Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 7.

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ट्रेक-००७ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- क्या उनकी मर्मज्ञ दृष्टि है! मूलको पकडे, डिगे नहीं, लाख कोशिष करो, हिंमतभाईकी उस बातमें.. सभी शास्त्रका गुजरातीकरण, हरिगीत घर-घरमें गाते हो, पढते हो.. कुन्दकुन्दाचार्यका उपकार तो मानते ही हैं, उसमें शंका नहीं है। अमृतचन्द्राचार्यका (उपकार मानते हैं), लेकिन गुजरातीमें तो हिंमतभाईने ही सब किया है। अदभुत!

समाधानः- गुरुदेवने स्पष्ट किया है।

मुमुक्षुः- वह तो स्पष्ट किया है, गुरुदेवने तो स्पष्ट किया ही है, लेकिन ये तो उससे भी विशेष आपकी वाणीको भी विशेष स्पष्ट की है, परन्तु इन्होंने जो किया है वह अलग ही है। भले ही उन्होेंने गुरुदेवकी वाणीको ही उसमें उतारी है, लेकिन वाणीको उतारना वह आसान काम नहीं है, आसान काम नहीं है।

मुमुक्षुः- आपको पण्डितजीका पक्षपात है। मुमुक्षुः- देव-गुरु-शास्त्रका पक्षपात है और सत्यका भी पक्षपात है, ऐसा यदि कहना हो तो मैं संपूर्णरूपसे स्वीकार करता हूँ। गलत प्रशंसा करनेमें कभी किसीका माना नहीं है, परन्तु वह अदभुत है।

समाधानः- विचार करते थे। उनको पहलेसे ही विचार (चलते थे)। सबको समझानेका (भाव) पहलेसे ही है। छोटे थे तबसे है।

मुमुक्षुः- समझन तो है ही, परन्तु उससे भी विशेष मीठास है। कोई यदि नहीं समझे तो कुछ नहीं, उन्हेें कुछ नहीं।

समाधानः- गुरुदेवके प्रतापसे यह सब यहाँ है। गुरुदेवका प्रताप। जो महापुरुष होते हैं उनके पीछे सब होता है। वे महापुरुष ही ऐसे हुए इसलिये सब खीँचकर यहाँ आये। जो भी यहाँ आते हैं, सब ऐसी पात्रतावाले (आते हैं), गुरुदेवका तीर्थंकर द्रव्य था इसलिये उनके पीछे ऐसी शक्तिवाले सब आते हैं। वह सब गुरुदेवके चरणमें ही (अर्पित) है, हमने कुछ नहीं किया है।

मुमुक्षुः- ऐसा कहा जाता है, गणधर गूंथे... दिव्यध्वनि खिरती ही रहती है। मुमुक्षुः- पूज्य गुरुदेवश्रीके प्रवचनका पुस्तक है, इसमें लिखा है कि साधकका ज्ञान हो, ज्ञानका स्वभाव ही ऐसा है कि उसमें राग समाता नहीं। वह तो रागसे


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भिन्न सदा ज्ञायक ही है। इसमें कहा कि केवलज्ञान और साधकका ज्ञान दोनोंको एक कहा। केवलज्ञान हो या साधकका ज्ञान हो, तो किस अपेक्षासे उस ज्ञानको एक कहा है?

समाधानः- ज्ञान तो सम्यक की अपेक्षासे कहा है। परन्तु केवलज्ञानी तो लोकालोकको जाननेवाले हैं। उन्हें तो पूर्ण ज्ञान प्रगट हो गया है। इन्हें पूर्ण ज्ञान नहीं प्रगट हुआ है। केवलज्ञानीको तो वीतरागदशा हो गयी है। उन्हें रागका तो क्षय हो गया है। द्रव्यदृष्टिपूर्वक उन्हें तो चारित्रदशा होकर केवलज्ञान प्रगट हुआ है। स्व-परको जाननेवाला ऐसा ज्ञान प्रगट हुआ है। स्वयंको स्वयंके स्वभावमें रहकर सहज स्वभावसे सब जानते हैं। लेकिन केवलज्ञानीका ज्ञान और सम्यग्दृष्टिका ज्ञान, सम्यकताकी अपेक्षासे (एक) कहा है। यह जो सम्यक है वह ज्ञायककी अपेक्षासे। केवलज्ञानीका ज्ञान ज्ञायकको जाननेवाला है और सम्यग्दृष्टिका ज्ञान भी ज्ञायकको जानता है। उस अपेक्षासे है। बाकी सर्व अपेक्षासे नहीं है।

