Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 8.

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ट्रेक-००८ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- अस्तिके अधिक विचार बारंबार करने? उत्तरः- ... नहीं हूँ, ऐसा साथमें आ जाता है। मैं कौन हूँ? मैं आत्मा ज्ञायक हूँ, चैतन्यरूप हूँ, अनंत गुणसे, अनंत महिमासे भरा मैं चैतन्य हूँ और ये जो विभावकी परिणति (है), वह मेरा स्वभाव नहीं है। पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है, लेकिन वह मेरा स्वभाव नहीं है। मेरा स्वभाव चैतन्यमय है, मैं ज्ञायक हूँ। ज्ञायकके अस्तिके जोरमें मैं यह नहीं हूँ, ऐसा साथमें आता है। क्योंकि यह मैं नहीं हूँ, ऐसा साथमें आये, वह साथमें आये बिना नहीं रहता।

मैं कौन हूँ? ज्ञायक हूँ, इसलिये यह मैं नहीं हूँ। मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ऐसा बारंबार आये, उसके साथ यह मैं नहीं हूँ, मैं नहीं हूँ, इसप्रकार दोनों साथमें आते हैं। यह मैं हूँ और यह मैं नही हूँ, एकसाथ आता है। "भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन'। जो सिद्ध हुए, वे भेदविज्ञानसे हुए हैं, नहीं हुए हैं वे भेदविज्ञानके अभावसे नहीं हुए हैं। भेदविज्ञानमें चैतन्यका अस्तित्व और परका नास्तित्व, दोनों साथमें आ जाते हैं।

द्रव्य पर दृष्टि करके द्रव्यदृष्टि और परसे भिन्न, दोनों साथमें ज्ञानमें आते हैं और दृष्टिमें ज्ञायक आता है। ज्ञान दोनोंका विवेक करता है कि द्रव्यदृष्टिसे मैं यह द्रव्य हूँ और ये विभावकी पर्याय होती है, उससे मैं भिन्न हूँ। वह मेरा स्वभाव नहीं है, लेकिन पुरुषार्थकी मन्दतासे मेरेमें होता है। इसप्रकार दोनोंका विवेक ज्ञानमें रहता है और दृष्टि एक चैतन्यके अस्तित्व पर रहती है। और ज्ञायककी ओर स्वयं प्रतीतका जोर करके उस ओर परिणतिको दृढ करनेका प्रयत्न करे।

मुमुक्षुः- दृष्टि और ज्ञानमें तो निर्विकल्पता ही पकडमें आती है? जब आत्मा पकडमें आता है, तब दृष्टि और ज्ञान तो निर्विकल्प होते हैं।

समाधानः- विकल्प छूटकर जब निर्विकल्प होता है, पहले तो उसे सविकल्पतामें मैं एक ज्ञायक हूँ, ऐसा पकडमें आया। लेकिन जो निर्विकल्प हुआ, ज्ञायकका अस्तित्व ग्रहण किया, फिर उसमें लीनता बढाकर उसका उपयोग स्वरूपमें स्थिर हो जाये, तब ज्ञायक पर दृष्टि है और ज्ञान है वह सब जानता है। ज्ञान स्वयं द्रव्यको जानता है


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कि द्रव्य शुद्ध अभेद है, ऐसा जानता है। और पर्यायमें जो शुद्ध पर्याय प्रगट हुयी, उसका जो वेदन हुआ उस वेदनको भी जानता है। ज्ञान दोनों जानता है। ज्ञान चैतन्य अखण्डको जानता है। द्रव्य एक अभेद द्रव्य है उसे जानता है और पर्यायमें जो वेदन हुआ, उस गुणकी महिमा और पर्यायका वेदन-आनन्दका वेदन कोई अपूर्व, अनुपम होता है, उसे भी ज्ञान जानता है। उस वेदनको जाननेवाला कौन है? ज्ञान है। उस स्वानुभूतिको जाननेवाला ज्ञान है। ज्ञान सब जानता है।

विकल्पसे छूटकर जो चैतन्यकी स्वानुभूति हुयी, चैतन्यकी अनुभूति हुयी, कोई अपूर्व जो अनन्त कालसे नहीं प्रगट हुआ था, जो सिद्ध भगवानके जातिका है, जो सिद्ध भगवानका अंश है, ऐसी जो अनुभूति हुयी उसे ज्ञानमें जानता है और दृष्टि एक द्रव्य पर रहती है।

मुमुक्षुः- दृष्टिका अभ्यास बारंबार करना?

