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मुमुक्षुः- माताजी! देव-गुरु-शास्त्रकी भक्तिका तो ख्याल आता था कि भगवानकी इसप्रकार भक्ति (करनी), गुरुकी इसप्रकार भक्ति करनी। ज्ञायककी भक्ति, आप यह एक नया ही प्रकार दो दिनसे समझाते हो।
समाधानः- उसकी महिमा आये बिना आगे नहीं बढा जा सकता। मात्र शुष्कतासे आगे बढे तो वहाँ अटक जाता है। ज्ञायककी महिमा आये तो ही आगे बढ सकता है। ज्ञायककी भक्ति आये तो ही आगे जा सकता है।
मुमुक्षुः- आपने एक बात बहुत सुन्दर की थी, ज्ञायकका लक्षण ... मात्र शुष्कता हो जायेगी तो प्राप्त नहीं होगा। महिमापूर्वक..
समाधानः- महिमापूर्वक होना चाहिये। बहुत लोग कहते हैं न कि भक्तिसे.. अन्दर ज्ञायककी भक्ति आनी चाहिये, तो आगे जा सकता है। वह भक्ति पहचानकर, ज्ञानपूर्वककी भक्ति, ज्ञायकको पहचानकर भक्ति आये। ज्ञायकका लक्षण पहचानकर, यही ज्ञायक हूँ, इसप्रकार उसकी भक्ति आनी चाहिये।
मुमुक्षुः- वचनामृतमें यह बोल था, कल बात की उसमें, उतना ख्याल नहीं आता था, जितना इन दो दिनोंमें आया। उस वचनामृतमें-१५३ नंबरके वचनामृतमें तीन पंक्ति है, ज्ञायकके (द्वार पर) टहेल लगानी। उसमें दूसरी तरहसे लिखा है। लेकिन कल आपने विस्तार किया तब ख्याल आया कि इसमें इतना भरा है।
मुमुक्षुः- वचनामृतमें लिखा है, वह दूसरी तरहसे है। ज्ञायककी टहेल लगानी। राजाके दरबारमें...
समाधानः- हाँ, टहेल लगानी, ज्ञायककी टहेल लगानी। आत्माका द्रव्य क्या, आत्माका गुण क्या, आत्माकी पर्याय क्या, सबका विचार करके स्वयं उसकी महिमा लाये।
मुमुक्षुः- महिमापूर्वक भक्ति आनी चाहिये।
समाधानः- महिमापूर्वक आनी चाहिये।
मुमुक्षुः- ज्ञायककी भक्ति आनी चाहिये।
समाधानः- ज्ञायककी आनी चाहिये।
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मुमुक्षुः- गुरुदेव निश्चयसे अंधकारमें प्रकाशरूप ही हैं।
समाधानः- अंधकारमें प्रकाश व्याप्त हो गया, गुरुदेव पधारे। गुरुदेव इस जिनशासनमें बिराजते थे, वह एक प्रकाश था, एक प्रभात उदित हुआ। सूर्य समान! लेकिन उन्होंने जो वाणीकी वर्षा की है, बहुत मुमुक्षुओंके हृदयमें जो उपदेश दिया, सबके हृदयमें छा गया है। उसे स्वयं ग्रहण करे तो भी उसमेंसे कल्याण हो ऐसा है।
मुमुक्षुः- जैसे पद्मनंदी आचार्य कहते हैं न कि, ऐसी उपदेशकी जमावट की है, उसके आगे तीन लोकका राज..
समाधानः- तीन लोकका राज (तुच्छ है)। उसके आगे मुझे तीन लोक, मेरे गुरुने जो उपदेशकी जमावट की है, उसके सामने मुझे ये तीन लोकका राज प्रिय नहीं है। इस लोकका-पृथ्वीका राज तो क्या, पृथ्वीका राज तो नहीं, अपितु तीन लोकका राज हो तो भी वह मुझे प्रिय नहीं है। मुझे कुछ नहीं चाहिये। मुझे इस पंचमकालमें एक गुरु मिले और गुरुका जो उपदेश प्राप्त हुआ, उसके सामने सब तुच्छ है। मुझे कुछ नहीं चाहिये। जिस उपदेशकी जमावट गुरुदेवने की है, ऐसी उपदेशकी जमावट करनेवाले इस कालमें मिलना बहुत दुर्लभ है।
मुमुक्षुः- सुनते ही धर्मकी प्रतीति होने लगे।
समाधानः- हाँ, धर्मकी प्रतीति होती है। उनकी वाणी ऐसी थी।
मुमुक्षुः- आपके पास आते हैं तब आपके मुखसे निरंतर ज्ञायक.. ज्ञायक.. ज्ञायक..