केवलज्ञानीका ज्ञान तो प्रत्यक्ष है, सम्यग्दृष्टिका ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं है। वह तो स्वरूपप्रत्यक्ष है। सर्व प्रत्यक्ष नहीं है, सम्यग्दृष्टिका ज्ञान सर्वप्रत्यक्ष नहीं है। एक ज्ञायकको जाननेवाला है। ज्ञायककी अपेक्षासे एक कहा है। सम्यककी अपेक्षासे एक कहा है। सर्व प्रत्यक्षकी अपेक्षासे एक नहीं है। अपेक्षा अलग है। दोनों अपेक्षा समझनी।

इनका द्रव्य और उनका द्रव्य समान है। सम्यग्दृष्टिको जो ज्ञान प्रगट हुआ, वह ज्ञायकको जाननेवाला ज्ञान है और सम्यक है, उस अपेक्षआसे कहा है। ऐसे तो सिद्ध भगवानका अनुभव और सम्यग्दृष्टिका अनुभव एक जातिका है, सिद्धकी जातिका (है)। वह तो एक जातिकी अपेक्षासे (कहा)। ये तो अंश है। केवलज्ञानीको तो सर्वांशसे प्रगट हुआ है। अंश अपेक्षासे (है)। यह ज्ञान भी ज्ञायकताको जानता है और सम्यक है, इसलिये। बाकी सर्व अपेक्षासे नहीं है। केवलज्ञानीका ज्ञान तो प्रत्यक्ष है और यह परोक्ष है। उसका अनुभव-स्वानुभूतिकी अपेक्षासे, सम्यककी अपेक्षासे, ज्ञायककी अपेक्षासे कहा है।

मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप वीतरागी दशा प्रगट होती है, उसे भी क्षणिक शुद्ध उपादान कहनेमें आता है। यहाँ त्रिकाली द्रव्यको शुद्ध उपादान लेना है। क्षणिक शुद्ध उपादान जो लिया वह सम्यग्दर्शनकी पर्याय ली।

समाधानः- उसमें तीनों लिया न। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र तीनों लिये हैं न उसमें तो। क्षणिक यानी वह तो पर्याय अपेक्षासे लिया है।

मुमुक्षुः- क्षणिक शुद्ध उपादानसे कथंचित सहित हूँ।

समाधानः- कथंचित..?


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मुमुक्षुः- सहित हूँ, ऐसा आये। क्षणिक अशुद्ध उपादानसे कथंचित सहित हूँ, ऐसा लेनेसे क्या दोष आता है?

समाधानः- क्या है उसमें? कथंचित शुद्ध हूँ? द्रव्यदृष्टिसे क्या लिया है?

मुमुक्षुः- यहाँ त्रिकाली द्रव्यको शुद्ध उपादान लिया है। अब, जो त्रिकाली शुद्ध उपादान है वह क्षणिक शुद्ध उपादानसे कथंचित सहित है। द्रव्य, पर्याय सहित है, ऐसा आया।

समाधानः- कथंचित अशुद्ध है ऐसा भी कहनेमें आता है। उसमें दोष नहीं है। कथंचित कोई अपेक्षासे अशुद्ध पर्यायवाला जीवको कहनेमें आता है और शुद्ध पर्यायवाला भी कहनेमें आता है। शुद्ध पर्याय जो दर्शन, ज्ञान, चारित्रकी रत्नत्रय पर्याय प्रगट होती है वह पर्याय है, इसलिये उसे कथंचित द्रव्यसे अभिन्न कहनेमें आती है। लेकिन वह पर्याय है इसलिये। पर्याय, द्रव्यका ही स्वरूप है। लेकिन द्रव्य और पर्यायका भिन्न स्वरूप बताते हैं, इसलिये उसे कथिंचत कहा है। कथंचित अशुद्ध भी कहनेमें आता है। उसमें दोष नहीं आता। वह अपेक्षा है।

अनादिकालसे जीव राग-द्वेष करता है, उसे कथंचित कहनेमें आता है-कथिंचत द्रव्य अभिन्न कहनेमें आता है। अभिन्न शब्द है न?

