Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 11.

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ट्रेक-०११ (audio) (View topics)

समाधानः- .. अशुद्धता नहीं हुई है, मात्र पर्यायमें हुई है और पर्याय पलटती है। पर्यायमें जो राग होता है, वह स्वयंके पुरुषार्थसे होता है। और आत्मा वस्तु स्वभावसे शुद्ध है। उस पर दृष्टि करके पर्यायको शुद्ध कैसे करना, पुरुषार्थकी डोर कैसे प्रगट करनी, यह सब उसमें आता है। द्रव्य, गुण और पर्यायमें पूरा वस्तुका स्वरूप आ जाता है। द्रव्यके साथ अनंत गुण रहे हैं और पर्याय शुद्ध हो सकती है, उसमें यह सब आ जाता है। पूरा वस्तुका स्वरूप आ जाता है।

स्फटिक स्वभावसे निर्मल है। निमित्त हो तो निमित्तके कारण होती है, परन्तु होती है स्वयंसे, अपनी योग्यताके कारण होता है। निमित्त उसे कछु नहीं करता, परन्तु स्वयंकी ऐसी योग्यता है, इसलिये होता है। लेकिन स्फटिक स्वभावसे निर्मल है।

वैसे आत्मा द्रव्यसे शुद्ध है, पर्यायमें मलिनता है, यह सब उसमें आ जाता है। द्रव्य पर दृष्टि करनेसे ज्ञायककी धारा प्रगट हो और उसमें लीनता करनेसे पर्याय भी शुद्ध होकर शुद्ध पर्याय प्रगट होती है। सब आ जाता है। और उसी पंथ पर स्वानुभूति, उसी पंथ पर मुनिदशा, उसी पंथ पर केवलज्ञान, सब उसमें आ जाता है। नौ तत्त्व, द्रव्य-गुण-पर्याय सब उसमें आ जाता है। बाहरसे नहीं होता है, बाह्य क्रियाओंसे नहीं होता, अंतर दृष्टि करनेसे होता है। बीचमें शुभभाव आता है, इसलिये बीचमें वह सब क्रिया आती है, लेकिन उससे कोई मुक्तिमार्ग नहीं है। पूरा स्वरूप आ जाता है। एक आत्माको पहचाने और स्वानुभूति प्रगट करे उसमें सब आ जाता है।

कोई मतमें द्रव्य एकान्तसे शुद्ध है, पर्याय नहीं है, कोई कहता है, क्षणिक है, कोई कहता है, नित्य है। वह सब पहलू स्वानुभूतिमें आ जाते हैं। अनेकान्तका पूरा स्वरूप आ जाता है। द्रव्यदृष्टि मुख्य है, लेकिन यह सब साथमें होता है। ज्ञायकको पहचाना, उसके साथ विरक्ति, महिमा सब साथमें होता है। प्रत्येक पहलू आ जाते हैं। उसके भावमें सब आ जाता है। फिर बाहरमें वह कितना कह सके वह अलग बात है, उसके भावमें सब आ जाता है।

मुमुक्षुः- अनुभूति होनेपर भी शास्त्रका रहस्य वाणीमें आना चाहिये, ऐसी वाणी नहीं भी हो।


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उत्तरः- कोई बहुत विस्तार नहीं कर सके ऐसा बनता है। अन्दर स्वयंको स्वानुभूतिकी दशा प्रगट हुई हो, आनन्द दशा प्रगट हुई हो। बाहरमें मूल प्रयोजनभूत कह सके, परन्तु उसके सब न्याय और युक्ति द्वारा कोई वादविवाद करे तो उसमें वह पहुँच नहीं पाये, ऐसा भी बन सकता है। उसकी वाणी सब काम करे, सब कह सके ऐसा नहीं भी हो। उसकी वाणी द्वारा सब विचार करके सबको युक्ति, न्यायमें पहुँच सके ऐसा उसका बाहरका उदय हो, ऐसा नहीं बन सकता। उसे ज्ञानमें जाने जरूर।