समाधानः- दृष्टिका अभ्यास और ज्ञानमें विवेक रखे कि यह है, यह नहीं है ऐसा नहीं, मैं उससे भिन्न हूँ।

मुमुक्षुः- ... भेदविज्ञानमें सहजरूपसे होना चाहिये?

समाधानः- पहले अभ्यास करते-करते सहज होता है। पहले विकल्प साथमें आता है।

मुमुक्षुः- घूटते-घूटते सहज होता है?

समाधानः- घूटते-घूटते सहज होता है। प्रयत्न करनेसे। पहलेसे सहज नहीं होता। सहज स्वभाव है, परन्तु स्वयं प्रयत्न करे तो होता है। ... वहाँ-से आगे बढता है। स्वानुभूति प्रगट हुयी यानी मुक्तिका मार्ग प्रगट हो गया। आंशिक मोक्ष और मुक्तिकी पर्याय प्रगट हुयी। उसमेंसे साधना हो और अभी अस्थिरता है इसलिये वह बाहर आये तो उसकी भेदज्ञानकी धारा वैसे ही चालू रहती है। और उसमें लीनता बढानेका प्रयत्न करे। आगे बढनेपर उसकी लीनता बढनेसे चारित्रकी दशा अंतरमें (होती है)। फिर अंतर्मुहूर्त- अंतर्मुहूर्तमें स्वानुभूतिकी दशा प्रगट होती है।

मुमुक्षुः- लीनताके लिये भी पुरुषार्थका यही प्रकार है?

समाधानः- एक ही है।

मुमुक्षुः- पहले और बादमें?

समाधानः- जो मार्ग सम्यग्दर्शनका है, वही मार्ग लीनताका मार्ग है, वही चारित्रका है। दृष्टिके बलसे लीनता बढाता है। सम्यग्दृष्टिको लीनता कम है तो दृष्टिके बलसे लीनता बढाता है, वह मार्ग है। लीनताकी कमी है। स्वरूपमें स्थिरता होनेकी कमी है।

मुमुक्षुः- भावना तो यही होती है कि कब पूर्ण हो जाऊँ।


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समाधानः- भावना तो एक ही है, कब पूर्ण हो जाऊँ। ये कुछ नहीं चाहिये। यह सब विकल्प और विभाव है, वह विभाव सब प्रकारसे त्यागने योग्य है, हेय है। नौ-नौ कोटिसे सब त्यागने (योग्य है)। दृष्टिमें उतना बल है कि इन सबका दृष्टिमें त्याग वर्तता है। परन्तु वह अस्थिरतामें रहता है। इसलिये यदि अभी पूर्णता होती हो तो यह कुछ नहीं चाहिये। लीनता यदि बढ जाये तो स्वरूपमें जम जाऊँ, ऐसी भावना है। लेकिन उतनी लीनता बढती नहीं, उपयोग बाहर आता है। जो स्वानुभूति प्रगट हुयी उसकी उसे इतनी महिमा है कि बस, इसके सिवा मुझे कुछ नहीं चाहिये। दृष्टिमें तो सबका सब प्रकारसे त्याग हो गया है।

ज्ञान प्रत्यख्यान है। दृष्टिमें त्याग हो गया, लेकिन अस्थिरतामें अभी त्यागकी कमी है। (इसलिये) लीनता बढाता जाता है। मुनिदशामें भी अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें स्वरूपमें जमते जाते हैं। उसमें ही उनकी श्रेणीका प्रारंभ होता है। उसीमें केवलज्ञान प्रगट होता है। द्रव्य-गुण-पर्यायका प्रयोजनभूत ज्ञान हो तो भी आत्माको पहचान सकता है।

मुमुक्षुः- विशेष ज्ञानकी आवश्यकता नहीं है?