मुमुक्षुः- क्षणिक उपादान।

समाधानः- हाँ, क्षणिक उपादान कहनेमें आता है। कथंचित अशुद्ध उपादान कहनेमें आता है, उसे अशुद्ध उपादान कहनेमें आता है।

मुमुक्षुः- फिर उसमें आगे आता है कि शुद्ध उपादान तो त्रिकाल है, लेकिन उसके लक्ष्यसे जो वर्तमान दशा प्रगट होती है, वह भी कर्ता-भोक्तापनेसे शून्य है। जो त्रिकालको पकडे ऐसी जो आनन्दकी दशा, उस रूप परिणत जीव, वह भी शुभा- शुभरागका, परपदार्थके कर्तृत्व-भोक्तृत्वसे शून्य है। तो पर्यायका कर्ता तो पर्याय है, ऐसा आता है। पर्यायमें क्रिया होती है। यहाँ तो पर्यायका भी अकर्तृत्व-अभोक्तृत्व किसप्रकार कहा है?

समाधानः- पर्यायका अकर्तृत्व-अभोक्तृत्व द्रव्यकी अपेक्षासे अकर्ता-अभोक्ता है। पर्याय पर्यायमें तो कर्ता-भोक्ता है, पर्याय अपेक्षासे। द्रव्य, पर्यायका अकर्ता-अभोक्ता द्रव्यदृष्टि अपेक्षासे कहनेमें आता है। लेकिन द्रव्य और पर्यायको कथंचित अभेदरूप कहो तो उसे कर्ता-भोक्ता कहनेमें आता है। उस अपेक्षासे है। द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षासे अकर्ता- अभोक्ता कहा है। पर्यायदृष्टिसे उसे कर्ता-भोक्ता कहनेमें आता है और द्रव्यदृष्टिसे उसे अकर्ता-अभोक्ता कहनेमें आता है। पर्यायदृष्टिसे उसे कहनेमें आता है। द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षासे बात है।


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मुमुक्षुः- द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षासे पर्यायमें भी अकर्तृत्व कहा है।

समाधानः- पर्यायका जीव अकर्ता द्रव्यदृष्टिसे कहा जाता है। पर्यायका अकर्तृत्व नहीं अर्थात पर्याय है ही नहीं, ऐसा नहीं। पर्यायका जीव अकर्ता और अभोक्ता (है), वह द्रव्यदृष्टिसे पर्यायका अकर्ता (है)। पर्यायका कर्तृत्व है, पर्याय तो है, पर्याय नहीं है ऐसा नहीं। द्रव्यदृष्टिसे नहीं है ऐसा कहनेमें आता है। द्रव्यकी अपेक्षासे। पर्यायकी अपेक्षासे तो कर्तृत्व-भोक्तृत्व है। द्रव्यदृष्टिसे अकर्ता-अभोक्ता। द्रव्य और पर्यायको अभेद करो तो पर्यायका कर्ता-भोक्ता द्रव्य है। पर्याय निराधार लटकती है और द्रव्य निराधार लटकता है, ऐसा नहीं है। पर्याय द्रव्यके आधार बिना निराधार होती है और द्रव्य कहीं दूसरी जगह रह जाता है, ऐसा नहीं है।

आम है, तो आमका रस अलग रह जाता है, रसकी पर्याय और आमका रंग दूर रहता है, और आम भिन्न रहता है, ऐसा नहीं है। आमका रस, रूप सब मिलाकर आम है। लेकिन उसके लक्षण भिन्न-भिन्न करो कि रस ऐसा है-खट्टा-मीठा रस, हरा- पीला आम, इसप्रकार उसके रंगको लक्षणभेदसे भिन्न करो तो उसे भिन्न कह सकते हैैं और आमका पूरा पिण्ड लो, इसप्रकार भिन्न है। आम, रसका कर्ता नहीं है, रसका कर्ता रस है, आम भिन्न है। ऐसा अपेक्षासे कह सकते हैं। उसे अभेद करके कहो तो आम ही रसरूप है, आम ही गंधरूप है, आम ही रंगरूप है, आम ही है।

इसप्रकार द्रव्य-पर्यायको अभेद करके कहो तो द्रव्य ही स्वयं अशुद्ध पर्यायरूप परिणमता है, द्रव्य स्वयं अशुद्ध पर्यायका कर्ता है, द्रव्यदृष्टिसे उसका कर्ता नहीं है। उसे अभेद करके कहो तो उसे ऐसा भी कह सकते हैं और द्रव्यदृष्टिसे कहो तो उसका वह कर्ता (नहीं है)।

द्रव्यदृष्टिसे आमको ऐसा कहो कि रसको रस करे, रंगको रंग करता है। लेकिन वह सब भिन्न-भिन्न जगह लटकते हैं ऐसा नहीं है। वह तो अपेक्षासे कहनेमें आता है। रस भी आममें है, रंग भी आममें है, गन्ध भी आममें है।

