Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 10.

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ट्रेक-०१० (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- देव-गुरु-शास्त्रके विषयमें जो निर्णय होता है और अनुभूतिके बाद देव- गुरु-शास्त्रका निर्णय, उसमें तो फर्क नहीं पडता।

समाधानः- .. निर्णय होता है, परन्तु अनुभूतिके बाद जो उसकी लाईन है वह अलग है।

मुमुक्षुः- देव-गुरु-शास्त्रके विषयमें भी..

समाधानः- सब अलग है। भिन्न पड जाये और बादमें उसकी जो प्रतीत होती है, देव-गुरु-शास्त्र पर जो भाव आये, वह भिन्न रहकर कैसे आती है, वह तो श्रद्धा जोरदार होती है। वह सब भिन्न परिणतिमें आता है, वह अलग कहनेमें आता है। पहले आता तो है।

जो द्रव्यलिंगी मुनि होता है, उसे देव-गुरु-शास्त्रकी ऐसी श्रद्धा होती है कि चलायमान करने आये तो भी चलित नहीं हो। ऊपरसे इन्द्र आये, चाहे जितने उपसर्ग, परिषह आये, ऐसी उसकी श्रद्धा होती है। यद्यपि उसे आगे जानेमें तो उसमें उसने मान लिया है, परन्तु ऐसी श्रद्धा होती है। देव-गुरु-शास्त्रमें ऐसा अडिग होता है। और ये जिज्ञासु है वह भी अडिग होता है।

भेदज्ञानपूर्वककी धारासे जो आता है, उसकी लाईन अलग है। उसे जो शुभभाव आता है, उसकी रस-स्थिति होती है वह अलग होती है। उसकी स्थिति कम होती है और रस अधिक होता है। भेदज्ञानपूर्वक ऐसा होता है। (जिज्ञासुको) भेदज्ञान हुआ नहीं है, भले ही भावना है। लेकिन उसमें अभी ये सब फेरफार नहीं होते हैं। उसकी परिणति न्यारी हो गयी है तो रस, स्थिति सबमें फेरफार हो जाता है। और शुभभाव ऐसे उच्च होते हैं तो भी स्थिति लम्बी नहीं पडती। रस अधिक होता है।

अंतरसे सर्वस्वता नहीं होती, परन्तु भक्ति आदि सब बहुत आती है, ऐसा दिखायी दे। प्रथम भूमिकामें उसे भक्ति आये। देव-गुरु-शास्त्रके लिये उपसर्ग, परिषह सहन करनेके लिये तैयार हो, ऐसा होता है। उसे ऐसा होता है।

समाधानः- इतने शास्त्र कंठस्थ किये, तत्त्वार्थ सूत्र या (अन्य), वह ज्ञान हो गया, ऐसा सब मानते थे। अन्दर आत्मामें सब भरा है, आत्माके द्रव्य-गुण-पर्याय और


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आत्मामें कोई अपूर्व आनन्द और अनुपन स्वानुभूति अन्दर होती है, वह किसने बताया? वह गुरुदेवने ही बताया है। समयसारके रहस्य किसने खोले हैं? गुरुदेवने ही खोले हैं।

मुमुक्षुः- लोग भडके तो शुरूआतमें गुरुदेव एक-दो दिन नहीं ले।

समाधानः- .. स्वयं बिराजते थे। उनकी वाणी... और जो अभी हो रहा है वह गुरुदेवके प्रभावमें ही हो रहा है, ऐसा ही मानना चाहिये। वही आत्मार्थीताकी शोभा है और वही आत्माका प्रयोजन है। दूसरा सब कुछ स्वयं करे वह कुछ नहीं। जो करता है वह स्वयंके लिये करता है। सच्ची श्रद्धा हो, ज्ञाताकी धारा हो, उसके साथ विरक्ति हो, ज्ञायकता प्रगट हो और आस्रव नहीं छूटे ऐसा नहीं बनता। ज्ञायकता प्रगट हुयी उसे कहें कि उसे विज्ञानघन वस्तु ... ज्ञायकता हो उसके साथ अभी अस्थिरता शुभभाव होता है। उसकी भूमिकाके योग्य, भूमिका अनुसार सच्चे देव-गुरु-शास्त्रकी भक्ति, कार्यो, उस अनुसार उसे अमुक प्रकारके शुभभाव साथमें होते ही हैं।

