTML Page 481 of 1906
single page version

हो सकते हैं।

भरत चक्रवर्तीने भूत-वर्तमान-भावि तीर्थंकरोंकी प्रतिमा विराजमान की है। शास्त्रमें आता है। भरत चक्रवर्तीने विराजमान की है। भूत-वर्तमान-भावि तीन कालकी चौबीसीकी प्रतिमा उन्होंने विराजमान की है। इसमें तो सबका भाव था। परन्तु प्रतिमा तो भावि तीर्थंकरकी प्रतिमा विराजमान की है। उसमें कोई नाम तो है नहीं। भावि तीर्थंकरकी प्रतिमा घातकी खण्डकी विराजमान की है। सब लोग विरोध करते हैं तो क्या करे? सबको भावना हुयी तो विराजमान की। सबने विरोध किया तो क्या करे?

मुमुक्षुः- तो विरोध कषायमें जायेगा?

समाधानः- वह तो सबकी बात सब जाने, और क्या करे? विरोध किसमें जायेगा? जिसको आत्माका कल्याण करना है, वह तो ऐसी बात नहीं करते।

मुमुक्षुः- उस पर वजन नहीं देना।

समाधानः- तीर्थंकर भगवान तो सब क्षेत्रमें होते हैं।

मुमुक्षुः- बहिनश्री! हमको तो इतनी उपसर्ग झेलनी पडती है कि कहीं भी जायें...

समाधानः- .. आदरने योग्य है। जिनकी मुद्रा है, प्रतिष्ठित नहीं हो तो भगवानकी मुद्रा भी आदरणीय है। तो यह तो वीतरागी प्रतिमा है। इसमें कोई अनादर करना अच्छा तो नहीं होता है। भगवानकी मुद्रा प्रतिष्ठित नहीं हुए तो भी भगवानकी मुद्रा है तो उसका अनादर नहीं करना। शास्त्रमें आता है, पानीमें ले गये तो भी अशातना होती है। भगवानकी मुद्रा तो... भगवानकी मुद्रा है, प्रतिमा है। जिनेश्वर मुद्रा है, उसमें...

मुमुक्षुः- दूसरे लोगोंको मतलब जो अपना विरोध करते हैं, उनको कैसे समझाये ऐसी बात?

समाधानः- जिसको आत्माका कल्याण करना है... सब बाहरकी बातमें सब सबकी जाने। सबका झघडा सबके पास रहो। अपने अपना कल्याण करना है। ऐसे लोगोंको पकडकर, जूठा आग्रह करके कोई करे तो करने दो, क्या करे? अपना कल्याण अपनेको करना है। सबको संप्रदायका बन्धन हो गया।

मुमुक्षुः- यह भी एक अलग गूठ बन गया। उसमें भी गूठबाजी हो गयी। ये मूर्तिको माननेवाले हैं...

समाधानः- .. क्या है कोई विचारता नहीं है। ... बात करते हैं। सबको क्रिया रुचती थी तो क्रिया करनेवाले विरोध करते थे कि ये मुनिको नहीं मानते हैं। यह तो कानजीस्वामीको मानते हैं। ये क्रियाको नहीं मानते हैं, ये तो सब बात उडाते हैं। ऐसी बात करते हैं। सत्य बात आवे तब सब विरोध करते ही हैं, होता ही है।

मुमुक्षुः- .. बहुत बाधाएँ आती है। पूर्वमें ऐसे ही..


PDF/HTML Page 482 of 1906
single page version

समाधानः- क्या करे? अखबारमें सब आता है। दूसरे गाँवमें देखो, सनावदमें, इन्दौरमें... उसमें विरोध किया। रथमें भगवानको, कुन्दकुन्दाचार्यकी प्रतिमा विराजमान की तो एक ओर भीतरमें भगवानकी प्रतिष्ठा हुयी और कुन्दकुन्दाचार्यदेवकी। खीडकीमें पत्थर और धमाल हुयी। भगवानकी प्रतिष्ठामें विघ्न डाला। दरवाजे तोड-तोडकर...