इसप्रकार ज्ञानगुणकी पर्याय भी द्रव्यमें है, आनन्दकी पर्याय भी द्रव्यमें है, सब द्रव्यमें है। उससे भिन्न लटकते हो तो द्रव्यका अनुभव कैसे हो? आनन्दका अनुभव किसे हो? ज्ञानको जाननेका अनुभव किसे हो? द्रव्य और पर्याय उस अपेक्षासे एक है। उसे क्षणिक और त्रिकालकी अपेक्षासे भिन्न कहनेमें आता है। पर्याय पलटती रहती है और द्रव्य शाश्वत है, उस अपेक्षासे। बाकी उस द्रव्यकी ही वह पर्याय है और उस द्रव्यका ही वह गुण है। लेकिन द्रव्य अपेक्षासे उसे भिन्न करके कहनेमें आता है। पर्याय और द्रव्यको अभेद करके कहो तो द्रव्य उस रूप परिणमता है। ऐसा कहनेमें आता है।


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मूल द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षासे भिन्न करनेमें आता है। उसका अर्थ ऐसा नहीं है कि वह पर्याय कहीं और है और द्रव्य भिन्न हो गया। तो अनुभव किसे होगा? सिद्धका अनुभव किसे होगा? सब गुण भिन्न-भिन्न हो गये, पर्याय भिन्न हो गयी, फिर द्रव्य कहाँ रह गया? तो द्रव्य शून्य हो गया। अपेक्षा समझनी चाहिये।

मुमुक्षुः- बहुत सुन्दर।

समाधानः- सब भिन्न-भिन्न करो तो फिर द्रव्य कहाँ रहता है? तो अनुभव किसे होगा? आनन्दका अनुभव। राग-द्वेषका अनुभव होता है। उस रागको जड ही कहोगे तो राग और द्वेषकी कलुषितता होती है वह मुझे नहीं होती है। नहीं होती है, द्रव्य अपेक्षासे। लेकिन उससे भिन्न पडना, आनन्द प्रगट करना, वह वेदन किसे होगा? यदि सब भिन्न-भिन्न लटकता हो तो।

मूल वस्तुका स्वभाव समझना है। पानीकी शीतलता समझनी है। लेकिन पानी मलिन हुआ ही नहीं है तो शुद्ध करना रहेगा ही नहीं। पानी मलिन हुआ है, वह पर्याय अपेक्षासे। परन्तु मूल शीतलता हो तो शीतलता आती है। पानी गर्म होता है, लेकिन वास्तविक गर्म नहीं हुआ है, उसकी शीतलता चली नहीं गयी, पुनः शीतल हो जाता है। मूल स्वभावको पहचानना। पर्यायकी मलिनता कोई भी अपेक्षासे नहीं है ऐसा नहीं होता। कोई अपेक्षासे भिन्न है और कोई अपेक्षासे अभिन्न है। दोनों अपेक्षा (समझनी चाहिये)।

जिसका जितना वजन हो, पर्यायकी अपेक्षा पर्याय जितनी, द्रव्यकी अपेक्षा द्रव्य जितनी। द्रव्य मूल स्वभाव है, पर्याय प्रतिक्षण बदलती है। परन्तु द्रव्यकी ही पर्याय होती है, निराधार नहीं लटकती।

मुमुक्षुः- पूज्य गुरुदेवकी कृपासे और आपके आशीर्वादसे तत्त्व थोडा समझमें आता है, बार-बार घोलनमें आता है, ... कहाँ अटकना होता है?

समाधानः- अन्दर स्वयंके पुरुषार्थकी क्षति है। अन्दर जिज्ञासा, अन्दर उतनी गहराईसे आत्माकी ओर झुकना, आत्माका लक्षण पहचाननेके लिये। आत्मा क्या है, उसका स्वभाव क्या है, उसे पहचाननेके लिये उतना प्रयत्न जो अन्दर चाहिये, उतना प्रयत्न चलता नहीं। प्रयत्नकी क्षति है। स्वयंकी उतनी जिज्ञासा, अन्दर रुचि होनेपर भी अभी जो विशेष दृढता अन्दर होनी चाहिये, रुचिकी अधिक दृढता, प्रयत्न सबमें क्षति रहती है, इसीलिये आगे नहीं बढ सकता है।

मुमुक्षुः- विकल्पमें बराबर भासित होता है। घण्टों तक बैठनेके बाद भी कहाँ अटकना होता है?