समाधानः- विशेष ज्ञान हो अथवा बहुत शास्त्र पढा हो या बहुत अभ्यास किया हो उसके साथ सम्बन्ध नहीं है। मूल प्रयोजनभूत द्रव्य-गुण-पर्याय (का स्वरूप जाने), यह विभाव भिन्न है और मेरा स्वभाव भिन्न है। प्रयोजनभूत जाने तो उसमें मुक्तिका मार्ग शुरू हो जाता है। फिर जो आगे नहीं बढ सकता है तो फिर उसे विशेष ज्ञान जानने हेतु, विशेष स्पष्टता हेतु शास्त्रका अभ्यास दृढताके लिये करे तो उसमें तो लाभका कारण है।

मुमुक्षुः- ऐसा अभ्यास करनेसे स्वयंको भास होता है कि अब प्राप्त करूँगा ही, विशेष समीप आते-आते?

समाधानः- भास होता है स्वयंके पुरुषार्थको लेकर। स्वयंकी हूँफ स्वयंको आये, लेकिन पुरुषार्थ करे तो होता है। उसे ऐसा होता है कि मैं पुरुषार्थ करूँगा ही। परन्तु उसे पुरुषार्थमें देर लगे तो शान्ति और धैर्यसे पुरुषार्थ करे। उलझनमें नहीं आता।

मुमुक्षुः- .. शंका नहीं होती, इसप्रकार ही प्राप्त होता है।

समाधानः- यह एक ही प्रकार है। मैं ज्ञायक हूँ, उस ज्ञायकको पहचाने। मैं चैतन्य हूँ, वह स्वयं स्वयंको पहचान ले, स्वयं स्वयंकी दृढता करे और स्वयं स्वयंमें लीनता करे। निज घरमें वास करे और स्वयंकी दृढ प्रतीत करे और विभावसे छूटकर उसका भेदज्ञान करे, उससे भिन्नता करे, वह एक ही मार्ग है, दूसरा कोई मार्ग नहीं है। .. गुण क्या, पर्याय क्या, ऐसा प्रयोजनभूत ज्ञान उसमें आ जाता है।

मुमुक्षुः- ७३ वर्षके जीवनमें आज पहली बार सूत्र सुना कि ज्ञायकके द्वार पर


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टहेल लगानी। आज तक दूसरी टहेल लगानेका सुना था, परन्तु ज्ञायकके द्वार पर टहेल लगाना तो आपने ही बताया।

समाधानः- वही टहेल लगानी है। ज्ञायकके द्वार पर ही टहेल लगानी है, तो ही प्राप्त होता है।

मुमुक्षुः- आप आशीर्वाद दीजिये, हम टहेल लगाये।

समाधानः- यही करना है। गुरुदेवने यही मार्ग बताया है और यही करना है। ज्ञायक.. ज्ञायक। गुरुदेव कहते थे, तू चैतन्य भगवान है। सुबह आता है न? तू परमात्मा है, तू परमात्मा है ऐसा नक्की कर। गुरुदेवने यही कहा है और यही करना है। ज्ञायकदेवकी महिमा करके उसके द्वार पर टहेल लगानी है।

मुमुक्षुः- माताजी! पुरुषार्थ थोडा मन्द हो और दृढता सच्ची हो तो भयभीत होने जैसा है? पुरुषार्थ थोडा मन्द हो और दृढता पूर्ण हो तो?