मुमुक्षुः- अभी समयसार नदीमें डालते हैं।

समाधानः- शास्त्र नदीमें डाले तो वह क्या है? शास्त्रोंकी भी अशातना करते हैं। भगवानके मन्दिरमें प्रतिष्ठा हो तो उसकी अशातना करते हैं। अपनी पक्कड ग्रहण कर-करके.... आचार्यदेवके शास्त्र हैं, कोई घरके थोडे ही है। शास्त्रकी अशातना करते हैं।

मुमुक्षुः- एक अक्षर इधर-ऊधर नहीं है। जिनवाणीका..

समाधानः- कुन्दकुन्दाचार्यकी प्रतिष्ठा करते हैं, आचार्यदेवकी और भगवानकी तो सबके सर पर पत्थर (मारे)। किसीको खुन निकला, ऐसा किया था। क्या करे? यहाँ छपे हैं तो गुरुदेवके हो गये? वह तो आचार्यदेवके शास्त्र हैं। आचायाके शास्त्र हैं।

समाधानः- ... आठवाँ द्वीप है, वहाँ ऐसा मन्दिर है। वहाँ शाश्वत जिनालय हैं। किसीने बनाया नहीं है। कुदरतकी रचना ही ऐसी है। जिनालय रच गये हैं। रत्नके जिनालय हैं। नीचे सब पर्वत हैं। रतिकर, अंजनगिरी आदि पर्वत हैं। उन पर्वतों पर जिनालय हैं। उन जिनालयोंके अन्दर प्रतिमाएँ हैं। पाँचसौ-पाँचसौ धनुषके हैं। ऐसे बडे- बडे प्रतिमा। जैसे भगवान समवसरणमें बैठे हों, वैसे ही यह शाश्वत (प्रतिमाएँ हैं)। समवसरणमें (भगवान विराजमान हों) उसी तरह भगवान बैठे होते हैं। किसीने बनाया नहीं है। जैसे पत्थर कुदरती है, वैसे रत्नरूप बने हैं। प्रतिमाओंके आकारमें वह रत्नकी प्रतिमाके आकार परिणमित हो जाते हैं। ऐसे ५२ जिनालय हैं। एकमें १०८-१०८ प्रतिमाएँ हैं। नंदीश्वर है, यहाँ जम्बूद्वीप है। दूसरा है, पुष्कर द्वीप, घातकी खण्ड है। ऐसे आगे-आगे आठवाँ नंदीश्वर द्वीप है, वहाँ शाश्वत जिनालय हैं।

वहाँ मनुष्य नहीं जा सकते हैं, देव जा सकते हैं। मेरु पर्वत है वह जम्बू द्वीपके बीचमें है। पाँच मेरु है। उसमें भी शाश्वत जिनालय हैं। रत्नकी प्रतिमाएँ हैं। जैसे भगवान हैं, वैसा ही पद्मासन, नासाग्र दृष्टि (होती है), मात्र वाणी नहीं होती। बाकी सब छत्र, चँवर सर्व प्रकारसे भगवान कमल पर विराजमान होते हैं। ऐसा होता है। भगवानकी रचनारूप अर्थात भगवान जगतमें सर्वोत्कृष्ट हैं, तो कुदरतकी रचना भी भगवानरूप कुदरती होती है, जगतके अन्दर। वहाँ मन्दिर होते हैं?

मुमुक्षुः- हाँ, मन्दिर है।

समाधानः- नंदीश्वरमें कुदरती शाश्वत भगवान हैं। पंच परमेष्ठी भगवान हैं। रुचि कैसे हो? आत्मा जगतमें सर्वोत्कृष्ट है। पंच परमेष्ठी भगवान जगतमें सर्वोत्कृष्ट हैं। पंच


PDF/HTML Page 483 of 1906
single page version

परमेष्ठी पर वैसी महिमा आये और जैसे भगवान हैं, वैसा स्वयंका आत्मा है। जैसे भगवानके द्रव्य-गुण-पर्याय हैं, वैसे अपने हैं। ऐसी रुचि हो, आत्माकी महिमा आये, भगवानकी महिमा आये, सब हो तो उसमें...