समाधानः- प्रयत्नकी क्षति है। अनादिकी एकत्वबुद्धि है, उस एकत्वबुद्धिका अनादिसे


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ऐसा अभ्यास हो रहा है कि यह शरीर, ये विकल्प सबके साथ एकत्वबुद्धि (हो रही है)। स्थूलबुद्धिसे शरीरसे भिन्नता करे कि ये शरीर जड है, कुछ जानता नहीं। लेकिन विकल्पके साथ जो एकत्वबुद्धि हो रही है, उसमें ज्ञायक भिन्न है, उस ज्ञायकको ग्रहण करने हेतु सूक्ष्म होकर स्वयं ज्ञायकको भिन्न करे तो भिन्नता होती है।

उतना सूक्ष्म नहीं होता, उतना प्रयत्न करता नहीं, उसे उतनी अन्दरमें लगी नहीं, उतनी लगनी लगे तो होता है। उसके बिना कहीं चैन नहीं पडे, सुहाये नहीं, अन्दरसे उतनी लगनी चाहिये। भले बहुत बार अभ्यास करे, घण्टों तक बैठे, लेकिन अन्दर गहराईसे उसे जोप्रयत्न चलना चाहिये, वह प्रयत्न चलता नहीं। बार-बार वहीं खडा हो जाता है। एकत्वबुद्धि होनेसे मैं भिन्न हूँ, भिन्न हूँ, ऐसी भावना करे, लक्षणको पहचाने कि ये जाननेवाला मैं हूँ, इसप्रकार विकल्पसे नक्की करे, लेकिन उस रूप परिणति हो जानी चाहिये, उस रूप जीवन हो जाना चाहिये, अन्दरकी परिणति ऐसी हो जानी चाहिये कि मैं तो ज्ञायक ही हूँ, प्रतिक्षण मैं ज्ञायक हूँ। बैठकर अभ्यास करे यानी प्रतिक्षण मैं ज्ञायक ही हूँ।

जैसे विकल्पकी जाल लगातार चलती है, वैसे उसे प्रतिक्षण ऐसा सहज हो जाना चाहिये कि मैं तो ज्ञायक ही हूँ, इसप्रकारका प्रयत्न अन्दर चलता नहीं। जीवन उस रूप हो जाना चाहिये अर्थात ऐसा सहज हो जाना चाहिये कि मैं ज्ञायक हूँ। उसकी उतनी महिमा आये, उतना प्रयत्न चले, उस रूप जीवन हो जाये कि मैं तो ज्ञायक ही हूँ। सहजरूपसे। विकल्परूप चले वह अलग है, लेकिन मैं ज्ञायकरूप ही हूँ, यह शरीर मैं नहीं हूँ, मैं तो ज्ञायक हूँ। ज्ञायककी ओर ही दृष्टि रहे और ज्ञायक ही उसे भास्यमान हो, बाकी सब मुझसे भिन्न है। (राग) पर्यायमें है, लेकिन वह मेरे स्वभावसे भिन्न है। इसप्रकार जीवनमें ऐसी परिणति उतनी दृढ हो जानी चाहिये, जैसे एकत्वबुद्धिकी परिणति (चलती है), उससे भी... यह तो स्वयं ही है, उसे सहज हो जाना चाहिये, अन्दर तदगत परिणाम (होने चाहियि कि) ज्ञायक ही हूँ। ऐसा नहीं होता, ऐसा प्रयत्न नहीं चलता है।

जागते-सोते, स्वप्नमें, खाते-पीते, चलते-फिरते हर वक्त मैं ज्ञायक ही हूँ। ऐसी अन्दर परिणति दृढ होनी चाहिये। और ऐसा अभ्यास करते-करते जब उसे सहज हो जाये, तब उसे यथार्थ भेदज्ञान होकर अन्दर विकल्प छूटकर निर्विकल्प दशामें आगे बढे। तबतक जा नहीं सकता। उसके जीवनमें ऐसी एक परिणति दृढ हो जाये। उतना प्रतीतिका बल (आये), उतनी परिणति दृढ होनी चाहिये, तो होता है। ऐसा हुए बिना (नहीं होता)।

कितनोंको हो तो ऐसा अंतर्मुहूर्तमें ऐसा हो जाता है और नहीं हो तो लम्बे समय


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पर्यंत अभ्यास करे तो भी नहीं होता, तो उसके प्रयत्नकी क्षति है। उसका अभ्यास करता रहे, उसमें थकान नहीं लगे, उसके पीछे लगे, लम्बे समयसे करते हैं फिर भी क्यों नहीं होता है? नहीं होता है, उसका कारण स्वयंके प्रयत्नके क्षति है।

ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, उसकी महिमा, उसकी रुचि, ज्ञायकका लक्षण बारंबार पहचानकर लक्षण परसे लक्ष्य (पहचाने)। गुण और गुणी दोनों अभेद है, ज्ञायकका बारंबार अभ्यास करता रहे। ज्ञायकदेव महिमावंत है, ज्ञायकदेवकी महिमा उसे छूटे नहीं। बारंबार जीवनमें ऐसी परिणति दृढ होवे, जीवन उस रूप हो जाये तो प्रतिक्षण उसे ज्ञायक ही लगे, ऐसा अभ्यास दृढ हो तो अन्दरसे प्रगट होता है। प्रयत्नकी क्षति है।

गुरुदेव कहते थे न? "निज नयननी आळसे निरख्या नहि हरि'। स्वयंके प्रमादके कारण आलसके कारण। प्रयत्न करे तो भी उसे प्रमाद रह जाता है, तो भी क्षति रह जाती है। प्रतिक्षण जो विकल्प सहज आ जाते हैं तो उसी क्षण मैं भिन्न हूँ, उसप्रकारकी परिणतिका अभ्यास होना चाहिये, तो होता है। और तो उसे वह दृढता होते-होते विकल्प छूटकर स्वानुभूति होनेका प्रसंग बने। बारंबार उसका अभ्यास, दृढता होनी चाहिये। उसमें थकना नहीं, बारंबार अभ्यास करता रहे तो स्वयं ही ज्ञायक है, वह प्रगट हुए बिना रहे नहीं। उसका अभ्यास करता रहे, जबतक नहीं हो तबतक।

मुमुक्षुः- कई बार आभासमें ऐसा लगता है कि वस्तुमें पकडमे आ जायेगी। पुनः चली जाती है।

समाधानः- उसके समीप जाये, बार-बार करे। उसे ऐसा लगे कि अब पकडमें आ जायेगा, उतना जोर आये, लेकिन वह टिकता नहीं, इसलिये (छूट जाता है ऐसा लगे)। पुरुषार्थकी गतिमें फेरफार होता रहता है। कभी तीव्र पुरुषार्थ चले, कभी मन्द पड जाये, कभी मध्यम हो जाये। पुरुषार्थकी गतिमें फेरफार होनेसे ऐसा लगे कि पकडमें आ जायेगा, फिर मन्द पडे, फिर मध्यम पडे। लेकिन इसीप्रकार उसका प्रयत्न करते रहनेसे वह पकडमें आये बिना रहता नहीं। स्वयं ही, दूसरा नहीं है।

मुमुक्षुः- उसे छोडना नहीं।

समाधानः- हाँ, उसे छोडना ही नहीं। क्यों नहीं होता? ऐसी उलझनमें नहीं आना, धैर्य रखना। धैर्य रखनेसे पकडमेें आये बिना नहीं रहता। उसकी महिमा छूटे नहीं, उसमें शुष्कता आये नहीं। उसकी महिमा और उसमें ही आनन्द, उसमें ही सुख, सब सर्वस्व उसमें है। अनादिकालके जो जन्म-मरण है और ये विभावका जो दुःख है, उस विभावके दुःखसे छूटने हेतु ज्ञायक सर्वस्व है, उस ज्ञायकमें ही सब आनन्द और सुख है। बाहर कहीं नहीं है। ऐसी प्रतीति, ज्ञायकदेवकी महिमा, अभ्यास करनेमें थकना नहीं, शुष्कता आये नहीं, उसकी महिमा छूटे नहीं तो आगे बढे बिना रहे


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नहीं।

बाहरसे भगवानके मन्दिरमें जाये तो भगवानके द्वार पर जैसे टहेल लगाता है, ऐसे ज्ञायकके द्वार पर टहेल मारते ही रहना, थकना नहीं। चाहे जितना समय लगे लेकिन उसे छोडना नहीं।

मुमुक्षुः- कालके सामने नहीं देखना। समाधानः- कालके सामने नहीं देखना। उसका अभ्यास करनेसे उसे प्रगट हुए बिना रहे ही नहीं। स्वयं ही है, उसमें ही सब भरा है। उसकी प्रतीतिका जोर रखकर प्रयत्न करते ही रहना, थकना नहीं।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!
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