समाधानः- सब पूछते हैं इसलिये। करना एक ही है। चारों पहलूसे जानना रहता है, करना एक ही है।
मुमुक्षुः- ज्ञायक और गुरु महिमा।
समाधानः- द्रव्य-गुण-पर्याय, निश्चयनय, व्यवहारनय, द्रव्यानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, कथानुयोग-सबका जानना होता है, जबतक नहीं होता तबतक जानना होता है, लेकिन करना एक ही है-ज्ञायक-ज्ञायकको पहचानना, ज्ञायकको भिन्न करना। ज्ञायक द्रव्य स्वयं एकत्वबुद्धिमें रहा है, उस आकुलतामें (रहा है), उससे भिन्न (पडे), स्वयं भिन्न ही है, परन्तु भ्रान्तिसे एकत्व हो रहा है, उसे भिन्न करके और स्वयं अपने स्वभावरूप परिणमित हो जाये। जो अपना स्वभाव है उस रूप हो जाना, वही उसे करना है। जो अपना स्वभाव है, उस रूप नहीं रहता है और विभावरूप परिणमता है। निज स्वभावरूप हो जाना वही एक करना है। ज्ञायकका ज्ञायकरूप हो जाना। वह कैसे हो? उसकी महिमा आये तो होता है, उसे पहचाने तो होता है। उसे पहचाने, उसकी ओर रुचि लगे, उस रूप जीवन करे, उसकी महिमा आये तो होता है। उसमें थके नहीं होता है। बाहरमें लौकिकका एक ही कार्य करना हो तो उसमें ऐसे ही
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घूटता रहता है, रसपूर्वक करता रहता है। तो इस ज्ञायकमें थकना नहीं चाहिये, उसका रस कम नहीं होना चाहिये, उसमें रुखापन नहीं आना चाहिये, तो वह आगे बढे।
एक निर्णय उसे अन्दरसे (करना चाहिये)। भले सच्चा निर्णय तो बादमें होता है, सम्यग्दर्शन (होता है तब), परन्तु पहले उसे ऐसा दृढ निर्णय होना चाहिये कि करने जैसा तो यही है, सारभूत तो यही है, बाकी सब निःसार है। ऐसा उसे अन्दरसे आना चाहिये।
मुमुक्षुः- आप एक जगह कहते हो कि शाश्वत वहीं चलने जैसा है।
समाधानः- शाश्वत वहीं जाये, फिर बाहर ही नहीं आना पडे। जो शाश्वत आत्मा है, पर्याय भी उस ओर लीन होकर आगे बढनेपर उसमें समाकर बाहर हीं नहीं आये। "समज्या ते समाई गया'। समा जाते हैं, बस, फिर बाहर नहीं आते। केवलज्ञानी समा गये, साधना बढते-बढते। सम्यग्दर्शन और मुनिदशामें समाकर बाहर (आते थे), पूर्ण समा गये। "समज्या ते समाई गया'।
मुमुक्षुः- यह भी संस्कार एकबार जवाब देंगे, ऐसा लगता है। अभी जो संस्कार पडते हैं, वह संस्कार एकबार अवश्य जवाब देंगे।
समाधानः- गुरुदेवने जो देशना दी, वह जो संस्कार पडे, अन्दरसे स्वयंकी भावना हो, स्वयं उस ओर जाता हो, स्वयंकी परिणति उसे चाहती हो, उसे प्रगट हुए बिना नहीं रहता। स्वयं है, दूसरा कोई नहीं है। स्वयंको परद्रव्यकी इच्छा हो तो परद्रव्य स्वयंके हाथकी बात नहीं है। ये तो स्वद्रव्य स्वयं ही है। स्वयं ही उसे चाहता हो, स्वद्रव्यको, वह प्रगट हुए बिना रहे ही नहीं। बारंबार उसके संस्कार ग्रहण करे।
एक शुभभाव आये तो उसका ऐसा पुण्यबंधन होता है कि जो पर बाहर है, जिनेन्द्र देव, गुरु और शास्त्र भी प्राप्त हो जाते हैं। तो फिर ये ज्ञायकदेव क्यों नहीं प्राप्त होंगे?