मुमुक्षुः- शास्त्रमें आता है कि, उसे शास्त्र पढनेकी अटक नहीं है।

समाधानः- मूल प्रयोजनभूत जान लिया, स्वानुभूति, आनन्द दशा प्रगट हुयी, फिर अधिक शास्त्र पढे हो तो ही वह आगे बढता है, ऐसा नहीं है। अभी लीनता कम है, चारित्रदशा नहीं हुई है तो उसमें बीचमें शुभभाव आये तो वह शास्त्रमें रुकता है, शास्त्रका अभ्यास करे, शास्त्रका विचार करे, श्रुतका विचार करे, द्रव्य-गुण-पर्यायका विचार करे, परन्तु इतना ज्ञान होना ही चाहिये, इतने शास्त्रोंका अभ्यास किया हो तो ही वह आगे बढे, तो ही उसकी शुद्धि हो और उसकी भूमिका बढती जाये, ऐसा शास्त्रके साथ सम्बन्ध नहीं है।

अंतरमें वह भिन्न होता जाये और लीनता बढती जाये, विरक्ति बढती जाये तो उसकी दशा आगे बढती जाये। उसे ज्ञानके साथ अथवा शास्त्रके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। सब जाने।

मुमुक्षुः- भावभासन सबका..

समाधानः- भावभासन पूरा है। वाणी या बोलना अथवा विस्तार करना ऐसा नहीं है, अन्दर सबका भावभासन है। कितनोंको नाम नहीं आते परन्तु भाव है कि मैं यह आत्मतत्त्व हूँ। यह विभाव है, ये दुःखरूप है, उससे मैं भिन्न हूँ। यह मेरा स्वरूप नहीं है, दुःखरूप मेरा स्वभाव नहीं है। उससे भिन्न होकर अन्दर शान्ति हेतु निज स्वभाव-घरमें जाता है कि शान्ति तो यहाँ है, इसमें नहीं है। इसप्रकार शान्ति हेतु अंतरमें जाता है। और मैं तो यह जाननेवाला हूँ। यह शरीर आदि सब मुझसे भिन्न है। ये विभाव, सब विकल्प आये वह सब आकूलतामय हैं। सब भाव उसे आते हैं।

(शिवभूति मुनिको याद) नहीं रहता था, ऐसा था। गुरुने कहा तो शब्द याद नहीं रहे और भाव याद रह गया कि मेरे गुरुने ऐसा कहा है कि तू भिन्न है और ये सब विभाव आदि भिन्न हैं। ये सब छिलका है और तू कस है। वह औरत दाल धोती थी। (उसे देखकर स्मरण हुआ कि), मेरे गुरुने ऐसा कहा था, जैसे छिलका अलग है, वैसे तू भिन्न है और ये सब तुझसे भिन्न है। ऐसा अन्दरसे आशय ग्रहण


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(कर लिया)। मातुष, मारुष शब्द भूल गये और भाव याद रह गया।

मुमुक्षुः- तिर्यंचको ऐसा ख्याल आता होगा कि इसमेंसे ही मेरी पूर्ण शान्ति प्रगट होगी, मुझे केवलज्ञान प्रगट होगा?

समाधानः- केवलज्ञान शब्द नहीं आता हो, परन्तु इसमें रहनेसे ही मुझे शान्ति और इसमें रहनेसे ही मुझे आनन्द है। बाहर जानेसे शान्ति या सुख नहीं है। ये मेरा कुछ नहीं है, ये मेरा स्व-घर है। उसमें शान्ति और आनन्द लगे। इसमें ही स्थिर हो जाऊँ, विकल्प छूट जाये और रागादि कुछ नहीं, मात्र वीतराग दशा हो और पूर्ण तत्त्वमें स्थिर हो जाऊँ। उसमें मेरा पूर्ण ज्ञायक प्रगट हो जाये। मैं लोकालोक जानूँ ऐसा इच्छा नहीं होती। मेरी पूर्ण वीतरागता हो जाओ। अर्थात मेरी पूर्णता हो जाओ। ऐसा ख्याल है। इसमें ही स्थिर होनेसे मेरी पूर्णता हो जाओ, ऐसा ख्याल है।

जाननेवाला आत्मा है वह पूर्ण जाननेवाला ही है। उसमें सब जानना होता ही है, ऐसा भाव उसमें है। आत्मा पूर्ण जान सकता है, जाननेवाला किसे नहीं जाने? सब जाननेवाला है, उसमें स्थिर हो जाऊँ। तो उसका जानना और वीतराग दशा एवं सब, इसमें स्थिर हो जाऊँ तो परिपूर्ण हो जाये, ऐसा भाव उसे होता है। जाननेवाला है, वह सब जान सकता है। कुछ नहीं जाने ऐसा नहीं है। लेकिन इसमें स्थिर हो जाऊँ तो यह जाननेवाला सब जाने, सहजरूपसे जाने ऐसा है। वीतराग हो जाऊँ तो यह सब छूट जाये ऐसा है।

मुमुक्षुः- अर्थात मुझे इसमेंसे मेरी शान्ति मिलती ही रहे, ऐसी भावना उसे होती है?