समाधानः- पुरुषार्थ ज्यादा करना। दृढता है ऐसा लगे, परन्तु जो दृढता अन्दरसे गहराईसे आनी चाहिये, उसमें सहज दृढता अलग होती है, विकल्प सहितकी दृढता अलग होती है। तो भी स्वयंको लगता है दृढता तो बराबर है, यही मार्ग है, ऐसा लगे स्वयंने दृढता की हो तो। स्वयं प्रयत्न नहीं कर सकता है, प्रयत्न करे, टहेल लगाये, बारंबार प्रयत्न करे, नहीं हो तो। बहुत लोगोंको ऐसा लगे कि दृढता तो बराबर है कि यही मार्ग है, लेकिन होता नहीं है। स्वयंके प्रयत्नकी कमी है।

उसमें भक्ति साथमें आ जाती है। ज्ञायककी महिमा, ज्ञायककी भक्ति जिसे हो वह आगे बढे बिना नहीं रहता। ज्ञायक.. ज्ञायक.. मुझे ज्ञायकके सिवा कुछ नहीं चाहिये। ऐसी ज्ञायककी भक्ति अन्दर आनी चाहिये। मैं देखुँ तो ज्ञायक, मुझे निद्रामें ज्ञायकको देखना है, मुझे बैठते हुए, खाते-पीते मुझे ज्ञायक ही चाहिये। ज्ञायकदेवकी महिमा, ज्ञायककी भक्ति, ज्ञायककी स्तुति, ज्ञायकको देखना है, ज्ञायकके दर्शन करने हैं, वह ज्ञायककी भक्ति है।

जैसे भगवानके द्वार पर मुझे भगवानके दर्शन करने हैं, भगवानकी स्तुति करुँ, भगवानकी पूजा करुँ। उसी प्रकार मुझे गुरुदेवकी वाणी सुननी है, गुरुदेवके दर्शन करने हैं, गुरुदेवके दर्शन करुँ, गुरुदेवको देखता ही रहूँ, ऐसा होता है।

वैसे मैं ज्ञायकको ही देखता रहूँ, ज्ञायकके गुणग्राम करुँ, ज्ञायककी पूजा करुँ। ज्ञायक तो ज्ञायककी भक्तिसे प्रगट हुए बिना रहे नहीं, वैसे भक्ति हो तो। ज्ञायकको पहचानकर कि यही ज्ञायक है, दूसरा नहीं है। ज्ञायकका लक्षण पहचानकर नक्की करे के यही ज्ञायक है। अब, मुझे ज्ञायक ही चाहिये। जैसे जिनेन्द्रदेव, गुरुके लक्षणसे पहचानकर नक्की करे कि यही सत्पुरुष है, यही गुरु है और यही देव है। फिर इस देवकी पूजा


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करनी है, इस देवकी भक्ति करनी, गुरुकी भक्ति करनी है। इसप्रकार परीक्षा करके नक्की करके फिर उनका स्तवन करे, गुणग्राम करे, गुरु क्या कहते हैं, उनका आशय समझनेका प्रयत्न करे।

वैसे यह ज्ञायक ही है, ऐसा लक्षणसे पहचानकर नक्की करे। फिर उसकी भक्ति और उसकी स्तुति, ज्ञायकके पीछे लगे तो प्रगट हुए बिना रहे नहीं। वह भक्तिमार्ग है। ज्ञायककी भक्ति अन्दर साथमें आनी चाहिये। देव-गुरु-शास्त्रकी भक्तिके साथ ज्ञायककी भक्ति आनी चाहिये, परन्तु लक्षणको पहचानकर। लक्षण पहचानना चाहिये कि यह ज्ञायक ही है। यह लक्षण ज्ञायकका है, दूसरेका नहीं है, ऐसा आये तो उसे ज्ञायककी भक्ति कहते हैं। लक्षणको पहचानकर होनी चाहिये।

समझनपूर्वककी भक्ति होनी चाहिये, ज्ञानपूर्वक भक्ति होनी चाहिये। समझे बिना ऐसे ही बाहरसे भक्ति करता रहे ऐसे नहीं। ज्ञायककी भक्ति साथमें आनी चाहिये, गुरुकी भक्तिके साथ। गुरुकी भक्ति किसे कहें? देव और गुरुकी। कि ज्ञायककी भक्ति साथमें आये तो वह भक्ति है।

मुमुक्षुः- बाह्य भक्ति।

समाधानः- मात्र बाह्य नहीं।

मुमुक्षुः- माताजी! ज्ञानीको जब शुभराग आता है उसमें तो उसे खटक लगती है। बराबर है? तो जब वह शुभरागमें जुडता है तब उत्साहपूर्वक जुडता है कि दुःखपूर्वक जुडता है?