बिना विचार किये माला करे तो उसमें तो परिणाम कहाँ जायेंगे? भगवानकी उतनी भक्ति होनी चाहिये, पंच परमेष्ठीकी महिमा होनी चाहिये, तो परिणाम वहाँ रहे। आत्माकी रुचि नहीं हो, संसारकी रुचि कम नहीं हुयी हो, मात्र ओघे-ओघे बाहरसे अपने कुछ कर ले, क्रियामात्र करता हो और परिणाम तो कहीं के कहीं (भटकते हो)। अन्दर सब रस पडा हो। भगवान पर उतनी भक्ति नहीं हो, आत्माकी रुचि नहीं हो (कहाँसे हो)?

मुमुक्षुः- विचार करे, लेकिन ऐसा होता है कि यह गलत काम है, अपने सत्य करे। गलतमेंसे सत्य और शुभ-अशुभ ही होते रहते हैं। वहाँसे आगे नहीं बढा जाता। ऐसा होता है कि यह करेंगे तो कर्म बन्धेंगे, इससे कर्म छूटेंगे, परन्तु उससे आगे कुछ नहीं होता।

समाधानः- आत्माकी रुचि अन्दर होनी चाहिये। यह सब परद्रव्य है, शुभाशुभ भाव मेरा स्वरूप नहीं है। मैं भिन्न जाननेवाला ज्ञायक हूँ। ऐसे रुचि होनी चाहिये। रस बाहरका पडा है, अन्दर चैतन्यका रस नहीं आता, उसकी महिमा नहीं लगती।

मुमुक्षुः- सम्यकत्व सन्मुख मिथ्यादृष्टिकी दशा कैसी होती है?

समाधानः- उसका बाहरका लक्षण तो क्या होगा? परन्तु अंतरमें उसे एकदम आत्माकी लगनी लगी हो। एक चैतन्य.. चैतन्यके सिवा कुछ रुचता नहीं हो, उसे अन्दरसे बारंबार भेदज्ञानका अभ्यास चलता हो। पुदगल शरीर सो मैं नहीं, मैं आत्मा हूँ। यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। ऐसा ऊपर-ऊपरसे नहीं, परन्तु उसे गहराईसे (होता है)। यह चैतन्य स्वभाव मैं हूँ, यह मैं नहीं हूँ। ऐसा बारंबार, उसे बारंबार अंतरमेंसे ऐसी खटक, ऐसा अभ्यास उसे बारंबार-बारंबार चलता है। आत्माके सन्मुख बारंबार (होता हो)। आत्मा कैसे ग्रहण हो? उसकी दृष्टि बारंबार आत्माकी ओर जाती हो। कैसे आत्मा ग्रहण हो? मुझे आत्मा कैसे ग्रहण हो? मुझे आत्मा कैसे ग्रहण हो? उसका ज्ञान हो, उसमें लीन होऊँ। क्षण-क्षणमें मुझे आत्मा ही प्रगट हो, दूसरा कुछ नहीं चाहिये, मुझे एक आत्मा ही चाहिये। इतना अन्दरसे गहराईसे होता हो। मैं परपदार्थका कुछ नहीं कर सकता। मेरे स्वभावका कर्ता मैं (हूँ)। परपदार्थका जैसा होनेवाला हो वैसा होता है, मैं तो ज्ञायक ज्ञाता हूँ। लेकिन वैसी परिणति प्रगट करनेके लिये उसे अंतरमेंसे गहराईसे खटक लगती हो।

बारंबार उसका अभ्यास, गहराईसे अभ्यास चलता हो। आत्मा ग्रहण हुआ कि होगा,


PDF/HTML Page 484 of 1906
single page version

ऐसी अन्दर उसकी दशा होती है। एकदम भिन्न कैसे होऊँ? उसे कहीं रस नहीं होता। जो-जो विकल्प आवे उसमें निरसता लगे और आत्मामें ही रस लगे। आत्माका स्वभाव कैसे ग्रहण हो? उसकी सन्मुखता हर वक्त आत्माकी ओर जाती हो। मुझे आत्मा कैसे ग्रहण हो? मुझे आत्मा कैसे ग्रहण हो? बारंबार उसकी दृष्टि, उसका उपयोग बारंबार आत्माको ग्रहण करनेकी ओर उसके विचार चलते हैं, उसकी दृष्टि बारंबार जाती है। अंतर लक्षण तो वह है कि अंतरकी परिणति, उसका हृदय भीगा हुआ होता है। यह सब रस टूट गये हो, अंतरमेंसे एकदम आत्माकी गहरी रुचि जागृत हुई हो।

मुमुक्षुः- स्वसंवेदनकी दशा बारंबार आती है, उन्हें किस कारणसे बारंबार आती है?