मुमुक्षुः- आपने कहा है न, भावना हो तो फले बिना रहती ही नहीं।
समाधानः- भावना फले बिना रहती ही नहीं।
मुमुक्षुः- एक शुभभावमें परपदार्थ नहीं मिल सकता, वह भी प्राप्त हो जाता है।
समाधानः- वह भी प्राप्त होता है, वह अपने हाथकी बात नहीं है। तो भी जो स्वयंकी अन्दरसे भावना है, वह भावना.. शुभभाव ऐसी जातिके होते हैं कि जिनेन्द्र देव, गुरु और शास्त्र आदि सब प्राप्त होते हैं। लौकिक इच्छा हो वह अलग बात है। उसमें पापका कारण बनता है।
मुमुक्षुः- वहाँ स्वयंका अधिकार भी नहीं है।
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समाधानः- वह तो नहीं प्राप्त हो, ऐसा होता है।
मुमुक्षुः- बहिनश्री कहते हैं कि इसमें भी अधिकार नहीं है, फिर भी शुभभाव..
समाधानः- इसमें भी अधिकार तो नहीं है, तो भी..
मुमुक्षुः- प्राप्त होता है। तो ज्ञायक क्यों नहीं?
मुमुक्षुः- तू पारम है और परमात्मा नहीं कहते हैं, तू परमात्मा है और परमात्मा कहते हैं।
समाधानः- पामर नहीं है आत्मा। गुरुदेव तो कहते हैं, तू परमात्मा है। गुरुदेव तो सबको भगवान ही कहते थे। तू पामर है, ऐसा तो पर्यायमें कहनेमें आता है, द्रव्य पामर नहीं है। गुरुदेव कहते हैं, द्रव्य तो तेरा पूर्ण भरा है। परमात्मा ही हो। परमात्मामेंसे परमात्मा होता है। पर्याय अपेक्षासे पामर है।
भावनावाला ऐसा कहता है कि मैं पामर हूँ। प्रभु! मुझ पामरको आपने प्रभु बनाया, ऐसा कहे। परन्तु अपनेमें प्रभुता भरी है, उसमेंसे प्रभुता आती है।
मुमुक्षुः- ज्ञानमें ऐसा विवेक साथमें रखना चाहिये।
समाधानः- ज्ञानमें विवेक आये बिना रहता ही नहीं। स्वयंकी परिणतिमें जो लाभ हो उसप्रकारसे, ऐसी नम्रता आये बिना रहती ही नहीं। पर्यायमें अधूरापन है, उसे देखता है कि पर्यायमें अधुरापन है। द्रव्यदृष्टिसे द्रव्य परिपूर्ण है, परन्तु पर्यायमें अधुरापन है, इसलिये पामर हूँ, ऐसा कहे। भेदज्ञानकी धारा प्रगट हो, सम्यग्दर्शन हो तो भी कहे कि मैं पामर हूँ। अभी साधकदशा मुनिदशा नहीं है। गृहस्थाश्रममें है। प्रभु! मैं पामर हूँ। पर्यायमें अभी अस्थिरता है, उसे आगे करके कहता है। स्वानुभूतिके पंथ पर स्वानुभूति प्रगट हुई, तो भी पर्याय अपेक्षासे ऐसा कहते हैं।
द्रव्यकी अपेक्षासे कहते हैं कि मैं प्रभु हूँ। सब अपेक्षा समझनी है। अपेक्षा अनुसार उसकी परिणति.. जैसा वस्तुका स्वरूप है ऐसा समझना है। उसी अपेक्षासे। जैसा वस्तुका स्वरूप है, उसी अनुसार अपेक्षा होती है। ऐसी ही उसकी अपेक्षा होती है। उस अपेक्षासे उसका ज्ञान वैसा ही कार्य करे, जैसा वस्तुका स्वरूप है, ऐसा ज्ञान, ऐसी साधना। द्रव्य पर दृष्टि और ज्ञान सब विवेक करता है। जैसा वस्तुका स्वरूप है, उसी अनुसार उसका मुक्तिका मार्ग, साधकका मार्ग उसप्रकारसे चलता है।