समाधानः- जिस वक्त वह जुडता है उस समय उसे भेदज्ञान वर्तता है। मेरे पुरुषार्थकी कमजोरीके कारण जुडना होता है, अन्दर लीनता नहीं होती है इसलिये शुभरागमें जुडता है। लेकिन जिस समय शुभराग उठता है, उस समय ऐसा विकल्प नहीं करता है कि यह शुभराग है, शुभराग है। ऐसे नहीं होता। सहज शुभराग आता है और उसे भेदज्ञानकी धारा वर्तती है। ज्ञायक भिन्न ही रहता है और शुभरागमें ऐसे तन्मय नहीं हो जाता कि वह ज्ञायकको भूल जाये। ज्ञायक भिन्न रहकर उसे शुभराग आता है कि मैं तो भिन्न ही हूँ। यह शुभराग है। ये तो विभावकी ओरका भाग है, मेरा ज्ञायकका भाग, मेरे स्वघरका भाग भिन्न है और यह शुभरागका भाग है वह भाग विभावका घर है। वह भिन्न है। ऐसा ज्ञान बराबर है। उससे भिन्न रहकर शुभराग (आता है)। उसमें एकत्व नहीं होता, उसमें आकूल-व्याकूल नहीं होता।

उसका बहुत उत्साह दिखाई दे। दूसरेसे उसका उत्साह अधिक दिखाई दे, उसकी भावना वैसी दिखती है, लेकिन वह भिन्न ही रहता है। उसमें वैसे एकत्व तन्मय नहीं हो जाता कि स्वयंको भूल जाये। ऐसे भिन्न रहता है। बार-बार विकल्प नहीं करता


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है कि अरे..! यह दुःख है। ऐसे बार-बार विकल्प नहीं करता। उसकी धारा ही भिन्न वर्तती है।

मुमुक्षुः- ज्ञायकका लक्षण है उसे..

समाधानः- ज्ञायकका लक्षण ज्ञान लक्षण है। ज्ञान लक्षण ऐसा असाधारण लक्षण है। गुजरातीमें बोलती हूँ। ज्ञान लक्षण आत्माका असाधारण है और उसके द्वारा ज्ञायक पहचाना जाता है। गुणसे गुणी पहचाना जाता है। गुण-गुणीका भेद आत्मामें है, वह वास्तविक भेद नहीं है, लक्षणभेदसे भेद है। लेकिन उस लक्षणसे-गुणसे गुणी पहचाननेमें आता है। वह ज्ञानलक्षण-गुण ऐसा असाधारण है कि उस ज्ञान द्वारा आत्मा गुणी- ज्ञायक है, वह पहचाना जा सकता है। और गुरुदेवने बहुत दर्शाया है।

आत्मा जाननेवाला है, ज्ञायक है, आत्मामें सब भरा है, आत्मा अपूर्व है और यही करने जैसा है। सम्यग्दर्शन होते ही मुक्तिका मार्ग प्रगट होता है। ज्ञान लक्षणसे ही आत्मा पहचाना जाता है। आत्माका लक्षण ही वह है। ये सब लक्षण दिखाई दे वह बाह्य लक्षण है। ये सब जड परपदार्थका लक्षण है। यह जड शरीर कुछ जानता नहीं, जाननेवाला एक आत्मा ही है। उस आत्माको पहचानना। ज्ञायक लक्षण। उसमें अखण्ड ज्ञायकको पहचानना।

ज्ञायककी भक्ति यानी अन्दर ज्ञायककी महिमा आनी चाहिये। ज्ञायक कौन है? ज्ञायक कोई अपूर्व वस्तु है, अनुपम है, वह कोई अलग चीज है। उसकी भक्ति, उसकी महिमा आनी चाहिये। ज्ञायक कोई अनुपम है।