समाधानः- बस, शान्ति मिलती रहे। अन्दर ज्ञायककी धारा और शान्ति प्राप्त होती रहे, मैं तो जानने वाला ही हूँ। ये सब दुःखरूप है, वह मेरा स्वरूप ही नहीं है। मैं तत्त्व ही अलग हूँ, मैं भिन्न ही हूँ। यह तिर्यंचका शरीर मैं नहीं हूँ, मैं तो अन्दर कोई भिन्न आत्मा ही हूँ। ऐसा भावभासन है। मैं तो कोई अदभुत आत्मा हूँ।

(किसीको) ऐसा ज्ञान होता है कि वादविवादमें पहुँच जाये। अकलंक आचार्य आदि सबको वैसा शास्त्रका ज्ञान था। पहुँच जाये, कोई मुनि वादविवादमें पहुँच जाये, ऐसी युक्तिसे (वादविवाद करे)। ऐसा नहीं कर सके तो ऐसे प्रसंगमें पडते ही नहीं। जिसमें (स्वयं) पहुँच नहीं पाये वैसे प्रसंगमें नहीं पडते। स्वयंको स्वयंका प्रयोजन साधना है। स्वयंको निजात्माका करना है।

प्रश्नः- ... कल्पनासे लगे, पशुको ऐसे चैतन्यगोला भिन्न लगे।

समाधानः- पशु भी आत्मा है न। जाननेवाला आत्मा है। कहनेमें पशु है, लेकिन अन्दर जाननेवाला है। उसे सभी प्रकारका अन्दर वेदन है। जाननेवाला है। उसे शरीर


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तर्यंचका मिला, वह आत्मा कोई अलग नहीं हो गया है। तिर्यंचका शरीर है, परन्तु अन्दर वह आत्मा है। भगवानके समवसरणमें तिर्यंच आदि आते हैं। सिंह, बाघ आदि आत्मा है। गाय, भैंस, बकरे आदि सब आते हैं। आत्मा है, जानते हैं कि ये भगान हैं, ऐसा सब अन्दर जानते हैं। कोई-कोई शब्दोंका कुछ ज्ञान तो होता है। कुछ भावका (भासन), थोडा शब्दका ज्ञान (है)। ये भगवान हैं, कुछ अलग कहते हैं। वाणी सुनकर अन्दर सम्यग्दर्शन होता है। आत्मा है।

महावीर भगवानका सिंहका भव था। मुनि आकर कहते हैं, अरे..! शार्दूल! ये क्या करता है? आत्मा है न, अन्दर समझ गये। मैंने भगवानके पास सुना था, तू तीर्थंकर होनेवाला है। मुनिने ऐसे कहा तो अन्दर समझ गया। आँखमें आँसु आये, सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ। पूरा का पूरा, संपूर्ण आत्मा, प्रत्येकका आत्मा ऐसी ही शक्तिवाला और ऐसी ही ऋद्धिवाला आत्मा प्रत्येकमें है। तिर्यंचमें भी है। ऐसा लगे कि ये तिर्यंच क्या समझते होंगे? परन्तु तिर्यंच भी आत्मा है। वर्तमानमें सबकी शक्ति क्षीण हो गई। वर्तमान तिर्यंचमें कुछ दिखाई नहीं दे, लेकिन वह सब आत्मा है। चतुर्थ कालमें और अच्छे कालमें तो सब तिर्यंच ऐसी बुद्धिवाले और ऐसी शक्तिवाले (होते हैं)।

तिर्यंच हो तो भी वह आत्मा है न। मनुष्योंमें दुर्लभ हो गया है, तिर्यंचकी क्या बात (करे)? उसमें तो चतुर्थ काल हो, भगवान विराजते हो, लाखों मुनि, श्रावक और श्राविका, हजारो मुनि, लाखो श्रावक एवं श्राविका.. इतना धोख मुक्तिका मार्ग होता है। उसमें तिर्यंच भी प्राप्त करते हैं। तिर्यंचको पंचम गुणस्थान होता है। रामचंद्रजीका हाथी पंचम गुणस्थान (में) खाता नहीं, पीता नहीं। अन्दर समझता है। व्रत धारण किया है। सम्यग्दर्शन है।