.. आत्माकी बहुत बात आये, शास्त्रमें-समयसार आदिमें। यह मनुष्यजीवन मुश्किलसे मिले, उसमें ये सब योग मिलना महामुश्किल है। गुरुदेवने जो मार्ग बताया वह मार्ग कैसे ग्रहण हो? वह करना है। यह शरीर पदार्थ भिन्न है, उसके द्रव्य-गुण-पर्याय भिन्न है, आत्माके द्रव्य-गुण-पर्याय भिन्न है और अन्दर विभाव होता है वह स्वयंका स्वभाव नहीं है। वह भिन्न आत्मा कैसे जाननेमें आये वही निश्चयसे करना है। समयसार पढ ले, स्वाध्याय कर ले, लेकिन करना तो अंतरमें है। निश्चयसे जब अंतरमें ऊतरे और स्वयंकी परिणति कैसे पलटे तो भवका अभाव होता है। सीखे वह ठीक है कि स्वयंको जानकारी प्राप्त होती है कि मुक्तिका मार्ग क्या है, परन्तु अंतरमें उतारे तो उसमें भवका अभाव होता है। अन्दर आत्माकी प्राप्ति होती है। मनुष्यजीवनमें वही करना है।

आत्माकी रुचि कैसे प्रगट हो? निश्चयसे तो वह करना है। बाकी सब बाहरका है। अंतरमें होवे वह निश्चय है। अनंतकालमें किया है, सब किया, स्वयं अनंत बार मुनि हुआ, सब हुआ लेकिन आत्माको पहचाना नहीं। आत्मा कैसे पहचानमें आये? सत्य तो वह है। देव-गुरु-शास्त्र (के प्रति) शुभभावमें उनकी भक्ति (आती है), लेकिन अंतरमें आत्मा कैसे पहचानमें आये? आत्मा भिन्न पडे तो भवका अभाव होता है। आत्मा जाननेवाला ज्ञायकस्वभाव है। अन्दरसे पहचाने। मात्र बुद्धिसे विचार करे वह अलग है और अंतरमें पहचानमें आये, तो अंतरसे भवका अभाव होता है। बाहरसे नहीं होता। अंतर परिणति पलटे तो होता है।

जगतमें सर्वोत्कृष्ट (है)। जिनप्रतिमा जिन सारखी। जिनेन्द्र भगवानके दर्शन हो और अन्दर आत्माके विचारसे सर्व दुःख खत्म हो जाते हैं। जिनेन्द्र देव सर्वोत्कृष्ट हैं। शुभभावमें एक जिनेन्द्र देव और गुरु, जिनेन्द्र देवके आश्रयसे और अन्दर आत्माका आश्रय लेनेसे


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सब दुःख (टल जाते हैं)। अनादिकालका विभाव टल जाता है तो सब दुःख टल जाते हैं। इसलिये आत्माका आश्रय लेना और बाहरसे जिनेन्द्र देव, गुरु और शास्त्रका आश्रय, वह सत्य आश्रय है। जिनेन्द्र देव जगतमें सर्वोत्कृष्ट हैं, गुरु जो साधना करे, गुरुदेव इस जगतमें पंचमकालमें सर्वोत्कृष्ट थे। तत्त्वकी बात आये, वह सब सर्वोत्कृष्ट है, उसका आश्रय लेना और अन्दर आत्माका आश्रय लेना।

यह विचार करना, आत्मा ज्ञायक है। उसमें कोई परवस्तु तो उसकी है ही नहीं, ये शरीर भी उसका नहीं है, तो कोई वस्तु कहाँ स्वयंकी होनेवाली है? और हुई भी नहीं है। उससे अत्यंत भिन्न है। उसके द्रव्य-गुण-पर्याय भिन्न, स्वयंके द्रव्य-गुण- पर्याय भिन्न। शरीरके साथ भी जीवको सम्बन्ध नहीं है तो अन्य किसीके साथ कहाँ- से सम्बन्ध होगा? अन्दर विभाव स्वभाव भी स्वयंका नहीं है। वह स्वयंका स्वभाव नहीं है। स्वयं अकेला ज्ञायक है, लेकिन ज्ञायक महिमासे चैतन्यदेव है, उसमें उसे अन्दर रुचि लगे और आनन्द हो ऐसा आत्मा है। वही निश्चयसे करना है। अन्दर उपयोग नहीं आये तो बाहरमें जिनेन्द्र देव-गुरु और शास्त्रका आश्रय, वह जीवको कल्याणकारी और मंगलकारी है और वही सुखका कारण है।