गुरुदेव कहते थे, वास्तविक प्रभात-अन्दर नया प्रभात अन्दर सम्यग्दर्शन होता है तब प्रगट होता है। और उस प्रभातमेंसे पूरा केवलज्ञान-सूर्य उसमेंसे प्रगट होता है। इस पंचमकालमें गुरुदेव पधारे और पंचमकालमें गुरुदेव यहाँ पधारे वही इस जैनशासनमें गुरुदेव पधारे वही प्रभात था। कोई कुछ जानते नहीं थे, कुछ नहीं जानते थे। क्या मार्ग है, स्वानुभूतिका मार्ग जानते नहीं थे। स्वानुभूतिको कोई नहीं पहचानते थे। वैसेमें स्वानुभूतिका पंथ बताया।

अंधकार व्याप्त हो गया था। स्वानुभूतिका नाम किसीको नहीं आता था कि अन्दर स्वानुभूति हो वही यथार्थ मुक्तिका मार्ग है। कोई जानता नहीं था। मुक्तिका मार्ग सब क्रियासे जानते थे। बाहरसे थोडे सामायिक, प्रतिक्रमण कर ले, थोडा सीख ले तो माने कि इससे मोक्ष हो जायेगा। मोक्षको कोई पहचानते नहीं थे। स्वानुभूतिका पंथ गुरुदेवने प्रकाशित किया। स्वानुभूति गुरुदेवने बतायी, मुनिका स्वरूप गुरुदेवना बताया, केवलज्ञानीका स्वरूप गुरुदेवने बताया। सब गुरुदेवने बताया। जिनेन्द्रदेव कैसे होते हैं, यह गुरुदेवने बताया। सच्चे शास्त्र कैसे हो वह गुरुदेवने बताया। सब गुरुदेवने बताया।


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जिनेन्द्र भगवान जगतमें सूर्य समान हैं और उनकी जो प्रतिमा हैं, उनका प्रतिबिंब, वह प्रतिमा भी गुरुदेवके प्रतापसे पधारे हैं। सब गुरुदेवका प्रताप है। गुरुदेव जैनशासनमें इस भरतक्षेत्रमें पधारे वही एक प्रभात है। सूर्य समान गुरुदेव ही थे। देव-गुरु-शास्त्र ही इस जगतमें सुप्रभात है और उनके निमित्तसे अन्दर जो उपादान तैयार होकर जो सम्यग्दर्शन प्रगट होता है, वह अन्दरमें एक सुप्रभात है। नूतन वर्ष वह प्रगट होता है।

गुरुदेव एक नवीनता इस भरतक्षेत्रमें ले आये कि जो कोई नहीं जानता नहीं था। सत्य पंथ बता दिया। उस सत्य पंथ पर सब मुडे हैं। सत्य पंथकी एक नवीनता आयी है, वही वास्तविक नवीनता है। सम्यग्दर्शन प्रगट होता है, वहाँसे केवलज्ञान प्रगट होता है। यहाँ अंधकार व्याप्त हुआ था, उसमेंसे सम्यग्दर्शनका पंथ, स्वानुभूतिका पंथ दर्शाया है। यह एक नवीनता है।

गुरुदेवने इतने सालसे जो उपदेश दिया है और जो उपदेशकी जमावट करके अन्दरमें स्वयंने जमावट की और उस पंथ पर स्वयं प्रयाण करे वही एक नवीनता है। और वही पंथ ग्रहण करना, वही एक नवीनता है। वास्तविक सुप्रभात तो सम्यग्दर्शनसे होता है, लेकिन उसके पहले भी गुरुदेवने यह पंथ बताया और उस उपदेशकी जमावट की उसे स्वयं ग्रहण करे तो उस रास्ते पर चले। वही अन्दरमें एक नवीनता प्रगट करनेके पंथ पर स्वयं चले तो भी अच्छा है। वास्तविकरूपसे ज्ञायकका पंथ ही ग्रहण करने जैसा है। ज्ञायकका पंथ, उसका निमित्त कौन? सच्चे देव-गुरु-शास्त्र।