समाधानः- ... इस लोकमें जितने परमाणु थे, ... एक-एक आकाशके प्रदेशमें अनन्त जन्म-मरण किये हैं। इस कालद्रव्यके जितने समय हैं, उन समयमें अनन्त बार स्वयंने जन्म-मरण किये। उतना काल। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी, अनन्त बार जन्म (धारण किये)। उतने ही प्रकारके विभावके अध्यवसाय अनन्त किये। ऐसे परावर्तन उसने अनन्त बार किये, परन्तु अब तक उसके भवका अभाव नहीं हुआ।

भवका अभाव बतलाने वाले गुरुदेव मिले। मनुष्यजीवनमें वही करना है। बाकी तो संसार ऐसा ही है। जीव स्वयं शाश्वत मानता है, परन्तु शाश्वत तो कुछ नहीं है। शाश्वत तो एक आत्मा ही है। आयुष्य पूरा होता है तब चले जाते हैं। जीव मानता है कि सब मेरा है। कुछ भी अपना नहीं है। देवलोकका सागरोपमका आयुष्य होता है। वह सागरोपम इतना बडा कहलाता है, ऐसे सागरोपमका आयुष्य भी, देवोंको अमरापुरी कहते हैं। एक सागर जितना आयुष्य होता है। सागरोपमका आयुष्य भी पूरा हो जाता


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है। देवोंका आयुष्य पूरा हो जाता है तो मनुष्यका आयुष्य किस हिसाबमें है? मनुष्यका जीवन तो सौ-पचास सालका आयुष्य का क्या हिसाब है? जन्म-मरण चलते ही रहते हैं।

ऐसा संसार देखकर बडे-बडे राजा और तीर्थंकर, संसार छोडकर मुनि हो जाते थे। वह संसार तो ऐसा ही है। एक पानीके बिन्दु समान, जैसे ओसका बिन्दु सुबह दिखाई दे और तुरन्त विलिन हो जाते हैं। बिजलीके चमकारे जैसा मनुष्यजीवन है। उसमें आत्माका कर लेने जैसा है। बाकी संसार तो ऐसा ही है। तीर्थंकर भी मुनि बनकर नीकल जाते थे। वर्तमानमें ऐसी दशा नहीं हो सके तो स्वयं अन्दर आत्मा कैसे प्राप्त हो? सम्यग्दर्शन कैसे हो? स्वानुभूति कैसे हो? वब करने (जैसा है)। संसार तो ऐसा ही है। विचारकर, सब पलटकर शांति रखने जैसी है। राग होता है उतना दुःख होता है, परन्तु सब पलटने जैसा है। संसार तो ऐसा ही है।

.. संसारमें कोई उसका साथी नहीं होता। स्वयंके किये हुए कर्म स्वयं अकेला ही भोगता है। जो पुण्य-पाप कर्म बान्धे वह अकेला भोगता है, अकेला मोक्ष जाता है और संसारमें अकेला रखडता है, उसका कोई साथीदार नहीं होता। इसलिये स्वयं ही स्वयंका कर लेना। ऐसा यह संसार है। गुरुदेवने यह मार्ग बताया, वही करने जैसा यह एक ही है।

अन्दर शुद्धात्मा कैसे पहचानमें आये? वह करने जैसा है। आयुष्य पूर्ण होता है तो एक क्षणमें। चतुर्थकालमें भी आयुष्य पूरे होते थे। चक्रवर्तीओंके, राजाओंके, सबके आयुष्य पूर्ण होते थे।

चत्तारी मंगलं, अरिहंता मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपणत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारी लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपणत्तो धम्मो लोगुत्तमा।

चत्तारी शरणं पवज्जामि, अरिहंता शरणं पवज्जामि, सिद्धा शरणं पवज्जामि, केवली पणत्तो धम्मो शरणं पवज्जामि।

चार शरण, चार मंगल, चार उत्तम करे जे, भवसागरथी तरे ते सकळ कर्मनो आणे अंत। मोक्ष तणा सुख ले अनंत, भाव धरीने जे गुण गाये, ते जीव तरीने मुक्तिए जाय। संसारमांही शरण चार, अवर शरण नहीं कोई। जे नर-नारी आदरे तेने अक्षय अविचल पद होय। अंगूठे अमृत वरसे लब्धि तणा भण्डार। गुरु गौतमने समरीए तो सदाय मनवांछित फल दाता।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!