(अनन्त काल) गया उसमें जन्म-मरण करते-करते यह मनुष्यभव मिलता है, उसमें ऐसे गुरुदेव मिले तो वह एक आश्रय लेने जैसा है। वह धर्मका आश्रय वह सत्य आश्रय है। आपने तो बहुत समझा है, आपको बहुत रुचि है, गुरुदेवका बहुत सुना है तो फिर वही करने जैसा है। वह भूलना ही होगा। (दुःख) लगे तो पलट देना, चित्तको (बदल देना)। अन्दर आत्मा पहचानमें नहीं आये और उसमें नहीं मुडे तो बाहरसे जिनेन्द्र देव, गुरु और शास्त्रमें चित्त लगाये।

आत्मा सबसे भिन्न ज्ञायक शुद्धात्मा (है)। शुद्धात्मा महिमाका भण्डार है, अनंत गुणोंसे भरपूर है, उसका स्मरण करना, उसका स्वभाव शास्त्रमें (कहे) तत्त्वका विचार करना, वह करना है।

सबको (लगनी) लगायी कि आत्मा अलग है। गुरुदेवसे कोई अपूर्वता सबको लगी। अब तो गुरुदेवने जो कहा वही कहना है। बाकी सबमें गुरुदेव जो अपूर्वता ले आये हैं, पूरा परिवर्तन, कोई अलग ही परिवर्तन (हो गया)। स्थानकवासी, देरावासी, दिगंबरों सबमें कोई अलग ही प्रकारका परिवर्तन ले आये। बहुत किया है। उन्हें किसीके साथ की जरूरत नहीं पडती, वे तो महापुरुष थे।

मुमुक्षुः- प्रभावना बढती जाती है।

समाधानः- गुरुदेवका प्रभाव है। पूरा परिवर्तन करके गये हैं। अन्दर जिन्होंने ग्रहण किया है उसकी प्रभावना होती है। पूरा परिवर्तन गुरुदेव ले आये। सब कोई क्रियामें


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पडे थे, कोई कहीं थे, कोई बाहरसे धर्म मानते थे, बाहरसे शुद्धि-अशुद्धि पडी थी, कोई शास्त्र पढे, सीख ले, पढ ले तो धर्म हो जाये अथवा उपवास या दूसरा कुछ कर ले अथवा (बाह्य) शुद्धि-अशुद्धि आदि अनेक प्रकारमें पडे थे। गुरुदेवने पूरा परिवर्तन कर दिया। भावनाप्रधान। क्रियासे कुछ नहीं है, गुरुदेवने अंतर दृष्टि करवायी।

मुमुक्षुः- प्रथम ही प्रवचन सुने और दूसरे दिनसे दिगम्बर।

समाधानः- सब लोग विचार करने लगे कि ये कुछ अलग कहते हैं। द्रव्यदृष्टिकी प्रधानतापूर्वक अन्दर साथमें सब आता था, चारों पहलूसे कहते थे। .. पूर्वक अन्दर वैराग्य, महिमा, भक्ति आदि सब उनकी वाणीमें आता था।

... द्रव्यदृष्टिकी मुख्यतापूर्वक सब उसे ख्याल होता है, अस्थिरता आदि सबका ख्याल हो तो साधना होती है। ... मुख्य रखकर भेदज्ञानकी धारा, उसमें अल्प अस्थिरताका उसे ख्याल है, तो उसे साधन (होती है)। कछु है ही नहीं, ऐसा मान ले तो द्रव्यदृष्टि ही सम्यक नहीं होती।

मुमुक्षुः- शुष्कता आ जाये। उत्तरः- शुष्कता आ जाये। द्रव्यदृष्टिकी प्रधानतापूर्वक ज्ञानमें सबका ख्याल होता है।

मुमुक्षुः- द्रव्यदृष्टिकी प्रधानतापूर्वक ज्ञानमें सब ख्याल है।

समाधानः- सबका ख्याल है।

मुमुक्षुः- अस्थिरताका भी ख्याल है।

समाधानः- ख्याल है। कमी है, अधूरापन है, सब ख्याल है। अभी करनेका बाकी है, अभी लीनता बाकी है, सबका ख्याल है। द्रव्यदृष्टिसे भले द्रव्य शुद्ध है, ऐसे द्रव्यदृष्टिकी प्रधानता होनेके बावजूद पर्यायमें अशुद्धता है उसका ख्याल है। गुरुदेवकी वाणीमें सब आता था, चारों पहलू।

मुमुक्षुः- ...