जो भगवानको पहचानता है, वह स्वयंको पहचाने। स्वयंको पहचाने वह भगवानको पहचानता है, ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। बाहरसे देव-गुरु-शास्त्रकी भक्ति और अन्दर ज्ञायककी भक्ति, ज्ञायककी महिमा आये तो ज्ञायककी ओर मुडता है। गुरुकी भक्ति आये, गुरु क्या स्वानुभूतिका मार्ग बताते हैं! गुरुदेव क्या अनुपम आत्माका स्वरूप बताते हैं! ऐसे आत्माकी भक्ति और महिमा स्वयंको आये तो उस ओर स्वयं मुडता है। मैं ऐसे आत्माके कैसे दर्शन करूँ, आत्माको कैसे निरखता रहूँ, कैसे देखुँ, इसप्रकार भक्तिसे ज्ञायककी ओर मुडे तो मुड सकता है। मात्र आत्मा ज्ञानलक्षण, ज्ञानलक्षण (है), ऐसे विचारसे नक्की करे, परन्तु उसकी महिमा नहीं आये तो उस ओर मुड नहीं सकता।

गुरु कैसे ग्रहण हो? कि गुरु जो कहते हैं, द्रव्य-गुण-पर्यायका स्वरूप कोई अपूर्व रीतिसे स्वयं ग्रहण करे तो उसे गुरुकी कुछ महिमा आये, तो उसने गुरुको ग्रहण किये हैं। गुरुकी महिमा, जिनेन्द्रदेवकी महिमा। गुरुदेवने शास्त्र बताये हैं। शास्त्रको कोई जानता नहीं था। दूसरे सब श्वेतांबरके शास्त्र थे उसे सब शास्त्र मानते थे। सच्चे शास्त्र कौन- से हैं, वह भी गुरुदेवने बताया है। गुरुदेवका ही परम उपकार है। और उसी पंथ पर प्रयाण करके उसमें ही नवीनता लानी, ज्ञायकके पंथ पर चलना वही वास्तविक


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नवीनता है और वही करने जैसा है।

बारंबार ज्ञायक.. ज्ञायक करता हुआ ज्ञायकके पीछे लगकर, यह शरीर तो भिन्न ही है, वह तो जड है। अन्दर विभाव होते हैं वह विभाव भी स्वयंका स्वरूप नहीं है, विकल्पकी कतार चले वह भी स्वयं नहीं है। उससे भिन्न आत्मा कोई अनुपम है। उस आत्माको पहचाननेका प्रयत्न करे वह यथार्थ है, वही जीवनमें करने जैसा है। बाकी सब तो चलते ही रहता है। हेतु एक आत्मार्थका, आत्माका प्रयोजन होना चाहिये। ज्ञायक.. ज्ञायक करता हुआ आगे बढे तो ज्ञायक प्रसन्न हुए बिना नहीं रहता।

मुमुक्षुः- प्रसन्न होता है?

समाधानः- ज्ञायकदेव प्रसन्न होता है। बाहरसे जैसे गुरु प्रसन्न होते हैं, वैसे अन्दर ज्ञायक प्रसन्न हुए बिना नहीं रहता।

मुमुक्षुः- गुरुकी कृपा जैसे होती है, वैसे ज्ञायककी कृपा होती है। समाधानः- हाँ, ज्ञायककी भी कृपा होती है। मुमुक्षुः- अर्थात ज्ञायकका जीवन जीनेकी तैयारी करनी चाहिये। समाधानः- ज्ञायकका जीवन जीनेकी तैयारी करनी चाहिये। वही सत्य है। देव- गुरु-शास्त्रका सान्निध्य, अन्दर ज्ञायकका सान्निध्य कैसे प्राप्त हो, उस ओर कैसे प्रयाण हो, वही करने जैसा है। भले ही यथार्थ बादमें प्रगट होता है, लेकिन उसके लिये स्वयं पुरुषार्थ, महिमा आदि लाकर करे तो हुए बिना नहीं रहता। जिसे मार्ग प्रगट हुआ उन्हें पहलेसे भेदज्ञान नहीं था, पहले एकत्वबुद्धि थी, उसमेंसे ही भेदज्ञान करके आगे बढे हैं।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!
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