विवेक यानी मात्र विवेक करना है ऐसा नहीं है। उसमें उसकी वैसी द्रव्य और पर्यायकी परिणति है। पर्यायमें अधुरापन है और द्रव्य पूर्ण है, ऐसा वस्तुका स्वरूप है। इसलिये अब ज्ञान-सम्यकज्ञान करता है।
मुमुक्षुः- वही विवेक है।
समाधानः- वह विवेक है।
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... अल्प ज्ञानमें भी नक्की कर सके ऐसा है। जो गुरुदेवने समझाया है, तत्त्वकी बात, बहुत अपूर्व मार्ग समझाया है। अल्प ज्ञानमें भी मैं भगवान हूँ, ऐसा नक्की कर सकता है। विचार करके जिसे जिज्ञासा लगनी हो वह विचार कर सकता है। जो मूल तत्त्व अनादिअनंत शाश्वत है, उसमें कोई विभाव नहीं हो सकता, वह तो शुद्ध है। उसमें पर निमित्तसे जो विभाव राग-द्वेष आदि होते हैं, वह अपना स्वरूप नहीं है। जिससे दुःख हो, जिससे स्वयंको आकूलता हो, वह अपना मूल स्वभाव नहीं है। वह तो पर निमित्तसे स्वयंके पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है। इसलिये जो आकूलता होती है, वह अपना (मूल स्वरूप नहीं है)।
लेकिन जो स्वरूप सुखरूप हो, जैसे स्वयंका ज्ञानस्वरूप है, वह ज्ञान जाननेवाला है, जाननेवाला है वह अनादिअनंत है। वह जाननस्वरूप है वह उसे दुःखरूप नहीं है। जाननेवालेमें सुख, आनन्द आदि अनन्त गुण भरे हैं। और जो अनादिअनंत तत्त्व है, उसमें जो ज्ञान है वह पूर्ण होता है। जो जाननेवाला है, उसकी कोई सीमा नहीं होती। जो जाननेवाला है वह पूर्ण जाननेवाला है। जो तत्त्व है वह पूर्ण स्वभावसे भरपूर ही होता है। उसमें कोई अपूर्णता (नहीं है)। स्वतःसिद्ध आत्मामें अपूर्णता होती ही नहीं। पूर्ण भगवान जैसा है।
जैसे अग्निमें उष्णता है, तो उसका उष्ण स्वभाव है। यह दृष्टांत है। पानीका शीतल स्वभाव है, तो उसकी शीतलता कितनी है? उसकी कोई मर्यादा नहीं है। उष्णता- जो उष्ण है वह उष्ण (बेहद ही होती है)। जो जाननेवाला है, वह स्वयं जाननेवाला ही है। पूर्ण जाननेवाला है। उसमें इतना जाने और इतना नहीं जाने ऐसी अल्पता उसमें नहीं है। परन्तु वह विभावकी ओर गया है, इसलिये ज्ञानकी शक्ति अटक गयी है। बाकी मूल शक्तिमें पूर्ण भरा हुआ है।
यदि राग-द्वेष छूटकर, एकत्वबुद्धि छूटकर, उससे स्वयं भिन्न होकर ज्ञायककी परिणति प्रगट हो, उसकी श्रद्धा-प्रतीत हो और उसमें लीनता करे तो उसका ज्ञानस्वभाव पूर्ण प्रगट होता है। ज्ञानसे पूर्ण है, उसी तरह आनन्दसे पूर्ण है, ऐसे अनन्त गुणोंसे पूर्ण है। उसे सीमा नहीं होती। जो तत्त्व स्वयं स्वतःसिद्ध है, जिसे किसीने बनाया नहीं है, वह पूर्ण ही होता है, उसमें अल्पता नहीं होती। स्वयं विचार करे, उसकी प्रतीत करे, सूक्ष्मतासे विचार करे कि वह पूर्ण ही है, भगवान जैसा आत्मा है। जैसे भगवान हैं, वैसा स्वयं है। प्रत्येक आत्मा सिद्ध भगवान समान ही है। उसमें अपूर्णता नहीं है।