समाधानः- बारंबार आती है, उसकी परिणति विभावसे बिलकूल... उसे विकल्पमें कहीं रुचता नहीं है। कहीं खडे रहनेका स्थान नहीं है। उसकी परिणति सबसे छूट गयी है। सब संकल्प-विकल्प बाहरके (छूट गये हैं)। सब कषाय, प्रत्याख्या, अप्रत्याख्यान सब कषाय एकदम क्षय नहीं हुए हैं, परन्तु नहींके बराबर हो गये हैं। मात्र संज्वलन है, एकदम पतला संज्वलन। अशुभ तो है ही नहीं। वह तो सत्तामात्र होते हैं। थोडे- थोडे उदय हो तो, वह तो एकदम गौण (हो गये हैं)। उन्हें उपयोगमें नहीं आते हैं, उस प्रकारके हो गये हैं। शुभ परिणति है तो भी उस शुभ परिणतिमें भी बहुत रुकते नहीं है। बारंबार स्वानुभूतिकी ओर जाते हैं। उन्हें कहीं रुकनेका स्थान बाहरमें नहीं है।

उन्हें कहीं अच्छा नहीं लगता है। अन्दर चैतन्यकी स्थिरता, लीनता बहुत बढ गयी है। आहारका विकल्प आवे, विहारका विकल्प आवे, ऐसा किसीको विकल्प आता है। तो आहार करते-करते भी स्वरूपमें लीन हो जाते हैं। बाहरसे दिखनेमें नहीं आता। क्षण-क्षणमें लीन हो जाते हैं। उनकी विभावकी सब परिणति, सब कषायोंकि परिणति इतनी टूट गयी है कि बाहर उपयोग कहाँ खडा रहे? उपयोग खडा रहनेके लिये कोई स्थान ही नहीं है। बाहर उपयोग कहाँ रुके? शरीर परसे भी राग उठ गया है। शरीरको देखनेको, कुछ सुननेका, बाहरका कोई आश्चर्य रहा नहीं। शरीरमें धूप-सर्दी लगे तो मुझे क्या? कुछ नहीं होता, वह तो शरीर है। वह तो पुदगलको होता है। बाहरसे तो सब छूट गया, बाहरसे सब रस छूट गये। इतनी उग्रता हो गयी, कषाय बिलकूल (कम हो गये), भीतरमें स्थिरता इतनी बढ गयी। बाहरसे टूट गया, भीतरमें स्वरूपकी रमणता इतनी जम गयी कि बस, बारंबार स्वरूपमें ही जम गये। वह सब टूट गया और स्वरूपमें ऐसे जम गये, ऐसी लीनता हो गयी कि बारंबार (लीनता हो जाती है)। एक क्षण बाहर आवे तो क्षणमें अंतरमें जाते हैं, क्षणमें बाहर आवे तो क्षणमें अंतरमें जाते हैं। इतनी भीतरमें उग्र लीनता हो गयी है। बारंबार निर्विकल्प दशा होती