समाधानः- अभी उनको राग है, उस प्रकारका प्रशस्त राग है, भक्ति है, आये बिना नहीं रहता। शुभराग है देव-गुरु-शास्त्र(का), जानते हैं। भेदज्ञान है कि यह मेरा स्वरूप नहीं है, राग है। लेकिन भूमिका है इसलिये आता है। जानते हैं, परन्तु साधना अभी बाकी है, इसलिये पुरुषार्थ डोर भी साथमें है। मर्यादा छोडकर बाहर नहीं जाता। एकत्व नहीं होता, एकत्व नहीं होता, वैसी आकूलता नहीं है, फिर भी ख्याल है कि आता है। स्वयं भिन्न रहता है। अस्थिरता है उसका ख्याल है। ख्याल है और पुरुषार्थकी डोर हाथमें है। पुरुषार्थकी डोर छोडते नहीं है। सहज दशा होती है। ज्ञायककी ज्ञाताधारा सहज द्रव्यदृष्टि चालू रहती होनेपर भी साथमें पुरुषार्थकी डोर हाथमें है। मर्यादासे


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अधिक बाहर नहीं जाता। उसकी सम्यग्दर्शनकी भूमिका है, उस अनुसार (राग आता है)। पंचम गुणस्थान वाले उनकी भूमिका अनुसार पुरुषार्थकी डोर (होती है), आगे बढते जाते हैं। छठ्ठे-सातवें गुणस्थान वाले अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें स्वरूपमें लीन होते हैं, तो भी बाहर आते हैं तब उन्हे देव-गुरु-शास्त्रके शुभ परिणाम आते हैं, शास्त्र लिखते हैं। पद्मनंदी आचार्यको भक्तिके परिणाम आये तो भक्तिके श्लोक लिखे। अनेक प्रकारके शास्त्र लिखते हैं। अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें अन्दर जाते हैं।

मुमुक्षुः- परिणति परमें जाये तो खेद होता है।

समाधानः- खेद होता है। परन्तु जानते हैं कि मेरे पुरुषार्थकी मन्दता है। इसमें जुडना होता है, मुझे तो पूर्ण होना है, तो भी पुरुषार्थकी डोर हाथमेें है।

मुमुक्षुः- ज्ञाताधारा तो अविरतरूपसे चालू रहती है। फिर भी जानते हैं और पुरुषार्थकी डोर भी उनके हाथमें है।

समाधानः- ज्ञाताधारा चालू है तो भी अस्थिरताका ख्याल (है), पुरुषार्थकी डोर हाथमें है। मर्यादासे अधिक बाहर नहीं जाता।

मुमुक्षुः- ज्ञानीका हृदय आपने खोल दिया।

मुमुक्षुः- जानते हैं, फिर भी मर्यादामें..

समाधानः- वह तो उसे विकल्पपूर्वक है तो भी उसकी मर्यादा बाहर परिणति नहीं होती। ज्ञान .. वह तो भेदज्ञानकी धारा है, पुरुषार्थकी डोर (हाथमें है)। जिसे आत्माका प्रयोजन साधना है, उसकी अमुक प्रकारके मर्यादा बाहर नहीं जाते। उसे विभाव परिणति चाहिये ही नहीं। आत्मार्थीका जो प्रयोजन है, आत्माको साधना है, आत्माकी लगनी लगी है, विभाव परिणतिमें उसे एकत्व छूटा नहीं है, तो भी वह मर्यादा बाहर नहीं जाता। तो ही आत्माको साध सकता है, नहीं तो कहाँ-से साधे? तो ही उसे आत्मा मिले, नहीं तो कहाँ-से मिले?

मुमुक्षुः- आत्मार्थी मुमुक्षु भी अपनी मर्यादाके बाहर नहीं जाता। समाधानः- तभी उसकी पात्रता कही जाती है। नहीं तो आत्माका प्रयोजन है तो आत्मा कहाँ-से मिले? अमुक पात्रता तो होनी ही चाहिये।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!
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