... जाना पडे, सुख या आनन्द बाहर लेने जाना पडे, उसे तत्त्वकी पूर्णता नहीं कहते। स्वयं तत्त्व स्वतःसिद्ध पूर्ण ही होता है। उसमें सब पूर्ण भरा है। तत्त्वका सूक्ष्म
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दृष्टिसे विचार करे तो समझमें आये ऐसा है। तत्त्व है वह कभी नाश नहीं होता। वह किसीसे उत्पन्न नहीं हुआ है, जो किसीसे नाश नहीं होता। ऐसा पूर्ण ज्ञानस्वभाव ज्ञायक, ऐसा आनन्द स्वभाव, ऐसा चैतन्यदेव परिपूर्ण है। वह भगवान ही है। परिपूर्ण शक्ति (संपन्न) स्वयं भगवान है।
उसमें जिसमें विभाव नहीं है, जिसमें मलिनता नहीं है, जिसमें अपूर्णता नहीं है। उसकी ज्ञानशक्ति बाहर जाती है इसलिये अटकी हुई दिखायी देती है, बाकी परिपूर्ण (है), निज स्वभावसे परिपूर्ण भगवान जैसा है। चैतन्यस्वरूप भगवान हैं, वैसा ही स्वयं है। जैसे सिद्ध भगवान हैैं, वैसा ही स्वयं है। प्रत्येक आत्मा समान हैं।
मुमुक्षुः- आलम्बन लेना माने क्या?
समाधानः- आलम्बन यानी उसकी दृष्टि, उसपर दृष्टि देनी। वह स्वयं ही है। स्वयं ही स्वयंका आलम्बन करना। स्वयं ही है, उसे आलम्बन लेने जाना नहीं पडता, वह तो स्वतःसिद्ध स्वयं ही है। स्वयंको अपना आलम्बन कैसे लेना? जो दृष्टि बाहर है, वह दृष्टि बाहरमें जैसे यह शरीर मैं हूँ, विभाव मैं हूँ, ऐसा हो गया है। दृष्टि पलटकर मैं ये नहीं हूँ, मैं तो शुद्धात्मा हूँ, इसप्रकार दृष्टि उसपर स्थापित करनी कि ये चैतन्य है वही मैं हूँ। उसे शुद्धात्माको ग्रहण किया ऐसा कहनेमें आता है। उसे ग्रहण किया, उसका आलम्बन लिया।
मुमुक्षुः- ... अभिप्रायका विषय कहते हैं? ध्यानका विषय कहते हैं? कि ज्ञानका विषय है?
समाधानः- ज्ञान और दृष्टि दोनों उसमें आते हैं। ध्यान तो साथमें (होता है), लीनता करे तो ध्यान होता है। .. सामान्य स्वयं .. है, ज्ञान साथ रहता है। ज्ञानमें विशेष जानना होता है। दृष्टि एक अभेदको ग्रहण करे कि मैं यह आत्मा हूँ। यह अस्तित्व है वह मैं हूँ, इसप्रकार ग्रहण करे। दृष्टिके साथ ज्ञान आ जाता है। लेकिन जो विशेष जानता है वह ज्ञान है। दृष्टि विशेष नहीं जानती। दृष्टि सामान्य जानती है। और दृष्टि श्रद्धाका विषय है। श्रद्धा, उसमें-दृष्टिमें श्रद्धा होती है।
मुमुक्षुः- कोई-कोई उसे अंधी कहते हैं, यह बात बराबर नहीं है?
समाधानः- अंधी यानी श्रद्धाका विषय है, उस अपेक्षासे अंधी। दृष्टि कुछ जानती नहीं, परन्तु उसके साथ ज्ञान जुडा ही रहता है। ज्ञान और दृष्टि दोनों अलग नहीं होते। दोनों साथ ही रहते हैं। दृष्टि सामान्य पर जाती है इसलिये उसे अंधी कहते हैं। वह भेद (नहीं करती), भिन्न-भिन्न भेद करे या पर्यायको भिन्न करके नहीं जानती। इसलिये उसे अंधी कहते हैं।
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मुमुक्षुः- .. उसमें शंकारहित होता है, ...