PDF/HTML Page 485 of 1906
single page version

है।

मुमुक्षुः- बाढ आती है, गुरुदेव फरमाते थे।

समाधानः- हाँ। इतनी बाढ आती है, प्रवाह आता है। बस, आत्मा.. आत्मा.. आत्मा। सोनेका विकल्प भी नहीं, निद्रा भी अल्प हो गयी, सब अल्प हो गया। निद्रा कौन करे? मैं तो जागृत हूँ। निद्रा कहाँ आत्माका स्वभाव है? मैं तो जागृत स्वभावी हूँ। ऐसा हो गया है। निद्रा भी टूट गयी, आहार भी ऐसा हो गया, कहीं विकल्प नहीं रुकता। आत्मामें लीनता हो गयी है। चैतन्यमूर्ति, मैं चैतन्यमूर्ति हूँ, चैतन्यमूर्तिरूप बन गया। अब केवलज्ञान ले इतनी (देर है)। केवलज्ञानकी तलहटीमें आ गये हैं। बस! ऐसी दशा हो गयी कि बारंबार भीतरमें जाते हैं। ऐसी मुनिकी दशा होती है। लीनता हो गयी है। अंतरकी स्वरूपकी वृद्धि होती जाती है।

सम्यग्दृष्टि गृहस्थाश्रममें होते हैं तो बहुत परिग्रह हो तो उसका विकल्प होता है। ... मुनिको सब विकल्प टूट गया। स्वरूपमें ऐसी लीनता हो गयी, ऐसी लीनता हो गयी। द्रव्यलिंगी मुनि सब छोडकर जाता है, वह यथार्थ नहीं है। यहाँ तो स्वरूपकी लीनता हो गयी है। विकल्प भीतरसे टूट गया, स्वरूपकी लीनता हो गयी है। भिन्न हो गये, सबसे भिन्न हो गये। पदार्थ तो भिन्न है। सम्यग्दर्शनमें आंशिक भिन्न हुए थे और मुनिदशामें अत्यंत भिन्न हो गये हैं।

मुमुक्षुः- वस्तुका स्वभाव वैसा ही हो तो स्वयंको कुछ फलवान हो। आत्माका स्वभाव ज्ञान, दर्शन आदि है, फिर भी उसकी पर्यायमें जाननेके लिये इतने पुरुषार्थकी आवश्यकता क्यों?

समाधानः- स्वभाव तो ऐसा है कि स्वरूपकी ओर ढले ऐसा स्वभाव है। परन्तु अनादिका ऐसा एकत्वबुद्धिका अभ्यास हो गया है कि उसमें जानेका पुरुषार्थ (जल्दी चलता नहीं)। प्रथम भूमिका विकट होती है। समझ पीछे सब सरल है। प्रथम तो एकत्वबुद्धि इतनी गाढ हो गयी है कि वह छूटनेमें उसका रस छूटता नहीं। आत्माकी ओर जो जाता है, सम्यग्दर्शन होनेके बाद तो जैसे पानीका प्रवाह या नदीमें बाढ आती है तो बाढ बाढको खीँचती है। शास्त्रमें ऐसा आता है कि आत्माका स्वभाव प्रगट हो तो होवे। बादमें तो दौडकर स्वरूपकी ओर जाती है, परन्तु पहले एकत्वबुद्धि है तो दुर्लभ हो गया है। एकत्वबुद्धि अनादिसे ऐसी गाढ हो गयी है।

अनादि काल हुआ, परन्तु यदि सम्यग्दर्शन होवे तो बादमें इतना काल नहीं लगता। स्वरूपमें जानेके बाद स्वरूपकी परिणति स्वरूपकी ओर ही जाती है। पुरुषार्थ वैसा ही होता है। सहज पुरुषार्थ होता है। पुरुषार्थ करनेमें कठिनता नहीं लगती। बादमें उसको पुरुषार्थ करनेमें कठिनता नहीं लगती। सहज मार्ग देखनेके बाद अपना स्वभाव है तो


PDF/HTML Page 486 of 1906
single page version

सहजतासे, सहज पुरुषार्थसे अपनी ओर जाता है। प्रथम भूमिका जानता नहीं है, एकत्वबुद्धि है, आत्माको पहचानता नहीं है इसलिये कठिन हो गया है। स्वभाव है इसलिये सुगम है। अंतर्मुहूर्तमें हो जाता है, जिसको होता है उसको। नहीं होवे तो अनंत काल हो गया। स्वभाव है तो स्वभाव स्वभावकी ओर जाता है। एक बार सम्यग्दर्शन हुआ बादमें ऐसा नहीं हो जाता, पहले था वैसा। बादमें तो उसे अवश्य मुक्ति होती ही है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!
 