समाधानः- पहले निर्णय होता है वह कच्चा यानी उसे शंका नहीं है। एकदम समीपमें जिसे स्वानुभूति होनेवाली है, उसे पहले जो निर्णय होता है, उसे कच्चा शंकावाला नहीं कहते। परन्तु अभी उसे स्वानुभूति नहीं हुयी है, इसलिये उसे व्यवहार कहनेमें आता है। श्रद्धाका बल जो अनुभूतिके बाद जो श्रद्धाका बल आता है, वैसा बल नहीं है। लेकिन वह शंकायुक्त नहीं है। उसके बलमें कुछ अंतर है। शंकायुक्त नहीं है।
मुमुक्षुः- वचनामृतके बोलमें है, पक्का निर्णय अनुभवके पहले भी हो सकता है।
समाधानः- हाँ, हो सकता है, पक्का हो सकता है, लेकिन जो परिणतिपूर्वकका निर्णय (होता है), वह अलग है। उसकी अपेक्षासे उसका बल कम है, भले ही पक्का कहें तो भी। अनिश्चित नहीं है, ऐसा निर्णय नहीं है, अनिश्चित है ऐसा नहीं है। पक्का कहनेमें आता है, परन्तु परिणतिकी अपेक्षासे, जो साक्षात अनुभूति होकर जो प्रतीति होती है, उस प्रतीतिका बल कुछ अलग ही होता है। इसे व्यवहार कहते हैं।
मुमुक्षुः- ...
समाधानः- देव-गुरु-शास्त्रका निर्णय पक्का और मैं यह ज्ञायक हूँ, विभाव मेरा स्वभाव नहीं, यह सब निर्णय उसे पक्का होता है। निर्णय पक्का है, लेकिन परिणति प्रगट नहीं हुयी है।
मुमुक्षुः- द्रव्यकी स्वतंत्रता भी उसे बराबर... द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे अस्तिरूप है, परद्रव्यसे नास्तिरूप है। ऐसा होनेसे जब सब्जीको छूरीसे काटते हैं, तब छूरीसे टूकडे नहीं होते हैं, ऐसा जो निर्णय, इसप्रकारका निर्णय अनुभव पूर्व उसे विकल्पात्मकमें पक्का होना चाहिये?
समाधानः- प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है, ऐसा उसे आ जाये, उसमें सभी पहलू आ जाते हैं। फिर बार-बार उसके विकल्प करने नहीं बैठता कि यह छूरीसे होते हैं, या सब्जी भिन्न है और छूरीके सभी पुदगल भिन्न-भिन्न हैं, ऐसा बार-बार विकल्प (नहीं करता), परन्तु उसे प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र हैं, ऐसी श्रद्धा उसे हो गयी है।
मुमुक्षुः- विकल्पकी बात नहीं है, लेकिन उसे निर्णय तो...
समाधानः- स्वतंत्र है, कोई किसीका कुछ नहीं कर सकता। मैं मेरा कर सकता हूँ, दूसरे पुदगल पुदगलका (कार्य करता है)। प्रत्येक पुदगल-पुदगल स्वतंत्र है। यह सब उसे बैठ गया है। मात्र एकदूसरेके निमित्तसे होते हैं, वह सब निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धसे होता है। यह सब उसे बैठ गया है।
मुमुक्षुः- ऐसा भावमें बराबर बैठे तो वह आगे बढ सकता है।
समाधानः- उसे भावमें आ जाना चाहिये। प्रत्येक द्रव्यकी स्वतंत्रता आनी चाहिये।
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मैं स्वतंत्र और पुदगल स्वतंत्र, इतना तो आ जाना चाहिये। पुद्गगल द्रव्य मुझे कुछ कर सकता है और मैं उसे कुछ कर सकता हूँ, ऐसी बुद्धि है तबतक आगे नहीं बढ सकता। वह मेरेमें कुछ कर सके या मैं उसमें कुछ कर सकूँ, ऐसी अन्दर यदि किसी प्रकारकी मन्दता हो तो वह आगे नहीं बढ सकता। उसे जोर आना चाहिये कि मैं स्वयं स्वतंत्र हूँ। पुदगल मेरा कुछ नहीं कर सकता। ऐसा जोर उसे अन्दर आना चाहिये।